मंगलवार, 2 अक्तूबर 2018

जानिए क्या होता है बस्तर का लांदा और सल्फ़ी

जब भी बस्तर जाना होता है तब बस्तरिया खाना, पेय पदार्थ का स्वाद लेने का मन हो ही जाता है, चाहे, लांदा हो, सल्फ़ी हो या छिंदरस। बस्तर की संस्कृति पहचान ही अलग है। गत बस्तर यात्रा के दौरान अंचल के विशेष पेय पदार्थ एवं भोजन विकल्प सल्फी का रस तथा चावल का लांदा का स्वाद लिया गया। सल्फी का वृक्ष बस्तर अंचल में ही पाया जाता है. चावल को खमीर उठा कर उसका लांदा नामक पेय पदार्थ बनाया जाता है. हाट बाजार में ग्रामीण इसे बेचने आते हैं।

भाई चंद्रा मंडावी लांदा बनाने की रेसीपी और तरीका बताते हुए कहते हैं, लांदा बनाने के लिये चावल को पीस कर उसके आटे को भाप में पकाया जाता है, इसे पकाने के लिए चूल्हे के ऊपर मिटटी की हांड़ी रखी जाती है जिस पर पानी भरा होता है और हांड़ी के ऊपर टुकना जिस पर चावल का आटा होता है। इसे अच्छी तरह भाप में पकाया जाता है, फिर उसे ठंडा किया जाता है।

इसके पश्चात एक अन्य हंडी में पानी आवश्यकता अनुसार लेकर उसमे पके आटे को डाल देते है, साथ ही हंडी में अंकुरित किये मक्का (जोंधरा) के दाने, जिसे अंकुरित करने के लिये ग्रामीण रेत का उपयोग करते है। भुट्टे के अंकुरण के पश्चात उसे भी धुप में सूखा कर उसका भी पावडर बनाया जाता है। लेकिन इसे जांता (ग्रामीण चक्की) में पिसा जाना उपयुक्त माना जाता है। फिर इसे भी कुछ मात्रा में चावल वाले हंडी में डाल दिया जाता है। जिसका उपयोग खमीर के तौर पर किया जाना बताते है और गर्मी के दिनों में 2-3 दिन, ठण्ड में थोडा ज्यादा समय के लिए रख देते है। तैयार लांदा को 1-2 दिन में उपयोग करना होता है अन्यथा इसमें खट्टापन बढ़ जाता है। बस्तर में दुःख, त्यौहार या कहीं मेहमानी करने जाने पर भी लोग इसे लेकर चलते है। 

सल्फ़ी के विषय में बताते हुए चंद्रा मंडावी कहते हैं, वहीं सल्फी पेड़ का रस है, जो ताज़ा निकला मीठा होता है और दिन चड़ने के साथ इसमें भी कडवाहट आती जाती है। इसका उपयोग नशे के लिए तो किया जाता है पर सामाजिक क्रियाकलापों में इसकी भी भूमिका अहम् है।| इन दिनों सल्फी पेड़ की जड़ में एक बेक्टीरिया के संक्रमण के कारण सल्फी के पेड़ मर रहे है, जिस पर हमारे बस्तर के वैज्ञानिक शोध कर रहे है और जहाँ तक रोकथाम के उपाय भी खोज लिये गये है।

शुक्रवार, 12 जनवरी 2018

मैकल सुता रेवा एवं अमरकंटक

अमरकंटक मेकलसुता रेवा का उद्गम स्थल है, यह पुण्य स्थली प्राचीन काल से ही ॠषि मुनियों की साधना स्थली रही है। वैदिक काल में महर्षि अगस्त्य के नेतृत्व में ‘यदु कबीला’ इस क्षेत्र में आकर बसा और यहीं से इस क्षेत्र में आर्यों का आगमन शुरू हुआ। 

वैदिक ग्रंथों के अनुसार विश्वामित्र के 50 शापित पुत्र भी यहाँ आकर बसे। उसके बाद, अत्रि, पाराशर, भार्गव आदि का भी इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ। नागवंशी शासक नर्मदा की घाटी में शासन करते थे। मौनेय गंधर्वों से जब संघर्ष हुआ तो अयोध्या के इच्छ्वाकु वंश नरेश मान्धाता ने अपने पुत्र पुरुकुत्स को नागों की सहायता के लिए भेजा जिसने गंधर्वों को पराजित किया। नाग कुमारी नर्मदा का विवाह पुरुकुत्स के साथ कर दिया गया।

इसी वंश के राजा मुचुकुंद ने नर्मदा तट पर अपने पूर्वज मान्धाता के नाम पर मान्धाता नगरी स्थापित की थी। यदु कबीले के हैहयवंशी राजा महिष्मत ने नर्मदा के किनारे महिष्मति नगरी की स्थापना की। उन्होंने इच्छवाकुओं और नागों को पराजित किया। कालांतर में गुर्जर देश के भार्गवों से संघर्ष में हैहयों का पतन हुआ। उनकी शाखाओं में तुण्डीकैर (दमोह), त्रिपुरी, दशार्ण (विदिशा), अनूप (निमाड़) और अवंति आदि जनपदों की स्थापना की गयी। महाकवि कालिदास इसी अमरकंटक शिखर को अपने अमर ग्रंथ मेघदूत में आम्रकूट कहकर सम्बोधित करते हैं।

अमरकंटक का में कलचुरी राजा कर्ण ने मंदिरों का निर्माण कराया था, इन्हें कर्ण मंदिर समूह कहा जाता है। कर्ण मंदिर समूह तीन स्तरों पर है। परिसर में प्रवेश करते ही पंच मठ दिखाई देता है। इसकी शैली बंगाल एवं असम में बनने वाले मठ मंदिरों जैसी है। इससे प्रतीत होता है कि यह स्थान कभी वाममार्गियों का भी साधना केन्द्र रहा है। इस तरह के मठों में अघोर एकांत साधनाएँ होती थी। पंच मठ के दाएँ तरफ़ कर्ण मंदिर एवं शिव मंदिर हैं। शिवमंदिर में श्वेतलिंग है तथा इससे समीप वाले मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है। 

इन मंदिरों के सामने ही जोहिला (नदी) मंदिर एवं पातालेश्वर शिवालय है। इसके समीप पुष्करी भी निर्मित है।, इन मंदिरों से आगे बढने पर उन्नत शिखर युक्त तीन मंदिरों का समूह है जिनका निर्माण ऊंचे अधिष्ठान पर हुआ है। यहाँ भी कोई प्रतिमा नहीं है तथा द्वार पर ताला लगा हुआ है। इन मंदिरों का निर्माण बाक्साईट मिश्रित लेट्राईट से हुआ है। 

पातालेश्वर मंदिर, शिव मंदिर पंचरथ नागर शैली में निर्मित हैं। इनका मंडप पिरामिड आकार का बना हुआ है। पातालेश्वर मंदिर एवं कर्ण मंदिर समूह का निर्माण कल्चुरी नरेश कर्णदेव ने कराया। यह एक प्रतापी शासक हुए,जिन्हें ‘इण्डियन नेपोलियन‘ कहा गया है। उनका साम्राज्य भारत के वृहद क्षेत्र में फैला हुआ था। 

सम्राट के रूप में दूसरी बार उनका राज्याभिषेक होने पर उनका कल्चुरी संवत प्रारंभ हुआ। कहा जाता है कि शताधिक राजा उनके शासनांतर्गत थे। इनका काल 1041 से 1073 ईस्वीं माना गया है। वैसे इस स्थान का इतिहास आठवीं सदी ईस्वीं तक जाता है। मान्यता है कि नर्मदा नदी का स्थान निश्चित करने के लिए सूर्य कुंड का निर्माण आदि शंकराचार्य ने करवाया था।