रविवार, 10 जनवरी 2010

कुछ तड़फ़ कुछ झड़प अपने गाँव की

जब से अपना गाँव छोड़ के बाद दूसरे गाँव के बाशिंदे हुए तब से अपने तन-मन को नोचवा रहे हैं। नए गाँव में भ्रमण करते हुए एक बरस बीत गया। इस गाँव का हाल-चाल भी हमारे गाँव जैसा ही है। गांव सारे एक जैसे ही होते है, 

यहां आकर पता लगा,पहट से ही दूनिया शुरु हो जाती है। आप सूते रहिए और इधर धड़ा-धड़ लेन-देन चालु हो जाता है। परबतिया भौजी भोर में ही सिर पर तगाड़ी धरे घूमती है, चार छ: सुअर हमेशा उनके साथ घूमते हैं, कुछ तो मिल जाएगा, घूमने के लाने, 

गाँव में भी भोर में गोबर-कचरा और गोठान सफ़ाई का काम चालु हो जाता है। गाँव में अपने गोठान का कचरा अपने घूरे में ही फ़ेंका जाता है। अपना माल अपने ठिकाने पर लगाया जाता है। 

लेकिन इस गाँव में बड़े समझदार लोग हैं अपने दिमाग का गोबर-कचरा दूसरे के घर दूवारी में फ़ेंक आते हैं। अब वह बेचारा सुबह-सुबह अपने दूवारी पर पड़े गोबर कचरा को देख कर माथा पीट लेता है और धुलाई-सफ़ाई के साथ गंगा जल छिड़क कर सतनारायण भगवान का कथा कराता है। दान दक्षिणा का खर्चा और बढ जाता है।

“मार कर मेरे पत्थर छिपा कौन है, बोलता भी नहीं है वो मूआ कौन है?’ बस ऐसा ही कंडिशन है। 

एक बार गांव में घूमते-घूमते चौक में पहुंच गए। वहां देखा कि 30-40 लोगों का नाम लिखा हुआ है। जिज्ञासावश हमने पढा तो हमारा भी नाम लिस्ट में था। 

हम भौंचक रह गए कर्जा माफ़ी के बाद कापरेटिव बैंक से रिकवरी कैसे निकल गया फ़िर से। जब ध्यान से पढा तो लिखा था कि “ये नौकरी करने वाले लोग इतना पैसा कहां से पाते हैं जो इस पढे लिखे लोगों के गाँव में आ गए?” 

बहुत बड़ा प्रश्न वाचक चिन्ह था। हमने तो आज तक किसी ससुर की नौकरी नहीं करी। हमारे घर में गोबर-कचरा से लेकर झाड़ू बुहारी तक नौकर ही नौकर हैं। फ़िर भी लिस्ट में हमारा नाम था। 

दूबारा जब वहाँ पहुंचे तो वह चौक ही गायब मिला, जहाँ लिस्ट लगी थी। झाड़ पोंछ के चकाचक हो गया था। हम अपना समय और पैसा खर्चा करके घर दूवार बसाएं हैं। किसी के बाप का खर्चा से नहीं। हमें तो पता नहीं था ऐसे भी चोट्टे लोग भी इस गाँव में हैं। लेकिन साल भर में सबको पहचानने का मौका मिल गया।

गाँव में एक पटवारी साहेब भी हैं, जो अपना तोप यदा-कदा इधर उधर दागते रहते हैं। कभी किसी का खेत एक जरीब ज्यादा नाप देते हैं तो किसी को आबादी का ढाई डिसमिल का पट्टा दे देते हैं। गुमास्ता जो ठहरे। 

लोग लल्लो-चप्पो में लगे रहते हैं। एक बार हम नहर के किनारे-किनारे उषा पान के लिए जा रहे थे। देखा की तीन चार जवान लड़के नहर में नंगे नहा रहे हैं। हमने भी अपनी गाँव की आदत के हिसाब से पूछ ही लिया कि-“ तुम लोग कौन हो? नंगा नहाते शरम नहीं आती? 

एक लड़का बोला-“ तुम मेरे को नहीं पहचानते क्या? 

हमने कहा-“नहीं। 

वो गर्व से बोला-“ मैं पटवारी का लड़का हूँ।“ हमने कहा कि-“ शाब्बास! बहुत सार्थक काम कर रहे हो। अरे तुम नंगे नहीं नहाओगे तो और कौन नहाएगा? कल से पूरा खान-दान नंगा नहाए करो। अपने भाई बहिनी महतारी को भी लेकर आ जाना। कम से कम पटवारी का रौब दाब तो दिखेगा गाँव वालों को।

गाँव में डागदर बाबू हैं। एक तो आर एम पी हैं और अपने नाम के आगे डागदर लगाते हैं। गाँव में चांदसी दुवाखाना खोल रखे है। बवासीर और भगंदर का इलाज करते हैं। नीम हकीम खतरे जान। 

एक बार कोई छठी के निमंत्रण पत्र में इनके नाम के आगे डागदर लिखना भूल गया था। तो उसको बहुत गरियाए और पेनेसिलिन का इंजेक्शन महाराज को ठोंक दिए। 

दूसरे डागदर हैं कीट विज्ञानी। इनको दूर से देख कर पता चल जाता है कि किसके दिमाग में कौन सा कीट रेंग रहा है और उसे मारने के लिए कौन सा कीटनाशक लगेगा? 

एक दिन बताया कि हमारे ही दिमाग में कीट प्रवेश कर गया तब से एक एन्टीवायरस खरीदे और पूरे दिमाग को दो महीने स्केन किया। तब कहीं चलने के लायक हुआ। तब से हम तो डर के मारे पीठ पर कीटनाशक स्प्रेयर लादे फ़िर रहे हैं। जहां भी जाते हैं बैठने से पहले कीट्नाशक का छिड़काव कर लेते हैं। 

एक डागदर साहब हैं वह मरीजों को भजन सुनाते हैं जब से हरिदुवार से होकर आएं हैं श्रीराम श्री राम जपते हैं। जब भी मिलते हैं दो दोहे ठोक ही देते हैं और हम अपने बाल नोचते रहते हैं कि सुबह-सुबह किस मरदूद से पाला पड़ गया।

अब कहते हैं न जैसा आदमी होता है वैसे ही उसके मित्र भी मिल जाते हैं। हम ठहरे सीधे-साधे गंवई आदमी। इस नए गाँव में भी हमको ऐसे ही यार-दोस्त, भाई-भौजाई, बहन बहनोई, माँ-बाप, सास-ससुर आदि रिश्ते नाते मिल गए। एक परिवार हमारा यहाँ भी तैयार हो गया। 

हाँ कुछ साले भी मिले। कभी कभी हमारी बेवजह खाट खड़ी करने को तैयार रहते हैं। साले ठीक से सोने भी नहीं देते। हमारे बेड रुम में ही डेरा डाल देते हैं। का बताएं जब तक रहते हैं तब तक हमें बैठक के तखत पर ही सोना पड़ता है। जो डनलप का गद्दा उनके बाप ने दिया था उसका पूरा उपयोग करते हैं। हम भी कुछ नहीं कह पाते। 

वे जीजा-जीजा कहते हैं पर हम साला भी नहीं कह पाते, पता नहीं कब बुरा मान जाएं। इसलिए सालिगराम जी कहते हैं। उनकी बहन हमारे आंगन की तुलसी है और वे हमारे तुलसी चौरा के सालिग राम।

ये अत्याचार कब तक सहेगें? 

एक बार तो हम गाँव छोड़ कर भाग ही लिए थे। जैसे कृष्ण रण छोड़ हो गए थे, हम भी रण छोड़ दास हो गए,गाँव के दोस्तों और रिश्तेदारों ने बहुत मान मनौवल किया तब वापस आए। 

गाँव के कुछ निठल्ले लोग जो चौक चौराहे पर बैठ कर ताश खेलते रहते हैं उनको हमारा याराना रास नहीं आता। जब देखो तब अपनी बोफ़ार्स तोप से गोला दागते रहते हैं। अब हमने भी बोफ़ार्स तोप बिसाने की सोच लिया है। अभी तोप कारखाने का भ्रमण करके आए हैं। शीघ्र ही ऑडर दे रहे हैं। 

बोफ़ार्स तोप का खासियत यह है कि ये तोप गोला छोड़ने के बाद अपना स्थान छोड़ देती है और मुंह घुमाकर खड़ी हो जाती  है जैसे इसने कुछ भी नहीं किया हो और गोला किसी ने छोड़ा हो। 

भैया गाँव की भाषा में कहें तो किसकी बाड़ी-बखरी में कौन हग आया पता ही नहीं चलता वैसा ही बोफ़ार्स का हाल है। मायावी लोगों से निपटने के लिए मायावी यन्त्रों की आवश्यकता पड़ती ही है।

अभी पराए देश से एक अपने शहरी बाबू आ गए। हमने मित्र मंडली बैठा ली। पहले जब बैठते थे तो मदरस से ही काम चला लेते थे। लेकिन विलायती बाबू के सामने काहे इज्जत खराब करें सोचकर विलायती पर हाथ आजमा लिया। अब मारे खुशी के गाँव में भी बता दिया। 

चौक पर बैठे ताश खेलने वाले निठल्ले जल भुन गए। अब कहना शुरु कर दिया कि ग्राम पंचायत की बैठकी में इन्होने विलायती रस पान किया है। हम कौन सा झूठ बोल रहे हैं? हमने किया है तो किया है। तुम्हारे जैसे मुंह छुपा कर तो नहीं किया? “

दिन में राम भजत है और रात हनत है गाय।“ दोहरा चरितर नहीं है हमारा। अगर तुम्हारे में कूबत हो तो तुम भी करो कौन मनाही है? 

अभी बेलंटाईन डे आ रहा है,पार्टी का जश्न भी होगा। पतुरिया भी नाचेगी, ठुमका भी लगाएगी। हम भी मौज लेगें।बेलंटाईन डे का परम्परागत ढंग से स्वागत जो करना है। समारोह में मित्रों को भी आमंत्रित किया है।

बिलायती नहीं सही, देशी महुआ सही। सबका यथा योग्य स्वागत किया जाएगा। सभी को आगामी बेलंटाईन डे का बधाई। बुड्ढे-बुड्ढी और नवजवान सभी मौज मनाओ।

1 टिप्पणी:

  1. ''उनकी बहन हमारे आंगन की तुलसी है और वे हमारे तुलसी चौरा के सालिग राम।'' ऐसा प्रयोग और संगति आपसे ही संभव होती है.

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