शनिवार, 31 जुलाई 2010

बिना शीर्षक विमोचन समारोह की झलकियाँ

"बिना शीर्षक" विमोचन समारोह की झलकियाँ

राजकुमार सोनी-कुछ कह रहे हैं

हम भी जोश दिला रहे हैं

पटनायक-मौके का फ़ायदा उठाओ

पहरेदार मुस्तैद है

क्लाक वाईज-गिरीश पंकज-वरिष्ठ साहित्यकार, हिमांशु द्विवेदी-प्रबंध सम्पादक हरिभूमि,धरमलाल कौशिकअध्यक्ष विधान सभा, बृजमोहन अग्रवाल-केबिनेट मंत्री 36गढ, देवन्द्र वर्मा-विधानसभा सचिव

विमोचन

"बिना शीर्षक" विमोचित--तालियाँ - तालियाँ

अब सोया जाए-मिलेंगे अगले विमोचन समारोह में

क्या भविष्य दिखाने वाले कैमरे भी आ सकते हैं?

कैमरा मानव के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान बनाता जा रहा है, एक समय था कि किसी बड़े शहर में दो चार कैमरे होते थे, वर्तमान में हर आदमी के हाथ में कैमरा है। मानव का व्यक्ति चित्र से लगाव तब से रहा होगा, जिस दिन उसने सबसे पहले पानी में अपनी शक्ल देखी होगी। उसके मन में लम्हों को संजोने की इच्छा प्रगट हुई होगी।

रंग मिले होगें तो रंगों ने उसके जीवन में रंग भरा होगा। जिस तरह प्रकृति ने रंग बिखेर रखे हैं उन्हे समेटने की चाह जगी होगी और फ़िर एक अनगढ़ से चित्र का जन्म हुआ होगा।

रंग सीमित होगें तो भावनाएं असीमित होगीं जिन्हें वह समेट लेना चाहता होगा। पेशे से चित्रकार बनकर बस रंगों से खेलता ही रहा होगा। मेरे मन में रंगों से खेलने की इच्छा बचपन से ही प्रबल थी। जब रंग मिलते थे उनमें खो जाता था। खाने पीने की सुध भी नहीं रहती थी।

अनगढ़ को गढ़ते रहता था। व्यक्तिचित्र असल जैसे नहीं बनते थे। आँख और नाक बनाने में गड़बड़ हो ही जाती थी। मैं चाहता था कि कोई ऐसा सहयोगी यंत्र हो जो सही-सही चित्रण कर दे।

जब यही सोच किसी के दिमाग में आई होगी तो शायद इसे ही सही ढंग से चित्रित करने के लिए कैमरे का जन्म हुआ होगा।

मैने सबसे पहले जीवन में कैमरा बुआ जी की शादी में देखा था। फ़ो्टोग्राफ़र कैमरे में उपर से झांक कर देखता, तब चित्र लेता था। लोग फ़ोटोग्राफ़र के इर्द-गिर्द ही चक्कर काटते रहते।

श्वेत-श्याम चित्रों का जमाना था। उसके बाद मैने कैमरा अपने स्कूल में देखा, जब फ़ोटोग्राफ़र पांचवी कक्षा की परीक्षा के बाद स्मृति के लिए चित्र खींचने आया। उस समय प्रति विद्यार्थी 2 रुपए लिए गए थे चित्र के। बस अपने चित्रों को हम सबको दिखाते घूमते थे। मेरा वह चित्र पानी से खराब हो गया। लेकिन एक मित्र घर में मैने देखा है उसे, समय मिलने पर लेकर आऊंगा।

भाई साब कैमरा लेकर आए थे क्लिक नाम था उसका। उसमें फ़्लैश लाईट नहीं थी, इसलिए धूप में चित्र खींचे जाते थे।

उस समय से ही कैमरा मेरे हाथ में रहा है। लेकिन बहुत मंहगा शौक था। क्लिक में 12 चित्र खींचे जाते थे। इंदु का रोल 18 रुपए का और बोरो का रोल 20 रुपए का आता था, मैं बोरो का ही रोल लेता था।

गारंटी नहीं थी कि सारे 12 चित्र ही आ जाएं, कभी बटन दब जाता तो 8-10 चित्र ही मान कर चलता था। मेरे द्वारा खींचे गए उस समय कि सभी चित्र घर बदलते समय पुराने घर में ही रह गए और नए बाशिंदों ने उन्हें ठिकाने लगा दिया।

बड़ी तकलीफ़ होती है, आज भी सोचकर कि मेरे चित्र किसी के ईर्ष्या की भेंट चढ गए। अगर मुझे लौटा दिए जाते तो क्या बिगड़ता उनका? शायद यही देश के बंटवारे के समय भी हुआ होगा।

इसके बाद क्लिक 4 आया। इस कैमरे के साथ फ़्लेश लगाने की सुविधा थी। पेंसिल सेल लगाने से फ़्लैश काम करता था। इसका एक फ़ायदा यह भी था कि लोगों पर सिर्फ़ फ़्लेश चमका कर बेवकूफ़ बनाया जा सकता था।

इस सुविधा का हम बहुत मजा लेते थे। कोई अगर चित्र खिंचाने के लिए पीछे पड़ जाता था तो हम सिर्फ़ फ़्लैश चमका देते थे। वह भी खुश और हम भी खुश कि एक स्नेप बच गया।

कुछ दिनों बाद इस कैमरे के लिए कलर  फ़िल्म भी आने लगी। बस इसके साथ कैमरे की दुनिया में क्रांति की शुरुवात हो गयी। रंगीन चित्र आने लगे इसे 120 (वन-ट्वेन्टी) का रोल कहते थे। यह भी 12 चित्र ही खींचता था। कलर रोल बहुत मंहगा था। दो तीन रोल ही लाया था।

उस समय कलर रोल की धुलाई रायपुर में नहीं नागपुर में होती थी। वहीं कलर लैब था। 10 दिनों में चित्र बनकर आते, रायपुर में स्टुडियो वाले रोल सकेल कर नागपुर बस से भेजते थे।

इसके बाद 35 एम.एम. का कैमरा आ गया। यह बहुत अच्छा था उपयोग करने में। रंगीन चित्र और श्वेत-श्याम दोनो ही खींचता था। जितना पैसा आपके पास है उतने का रोल डलवा लो। 36-40 चित्र खींचने की गारंटी थी।

रोल लगाने की कुशलता पर निर्भर करता था कि आप रोल लगाने के लिए रोल कितना बाहर खींचते हैं। अगर रोल को ज्यादा बाहर निकाल लिया तो चित्रों की संख्या कम हो जाती थी।

इसके बाद आया एक स्लिम कैमरा,जो कि बहुत छोटा था। इसे 110 (वन-टेन) नाम दिया गया था। इसमें फ़्लेश लगा हुआ था। 24 फ़ोटो खींचता था। इस कैमरे का मैने बहुत उपयोग किया। दिखने में भी अच्छा था। लेकिन इसके लैंस में दम नही था। चित्रों में उतनी गहराई नहीं आती थी जितनी 35 एम एम के कैमरे में आती थी।

हमें तो उस समय लैंस के नम्बर का भी पता नहीं था। कैमरा भाई कैमरा, बस फ़ोटो खीचो और मजे लो। कुल मिलाकर दूर के चित्र तो कपड़ों से पहचाने जाते, कि यह फ़लाना है और यह ढेकाना है।

फ़िर हमने खरीदा याशिका का कैमरा, इसमें सेल्फ़ टाईमर था, सामने रखो और टाईम सेट करके खड़े हो जाओ। अपने आप ही चित्र खींच देता था, एक खूबी और थी इसमें कि चित्र खींचने के बाद रोल स्वत: सरक जाता था, इसे घूमाने की जरुरत नहीं पड़ती थी।

बड़ा अद्भुत था यह। नहीं तो फ़ोटोग्राफ़र चित्र में कहां आ पाता है। इस कैमरे ने फ़ोटोग्राफ़र को स्वयं का चित्र लेने की सुविधा दी, जिसे आजकल "सेल्फ़ी" कहा जाता है। यह कैमरा अभी तक मेरे पास है, एक दिन उदय ने इसे गिरा दिया। जिससे उसकी मोटर में कुछ खराबी आ गयी। मैने इसे रखा है यादगार के तौर पर, दो कैमरे कबाड़ की भेंट चढ गए।

श्रीमती जी ने मेरे पीछे से घूरे में ठिकाने लगा दिया कि फ़ालतु कबाड़ सकेल रखा है। आगरा में एक फ़ोटोग्राफ़र ने मुझे बताया कि रोल वाले कैमरे के चित्र 15 मेगा पिक्सल के होते हैं। उसका यह फ़ंडा मेरी समझ में नही आया।

इसके बाद आ चुका है नए जमाने का कैमरा। इसमें कोई झंझट नहीं, रोल की जरुरत नहीं, जितना चाहो उतना फ़ोटो लेते जाओ। इसने तो फ़ोटो स्टुडियो और कलरलैब वालों की दुकानदारी ही चौपट कर दी। अब हर आदमी के हाथ में कैमरा है।

स्टुडियों वालो का सबसे ज्यादा नुकसान तो मोबाईल कैमरे ने कि्या है। स्टिल, आडियो, वीडियो सब ले लेता है। एक छोटी सी चिप में हजारों चित्र रख लिजिए। जब चाहे तब इस्तेमाल किजिए।

पुराने कैमरों का जमाना चला गया। रंगीन चित्र होते हैं लेकिन जो मजा ब्लेक एन्ड व्हाईट चित्रों का है वह रंगीन में कहां? इन कैमरों के माध्यम से हम अपनी स्मृतियों को संजोकर रखते हैं। चित्र देखकर उन बीते हुए पलों को याद करते हैं।

कैमरा सिर्फ़ वर्तमान ही दिखाता है उसका चित्रण करता है, हो सकता कि अब आगे ऐसा कैमरा आ जाए जो भविष्य भी बता दे?

 फ़ोटो:- गुगल से साभार

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब-लेकिन बोल रहा हूँ

राजकुमार सोनी संचालन करते हुए
विगत दिनों साधना न्युज चैनल के सौजन्य से कारगिल विजय दिवस के अवसर पर कवि सम्मेलन रखा गया था। जिसमें देश के नामी-गिरामी कवियों ने कविता पाठ किया। शहीद स्मारक रायपुर में आयोजित इस कवि सम्मेलन का लाभ उठाने के लिए मुझे एक बार फ़िर आना पड़ा। लगातार बरसात की झड़ी लगी हुई थी। बरसात रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। जब राजकुमार सोनी ने फ़ोन किया तो पता चला कि रायपुर में बारिश नहीं हो रही है। लेकिन मेरे यहां पर बारिश हो रही थी। जाने का मन नहीं था लेकिन मित्रों के आग्रह पर मैं पहुंच ही गया। जैसे ही पचपेड़ी नाका पार किया,यहां भी बरसात प्रारंभ हो गयी।

कुलदीप जुनेजा और अशोक बजाज
राजकुमार सोनी भीगते हुए मुझे कालीबाड़ी लेने पहुंचे,उस समय 8बज रहे थे। कवि सम्मेलन साढे 9बजे प्रारंभ होना था। सम्मेलन स्थल पर भाई रमेश शर्मा जी भी मिल गए। बात चीत होते रही। तभी अशोक बजाज भाई साहब एवं रायपुर के विधायक कुलदीप जुनेजा जी भी उपस्थित हो गये। अशोक भाई ने आवाज देकर मुझे बुला लिया और कहा कि आप भी कवि सम्मेलन सुनने का शौक रखते है:)मैने कहा कि बस ऐसे ही पहुंच गए। कुलदीप जुनेजा जी से भी चर्चा हूई,कभी इनके विषय में विस्तार से लिखुंगा। इनकी कहानी भी बहुत रोचक है। अलग ही तरह के विधायक हैं। हमेशा जनता के बीच में ही रहते हैं। सदा जनसाधारण को उपलब्ध रहते हैं। 

मंचासीन कविगण
रायपुर नगर की मेयर श्रीमति किरण नायक भी पहुंच चुकी थी। सांसद नंदकुमार साय,हरिभूमि के प्रबंध। संपादक हिमांशु द्विवेदी, आईबीएन 7 के आशुतोष, एवं एन के सिंग भी उपस्थित हो चुके थे।हमारे 36गढ के कवि पद्मश्री सुरेन्द्र दुबे जी पहले ही पधार चुके थे। मंची्य औपचारिकताओं के बाद कवि सम्मेलन प्रारंभ हुआ। बरसात होने के कारण सभागार में श्रोताओं की उपस्थिति कम ही थी। फ़िर भी कवि सम्मेलन तो करना ही था। पद्मश्री सुरेन्द्र दुबे जी ने एक कविता बस्तर के विषय में पढी। इस कविता में कवि ने बस्तर के दर्द को उड़ेलकर रख दिया। यह कविता आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हुँ।















पद्मश्री सुरेन्द्र दुबे जी कविता 


मैं खामोश बस्तर हूँ

आप क्या जाने सी आर पी एफ़ के जवानों की 
माताएं और पत्नियां कैसे दिन बिताती हैं।
जब तक बस्तर से कुशलता का संदेश पहुंच जाता है,
राजकुमार सोनी-रमेश शर्मा
तब दो रोटी मुस्किल से खाती है।
मै बस्तर पर बात करना चाहता हूँ साहब।
केन्द्र सरकार कहती है कि हम नक्सलवाद 
के खिलाफ़ ऐसी बहादुरी दिखा रहे हैं।
जिन रास्तों में नक्सली ट्रेन उड़ाते हैं 
उन रास्तों में हम ट्रेन ही नहीं चला रहे है।
भाई साहब तब बस्तर पर बात करना चाहता हूँ।
मैं एक बात पूछना चाहता हूँ,
जब बस्तर के जलने की बात दिल्ली तक जाती है
तो वहां पहुंचते पहुंचते ठन्डी क्यों हो जाती है,
तब मैं बस्तर पर बात करना चाहता हूँ।

मैं खामोश बस्तर हूँ,लेकिन आज बोल रहा हूँ।
अपना एक-एक जख्म खोल रहा हूँ।
मैं उड़ीसा,आंध्र,महाराष्ट्र की सीमा से टकराता हूँ।
चर्चारत-कार्यक्रम में देर है
लेकिन कभी नहीं घबराता हूँ
दरिन्दे सीमा पार करके मेरी छाती में आते हैं।
लेकिन महुआ नहीं लहू पीकर जाते हैं।
मैं अपनी खूबसूरत वादियों को टटोल रहा हूँ
मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब
लेकिन आज बोल रहा  हूँ।

गुंडाधूर को आजादी के लिए मैने ही जन्म दिया था।
इंद्रावती का पानी तो भगवान राम ने पीया था।
भोले आदिवासी तो भाला और धनुष बाण चलाना जानते थे।
विदेशी हथियार तो उनकी समझ में भी नहीं आते थे।
ये विकास की कैसी रेखा खींची गयी,
मेरी छाती पे लैंड माईन्स बीछ गयी।
मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब बोल रहा हूँ

मेरी संताने एक कपड़े से तन ढकती थी।
विधायक कुलदीप जुनेजा-ललित शर्मा
हंसती थी,गाती थी,मुस्कुराती थी।
बस्तर दशहरा में रावण नहीं मरता है।
मुझे तो पता ही नहीं था
रावण मेरे चप्पे चप्पे में पलता है।
भाई साहब अब तो मेरी संताने भी
मुखौटे लगाने लगी हैं।
लेकिन ये नहीं जानती हैं कि
बहेलियों ने जाल फ़ेंका है।
मैने कल मां दंतेश्वरी को भी
रोते हुए देखा है।
मैं लाशों के टुकड़ों को जोड़ रहा हूँ
मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब
लेकिन आज बोल रहा हूँ।

नक्सलवाद मेरी आत्मा का एक छाला था
फ़िर धीरे-धीर नासूर हुआ।
और इतना बढा-इतना बढा कि
अशोक बजाज-ललित शर्मा
बढकर इतना क्रूर हुआ
चित्रकूट कराह रहा है,कुटुमसर चुप है
बारसूर में अंधेरा घुप्प है,क्योंकि हर पेड़ के पीछे एक बंदुक है।
और बंदुक नहीं है तो उन्होने कोई रक्खी है।
अरे उन्होने तो अंगुलियों को भी
पिस्तौल की शक्ल में मोड़ रखी है।
सन 1703 में मैथिल पंडित भगवान मिश्र ने
जिस दंतेश्वरी का यशगान लिखा।
उसका शब्द शब्द मौन है।
अरे कांगेरघाटी,दंतेवाड़ा,बीजापूर,ओरछा,सुकुमा में
छुपे हुए लोग कौन हैं?
मेरी संताने क्यों उनके झांसे में आती हैं।
ये इतनी बात इनकी समझ में क्युं नहीं आती है।
सड़क और बिजली काट देने से तरक्की कभी गांव में नहीं आती है।
मैं अपने पुत्रों की आंखे खोल रहा हूँ
मैं खामोश बस्तर हूं भाई साहब लेकिन आज बोल रहा हूँ।

6अप्रेल को 76जवान दंतेवाड़ा में शहीद होते हैं,
8मई को 8लोग शहादत से नाता जोड़ते हैं।
23जून को 29जवान शहीद होते हैं,
27जून को 21जवान शहीद होते हैं।
मैं शहीदों की माताओं के आगे हाथ जोड़ रहा हूँ
मैं खामोश बस्तर हूँ भाई साहब लेकिन बोल रहा हूँ।




गुरुवार, 29 जुलाई 2010

राजकुमार सोनी की पुस्तक बिना शीर्षक का विमोचन

रुक जाना नहीं, तू कहीं हार के, कांटो पर चलके, मिलेंगे साए बहार के, ओSSS राही, ओSSSSराही,ओSSS राही, ओSSSSराही........... दूर कहीं से कोई गा रहा था।

यह गीत मु्झे प्रेरणा देता है, थकने नहीं देता,रुकने नहीं देता, निरंतर चलने की प्रेरणा देता है। रुक जाना जिन्दगी नहीं है,थक कर बैठ जाना जिन्दगी नहीं है।

निरंतर संघर्ष करना ही जिन्दगी है, बाधा दौड़ की तरह जीवन में न जाने कितनी बाधाएं खड़ी होती हैं उनसे पार होकर ही मंजिल तक पहुंचा जाता है तभी जिन्दगी का मजा है,

जब अपने आस-पास देखता हूं तो एक शख्स को ऐसा ही पाता हूँ, जिसने जीवन में लगातार संघर्ष किया है जिसके पूर्वजों ने माटी में से सोना निकालने की तकनीक विकसित की। उसे तपाकर कुंदन बनाया और फ़िर वह कुंदन किसी के माथे की शोभा बना।

ऐसी ही एक शख्सियत है जिसने जीवन में कभी कठिनाइयों से हारना नहीं सीखा। दुर्बलताओं के आगे कभी झुकना नहीं सीखा। अहर्निंश समाज की सेवा की, और विपत्तियों का डट कर मुकाबला कि्या और रुका नहीं सिर्फ़ चलते रहा चलते रहा और अभी तक चल रहा है, जिसे मैं मंजिल कह गया,

वास्तव में उसके लिए यह एक पड़ाव है, उसकी मंजिल तो कोसों दूर है, उसे अभी बहुत चलना है और चलना है, जमाने को बताना है कि मंजिल किसे कहते हैं और वहां तक कैसे पहुंचा जाता है। वह शख्स है राजकुमार सोनी, जिनका बिगुल अपना मोर्चा बांध चुका है ब्लाग जगत में भी।

राजकुमार सोनी की पहली कृति "बिना शीर्षक" का विमोचन है। इसमें समूचा ब्लाग जगत आमंत्रित है। हमारे लिए यह खुशी का मौका है, आनंद का अवसर है और इस आनंदोत्सव में हम सम्पूर्ण ब्लाग जगत को भी शामिल करना चाहते हैं। आप सादर आमंत्रित हैं। कहते हैं न बिना अपने इष्ट मित्रों के खुशी कहां है, जब वे खुशी में खुश होकर शामिल होगें तभी खुशी है। तो मित्रों देर न हो जाए, इस खुशी के मौके पर आप अवश्य शामिल हों।

"बिना शीर्षक" का विमोचन 30 जुलाई 2010 दिन शु्क्रवार को सांय 4 बजे छत्तीसगढ  विधानसभा के सांस्कृतिक सभागार में माननीय मुख्यमंत्री रमनसिंह जी के मुख्य आतिथ्य, विधानसभा अध्यक्ष माननीय धरमलाल कौशिक की अध्यक्षता, विशिष्ट अतिथि द्वय लोकनिर्माण मंत्री बृजमोहन अग्रवाल एवं विधानसभा सचिव देवेन्द्र वर्मा एवं विषय प्रवर्तक सुप्रसिद्ध साहित्यकार गिरीश पंकज जी के द्वारा होगा। प्रमुख वक्ता के रुप में हरिभूमि के प्रबंध सम्पादक हिमांशु द्विवेदी उपस्थित रहेगें। आभार प्रदर्शन वैभव प्रकाशन के प्रमुख डॉ सुधीर शर्मा करेगें। यह गरिमामय कार्यक्रम सांय 4 बजे से 6 बजे तक चलेगा।

इस कार्यक्रम में आप उपस्थित होकर अपना स्नेहाशीष प्रदान करें। आपके आगमन से हमारा उत्साह बढेगा। चलते-चलते मेरे ये गीत याद रखना, कभी अलविदा न कहना कभी अलविदा न कहना, चलते चलतेSSS

बुधवार, 28 जुलाई 2010

अज्ञेय और शमशेर पर राष्ट्रीय संगोष्ठी

अज्ञेय और शमशेर पर राष्ट्रीय संगोष्ठी
(द्वितीय प्रमोद वर्मा स्मृति समारोह-2010 )
मधुरेश, ज्योतिष जोशी और डॉ.शोभाकांत झा का सम्मान

भिलाई । छत्तीसगढ़ की प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा  प्रेमचंद जयंती के अवसर पर देश के दो मूर्धन्य रचनाकार अज्ञेय और शमशेर की जन्मशताब्दी वर्ष को राष्ट्रीय स्तर पर  मनाया जा रहा है । 

यह आयोजन 30-31 जुलाई, 2010 को होटल गोल्डन ट्यूलिप, व्ही.आई.पी.रोड किया जा रहा है जिसमें देश और राज्य के 200 से अधिक साहित्यकार भाग ले रहे हैं । समारोह की शुरूआत 30 जुलाई की शाम 7 बजे राष्ट्रीय कविता पाठ से होगी जिसमें देश के प्रतिष्ठित कवि- सर्वश्री नंदकिशोर आचार्य(जयपुर), दिविक रमेश(दिल्ली), अष्टभुजा शक्ल(बस्ती), बुद्धिनाथ मिश्र(देहरादून), श्रीप्रकाश मिश्र(इलाहाबाद), नरेंद्र पुंडरीक(बांदा), रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति(भोपाल), प्रेमशंकर रघुवंशी(हरदा)अनिल विभाकर(रायपुर), रति सक्सेना(त्रिवेन्द्रम), सुधीर सक्सेना(दिल्ली), राकेश श्रीमाल(वर्धा), श्री अरुण शीतांश(आरा), संतोष श्रेयांश(आरा), शशांक(बक्सर), कुमुद अधिकारी(नेपाल), कुमार नयन(बक्सर), जयशंकर बाबु (आंध्रप्रदेश)आदि अपनी श्रेष्ठ कविताओं का पाठ करेंगे । 

अध्यक्षता करेंगे जाने माने आलोचक डॉ. धनंजय वर्मा । मुख्य अतिथि होंगे - डॉ. गंगा प्रसाद विमल और विशिष्ट अतिथि के तौर पर मौजूद रहेंगे श्री मधुरेश, प्रभुनाथ आजमी आदि ।

संस्थान के उपाध्यक्ष अशोक सिंघई ने बताया है कि 31 जुलाई, 2010 9 बजे प्रातः द्वितीय प्रमोद वर्मा आलोचना सम्मान-2010 से प्रमुख कथाआलोचक श्री मधुरेश और युवा आलोचक ज्योतिष जोशी को सम्मानित किया किया जायेगा । 

इस अवसर पर राज्य स्तरीय प्रमोद वर्मा रचना सम्मान से हिन्दी के पूर्णकालिक ललित निबंध लेखन के लिए डॉ. शोभाकांत झा को भी अंलकृत किया जायेगा । इस अवसर पर राज्य से प्रकाशित होने वाली संपूर्ण त्रैमासिक पत्रिका पांडुलपि के प्रवेशांक (प्रधान संपादक- अशोक सिंघई), कठिन प्रस्तर में अगिन सुराख (विश्वरंजन), ठंडी धुली सुनहरी धूप (विश्वरंजन), शिलाओं पर तराशे मज़मून (डॉ. धनंजय वर्मा पर एकाग्र) छत्तीसगढ़ की कविता(डॉ. बलदेव), मीडिया : नये दौर,नयी चुनौतियाँ (संजय द्विवेदी, भोपाल) चाँदनी थी द्वार पर ( सुरेश पंड़ा), पक्षी-वास (मूल उडिया उपन्याससरोजिनी साहू, अनुवाददिनेश माली, उड़ीसा), झरोखा (पंकज त्रिवेदी, अहमदाबाद),विष्णु की पाती राम के नाम (विष्णु प्रभाकर के पत्र- जयप्रकाश मानस), कहानी जो मैं नहीं लिख पायी ( श्री कुमुद अधिकारी, नेपाल), 11 किताबें (डॉ. के. के. झा, बस्तर), पत्रिका देशज (अरुण शीतांश, बिहार), ये है इंडिया मेरी जान (युक्ता राजश्री) आदि का विमोचन भी किया जायेगा ।

31 जुलाई को 11 बजे अज्ञेय की शास्त्रीयता  विषय पर राष्ट्रीय विमर्श होगा जिसमें डॉ. कमल कुमार-दिल्ली डॉ. आनंदप्रकाश त्रिपाठी-सागर, श्री बजरंग बिहारी-दिल्ली, डॉ.देवेन्द्र दीपक-भोपाल, डॉ. रति सक्सेना-त्रिवेंन्द्रम, डॉ. सुशील त्रिवेदी-रायपुर, श्री बुद्धिनाथ मिश्र-देहरादून, श्री महेन्द्र गगन-भोपाल श्री प्रकाश त्रिपाठी-इलाहाबाद, श्री माताचरण मिश्र-भोपाल,श्री संतोष श्रेयांस-आरा अपना वक्तव्य देंगे । 

अध्यक्ष मंडल में होगें - श्री नंदकिशोर आचार्य-जयपुर, श्री गंगाप्रसाद विमल-दिल्ली,डॉ. दिविक रमेश-दिल्ली, डॉ. धनंजय वर्मा-भोपाल आदि । इसी तरह उसी दिन 3 बजे शमशेर का कविता संसार  पर विमर्श में वक्ता के रूप में डॉ. रोहिताश्व-गोवा, श्री राकेश श्रीमाल-वर्धा, श्री प्रभुनाथ आजमी-भोपाल, श्री ज्योतिष जोशी-दिल्ली, श्री नरेन्द्र पुंडरीक-बांदा, डॉ. शिवनारायण-पटना, संतोष श्रीवास्तव-मुंबई श्री दिवाकर भट्ट-हलद्वानी,श्री मुकेश वर्मा-उज्जैन, , श्री कुमार नयन-बक्सर, श्री राजेन्द्र उपाध्याय-दिल्ली, श्री रविन्द्र स्वप्निल प्रजापति-भोपाल, डॉ. कमलेश-इलाहाबाद, डॉ. सुधीर सक्सेना-दिल्ली, 

अध्यक्ष मंडल में होंगे -  डॉ. धंनजय वर्मा-भोपाल, श्री मधुरेश-कानपुर, श्री खगेन्द्र ठाकुर-पटना, श्री त्रिभुवन नाथ शुक्ल-भोपाल आदि ।  इस अवसर पर  टैगोर, शमशेर, अज्ञेय, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ एवं प्रमोद वर्मा की कविताओं की प्रदर्शनी भी आयोजित की जा रही है।


इसके साथ ही 30 जुलाई को रात्रि नौ बजे से ब्लागर संगोष्ठी का भी आयोजन किया गया है। जिसका विषय"ब्लागर और विचार" रखा गया है। सौजन्य से-प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान

हमारा लोकतंत्र एवं मल्लिका शेरावत का डांस

दो दिनों पूर्व लोकतंत्र पर गरमा-गरमा बहस चल रही थी,मैं बैठकर वक्ता महानुभावों को सुन रहा था। सभी ने अपने मन की भड़ास निकाली। लेकिन वक्ता वही थे जो मंहगे से मंहगे होटल में ठहरते हैं और मंहगी से मंहगी गाड़ी में चलते हैं,लेकिन बात गरीबों एवं गरीबी की करते हैं।

प्रत्येक गरीब चाहता है वह अमीर बने, अगर अमीर नहीं बन पाया तो कम से कम दो वक्त के खाने की चिंता तो न रहे। उसका तो इंतजाम हो जाए। आज देश में जिस लोकतंत्र की स्थापना के लिए हमारे पूर्वजों ने अपना बलिदान दिया था, वह लोकतंत्र कहीं दिखाई नहीं देता।

वर्तमान में अमीर और भी अमीर होता जा रहा है और गरीब और गरीब होता जा रहा है। अमीर-गरीब के बीच एक गहरी खाई बनती जा रही है।  

एक बरसात में मेरे जानकार की झोंपड़ी टूट गयी। वह मेरे पास आया और उसने अपनी परेशानी बताई तो मैने उसे तत्कालीन महामहिम राज्यपाल के समक्ष अपनी फ़रियाद करने कहा। उसने महामहिम राज्यपाल के समक्ष अपनी समस्या बताई, महामहिम ने उसकी समस्या सुनकर अपने सचिव से उसे ज्यादा से ज्यादा आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने के लिए कहा।

वह खुशी-खुशी मेरे पास आया और उसने सारी बातें बताई। कुछ दिनों बाद उसके पास तहसीलदार वस्तु स्थिति की जांच करने पहुंचा, जांच करके तहसीलदार ने उसे मात्र 800 रुपए की आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई। जबकि उसका नुकसान लगभग 20,000 रुपए का हुआ था और वह पुन: मकान बनाने में सक्षम नहीं था।

मैने तहसीलदार से पूछा तो उसने कहा कि पूरा मकान ध्वस्त होने पर अधिक से अधिक 3500 रुपए तक की ही सहायता उपलब्ध कराई जा सकती है।

इसका एक दूसरा पक्ष हम देखते हैं कि हमारे अधिकारी जब मीटिंग में प्रदेश से बाहर जाते हैं तो फ़्लाईट से जाकर मंहगे से मंहगे फ़ाइव स्टार होटलों में ठहरते हैं, जहां एक दिन के कमरे का किराया 20,000 से 50,000 हजार तक होता है, एक काफ़ी 300 रुपए की और भोजन लगभग 5000 में होता है।

वहीं एक गरीब अपना जीवन बसर रोजाना 50 रुपए में कर रहा है। कितनी घोर विषमता है। तेंदुलकर समिति की रिपोर्ट में बताया गया है कि एक अनुमान के आधार पर भारत में 25-30 करोड़ लोग भूखे सोते हैं, भारत में 25 हजार ऐसे अमीर हैं जिनके पास 2करोड़ से उपर की गाड़ियाँ हैं।

भारत में  20% लोगों के पास देश के 90% संसाधनों पर कब्जा है। 80% लोगों के पास मात्र 4% संसाधनों पर कब्जा है। कितनी भयावह स्थिति है आर्थिक असमानता की। 

एक आंकड़े के हिसाब से 2004 की लोक सभा में 154 करोड़पति सांसद थे, वर्तमान लोक सभा में 306 करोड़पति सांसद हैं और इन सभी सांसदों की कुल संपत्ति 28 सौ करोड़ रुपए की है, इनमें से 250 आम आदमियों की पार्टी कहे जाने वाले दलों से हैं।

जो हमेशा चुनाव में दलित-गरीब और दबे कुचले लोगों के उत्थान की बात कह कर वोट मांगते हैं तथा इसी भारत में लगभग 70 करोड़ से उपर लोग प्रतिदिन 12 से 20 रु की राशि में अपना घर चला रहे हैं।

कितनी ज्यादा विषमता है। अब आप देख सकते हैं कि गरीबों का प्रतिनिधित्व कितने अमीर सांसद लोग कर रहे हैं। क्या इस तरह से अमीर जन प्रतिनिधि गरीबों के प्रति समर्पित रह सकते हैं। हर बार गरीब छला जाता है। 

देश की 90 प्रतिशत गरीब आबादी का प्रतिनिधित्व करोड़पति और अरबपति लोग कर रहे हैं,  किसी को गरीब है, अच्छा काम करेगा, सोच कर जनता चुन कर भेजती है ,वह भी कुछ दिनों के बाद 10-12 लाख की गाड़ी में घुमने लगता है।

ये तो सांसद जैसे बड़े पद की बात हो रही है ,अगर कोई छोटे से पद में पहुंचता है तो उसके पास 5-7लाख की गाड़ी तो एक-दो महीने के भीतर आ जाती है। ऐसी कौन सी जादु की छड़ी है जिसे घुमाते ही अमीर हो जाते हैं?

इसका सीधा-सीधा मतलब यही है कि भ्रष्टाचार अपनी सीमाएं लांघ चुका है और आम आदमी टीवी पर बैठ कर मल्लिका शेरावत का डांस देख रहा है, उसे कोई मतलब नहीं कहां क्या हो रहा है।

बस एक ही सवाल उठता है कि हमारे देश का लोकतंत्र कहां जा रहा है?

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

युद्ध दो मिनट का, विजय दिवस पर विशेष

दोपहर को भोजन कर रहा था तभी जोर की गड़गड़ाहट की आवाज आई, जैसे आसमान में कई विमान एक साथ उड़ रहे हैं। मैं अधूरा भोजन छोड़कर घर से बाहर की ओर भागा।

सामने एक फ़ाईटर प्लेन गोता खाकर जमीन से उड़ने के लिए फ़ुल थ्रस्ट लेकर उपर की ओर उठ रहा था। मैं खड़े होकर देखने लगा कि यह प्लेन कितने सेकंड में धरती के गुरुत्वाकर्षण से बाहर निकलता है। बूम्मssssss करता हूआ प्लेन बादलों से ओझल हो जाता है।  

तभी घरघराहट की आवाज आती है, पीछे मूड़ कर आसमान की तरफ़ देखता हूँ तो बहुत सारे एम. आई. हेलिकाप्टरों का बेड़ा दक्षिण की ओर जा रहा है। नीचे उड़ान भरने के कारण उसमें बैठे हुए हथियारबंद सैनिक दिखाई दे रहे हैं।

नीचे खड़ा मैं उनकी ओर देख रहा था, बुम्म्म्मम्मssssss, बुँउऊऊऊऊँssss की आवाज करता हूआ मिग फ़ाईटर फ़िर लौटता है। एक कलाबाजी खाते हुए सहसा सड़क से लगभग 15 फ़ुट की उंचाई पर समानांतर उड़ता है उसमें बैठा हुआ स्क्वाईड्रन लीडर मुझे स्पष्ट दिखाई देता है, मैं पायलट और उसे विश करता हूँ।

तभी मेरी निगाह सामने सड़क पर पड़ती है तो फ़ौज की पूरी कानबाई दिखाई देती है दक्षिण की ओर जाती हुई। उसमें बैठे हथियार बंद सैनिक सब तरफ़ जागरुकता से पैनी निगाहों से देख रहे थे, जैसे वे आस-पास की सभी चीजों का एक्सरे कर रहे हों।

आगे-आगे जिप्सी में एल. एम. जी. लगाए ब्लेक केट और उनके साथ में खड़े सूबेदार मेजर एवं अन्य एन सी ओ, जेसीओ को पहचानने की कोशिश करता हूँ। लेकिन सारे फ़ौजी एक से ही दिखाई देते हैं।

अब आसमान में लगातार बुम्म्म्मम्मssss, बुँउऊऊऊऊँssssssss की समवेत आवाजें आ रही हैं, उपर देखता हूँ कि बगुलों के झुंड की तरह एक फ़ाईटर प्लेन का पूरा का पूरा स्क्वाईड्रन ही चला आ रहा है। जैसी किसी जगह कारपेट बमिंग की सोच कर आए हों।

इस बेड़े में कुछ एल. सी. ए., कुछ मिग, कुछ जगुआर और कुछ सी हैरियर जैसे प्रकाश की ध्वनि से चलने वाले विमान भी हैं। मैं खड़ा-खड़ा सोचता हूँ कि अभी कौन सा युद्ध प्रारंभ हो गया?

जिसकी सूचना मुझ तक नहीं पहुंची। अरे, अभी तो रिटायर हुआ हूँ,पर रिजर्व में हूँ। सूचना तो पहुचनी चाहिए थी।

तभी आसमान में एक मिग गोता लगाता है और बुम्म्म्मम्मsssss, बुँउऊऊऊऊँsssss धड़ाम-भड़ाम की भीषण आवाज आती है। वह पैट्रोल पंप पर गिर जाता है उसके टुकड़े हो जाते हैं।

मैं मौके की गंभीरता को समझता हूँ और सीधा घर के अंदर भागता हूँ, आवाज देता हूँ बेटी-बेटी, पत्नी और बेटा मेरे सामने रहता है, मैं उनसे जल्दी से पूछता हूँ कि बेटियाँ कहाँ है?वह वैसे ही बैठी रहती है, कोई हलचल जैसे कुछ हुआ ही नही है।

मैं कहता हूँ “उठो जल्दी-चलो। मम्मी कहाँ है? तुम तुरंत इस घर को छोड़ दो”। वह पूछती है “क्या आफ़त आ गयी?” मेरे पास जवाब देने का समय नहीं रहता है।

“तुम बच्चों को लेकर रेल पटरियों के उस पार पहुंचो। क्योंकि रेल पटरियों के पार आग नहीं जा सकती। वहां घास नहीं है,.........देर मत करो......... कभी भी विस्फ़ोट हो सकता है,....... प्लेन का टैंक फ़ट सकता है,..... ..सब कुछ जला सकता है, ....दौड़ो, .......दौड़ो .....अभी,....सोचो मत........,हरी अप.........., कैरी ऑन……॥ तब तक मैं मम्मी-पापा को देख कर आता हूँ”.

मैं उन्हे आदेश देकर मम्मी-पापा की तरफ़ दौड़ लगाता हूँ। जैसे एक घर पार करता हूँ विस्फ़ोट हो जाता है। एक आग का बादल सीधा आसमान में, मेरे सामने लकड़ियों की एक दीवाल होती है उसमें उड़कर कुछ छर्रे जैसे मुझे आकर लगते हैं।

एक हाथ जख्मी हो जाता है कुछ छर्रे उल्टे पैर पर भी लगते हैं, लेकिन उन्हे रुककर देखने का समय नहीं है, “पापा जीSSSS-पापा जीSSSS, मम्मीSSSS-मम्मीSSSS आप लोग कहां हो, हे भगवान कहाँ है पापा जी?”

मैं आग की दीवार में घुस जाता हूँ, सामने पापा जी खड़े हैं कुछ वैसे ही जख्म उनके सीने एवं पेट पर दिखाई देते हैं। मैं उन्हे खींच कर बाहर निकालता हूँ और उनका हाथ पकड़ कर खींचते हुए बाहर लाता हूँ।

सामने गेट पर मम्मी दिखाई देती है, मैं कहता हूँ भागो, रेल पटरियों के उस पार। वो सामने बच्चों को लेकर रेल पटरियों के पास पहुंचती हुई दिखाई देती है फ़िर बस एक आवाज जोर से निकलती है मुंह से दौड़ोSSSSSSS………सभी दौड़ पड़ते हैं।

सहसा एक और विस्फ़ोट होता है, शायद पैट्रोल टैंक फ़ट गया है, मैं और पापा-गिर पड़ते हैं।

वो मम्मी के साथ बच्चों को लेकर रेल पटरियों के पार पहुंच जाती है। एक संतोष की सांस के साथ मेरी आँखे बंद जाती है…………

बस दो मिनट में ही युद्ध घट गया एक फ़ौजी के साथ……...! दोनों मोर्चों पर लड़ा था मौत से.....।   

सोमवार, 26 जुलाई 2010

पानी ही पानी-देखिए बरसात के कुछ दृश्य

शुक्रवार शाम से लगातार वर्षा हो रही है, पोस्ट लिख रहा था तब भी बरसात की झड़ी लगी हुई है। कल साधना न्युज के कार्यक्रम में सुबह 9 बजे जाना था। लेकिन मूसलाधार बारिश के कारण जाने की स्थिति नहीं बन रही थी। राजकुमार सोनी ने बताया था कि रायपुर में भी वर्षा हो रही है। इसलिए कार्यक्रम भी विलंब से प्रारंभ होगा। आखिर हमें पहुंचना ही पड़ा। नक्सली हिंसा पर राष्ट्रीय परिचर्चा हुई। रिपोर्ट बाद में लगाऊंगा जब नेट सही चलेगा। संचार व्यवस्था बिगड़ी हुई है। नेट की सांसे उखड़ी हूई है, अनियमित हैं। इसलिए बरसात के कुछ चित्र देखिए। 

पानी ही पानी

सब तरफ़ पानी

बस अब बाढ आ सकती है

रायपुर शहर कालोनी के मार्ग पर भरा पानी

रास्ता ही डूब गया

मवेशी भी भाग रहे हैं सर छुपाने

कार्यक्रम शुरु होगा-रुकावट के लिए खेद है
बारिश की यही स्थिति रही तो महानदी एवं खारुन नदी में बाढ आ सकती है। इनका जलस्तर बहुत बढ गया है। आस पास के कई गांवो के डूबने का खतरा मंडरा रहा है। कोशिश करेगें महानदी के बाढ के  चित्र उपलब्ध कराने की। निचली बस्तियों में तो पानी भर ही जाता है। आज कवि सम्मेलन है जिसमें, हरिओम पवार-मेरठ, राहत इन्दौरी-इंदौर, विष्णु सक्सेना-अलीगढ, पद्मश्री सुरेन्द्र दुबे दुर्ग, राजेश जैन'चेतन'-दिल्ली, महेन्द्र अजनबी-देवास, शशिकांत-दिल्ली, गजेन्द्र सोलंकी-दिल्ली, और अनीता सोनी-इंदौर काव्यपाठ करेंगे।

रविवार, 25 जुलाई 2010

ये क्या हुआ,कब हुआ,कैसे हुआ,क्यों हुआ?


Funny comments, Scraps, Graphics for Orkut, Myspace

शनिवार, 24 जुलाई 2010

अस्पतालों की माल प्रेक्टिस पर लगाम कौन लगाए?

ल अस्पताल के चक्कर लगाते रहे, भतीजी को कुछ सर्दी की तकलीफ़ थी। इसलिए सुबह जल्दी भागना पड़ा। डॉक्टर को दिखाए, उसने 2800/ के पैथालाजिकल टेस्ट लिख दिए 200 रुपए ओपीडी की फ़ीस बनी। उसको सिर्फ़ मौसमी तकलीफ़ थी।

टेस्ट की रिपोर्ट आने के बाद 300 की दवाई ली गयी। अब देखिए 3000/ का टेस्ट और 300 की दवाई। डॉक्टर फ़िजिकली कुछ भी एक्जामिन नहीं करना चाहते। वर्तमान में मेडिकल कालेजों में यह कैसी पढाई हो रही है? पहले के डॉक्टर तो सिर्फ़ आँख, जीभ, सांस और नाड़ी देखकर ही बता दे्ते थे कि मरीज को कौन सी बीमारी है?

 और 5 रुपए की दवाई में सब ठीक कर देते थे। आँखे देख कर पीलिया पहचान लेते थे। टाईफ़ाईड, मलेरिया, उच्चरक्तचाप, प्रमेह इत्यादि जान लेते थे और कारगर इलाज के साथ दवाईयाँ भी दे देते थे।

आज तो सेकंड और थर्ड ओपिनियन की जरुरत पड़ती है और उसके साथ उनकी ओपिनियन की फ़ीस भी जुड़ जाती है। दूभ्भर को दो असाढ। डॉक्टर का काम आसान हो गया है, पहले पूरे टेस्ट करवा लो और फ़िर दवाई लिख दो। स्वयं तो कु्छ भी दिमाग पर जोर डालने की आवश्यकता नहीं है। बीमारी की पहचान करने की आवश्यकता नहीं है।

मरीज किसी और बीमारी के इलाज के लिए भर्ती होता है और उसकी मौत किसी दूसरी बीमारी से होती है। लापरवाहियाँ होती है जिससे मरीज की जान भी चली जाती है।

मित्र ने एक दिन सुबह-सुबह फ़ोन किया और बताया कि वे अपने बड़े भाई को पैर में दर्द के इलाज के लिए रायपुर के बड़े अस्पताल में लेकर आए हैं। मैं सुबह 10 बजे अस्पताल पहुंचा उनका इलाज हड्डी वाले डॉक्टर कर रहें। उनसे अस्पताल में मिल कर निकला।

शहर आने के बाद कई काम हो जाते हैं उन्हे भी कर लिया जाए। थोड़ी देर बाद मित्र का फ़ोन आया कि उनके बड़े भाई को ब्रेन हेमरेज हो गया है और वे कोमा में चले गए हैं। डॉक्टर आपरेशन करना चाहते हैं तुरंत ही ब्लड की आवश्यकता है।

मैने कहा तुम काम शुरु करवाओ मैं ब्लड का इंतजाम करता हूँ। मैने तत्काल मित्रों को फ़ोन कर तीन बोतल ब्लड का इंतजाम किया और अस्पताल पहुंचा।शाम 4 बजे आपरेशन शुरु हुआ जो रात नौ बजे तक चलता रहा।

मित्र ने बताया कि रात को उनके भाई ने कुछ धुंधला दिखने की शिकायत की थी नर्स से। डॉक्टर घर चले गए थे, उनसे फ़ोन करके नर्स ने पूछा तो डॉक्टर ने फ़ोन पर कह दिया कि नींद की गोली दे दो। मैं सुबह आकर देखता हूं।

तब तक उन्हे ब्रेन हैमरेज हो चुका था। हो सकता था कि रात को ही उन्हे संभाल लि्या जाता तो बच जाते शायद। 2लाख रुपए का बिल भी बना और मर्ज के साथ मरीज भी चला गया। मैने रात को ही प्राईवेट एम्बुलेंस करके उनके शव को अम्बिकापुर भि्जवाया। अब बताईए कि किसकी लापरवाही थी।

एक स्वामी जी हैं आर्य समाजी, बड़े गुरुकुल के संचालक। एक बार उन्हे गर्मी के दौरान अटैक आ गया और उन्हे इसी अस्पताल में भर्ती किया गया। मेरे पास फ़ोन आया तब तक वो कोमा में जा चुके थे। अस्पताल पहुंच कर उन्हे दे्खा तो मुझे लगा कि बच नहीं पाएगें। मैने ईश्वर से प्रार्थना की और बाहर निकल आया।

वीआईपी थे इसलिए दिल्ली से भी उनके स्वास्थ्य पर नजर रखी जा रही थी। शहर के सारे नामी डॉक्टर लगे हुए थे। वे दो महीने तक कोमा में रहे। उसके बाद उनके गुरुजी आए जो उस समय शतायु हो चुके थे। नामी आर्युवेदाचार्य थे, उन्होने डॉक्टरों से कहा कि आप दो माह से चिकित्सा कर रहे हैं क्या कोमा से वापस आने की आशा है?

डॉक्टरों ने अनिश्चितता जाहिर की। स्वामी जी ने कहा कि आप आहार नली को छोड़ कर आक्सीजन समेत सब हटा लें। अब मुझे अपनी चिकित्सा करने दें।

उसके बाद उन्होने सबको बाहर निकाल कर कमरे का दरवाजा बंद किया। अपने साथ लाई हुई औषधियां दी। तीसरे दिन मरीज को होश आ चुका था और उसके बाद से आज तक सतत काम कर रहे हैं।

वर्तमान में इलाज बहुत मंहगा हो गया है, अगर किसी गरीब के घर में कोई बीमार हो गया तो उसे अपना घर-द्वार बेचना ही पड़ता है।

कहने को तो सरकारी अस्पताल हैं लेकिन वे हमेशा दवाईयों एवं स्टाफ़ की कमी से जूझते रहते हैं। फ़िर वहां मरीज का भगवान ही मालिक है। अगर आप वहां से सही सलामत वापस आ गए तो भगवान को धन्यवाद दिजिए।

अभी कल ही पिथौरा(छ ग) का एक प्रकरण सामने आया है कि प्रसव के दौरान महिला डॉक्टर ने गर्भनाल की जगह बच्चे का हाथ ही काट डाला। फ़िर उस हाथ को टांके लगा कर जोड़ दिया और उसके परिजनों से कह दिया कि बच्चे की मौत हो गयी है।

बच्चे को एक ट्रे में डालकर पटक दिया। जब बच्चे की दादी ने अचानक उसमें हरकत देखी तो इस मामले का खुलासा हुआ। हंगामा होने पर उस डॉक्टर के खिलाफ़ रिपोर्ट दर्ज करके गिरफ़्तार किया और फ़िर थाने से ही 10,000 के मुचलके पर छोड़ दिया।

कितनी बड़ी लापरवाही है जन्म से ही बच्चे का अंग भंग कर दिया और अपनी गलती छिपाने के लिए मृत भी घोषित कर दिया।

कब सुधरेगी हमारी चिकित्सा व्यवस्था? क्या आज ईलाज कराना एक आम आदमी के बस की बात है? दवाइयों के मूल्य पर कोई नियंत्रण नहीं है। पैसे देकर भी असली दवाई मिलने की कोई गारंटी नहीं।

ऐसे में लुट-पिट कर मरने से अच्छा है कि हाराकिरी कर ली जाए। कम से कम बच्चों पर अनावश्यक आर्थिक बोझ तो नहीं पड़ेगा। इलाज के लिए जमा पूंजी भी गंवाई और जान भी नहीं बची।

पहले जहां 10 पैसे की आनंदकर टिकिया से सरदर्द का इलाज हो जाता था। आज उसके लिए 100 रुपए की टेबलेट खानी पड़ रही है। कहां जा रही है हमारी चिकित्सा व्यवस्था?

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

लिट्टी-चोखा देखकर कंट्रोल ही नहीं होता

सावन का महीना हम सब मित्रों का घुमने का ही होता है, एक मार्ग निर्धारित करके सर्कुलर टिकिट बनाकर घुमने के लिए निकल जाते हैं। मुख्य लक्ष्य रहता है बैजनाथ धाम।
लिट्टी चोखा की दुकान (रायपुर स्टेशन)

सावन के पहले दिन ही हम लोग गंगा जल चढा देते हैं। कुछ वर्षों पहले हमने यात्रा का मार्ग निर्धारित किया था। रायपुर से इलाहाबाद, इलाहाबाद से अयोध्या, अयोध्या से बनारस, बनारस से क्युल होते हुए सुल्तानगंज, सुल्तान गंज से कांवर लेकर पदयात्रा करते हुए देवघर (बैजनाथ धाम) और देवघर से अपने घर रायपुर वापसी।

हमने अयोध्या में 3 दिन रुकने का कार्यक्रम बनाया। अयोध्या स्टेशन से जैसे ही हम बाहर निकले तो देखा कि ठेलों पर लोग सिगड़ी लगा कर लिट्टी सेंक रहे थे। बस अपने को मनचाही मुराद मिल गई क्योंकि लिट्टी-चोखा खाए बहुत दिन हो गये थे।

हम जब बिहार के दौरे पर थे, तभी लिट्टी का स्वाद लिया था। तब से फ़िर लिट्टी-चोखा खाने की इच्छा थी। जो अयोध्या में पूरी हो रही थी। हमने बैग रख कर सबसे पहले लिट्टी का ही स्वाद लिया। फ़िर बिड़ला मंदिर की धर्मशाला पहुंचे।

अगले पड़ाव बनारस में हमें 2 दिन रुकना था। वहां पर भी हमने लिट्टी वाला ढुंढ ही लिया और दो दिन सुबह लिट्टी का ही नास्ता किया। उसके बाद से हमे लिट्टी खाने नहीं मिली।

एक दिन हमने घर में ही प्रयोग करके देखा। श्रीमती जी मायके गयी हुई थी तो रसोई घर को प्रयोग शाला बनाने पर कोई खतरा नहीं था। पहले बेटियों से पूछा कि उन्हें लिट्टी-चोखा खाना है क्या?

उन्होने हाँ में जवाब दिया तो मैने उन्हे भी लिट्टी चोखा बनाने में शामिल कर लिया। माता जी ने कंडे जलाए और हमने लिट्टी चोखा बनाया। कंड़ों में बढिया बाटी जैसे उन्हे सेंक लिया और चोखा के साथ खाने का आनंद लिया। बहुत ही मजा आया। दोपहर का भोजन का कार्यक्रम स्थगित हो गया। फ़िर हमने कभी लिट्टी चोखा नहीं खाया।

जब मैं बिलासपुर जाने के लिए रायपुर स्टेशन पहुंचा तो देखा कि स्टेशन के पास मंदिर के पीछे एक आदमी लिट्टी सेंक रहा था। मेरे पास कुछ समय था इसलिए टिकिट लेकर सीधा उसके पास पहुंचा।

लिट्टी चोखा लिया और वहीं उसके पास बैठकर खाने लगा। गरम-गरम लिट्टी चोखा था। लेकिन स्वाद में वह आनंद नहीं आया जो हम पहले ले चुके थे।

अरविंद झा
मैने उससे पूछा कि यह दुकान कब से लगा रहे हो तो उसने जवाब दिया 19 साल से। इतने दिनों से लिट्टी चोखा की दुकान वहां पर लग रही है और मुझे कभी दिखी ही नहीं।

साल में कम से कम 50 बार हम भी स्टेशन जाते ही होगें। कोई बात नहीं अगर निंगाह नहीं पड़ी तो क्या हुआ, आज तो देख लिया।

मैने उससे लिट्टी चोखा पैक करवाया और अरविंद झा के लिए रख लिया। क्योंकि हमारा अगला पड़ाव वही था। बिलासपुर जाकर अरविंद जी को लिट्टी चोखा खिलाया तो बहुत खुश हुए। मजे से खाए।

हर प्रदेश की के खाने की अपनी पहचान होती है अपना स्वाद होता है और खाने में मामले में तो हम बहुत ही शौकीन हैं। दक्षिण का खाना हो या उत्तर भारत का सभी मुझे चलता है। सिर्फ़ मैदा की रोटी नहीं खा सकता। क्योंकि बहुत ही तकलीफ़ देती है। एक बार खाकर भुगत लिए थे।

विगत वर्ष हमें पांडीचेरी एक कार्यक्रम में जाना था। गुड़गांव से हमारे मित्र परमानंद और मुकेश जी को भी वहां पहुंचना था। पहले कार्यक्रम की 15 फ़रवरी का निर्धारित किया गया था। फ़िर उसमें परिवर्तन करके 17 फ़रवरी कर दिया गया। इन्होने दिल्ली से अपनी फ़्लाइट की टिकिट 14 फ़रवरी की एक महीने पहले ही बुक कर ली थी।

मुझे रायपुर से ट्रेन से पहुंचना था। मैने अपनी टिकिट 15 फ़रवरी की करवाई थी। उनकी टिकिट नान रिफ़ंडेबल थी तो उन्हे मजबूरी में 14 तारीख को पांडीचेरी पहुंच 3 दिन और रुकना पड़ गया।

परमानंद जी ने मुझे फ़ोन करके कहा कि यहां तो रोटी ही नहीं मिल रही है। इटली, डोसा, बड़ा, चावल, मिल रहा है। एक जगह मैदा का पराठा खाना पड़ा। तो मुझे घर से रोटी बनाकर उनके लिए पांडीचेरी ले जाना पड़ा।

28 घंटे बाद उन्होने रोटी खाई और अगले दिन के लिए भी बचा ली। हमने तो वहीं के भोजन से काम चला लिया। लेकिन मुझे यह समस्या नहीं होती।

अब किसी दिन फ़िर लिट्टी चोखा बनाने का कार्यक्रम रखते हैं। अपना हाथ जगन्नाथ। क्या करें? लिट्टी-चोखा देखकर कंट्रोल ही नहीं होता ।

गुरुवार, 22 जुलाई 2010

पाबला जी से मिलन और बड़े गुरुजी हुए साठ के

उदय महाराज
हमारे अजीज बड़े गुरुजी का जन्मदिन था और उसके एक दिन पहले पाबला जी की दुर्घटना की खबर मिली। सुनकर बहुत तकलीफ़ हुयी। मन नहीं माना, सोचा कि मिल ही लिया जाए तो तसल्ली होगी।

बड़े गुरुजी को समाचार दिया कि भिलाई चलते हैं और फ़िर दोनो निकल पड़े पाबला जी से मिलने। पाबला जी ब्लाग जगत में कितने लोकप्रिय हैं, इसका अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि जब हमारे घर आए तो मेरे 6 साल के बेटे से उन्होने घर से बाहर ही पूछा कि "मुझे पहचानते हो? तो उदय ने कहा कि "आप पाबला जी हैं।

जबकि दोनो कभी नहीं मिले थे। पाबला जी भी आश्चर्य चकित थे। उदय मेरे साथ नेट पर बैठता है और नेट पर ही फ़ोटो देखकर उन्हे पहचान लिया। है ना, ब्लागिंग कमाल की चीज।

बड़े गु्रुजी (बर्थ डे बॉय)
बर्थ डे बॉय को साथ लेकर हम चले हाईवे पर, बार बार बड़े गुरुजी हमें धीरे चलाने की सलाह दे रहे थे। लेकिन हमारी तो आदत खराब है चलना है तो गति से। पैदल भी चलते हैं तो बाबा धाम 115 किलो मीटर ढाई दिन में तय कर लेते हैं। फ़िर ये तो बाईक की सवारी है।

सुबह शरद भाई  को आने की सूचना दी, फ़ोन लगाते ही उन्होने पूछा कौन? हमने कहा "नाटक वाली लड़की"। बोले "ललित भाई"। हमने कहा "पहुंच रहे हैं।" तब से ही शरद भाई पाबला जी के घर पहुंच गए थे।

पहुंचते ही पाबला जी दिख गए, दिल के फ़ुल खिल गए। एक स्नेह का झोंका आया और गले मिल गए। माता जी से "पैरी पैणा" कर सति श्री अकाल किया और फ़िर पाबला जी ने अपने कंट्रोल रुम में बाड़ दिया।

एक हाथ जख्मी था, उसकी पूरी उंगलियां भी, दुसरे हाथ की एक उंगली बस खुली थी। उसी से काम चल रहा था। अब यहाँ आकर उंगली की कीमत पता चली कि एक उंगली भी कितने काम कर सकती है।

बड़े गुरुजी पहुंचते ही कम्प्युटर पर लग गये। क्योंकि ब्लागर की यह बहुत बड़ी कमजोरी है। भले दाना पानी भी न मिले बस कम्प्युटर मिल जाए फ़िर बल्ले बल्ले।

वे धान के देश में पहुंच गए और पाबला जी, शरद भाई के साथ मिठाई लेने चले गए। यहीं आकर चरितार्थ हुआ " जिन्दगी जिंदादिली का नाम है, मुर्दादिल क्या खाक जिया करते हैं।"

इतना बड़ा हादसा जिस आदमी के साथ घट जाए उसे मुस्कुराने में ही कई महीने लग जाते हैं और यहां तो हम ठहाके लगा रहे थे। जैसे कोई सामान्य दिन हो।

ठहर, तेरी तो!
कठिन से कठिन परिस्थितियों का मुकाबला हंसते-हंसते करने के कारण ही सरदार की उपाधि दी गयी है, पाबला जी को देखकर तो यही लगा। अनिता कुमार जी गिरीश बिल्लौरे जी और अरविंद मिश्रा जी से फ़ोन पर बात हुई।

जब हमने वि्दा लेनी चाही तब बरसात शुरु हो चु्की थी। पाबला जी का कैमरा हादसे में शहीद हो चुका था तो वे मोबाईल से फ़ोटो लेने लगे। यहां एक उंगली बहुत काम आई, जब मैं उनकी फ़ोटो लेने लगा तो वे गुर्राए, तब तक मेरा मोबाईल काम कर चुका था, हा हा हा।

दो घंटे लगातार बारिश हुई। हम उसके रुकने का इंतजार करने लगे। बड़े गुरुजी ने समय का सदुपयोग किया और एक पोस्ट लगा कर शेड्युल कर दी। शरद भाई भी सोच रहे थे  घर जाने के लिए। बेटी और भाभी जी का फ़ोन आ चुका था।

वे कहीं इंतजार कर रहे थे इनका, कि गाड़ी लेकर आएं तो घर जाएं। लेकिन शरद भाई सोच रहे थे कि अगर गाड़ी तक गया तो भीग जाउंगा। इसलिए हिम्मत करके बैठे रहे।

फ़ोटो के लिए अपुन कु्छ भी करेंगा
पाबला जी से मिलकर मन को तसल्ली हो गयी, नहीं तो घर बैठे सोचते रहते कितनी चोट लग गयी, क्या हुआ होगा?

जाको राखे सांईंया मार सके न कोई, बाल न बांका कर सके, जो जग बैरी होय। 35 सेकंड में गाड़ी जल गयी। इतनी कम समय में तीन लोगों का गाड़ी से बाहर से निकलना भी अद्भुत है।

बेटी को एक भी खंरोच नहीं आई। उपरवाले की सीधी नजर थी। बता रहे थे कि दो मिनट में तो गाड़ी जल कर पूरी खत्म हो चुकी थी।

पाबला जी ठीक हैं लेकिन जख्म भरने में तो कुछ समय लगता ही है। पाबला जी माउस एवं की बोर्ड संभाल चुके थे। हम भी ज्ञान ले रहे थे, समय का सदुपयोग हो रहा था।

चर्चा मग्न

बड़े गुरुजी ने प्रश्न किया कि पानी नहीं रुका तो क्या होगा? हमने कहा फ़िर भीगते हुए चलेगें। "आज रपट जाएं तो हमें न उठइयो" वैसे भी आपका जन्म दिन है। वैसे बड़े गुरुजी का हमारे से स्नेह बहुत है।

हमारा और उनका दो मिनट में झगड़ा हो जाता है लेकिन चलते साथ में है। कोई बात तो है जो उनसे अलग नहीं होने देती। अब साठ साल के हो गए, तो कह रहे थे कि सठिया गए, हमने कहा कि सठिया नहीं गए, अब परिपक्व हो गए। इसलिए "साठा सो पाठा"कहा गया है।

बरसात रुकते ही चलने लगे तो देखा अगला चक्का आराम कर रहा था। मतलब उसकी हवा खिसक गयी थी। शरद भाई मैकेनिक पकड़ कर लाए तब कहीं जाकर वापसी के लायक बने।

वापसी में पाबला जी पापा जी से भी मुलाकात हुई । उन्होने मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया। स्नेह और आशीर्वाद से पूरित सोच रहा था कि दुनिया का सबसे अमीर आदमी हूँ ।

पाबला जी से विदा लेकर चल पड़े रायपुर की ओर। अब बड़े गुरुजी के जन्मदिन पर शाम की महफ़िल सजानी थी। बस रायपुर पहुंचते ही महफ़िल सज गयी।

बड़े गुरुजी ने कार्क उड़ाकर जन्मदिन मनाया गया, हम रात 9 बजे घर पहुंचे।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

गुदड़ी का लाल राजकुमार सोनी

कौन कहता है कि मजदूर की झोंपड़ी में राजकुमार नहीं जन्म लेते। गुदड़ी में ही लाल होते है और पूरी दुनिया के दिलों पर राज करते हैं। किसी भूखंड पर राज करने के साम-दाम की तिकड़म लगानी पड़ती है, लेकिन दिलों पर राज करने के लिए सिर्फ़ दिल देना पड़ता है।

ऐसे ही दिल देकर दिलदार कहाने वाले हमारे मित्र सखा राजकुमार सोनी हैं। जो भी काम हाथ में लेते हैं उसे दिल से करते हैं। दोस्तों के बीच में अपनी सह्र्दयता के लिए बहुत लोकप्रिय हैं। अभी के एक प्रकरण से इनकी जीवटता प्रदर्शित होती है, सच का साथ जान लगा कर भी देते हैं।  
अपने जीवन के सफ़र के विषय में बेबाकी से कहते हैं कि "भिलाई इस्पात सयंत्र के कोकवन में काम करने वाले मजदूर के घर पैदा हुआ राजकुमार" यह इतना ही बड़ा सच है कि जितना बड़ा सच जाबाला सत्यकाम ने गुरुकुल में प्रवेश के समय आचार्य जी के सामने कहा था।

आज लोग बड़ा पद पाकर जीवन में सफ़ल होने के बाद अतीत को भूल जाते हैं, लेकिन सच्चे मनुष्य वे होते हैं जो अतीत को साथ लेकर चलते हैं और उसके अनुभव से सफ़लता प्राप्त करते हैं। ये वास्तविक रुप से हरफ़नमौला हैं।

जब से मैं इन्हे जाना इनका हरफ़न मौला चरित्र ही मेरे सामने आया। इनकी लेखनी में दम भी है और खम भी है। बहु्मुखी प्रतिभा के धनी हैं।

इनके लेखन में एक प्यास झलकती है, अतृप्ति दिखती है, जो इन्हे चैन से बैठने नहीं देती, चाहे इनके नाटक हों या कविताएं। कविताओं में समाजिक समस्याएं साफ़ झलकती हैं। समाज के निचले स्तर पर जो घट रहा है वह इनकी कविताओं का विषय है।

मजदूरों के मोहल्ले से राजधानी तक का सफ़र अनुभवों से समृद्ध करता है और वही अनुभव इनके लेखन में स्पष्टत: प्रतीत होता है। सोने के पालने में जन्म से सोने वाले रचनाकार, जिसने कभी भूख गरीबी या अभाव नहीं देखा है वह कैसे लिखेगा कि गरीबी क्या होती है?

अभाव की जिंदगी क्या होती है, दुनिया में दो वक्त की रोटी का जतन करने के लिए कितने पापड़ बेलने पड़ते है। क्या इसका अनुभव उसे मिलेगा?

जब वह लिखना चाहेगा तो कितना निष्प्राण लिखेगा समाज संदर्भ में। कविता,नाटक या साहित्य लिखना उसका शगल होता है और चार चाटुकार सिर्फ़ वाह वाही करते हैं।

लेकिन एक जमीन जुड़ा हुआ, धरती माँ की मिट्टी में खेला हुआ, जब लि्खेगा तो उसके लेखन से माटी की सौंधी खुशबू आएगी, ऐसा ही कु्छ माटी की खुशबू राजकुमार के लेखन में है।

लेकिन जिसने भूख,गरीबी और अभाव देखे हैं जीवन में उसकी लेखनी से स्वत: कालजयी रचनाएं एवं साहित्य निर्झर की तरह फ़ूट पड़ता है। जो अंतर शरमद की रुबाईयों एवं बहादुरशाह जफ़र की गजलों प्रकट होता है। वही अंतर मुझे राजकुमार सोनी एवं किसी खाए-अघाए सत्ता  पोषित रचनाकार में दिखता है।

राजकुमार रंगमंच से भी जुड़े हैं। उनके अंदर एक सहज कलाकार बैठा है, वे किसी भी पात्र का अभिनय कभी भी सहज भाव से कर सकते हैं। वे यह कभी नहीं कहेंगे कि आज मेरा मूड नहीं है, क्योंकि जिसके अभिनय में कृतिमता होती है, बनावट होती है, या उसे दिए गए पात्र को निभाने में कठिनाई होती है वह "आज मूड नहीं है" का परदा लगाता है और बचने की कोशिश करता है। लेकिन राजकुमार के अंदर सहज रुप अदाकार उपलब्ध है। जो जीवंत हो जाता है और इनकी अदाकारी मैंने स्वयं देखी है।

खुशी का अवसर है कि आज राजकुमार सोनी की पहली कृति समाज के सामने आई है। इनके लेखन का एक स्तर है, पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना परचम लहराने के बाद अब साहित्य लेखन के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति "बिना शीर्षक" के माध्यम से दे रहे हैं।

जब इस शीर्षक को मैने देखा तो सोचा कि लोग अपनी पुस्तकों का कु्छ न कुछ शीर्षक रखते हैं और यह पुस्तक "बिना शीर्षक" की। यह कैसे हो सकता है?

लेकिन जब गहराई में जाकर सोचा कि मनुष्य ऐषणाओं से घिरा होता है जीवन में। वित्तैषणा, पुत्रैषणा, और लोकैषणा। जो इन ऐषणाओं से दूर हो जाता है, जिन्हे यह ऐषणाएं नहीं व्याप्ति, वह वीतराग कहलाता है और वीतराग ही किसी के साथ सही न्याय कर सकता है। 

इससे स्पष्ट हो जाता है कि "बिना शीर्षक" की कृति में अवश्य ही इन्होने विषय के साथ सही निर्णय किया होगा। इस पुस्तक में इन्होने 25 नामचीन हस्तियों के विषय में लिखा है, उनके कार्यों एवं जीवन वृत्त को सलीके से प्रस्तुत किया है।

वैभव प्रकाशन रायपुर से प्रकाशित इस पुस्तक की भूमिका प्रसिद्ध साहि्त्यकार गिरीश पंकज जी ने लिखी है।हम इन्हे "बिना शीर्षक" के छपने पर हार्दिक शुभकामनाएं देते हैं और राजकुमार भाई के उज्जवल भविष्य की कामना करते हैं।

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

एग्रीगेटर हमारी वाणी, सुनो हमारी जुबानी

ल दिन में बिजली चली गयी थी, इसलिए कुछ काम नहीं हो पाया। इसलिए आज रात में एक नींद के बाद जाग गया, सो कम्प्युटर पर चला आया। ब्लाग पर देखा हमारी वाणी की एक टिप्पणी पड़ी हुई थी। पूर्व में हमारी से इस तरह की टिप्पणियाँ आती रही हैं।

लेकिन उस समय इनका एग्रीगेटर फ़ीडकल्स्टर पर बना हुआ था। इस तरह का एग्रीगेटर  हमने शिल्पकार के नाम से भी बना रखा है। जिससे हम अपनी पसंद की पोस्ट पढ लेते है।

ब्लागिरी एग्रीगेटर भी खुलने में समय लेता था। आज कुछ सु्धार हुआ। जल्दी खुलने लगा। जिज्ञासावश हमारीवाणी एग्रीगेटर पर गया। तो उसका कलेवर बदला हुआ था। स्क्रिप्ट ब्लागवाणी जैसी ही है। जल्दी खुल गया तो अच्छा लगा। उसमें हमने रजिस्टर करके देखा और अपने सभी ब्लाग की रिक्वेस्ट भेज दी।

मुझे लगा की एग्रीगेटर की तलाश पूरी हो गयी। लेकिन इसमें भी वही ब्लागवाणी वाली बीमारी नजर आई। नापसंद और पसंद वाली। ब्लागवाणी पर झगड़ा इसी बात का था कि लोग नापसंद की सुविधा का गलत उपयोग कर रहे थे। 

यहां भी नापसंद सुविधा का गलत उपयोग होने की पूरी आशंका है। ब्लागवाणी पर भी यही हो रहा था। लोग बिना पढे ही कुंठा निकालने के लिए अच्छी से अच्छी पोस्ट को नापसंद कर गड्ढे में डाल रहे थे। जिससे सभी ब्लागर प्रभावित हुए।

हमारी वाणी एग्रीगेटर के माडरेटर से मेरा निवेदन है कि अभी आपको एग्रीगेटर लाए कुछ दिन ही हुआ है और यह विज्ञापित एवं स्थापित ब्लागरों के सहयोग से होगा। इसलिए विवादास्पद विजेट अभी से बंद कर दें। जैसे नापसंद वाले विजेट। तो भविष्य के लिए सही रहेगा।

ब्लागवाणी के बंद होने के बाद हमने देख लिया कि हमारे ब्लाग पर पाठकों की आमद में कोई ज्यादा अंतर नहीं पड़ा। पाठक आते रहे। पाठक सर्च इंजन से आते हैं और ब्लागर एग्रीगेटर से। इसलिए बिना एग्रीगेटर के भी ब्लाग पढे जा रहे हैं। इंडली स्वचालित एग्रीगेटर नहीं होने से फ़ेल है। वह स्वयं फ़ीड नहीं लेता।

मेरा आपसे यही आग्रह है कि यदि आप हमारी वाणी को निर्विवादित रुप से चलाना चाहते है तो पहले नापसंद वाले विजेट को हटाएं एवं जैसे इंडली ने एक सुविधा दी है कि विवादित पोस्ट को अलग से दिखाना।

विवादित ब्लाग और पोस्ट को आपको दिखाना है तो उसके लिए अलग से टैग बनाकर वहां दि्खाएं। जिससे बाकी ब्लाग प्रभावित न हों।

अगर आपको हमारी बात समझ में आती है तो सुने और सुधार करें। हमारी वाणी के नए कलेवर के साथ आने पर मैं आपको हार्दिक बधाई देता हूँ और हमारी वाणी लोकप्रिय हो इसके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ।

सोमवार, 19 जुलाई 2010

ये इश्क नहीं आसां जानम तुम समझा करो

ये रात भीगी-भीगी ये मस्त फ़िजाएं,उठा ये धीरे-धीरे वो चांद प्यारा, हूँ हूँ हूँ हो हो हो, बरसात को देखते हुए बस युं ही गाने का मन हो गया, रास्ते में भीग गए और कुछ पंक्तियां गा बैठे, गा क्या बैठे, मुसीबत मोल ले ली, फ़ंस गए जंजाल में, मन में बसी पुरानी यादों का घायल पंछी फ़ड़फ़ड़ाने लगा। उमड़ घुमड़ कर यादों के बादल बरसने लगे।

तनहाई में सोई हुई यादें फ़िर जाग उठी, तन मन सब भीगा था। रपटीली राह में मील के पत्थर भीग रहे थे, मैं उन्हे देख रहा था। कब से मेरे सफ़र के साथी बने हुए हैं। याद करके रोमांचित था ।कितना सफ़र तय कर लि्या, इतने कम समय में,

सोच रहा था, आज रपट जाएं तो हमें न उठईयो, हमें जो उठईयो तो खुद भी रपट ज़ईयो, ज़ाने कब से इंतजार है उनके रपटने का, लेकिन आज तक रपटे नहीँ और न ही हमें उठाया। हम युं ही गुनगुनाते रहे हैं।सावन के महीने में,एक आग सी सीने में, लगती है तो पी लेता हूँ, दो चार घड़ी जी लेता हूँ।

मौसम के साथ इश्क के फ़ूल भी खिलते और मुरझाते हैं। तितलियाँ भी अवसर देख कर आती है, फ़ूलों पर मंडराती हैं,भंवरे भी तभी गुनगुनाते हैं, जब मौसम आता है तितलियों का।

दो ही अवसर होते हैं जब जवान से लेकर बुढे भी दिन में सपने देखते हैं। आइना देख कर मुस्कुराते हैं, मुंह बनाते हैं। पुराने फ़कीरों के भी दिल के जख्म हरे हो जाते हैं, एक सावन में दुसरा फ़ागुन में। बाकी साल के 10 महीने कुछ नहीं होता। कहीं कोई शमा नहीं सुलगती, कहीं कोई परवाना नहीं जलता। कहीं तितली नहीं कहीं भंवरा नहीं, फ़ूल भी नहीं मुस्काते,कहीं कोई काव्य का निर्झर नहीं झरता,

कहीं कोई -"खिड़की से यार को बु्लाए रे" फ़ाग नहीं सुनाता। कहीं बादल नहीं गरजता,कहीं बादल नहीं बरसता, कहीं कालीदास के मेघदूत की चर्चा होती,यही दो मौसम हैं जो संयोग-वियोग के काव्य सौंदर्य को सरिता सी बहाते हैं।

गाना गाते-गाते एक हूक सी दिल में उठती है और बेचैनी के बादल उमड़-घुमड़ आते हैं। आज फ़िर मिलने की तमन्ना है आज फ़िर मरने का इरादा है, कुछ ऐसी ही उलझन दिल-ओ-दिमाग पर छाने लगती है।

कभी इंतजार रहता था उनको भी हमारे आने का, हमें बेसब्री रहती थी उनसे मिलने की, लेकिन साल भर बरसात और फ़ागुन का मौसम नहीं रहता,

जब कोई गाता हुआ मिले दुवारी पर"घर आया मेरा परदेशी, प्यास बुझी मेरी अंखियन की, परदेशी भी कहती थी और मेरा भी कहती थी, जाने कब से उन्हे इंतजार था, और कब तक इंतजार करती, अंखियों की प्यास बुझने का,

बस शाम से छज्जे पर खड़ी हो जाती, अपनी आंखे सेंकते हुए। लाला जी नीचे गल्ले पर और बे्गम अटरिया पर लोटन कबुतर उड़ा रही होती थी। क्योंकि पतंगे सभी कट चुकी थी, आसमान खाली-खाली, जैसे कबुतर उड़ाते हुए मेरा मन। उड़ा चला जाता खोज में सात समंदर पार।

बरसात में हमसे मिले तुम सजन, तुमसे मिले हम, बरसात में, पुराने रेड़ियो पर यह नया गाना बज रहा है। हम खाट पर पड़े सोच रहे हैं कि कैसे मिले बरसात में? अंधियारी रात है, मुसलाधार बरसात है। रास्ता देखने लिए लालटेन भी काम नहीं आने वाली शीशा फ़ूट जाएगा और बुझ जाएगी।

बाहर पैर रखते ही साँप बिच्छु का डर अलग से है उनके बिल में पानी भरने से सब बाहर निकल आए होगें। सामने गली में बंशी के छप्पर के नीचे बूढा खाट डाले पड़ा होगा खांसते हुए,निगहबानी करते हुए।

फ़िर आगे नदिया पार करने का खतरा। अब सजन जाए तो जाए कैसे बरसात में? कोई तुलसीदास तो है नहीं, जो चला ही जाए। इतना पा्गल प्रेमी नहीं हूँ,

न आऊं तो समझ जाना, सजन नहीं आए बरसात में। तुम्हे बरसात में ही सजन की क्यों याद आती है, कोई दूसरा मौसम नही है?  

इतना न मुझसे प्यार बढा मैं हूँ बादल आवारा, कैसे किसी का सहारा बनुं। इतना तो झल्ला नहीं हूँ कि नदी पार करने का खतरा उठाऊं। कभी-कभी मेरे दिल में एक ख्याल आता है, ख्याल ही क्यों, बहुत बुरे-बुरे डरावने सपने आते हैं।

उस बरसात में भीगना मुझे अभी तक डरा जाता है। सोचकर सारा रोमांस काफ़ूर हो जाता है जब हमें डाकू छलिया मिल गया था और तुमसे पू्छा था किसकी बेटी हो?

तुमने तुरंत सफ़ाई से झूठ बोल दिया था कि सुदामा मल्लाह की बेटी हो और उसने हमें छोड़ दिया था। अगर तुम अपने असली बाप या असली पति लाला जी का नाम बता दिया होता तो तुम्हे उठाकर ही ले जाता।

आज के जमाने में कितना जरुरी हो गया है,दो-दो बाप होना, दो-दो पतिनुमा प्राणी होना, सुरक्षा की खातिर। फ़िर भी तुम्हे सबक नहीं मिला, कहती हो सजन नहीं आए बरसात में। 

जिन्दगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात, कैसे भूल सकता हूँ? जब बादल गरजता था तो तुम डरकर सिमट जाती थी मेरे पहलु में।

कल्पना करता हूँ, बिजली की चमक में वह दृश्य किसी श्वेत श्याम चित्रपट के पोस्टर की तरह दिख रहा होगा। शिव मंदिर के खंडहर में हमें सिर छुपाने की जगह मिली थी, पूरी तरह हम भीग चुके थे।

पानी से भीगा हुआ जब तुम पल्लु निचोड़ रही थी तो उससे फ़ूलझड़ी की तरह चिंगारियाँ निकल रही थी। कितना जोश और गर्मी होती है जवानी में। बस क्या कहूँ, उस दिन की बात-वो थी हमारे जीवन की आखरी रात।

तुम्हारे से मिलने आना मुश्किल है क्योंकि बरसात वैसी ही है,लेकिन प्यार में वो जु्म्बिश नहीं रही। लाला ने मुस्टण्डे पाल लिए हैं, दुगना खतरा बढ गया है।

ये इश्क नहीं आसां, जानम तुम समझा करो। बस इतनी ही अर्ज है-" बचपन की मुहब्बत को, दिल से न जुदा करना। जब याद मेरी आए, मिलने की दुआ करना, मिलने की दुआ करना.......!