मंगलवार, 31 अगस्त 2010

खोली नम्बर 36

वह विस्फ़ारित नेत्रों से जेलर को एकटक देखे जा रहा था। उसकी आँखों भय का सम्पुट था। डर के मारे टांगे कांप रही थी। कंठ सूखा जा रहा था। थूक लीलने की कोशिश करता था,लेकिन गटक नहीं पा रहा था। पसीना-पसीना हो रहा था। सामने घड़ी का पैन्डूलम हिल रहा था बांए से दांए। उसे लग रहा था कि बस अब गिर पड़ेगा। तभी वह जोर से चीखा-“नहीं……नहीँ……..नहींईईईईईईईईईई........। आवाज आई......."धड़ाम"...। वह गिर पड़ा था।
जेलर ने तुरंत बेल बजाई…… सिपाही अंदर आया, जेलर और सिपाही ने मिलकर उसके चेहरे पर पानी छींटा। पानी की बूंदे पड़ते ही उसने हरकत की…………आँखे मिचमिचाई। फ़िर आँखे खोल कर देखा………लगता था माहौल जा जायजा ले रहा हो कि वह कहाँ है…………फ़िर उसने आँखे बंद किए ही पूछा-
“ मैं कहाँ हूँ?
“तुम अभी जेलर के आफ़िस में हो।“ उसने फ़िर आँखे खोली, धीरे से उठ कर खड़ा हुआ-
“मैं वहां नहीं जाउंगा......... आप चाहे तो मुझे फ़ांसी पर लटका दें........मैं वहां पागल हो जाउगां......... मुझे बख्स दिजिए.....आप कहेंगे तो मैं यहां झाड़ू लगाने का काम कर लूंगा, संडास साफ़ कर दुंगा,लेकिन वहां नहीं जाउंगा।“
“तुम्हें हम कहीं नहीं जाने कह रहे, फ़िर इतना क्युं घबरा रहे हो?”-जेलर ने कहा
“नहीं सर मुझे नहीं जाना है”
“कहाँ नहीं जाना है, कुछ तो बताओगे?”
“खोली नम्बर 36 में”
“क्यों? वहाँ तो बहुत मजे हैं.........., बिजली है,.....पंखा है...... कूलर है......, और बढिया खाना भी है। फ़िर क्यों डर रहे हो? सब वीआईपी ट्रीटमेंट मिलेगा”
“मुझे वहां मत भेजिए सर,-प्लीज।“-वह घिघियाने लगा।
“देखो...., तुम कोई सरकार के दामाद नहीं हो, जो तुम्हे हर तरह की रियायत दी जाए,...... यह जेल है बाबू जेल। यहाँ हमारी मर्जी चलती है और तुम कौन सा सत्कर्म करके आए हो? जो तुम्हे जन्नत बख्श दी जाए?”
सर......, सर प्लीज सर...... बात ये हैं कि वहां का जो नम्बरदार है, वह हिटलर की सेना में रह चुका है। जो भी वहां जाता है......उसके साथ ...... उसके साथ, बस मत पूछो सर, मत पूछो।–कह कर वह फ़िर रोने लग जाता है।
“उसके साथ, फ़िर आगे बोलो”-जेलर ने कहा।
“सर, बिजली,पंखा,कूलर के लालच में जो चला जाता है उसे ऐसा लगता है कि वह नाजी कैम्प में आ गया हो। इतनी प्रताड़ना दी जाती है सर, नाखून तो नहीं उखाड़े जाते, पर कसर छोड़ी नहीं जाती।“
“हमने तो ऐसा कोई टार्चर रुम नहीं बना रखा।“
“क्या बताऊं सर मैं कुछ दिनों के लिए वहां चला गया था, वहां का हाल देख कर तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं सर, बस एक चीज की कमी है वहां”
“बताओ, अगर तुम जाओगे तो वह भी पूरी कर देंगे”- जेलर ने कहा
“सर, आप मेरे ही पीछे क्यों पड़े है, और किसी को भेज दिजिए, मैं यहीं छोटी गोल में काम कर लुंगा।“
“तुम वहां किसी चीज की कमी बता रहे थे, और ये बातों को बार-बार दोहरा कर क्या साबित करना चाहते हो?”
“सर, वह नाजी कैंप तो है,लेकिन वहां गिलोटीन(गला काटने का यंत्र) नहीं है, बस वह भेज दीजिए तो मैं चला जाउंगा, कम से कम जरुरत पड़ने पर कुर्बानी तो दे सकुंगा।“
“अरे!इतना भयानक है क्या वहां का वातारवरण, मुझे पता ही नहीं था।“
“मत पूछिए सर, वहां जो नम्बरदार है, उसकी हंसी ही इतनी खतरनाक है कि रमेश सिप्पी को पहले मालूम होता तो शोले के गब्बर के लिए उसे ही कास्ट किया जाता। गब्बर की हंसी से भी भयानक हंसी हैं। जब वह अट्टाहस करता है तो दीवारों से चूना झड़ने लग जाता है।कैदियों की सांस रुकने लग जाती है।उसकी लाल-लाल आँखे गजब का कहर बरपाती हैं, जब वह फ़िल्मों के डायलाग बोलने लगता है तो अमरीश पूरी और प्राण की आत्मा उसमें समा जाती है, और जो भी सामने उसे हीरो समझ कर पीटने लगता है सर। मुझे वहां मत भेजिए, प्लीज्।“
“इतना अच्छा सांस्कृतिक वातावरण हमारी जेल में बना हुआ है और हमें मालूम नहीं। तुमको वहां जरुर जाना चाहिए, कुछ सीखने मिलेगा।“
“राम सिंगSSS”—जेलर ने आवाज लगाई।
“जी सर”-राम सिंग हाजिर था।
“इसे खोली नम्बर 36 में पहुंचा दो-जेल में हमें सुसंस्कारित और प्राणवान लोगों की जरुरत है, यह वहाँ से अवश्य ही जीवन विद्या में पारंगत होकर आएगा……”-जेलर ने आदेश दिया।
खोली नम्बर 36 का नाम सुनते ही वह फ़िर अपने होश खोकर, धड़ाम से फ़र्श पर गिर चु्का था।

नोट:- इस कहानी का किसी जीवित या मृत व्यक्ति से कोई संबंध नहीं है।

रविवार, 29 अगस्त 2010

मुस्तैद रहे हरदम HMV के मार्केटिंग मैनेजर

रेड़ियो श्रोता सम्मेलन 20 अगस्त-शब्द नहीं चित्र कहता है।

रेड़ियो श्रोताओं के स्वागत के लिए HMV ने प्रतिनिधि मुस्तैद किए

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

रामबती जाग उठी

“रोगहा, भड़वा अब मार के देख, तोर मुर्दा नई रेंगा देंव त मोर नाम रामबती नइए”- रामबती गरज रही थी। ढेलु डंडा लेकर खड़ा था उसके सामने,बीबी भी साथ में थी। नल पर भोर में मजमा लगा था,पानी भरने वालों का।

सभी मुंह फ़ार के तमाशा देख रहे थे किसी की हिम्मत नही थी कि वे ढेलु के हाथ से डंडा लेकर रामबती को छोड़ाएं।

“तोर खून कर देहूं आज”-ढेलु गरज रहा था। आस-पास के घर वालों ने अपने किवाड़ बंद कर लिए थे और किवाड़ के दरज से देख रहे थे।

ढेलू ने जैसे ही रामबती को मारने के लिए लाठी घुमाई, रामबती ने पलटा खा कर वार बचाया और झुक कर ढेलु की मर्दानगी को ही पकड़ लिया और जोर से उमेंठ दिया।

ढेलू के छक्के-पंजे बंद हो गए, वह मारे दर्द के बिलबिला उठा। रामबती जैसे उमेंठती, वह वैसे ही वेदना से चिल्लाकर दोहरा हो जाता। दो लाठी खाने के बाद रामबती के हाथ ढेलू की चाबी लग गयी ।

ढेलू की पत्नी दोनों के बीच में घुस कर छुड़ाने का प्रयास कर रही थी। लेकिन रामबती छोड़ने का नाम ही नहीं ले रही थी। ढेलू निढाल हो चुका था, जैसे उसकी जान निकल रही हो।

उसकी मर्दानगी अब रामबती के हाथ थी। बेबस होकर उससे छोड़ने की गुहार कर रहा था।इस घटना की सूचना किसी ने रामबती के पति को दे दी।

वह डर के मारे घर से नहीं निकला। रामबती को ही ढेलू को सुधारना पड़ा। जब ढेलू की बीबी उसके पैरों में गिर गयी तब रामबती ने ढेलु को छोड़ा।

इस घटना की चर्चा सारे गाँव में फ़ैल चुकी थी। ढेलू का पुरुषार्थ धरा रह गया था। वह घर में घुसा हुआ था, किसी को मुंह दिखाने के लिए बाहर नहीं निकल रहा था।

उधर रामबती अपनी आप बीती लोगों को सुना रही थी। झगड़े का कारण था,नल से पानी भरना। जब भी फ़ूलबती अपनी गुण्डी(पीतल की मटकी) लेकर पानी भरने नल पर जाती तो ढेलू की बीबी पहले से पानी भरते रहती।

उसके पानी भरते तक वह किसी को नल को हाथ भी न लगाने देती थी। एक घंटे तक सभी महिलाएं अपनी-अपनी गुण्डी लेकर नल पर खड़ी रहती थी। लेकिन वह पट्ठी किसी को नल के पास फ़टकने तब तो।

ढेलू गाँव का कोटवार था, इसलिए उसकी दबंगई के सामने कोई कुछ नहीं कहता था। रुतबे का गलत फ़ायदा ये हमेशा उठाते थे।

रामबती को भी काम में जाना था, इसलिए उसने नल के नीचे आज अपनी गुण्डी लगा ली थी। जो ढेलू की बीबी को नागवार गुजरी और उसने अपने पति को आवाज दी, वह लाठी लेकर आया और रामबती पर बिना बात किए ही चलाने लगा। दो लाठी खाने के बाद तो रामबती उसका हाल बेहाल कर दिया।

रामबती पहले ऐसी नहीं थी, वह अपने काम में मगन रहने वाली औरत थी, लेकिन मरता क्या न करता इसलिए उसने परेशान होकर आज बहुत साहस का काम किया था। उसका क्रोध उमड़ ही पड़ा। कब तक सहती वह अत्याचारों को। जन्म से ही तो सहते आई है।

बचपन में माता-पिता की मृत्यु के बाद मामा ने उसका पालन-पोषण किया था, मामी उसे बहुत दु:ख देती थी। घर का सारा काम कराती और खाने भी नहीं देती थी। एक दिन उसने मामा से शिकायत कर दी तो मामा ने मामी को खूब मारा था। मामी ने उसे दुगना सताना प्रारंभ कर दिया। इस डर से अब वह मामा से भी शिकायत नहीं कर पाती थी।

15 बरस की हुई तो मामी ने उसकी शादी दबाव डाल कर एक अधेड़ से करवा दी और उसके एवज में कुछ पैसे अंटी में दबा लिए। उसका पति दारु पीकर आता और उसे मारता-पीटता। कोई काम नहीं करता था। इसलिए उसे 5 घरों में बर्तन-झाड़ू करने जाना पड़ता था।

जब वह कमा कर लाती तो उसका पति अब छीन कर दारु पी जाता। बस किसी तह मार सहकर भी अपनी जीवन की गाड़ी चला रही थी। उसके कोई आल-औलाद तो हुई नहीं थी।

एक दिन गांव में ट्रांसफ़र होकर एक साहब आए। उनकी पत्नी बीमार थी। जिसकी सेवा करने के लिए उन्हे एक बाई की जरुरत थी। उन्होने रामबती को काम पर रख लिया।

गांव के लोगों ने ढेलू वाली घटना साहब को बताई, उससे सावधान रहने को कहा। लेकिन साहब कुछ अलग ही तरह के इंसान थे, उन्होने किसी की बात की तरफ़ ध्यान देने की बजाए रामबती को काम पर रख ही लिया।

रामबती ने उनकी पत्नी की लगन से सेवा करनी प्रारंभ कर दी। उनकी पत्नी को लकवा हो गया था। वह खाट से हिल भी नहीं सकती थी। रामबती उसकी लगन से सेवा करती।

एक दिन उसे पता चला कि दारु पी-पी कर उसके पति को टीबी हो गयी है और इलाज नहीं कराने के कारण वह अंतिम चरण में पहुंच गयी है। कुछ दिनों में उसका पति अंतिम सांसे गिनने लगा। जैसा भी था उसका पति था।

उसने पति का अपनी औकात से ज्यादा इलाज कराया लेकिन एक दिन वह चल बसा। उसके घर में कफ़न-दफ़न करने के लिए भी रुपए पैसे नहीं थे।

साहब ने उसकी सहायता की और उसके पति का अंतिम संस्कार कराया। बिरादरी को भोजन भी कराया। अब रामबती अकेली हो चुकी थी पहाड़ सी जिन्दगी उसके सामने थी। बचपन से ही ठोकरें खा रही थी। लगता है उसकी किस्मत में यही लिखा था।

वह साहब के यहां नित्य काम पर जाती। उनकी पत्नी की सेवा करती, साहब के भी दो छोटे-छोटे बच्चे थे। एक दिन साहब की पत्नी ने दुनिया से विदा ले ली। साहब भी अब अकेले हो गए थे।

रामबती को उनके घर का अब सारा काम करना पड़ता था। एक दिन साहब ने रामबती को अपने साथ रहने का प्रस्ताव दिया। वे उसके साथ दूसरा विवाह करना चाहते थे। रामबती ने बहुत सोच विचार कर हां कर दी।

दोनो ने एक दुसरे का हाथ थाम लिया। रामबती अपने दुखों से निजात पा चुकी थी, बचपन के दुख और तकलीफ़ों के विसर्जन का समय आ चुका था वह एक नयी जिन्दगी सुख की शुरु कर चुकी थी। वह जाग उठी थी, अब पहले वाली रामबती नहीं साहबिन हो चुकी थी।

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

श्रावणी उपाकर्म कैसे बना रक्षा बंधन

प्राचीन काल में श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को श्रावणी पर्व के रुप में मनाया जाता था। उस समय वेद और वैदिक साहित्य का स्वाध्याय होता था। लोग प्रतिदिन वैदिक साहित्य पढते थे, लेकिन वर्षा काल में विशेष रुप से पढा जाता था। वेद पाठ का आयोजन विशेष रुप से किया जाता था।

भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है। पूर्णिमा को गुरुकुलों में विद्यार्थियों का प्रवेश होता था। इस दिन को विशेष रुप से विद्यारंभ दिवस के रुप में मनाया जाता था। बटूकों का यज्ञोपवीत संस्कार भी किया जाता था।
श्रावणी पूर्णिमा को पुराने यज्ञोपवीत को उतार कर नवीन यज्ञोपवीत को धारण करने की परम्परा भी रही है, जिसे हम वर्तमान में भी निभाते चले आ रहे हैं।

हमारे देश में आषाढ से लेकर सावन तक फ़सल की बोवाई सम्पन्न हो जाती है। ॠषि-मुनि अरण्य में वर्षा की अधिकता के कारण गांव के निकट आकर रहने लगते थे। जिसका लाभ ग्रामवासी उठाते थे। जिसे चातुर्मास या चौमासा करना कहते हैं।

चौमासे में ॠषि मुनि एक जगह वर्षा काल के चार महीनों तक ठहर जाते थे। आज भी यह परम्परा जारी है। इन चार महीनों में वेद अध्ययन, धर्म-उपदेश और ज्ञान चर्चा होती थी। श्रद्धालु एवं वेदाभ्यासी इनकी सेवा करते थे और ज्ञान प्राप्त करते थे। इस अवधि को "ॠषि तर्पण" कहा जाता था।

जिस दिन से वेद पारायण का उपक्रम आरम्भ होता था उसे “उपाकर्म” कहते हैं। यह वेदाध्यन श्रावण सुदी पूर्णिमा से प्रारंभ किया जाता था। इसलिए इसे “श्रावणी उपाकर्म” भी कहा जाता है।

पारस्कर के गुह्य सुत्र में लिखा है-“ अथातोSध्यायोपाकर्म। औषधिनां प्रादुर्भावे श्रावण्यां पौर्णमासस्यम् “ (2/10/2-2) यह वेदाध्ययन का उपाकर्म श्रावणी पूर्णिमा से प्रारंभ होकर पौष मास की अमावस्या तक साढे  चार मास चलता था। पौष में इस उपाकर्म का उत्सर्जन किया जाता था।

इसी परम्परा में हिंदु संत एवं जैन मुनि वर्तमान में भी चातुर्मास का आयोजन करते हैं, भ्रमण त्याग कर चार मास एक स्थान पर ही रह कर प्रवचन और उपदेश करते हैं।

मनुस्मृति में लिखा है-
श्रावण्यां पौष्ठपद्यां वाप्युपाकृत्य यथाविधि।
युक्तश्छन्दांस्यधीयीत मासान् विप्रोSर्ध पंचमान्।।
पुष्ये तु छंदस कुर्याद बहिरुत्सर्जनं द्विज:।
माघशुक्लस्य वा प्राप्ते पूर्वार्धे प्रथमेSहनि॥

अर्थात श्रावणी और पौष्ठपदी भ्राद्रपद, पौर्णमासी तिथि से प्रारंभ करके ब्राह्मण लगनपूर्वक साढे चार मास तक छन्द वेदों का अध्ययन करे और पौष मास में अथवा माघ शुक्ल प्रतिपदा को इस उपाकर्म का उत्सर्जन करे।

इस कालावधि में प्रतिदिन वेदाध्यन किया जाता था, प्रतिदिन संध्या और अग्निहोत्र किया जाता था। नए यज्ञोपवीत को धारण करके स्वाध्याय में शिथिलता न लाने का व्रत लिया जाता था। वेद का स्वाध्याय न करने से द्विजातियां शुद्र एवं स्वाध्याय करने से शुद्र भी ब्राह्मण की कोटि में चला जाता है। इस तरह वेदादि अध्ययन एव स्वाध्याय का प्राचीनकाल में बहुत महत्व था।

राजपूत काल में यह पर्व राखी के रुप में परिवर्तित हुआ। नारियाँ को दुश्मन यवनों से बहुत खतरा रहता था। वे बलात् अपहरण कर लेते थे। इससे बचने के लिए उन्होने वीरों को कलाई परे सूत्र बांध कर अपनी रक्षा का संकल्प दिलाया।

तब से यह प्रसंग चल पड़ और रक्षा बंधन का पर्व भी श्रावण सुदी पूर्णिमा को मनाया जाने लगा। राख का अर्थ ही होता है, रखना, सहेजना, रक्षित करना। कोई भी नारी किसी भी वीर को रक्षा सूत्र (राखी) भेज अपना राखी-बंध भाई बना लेती थी वह आजीवन उसकी रक्षा करना अपना कर्तव्य समझाता था।

चित्तौड़ की महारानी कर्णावती ने मुगल बादशाह हुमायूं को गुजरात के शासक से अपनी रक्षा हेतु राखी भेजी थी और बादशाह हुमायूं ने राखी का मान रखते हुए तत्काल चित्तौड़ पहुंच कर उसकी रक्षा की थी। तब से रक्षा-सूत्र के बंधन का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ और रक्षा बंधन पर्व मनाया जाने लगा। जिसका वर्तमान स्वरुप आप सभी के सामने है। 

बुधवार, 25 अगस्त 2010

घुटने टेक देने से जीत नहीं होती



लड़ो,  भिड़ो,   श्रम   करो, संघर्ष करो  
घुटने   टेक   देने   से जीत नहीं होती 

खुरचते  रहो, छिलते  रहो, काटते रहो
समर्पण  करने  से   जीत  नहीं  होती

झोंको,  तोड़ो,  काँटों को उखाड़ फेंको
हाथ  खड़े  करने से  जीत  नहीं  होती

बिना  चैन डटे रहो अंतिम साँस तक
डरके   भागने   से   जीत  नहीं होती


छोड़ते नहीं शिकारी सोई चिड़िया को
हार  मानकर सोने से जीत नहीं होती


मंगलवार, 24 अगस्त 2010

लांस नायक वेदराम

सामने पहाड़ी पर एक टक निगहबानी करती हुई मेरी एक जोड़ी आंखे जमी हुई बर्फ़ को देख रही थी। दूर तक कहीं हरियाली का नाम-औ-निशान नहीं। चारों तरफ़ बर्फ़ ही बर्फ़ धवल और शुभ्र। 

मैं लांस नायक वेदराम अपनी एल एम जी बंकर में मजबूती से संभाले हुए चौकस था। पिछले 5 महीनों से इस फ़ील्ड पर वह अपनी ड्युटी बजा रहा था। बड़ा कठिन होता है नो मेंस लैंड पर ड्युटी करना, जहां आम सुविधा तो क्या, दैनिक निवृति भी मुस्किल से होती है। 

पता नहीं कब बंकर से बाहर निकलते ही पहाड़ी के पार से आती गोलियां शहीद का दर्जा बख्श दे प्रमाण पत्र के साथ।  

मन कल से ही उदास था। रह-रह कर बस सुक्खी की याद आ रही थी।घर में बूढी माँ अकेली थी। बहन की शादी तो मैं कर आया था पिछले जाड़ों में। एक जिम्मेदारी जो थी उसे निभा आया था। परिवार की जिम्मेदारी भी बहुत बड़ी होती है जब घर का एकमात्र पुरुष घर से दूर रहे।

जब भी मैं घर जाता तो माँ याद दिलाती कि-“ सुक्खी बड़ी हो गयी है, उसके हाथ पीले कर देने चाहिए, अच्छा सा लड़का देखकर”। अब की  छुट्टियों में मैं यही सोच कर गया था कि-कैसे भी हो सुक्खी के हाथ पीले कर के ही वापस आऊंगा।

सुक्खी मुझसे दो साल छोटी थी, पाकिस्तान की लड़ाई में पिताजी के शहीद होने के बाद माँ ने हमें बड़ी तकलीफ़ों से पाला था। 300 रुपए की पेंशन में घर का गुजारा नहीं होता था।आर्मी वेलफ़ेयर एसोसिएशन की कुछ अफ़सरों की बीबियां माँ को एक सिलाई मशीन देकर गयी थी और उसकी फ़ोटो दूसरे दिन अखबारों में छपी थी।

तब से माँ ने सिलाई का काम शुरु कर दिया। हम भी उसका हाथ बंटाते । कभी सुक्खी मेरे साथ छेड़खानी करती, मेरी स्लेट लेकर बैठ जाती। माँ मैं भी स्कूल जाउंगी। माँ से मैं उसकी शिकायत करता-“माँ देख सुक्खी मेरी स्लेट नहीं दे रही है।

मुझे अभी स्लेट पर ईमला लिख कर ले जाना है।“ माँ हंस कर कहती-“दे दे सुक्खी भाई की स्लेट, मैं तुझे दूसरी ला दुंगीं।“ माँ के कहने से भी नहीं देती थी स्लेट, तब मैं उसकी चुटिया पकड़ कर खींचता तो वह नाराज हो जाती।

उसे मनाने के लिए स्कूल से आते हुए ढोलुराम बनिए की दुकान से पोदीने वाली टिकिया लेकर आता।

आते ही आवाज देता-“ सुक्खी-देख तेरे लिए मैं क्या लाया हूँ?

आवाज सुनकर वह दौड़ कर बाहर निकल आती और कहती-“ माँ मेरा भाई कितना अच्छा है, मेरे लिए कितना कुछ लेकर आता है।“

उसकी बातें सुनकर माँ मुस्कुराती और मैं भी हंसने लगता था-कितनी भोली है मेरी बहन। सुबह झगड़ा किया था और नाराज थी, पोदीने की टिकिया मिलते ही अब राजी हो गयी।फ़िर हम दोनो लंगड़ी खेलने लगते और खूब धमा चौकड़ी मचाते।

इस तरह हमारा बचपन बीतता गया। मैने मैट्रिक पास कर ली थी अब 17 का हो गया था।

मां से पूछता-“माँ तुम्हारी उमर कितनी है? तो माँ कहती-“बेटा जब तु 20 बरस का हो जाएगा तो मैं 40 बरस की हो। तेरे पिताजी के जाने के बाद एक-एक दिन और पल गिन रही थी कि तु कब बड़ा होगा।“

सुक्खी भी अब स्कूल जाने लगी, वह रोज स्कूल जाती और वापस आकर माँ के सिलाई के काम में हाथ बंटाती। सिले हुए कपड़ों पर बटन और हुक टांगती। फ़िर अपनी पढाई करती।

गाँव में बिजली नहीं थी। इसलिए हमें पढाई का काम अंधेरा होने से पहले ही पूरा करना पड़ता था। माँ के पास अब सिलाई का काम बहुत बढ गया था। इसलिए हम सब मिल जुल कर काम को करते ।

एक दिन अमर सिंग ने बताया कि-पानीपत में फ़ौज की भरती शुरु हुई है। गांव से बहुत सारे लड़के जा रहे हैं।

मैने माँ से कहा-“माँ गाँव से मेरे साथ के बहुत सारे लड़के पानीपत में फ़ौज में भर्ती होने जा रहे हैं। अगर तू कहे तो मैं चला जाऊं ।“

माँ सुनकर उदास हो गयी, आसमान में ताकने लगी, उसकी आँखे डबडबा आईं, थोड़ी देर में फ़िर बोली-“जा बेटा हमारे खानदान में तो पीढियों से परम्परा रही है,फ़ौज की नौकरी करने की।

फ़िर उसने अपने पल्लु में बंधे 28  रुपए दिए। रोटियों को चूर कर चूरमा बनाया,मुझे पिताजी का मेडल देना नहीं भुली और माथे पर हाथ फ़ेर कर कहा-“जा बेटा भर्ती हो जा।“

पानीपत पहुंच कर मैने अपने पिताजी का मेडल वहां बैठे भर्ती ऑफ़िसरों को दिखाया और उन्होने मुझे भी लाईन में लगा दिया। नाप-जोख, भाग-दौड़ होने के बाद दुसरे दिन मुझे किट बैग थमा दिया गया और सीधे वहीं से बेसिक ट्रेनिंग कोर्स के लिए भेज दिया गया।

6 माह की रंगरुटी के बाद मेरी पोस्टिंग यहाँ बार्डर पर हो गयी। पिछली छुट्टियों में घर गया था तो माँ के लिए साड़ी, सुक्खी के लिए कैंटिन से एच एम टी की घड़ी लेकर आया था। उसे घड़ी का बड़ा शौक था। हमेशा घड़ी के लिए मुझे कहती थी लगता था कि इस घड़ी के बिना वह घड़ी भी नहीं रह सकती।

अबकी छुट्टियों में उसके लिए कैंटीन से मैने बहुत सा सामान खरीदा और घर पहुंच गया। माँ ने सुक्खी के दहेज के लिए काफ़ी कुछ जरुरतों का सामान जमा कर रखा था। काफ़ी तलाश के बाद एक लड़का पास के गांव में मिल ही गया।

वह गोविंद गढ में स्कूल मास्टर था। धूम धाम से शादी हो गयी और सुक्खी अपने घर चली गयी।

बचपन में मेरा जब उससे झगड़ा होता तो माँ कहती –“तू मत लड़ रे उससे, वो तो पराई है एक दिन तुझे छोड़ कर चली जाएगी, ये तो चिड़िया है,चिड़िया एक दिन उड़ जाएगी।” तब तो मेरी समझ में नहीं आता था कि माँ ऐसा क्यों कहती है।

उसका विदा करके मैं जी भर रोया। आंसू रुकते ही नहीं थे। सुक्खी अपने घर चली गयी थी, चिडिया उड़ चुकी थी।

बस इस बात को बरसों बीत गए। भाई-बहन के जीवन में बरस में एक विशेष दिन आता है जब दोनो एक दूसरे को बहुत याद करते हैं, चाहे दुनिया के किसी कोने में भी हों इस दिन मिल ही लेते हैं। राखी के एक दिन पहले हमेशा उसका राखी का लिफ़ाफ़ा हजारों किलोमीटर दूर कदमों से चलकर मेरे पास आ जाता था।

दूसरे दिन सभी साथियों की तरह मेरी भी कलाई पर राखी सज जाती थी जैसे किसी ने शौर्य चक्र मेरे सीने पर लगा दिया हो और दिन भर मैं तनकर खड़ा रहता था अपनी एल एम जी के साथ, जिस पर सुक्खी की भेजी एक राखी बंधी होती थी।

एल एम जी मेरी रक्षा करती, मैं एल एम जी की और सुक्खी की राखियों में समाया प्रेम हम दोनो की रक्षा करता।
मैं इतजार कर रहा हूँ सुक्खी के लिफ़ाफ़े का जो खुशियां लेकर आएगा मेरे लिए। जिसमें होगीं सलामती की लाख दुवाएं, जिसकी मुझे हमेशा जरुरत रहती है,

हरकारे की आवाज का इंतजार कर रहा हूं जब वह कहेगा-“ लांस नायक वेदराम! तुम्हारी राखियाँ आ गयी हैं अब जरा सी रम पिला दे यार।“ मैं भी खुशी से आधी बोतल उसके गिलास में उड़ेल दूंगा।  वह भी मस्त हो जाएगा। भाई बहन के प्रेम के गीत गुन-गुनाएगा। यह खुशी ही कुछ ऐसी है।

अब जब भी सूनी कलाई पर मेरी निगाह पड़ती है, एक हूक सी दिल में उठती है, एल एम जी पर मेरा हाथ कस जाता है, क्योंकि आज दोनो ही उदास है, मेरी कलाई भी सूनी है और एल एम जी का ट्रिगर  भी……. 

माँ की चिट्ठी आई थी मैं मामा बनने वाला हूँ। बहुत खुश हुआ था सुनकर मैं। ऐसा लगता था कि अभी उड़कर उसके पास पहुंच जांऊ। एक बार सुक्खी से मिल आऊं। कैसी है वह। बस दिन यों बीतते गए और मैं खुशखबरी का इंतजार करता रहा।

एक दिन चिट्ठी आई कि मैं मामा बन गया हूँ,खुशी के साथ दुख: का एक पहाड़ भी टूट पड़ा मेरे उपर, आगे चिट्ठी में लिखा था-“ जापे (जचकी) के दौरान सुक्खी की तबियत बिगड़ गयी और वह अपनी निशानी छोड़कर चली गयी। चिड़िया थी अनंत आकाश में उड़ गयी।

मुझे तो लगा कि पाला मार गया, सारा शरीर सुन्न हो गया। हे भगवान! ये कैसा न्याय है तेरा? बरसों से खुशियों को तरसने वालों को तू खुशी का एक मौका न दे सका। बस यूं ही खड़ा रहा मैं अपनी एल एम जी के साथ और चिड़िया उड़ गयी है मेरे आंगन की अनंत आकाश में……..

सोमवार, 23 अगस्त 2010

मर कर भी छुपाने होते हैं गम शायद

ईद का चाँद मुस्किल से दिखता है,
लैला को मजनुं मुस्किल से मिलता है।
हम तो SMS भेजते रहते हैं पर,
आपका SMS मुश्किल से मिलता है।

मेरी किसी खता पे नाराज न होना,
अपनी प्यारी सी मुस्कान कभी न खोना।
सुकून मिलता है सुनकर आपकी हंसी,
जिन्दगी में तुम कभी उदास न होना।

उम्मीदों की शमा दिल में मत जलाना,
इस जहान से अलग दुनिया मत बसाना।
आज मुड में था तो SMS कर दिया,
पर रोज इंतजार में पलकें मत बिछाना।

एक तो आपसे मुलाकात नहीं होती,
होती है तो पर बात नहीं होती।
सिर्फ़ SMS आने से दिल नहीं भरता,
क्युंकि उसमें आपकी आवाज नहीं होती।

धरती का गम छुपाने के लिए गगन होता है,
दिल का गम छुपाने के लिए बदन होता है।
मर कर भी छुपाने होते हैं गम शायद,
इसलिए हर लाश पे एक कफ़न होता है।

रविवार, 22 अगस्त 2010

उदय ने बनाया चित्र

सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तां हमारा, हम बुलबुले हैं उसकी ये गुलिस्ताँ हमारा, उदय १५ अगस्त से तीन दिन पहले से ही गा रहा था. 

स्कुल में झंडा जो फहराना था,कविता भी गानी थी.  

१५ अगस्त को मेरा कई जगह कार्यक्रम रहता है. इसलिए सभी जगह थोडा-थोडा समय देना पड़ता है. 

उदय ने मेरा झंडा फहराते हुए एक चित्र बनाया है और कहने लगा कि पापा इसे ब्लॉग पर लगाओ. पाबला जी और राज भाटिया दोनों ताऊ जी देखेंगे. 

इन्हें वो अच्छे से जानता है. राज भाटिया जी से तो बहुत देर तक बात की उसने. मैंने समझाया बेटा ये ताऊ जी हैं. 

दादा और पापा के बीच में एक बड़ी भारी शख्शियत होती है, उसे ताऊ जी कहते हैं. 

अब उसकी समझ में आ गया है. ताऊ जी किस शै का नाम है. देखिये उदय का बनाया हुआ चित्र. एक दिन वह इन दोनों के भी चित्र बनाएगा. 

उदय की चित्रकारी 




......

शनिवार, 21 अगस्त 2010

रेडियो का जादू आज भी बरकरार

दुनिया का प्रत्येक आदमी रेडियो सुनता है, इस माध्यम से अपनी मातृ भाषा में जगत के विषय में जानता है। भारत में भी रेडियो का प्रचलन एक समय में जोरों पर था। हम बचपन में रेडियो सुनते थे। लेकिन जब से टीवी ने घर में प्रवेश किया तभी से रेडियो चलन के बाहर हो गया था।

श्री मनोहर महाजन,विजय लक्षमी,रिपुसूदन एलाबादी,अशोक जी
लोगों के घरों से रेडियो गायब हो गए। लेकिन समय ने एक बार फ़िर करवट ली है। रेडियो के सुहाने दिन फ़िर आ चुके हैं। तकनीकि में सुधार होने से एफ़एम के माध्यम से मधुर और कर्णप्रिय संगीत अब साफ़-साफ़ सुना जा सकता है। जैसे रिकार्ड पर चल रहा हो। 

मैने अधिकतर रेडियो का एक ही कार्यक्रम सुना चौपाल, यह मीडियम वेब पर चलने वाला कार्यक्रम था इसलिए साफ़ सुनाई देता था। उस जमाने में रेडियो सिलोन तो मुझसे ट्यून ही नहीं होता था। अगर कभी रेडियो ट्यून हो गया तो इतनी घर-घराहट आती थी कि गाना सुनने का मजा किरकिरा हो जाता था।

रेडियो सिलोन के दीवानो से खचाखच भरा हॉल
चौपाल में बजने वाले छत्तीसग़ढी गीत मन को मोह लेते थे। एक कार्यक्रम रेडियो सिलोन पर बजा करता था प्रत्येक बुधवार को बिनाका गीत माला। क्या कार्यक्रम हुआ करता था, उसका आनंद अभी तक मौजूद है,

अमीन सयानी की आवाज चार चांद लगा देती थी। गीत से कम उसकी आवाज से हम अधिक प्रभावित होते थे।उसके बाद फ़िर कभी रेडियो सुनने का मौका नहीं मिला, लेकिन जब से एफ़एम आया तब से फ़िर रेडियो की तरफ़ मुड़ गए। सिर्फ़ पुराने गाने ही सुनने का मन करता है।
पुराने और नए रेडियो के साथ श्री अशोक बजाज

आज 20 अगस्त है और इस दिन को रेडियो श्रोता दिवस के रुप में मनाया जाता है यह अशोक भाई से सु्ना। हमारे चाचा रेडियो के बहुत शौकीन थे।

जैसे आज अशोक बजाज हैं। मेरा भी मन हो गया कि इस कार्यक्रम में शिरकत की जाए। कार्यक्रम में रेडियो सिलोन के उद्घोषक मनोहर महाजन, रिपुसूदन एलाबादी, विजय लक्ष्मी डिसेरम, हरमिंदर सिंग हमराज, उद्घोषिका शारदा पांडे ग्वालियर, महेन्द्र मोदी झारखंड आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम के आयोजक छत्तीसगढ श्रोता संघ एवं ओल्ड लिस्नर्स ग्रुप ऑफ़ इंडिया थे।

रेडियो सिलोन के एनाऊंदर श्री रिपुसूदन एवं ललित शर्मा
इनके संरक्षक भाई अशोक बजाज हैं। जब हम इस कार्यक्रम में पहुंचे तो श्रोताओं से हाल खचाखच भर गया था। मैने सोचा भी न था कि उत्साह से लबरेज इतने रेडियो श्रोता एक साथ मुझे मिलेंगें। लेकिन मैं आश्चर्य चकित रह गया कि डिश टीवी और इंटरनेट के जमाने में आज भी रेडियो का आर्कषण कायम है।

मैं भी कभी-कभी मोबाईल रेडियो पर पुराने गाने सुन लिया करता हूँ। इस मायने में एक श्रोता मैं भी हूँ।

जब मनोहर महाजन ने कार्यक्रम स्थल में प्रवेश किया तो सारे श्रोता झूम उठे, ऐसा तो मैने श्रीदेवी के कार्यक्रम में भी नहीं देखा।

इस कदर स्वागत उनका उपस्थित श्रोताओं ने स्वागत किया कि कोई टॉप का फ़िल्म अभिनेत्री या अभिनेता भी ईर्ष्या से भर उठे।

इसी तरह दिल से मनोहर महाजन भी सबसे गले लग के मिले, उनका यही अपनापन उनके चाहने वाले श्रोताओं के दिलों मे बस जाता है। विजय लक्ष्मी डिसेरम ,रिपुसूदन एलाबादी, हरमिंदर सिंग हमराज और उद्घोषिका शारदा पांडे ग्वालियर को भी लोगों ने हाथों हाथ लिया।

इतना प्रेम और स्नेह का आदान प्रदान एक उद्घोषक और श्रोताओं के बीच मैने कहीं नहीं देखा। लगभग 80 की उम्र के एक सज्जन तो मनोहर महाजन के गले लग गए और भावुक हो गए।

आह इतना प्रेम!!!!!!!! शायद प्रेम का दरिया फ़ूट पड़ा। अथाह सागर उमड़ पड़ा। अगर कवि तुलसी दास की वाणी में--"स्वर्ग से देवताओं द्वारा पूष्प वर्षा की बस कमी रह गयी थी"कहूं तो अतिश्योक्ति नहीं होगी।

अशोक भाई और श्रोता संघ की टीम साधुवाद की पात्र है। मै यह अपने मन की बात लिख रहा हूँ कोई समाचार नहीं। इस वक्त मेरे मन में यही भाव उमड़ रहे हैं।
देवी शंकर अय्यर परिचय देते हुए--हरि भूमि से साभार
देवी शंकर अय्यर भी आज मेरे साथ दिन भर रहे। पूरे दिन हमने कार्यक्रम का आनंद लिया, पुष्प वर्षा नहीं हुई तो कोई बात नहीं लेकिन इंद्र देव ने मेहरबान होकर वर्षा जरुर करवा दी।

शाम को मुख्य अतिथी केबिनेट मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने उपस्थित उद्घोषकों को स्मृति चिन्ह दिए। उन्हे रेडियो रत्न से नवाजा गया। श्रोताओं को भी स्मृति चिन्ह दिए गए उन्हे रेडियो स्टार का सम्मान दिया गया।

मनोहर महाजन ने कहा कि-जितना प्रेम मुझे रेडियो सिलोन के श्रोताओं का मिला उतना प्रेम 1200 घंटे की 17 साल की रिकार्डिंग में डिस्कवरी एवं जियोग्राफ़ी के दर्शकों का नहीं मिला। वे तो जानते ही नहीं है कि मनोहर महाजन कौन है?

इस कार्यक्रम में सुदुर वनांचल से भी रेडियो के श्रोता आए थे। इससे आभास होता है कि रेडियो के दिन फ़िर लौट रहे हैं। क्योंकि स्वच्छ मनोरंजन का एक मात्र साधन रेडियो ही है, भले कुछ मिर्ची वाले रेडियो आने से इसके स्वाद में बदलाव अवश्य ही आया है लेकिन रेडियो की महत्ता आज भी कायम है।

श्री अशोक बजाज, श्री बचका मल, श्री बरलोटा
छत्तीसगढ का झूमरी तलैया याने हमारी श्रीमती का गांव भाठापारा रेडियो श्रोताओं से समृद्ध है। यहां के नामी श्रोता बचकामल ने सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। उम्र के ढलान पर बचकामल जी आज भी रेडियो के दीवाने हैं। सिर पर काली टोपी लगाए बचकामल पैरों से अवश्य ही अशक्त हैं लेकिन सिलोन के गानों के प्रति आज भी उनका दिल धड़कता है।

प्रज्ञा चक्षु कांति लाल बरलोटा और कुमारी दुबे की उपस्थिति भी सराहनीय रही। मैं भी रेडियो श्रोताओं से परिचित हुआ। रेडियो में हमने भी पहले बहुत फ़रमाईशी कार्यक्रम के पत्र डाले और गाने भी सुने लेकिन कुछ अंतराल के बाद फ़रमाईश करना छूट गया।

यह भी एक साधना का ही काम है, पहले गाने याद रखना, फ़िर पोस्ट कार्ड पर लिखना और उन्हे समय पर सुनना। अगर पत्र फ़रमाईशी कार्यक्रम में शामिल नहीं हुआ  फ़िर  भी फ़रमाईशी पत्र ले्खन की निरंतरता बनाए रखना बड़े धैर्य का काम है। रेडियो श्रोता अवश्य ही साधक हैं। ओल्ड लिस्नर्स ग्रुप ने कुछ बच्चों को भी सम्मानित कर अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।

ग्रामीण श्रोता, जिनके दम से रेडियो कायम है
भाई अशोक बजाज ने एक सारगर्भित बात कही-"हम लोग रेडियो को सपरिवार बैठ कर सुन सकते हैं लेकिन टीवी सपरिवार बैठ कर नहीं देख सकते।" यह मेरे साथ भी होता है कि कभी किसी चैनल पर इतने भद्दे कार्यक्रम के दृश्य आ जाते हैं कि मुझे चैनल बदलना ही पड़ता है।

रेडियो संस्कृति का पोषक है तो टीवी अब भस्मासुर बन कर खड़ा है और अपने वरदान दाता के सिर पर हाथ फ़ेरने ही वाला है। संस्कृति के अपसंस्कृतिकरण से अगर बचना है तो रेडियो की ओर पुन: उन्मुख होना ही पड़ेगा।

टीवी ने रेडियों के श्रोताओं का बलात अपहरण किया है एक दिन उसके बंधन से श्रोताओं को छूटना ही है,वह समय अब आ गया है जब रेडियों की जड़ों में पावस की अमृ्त की बुंदों का संचरण हो रहा है। 
बूढा बरगद एक दिन फ़िर से पुष्पित पल्ल्वित होगा और सारा जमाना फ़िर से सुनेगा इसकी मधुर तान। वही किसान फ़िर ऊंट के गले रेड़ियो लटका कर अपने खेतों में हल चलाएगा और माटी भी पुन: माटी के गीत सुनेगी और आनंदित होकर दुगनी फ़सल देगी। रेड़ियो सिलोन फ़िर भूले बिसरे गीत सुनाएगा।

कार्यक्रम की अन्य विस्तारित जानकारी के लिए यह पोस्ट अवश्य पढें


सुनिए अशोक बजाज को रेड़ियो श्रोता दिवस पर




सुनिए सिलोन वाले रिपुसूदन एलाबादी को रेड़ियो श्रोता दिवस पर

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

हेलमेट और लाल बत्ती का जलवा

कुंदन भैया के कुंदन जैसे चमकते मुख मंडल पर मुर्दनी छाई हुई थी, सुबह- सुबह नुक्कड़ पर जब से चेलों ने खबर दी थी कि सरकार अब लाल बत्ती लगाने के लिए नया कानून बना रही है, तब से सुनकर चिंता ग्रस्त हो गये थे। चेले भी सामने खड़े थे। हाथ बांधे हुए। तभी चुप्पी तोड़ते हुए कुंदन भैया ने प्रश्न दागा-“तो क्या करना चाहिए। यह तो बेईज्जती वाली बात है।“
“आप बस इशारा करो भैया,जो कहोगे वो हो जाएगा” एक चेले ने कहा
“लेकिन मामला गंभीर है,इतनी आसानी से हल नहीं होगा,मुझे जरा सोचने दो,जरुरत पड़ने पर मैं कॉल करता हूँ।“
कुंदन भैया, मोहल्ले के नामी-गिरामी नेता हैं। इन्होने जब से जन्म लिया है तब से अध्यक्ष ही बनते आ रहे हैं, कहने का तात्पर्य यह है कि अध्यक्ष बनने के लिए जन्म लिया है। एक बार इन्हे मुहल्ले वालों ने मुहल्ला विकास समिति का अध्यक्ष बना दिया तब से इन्होने समझ लिया कि अध्यक्ष बनना इनका जन्म सिद्ध अधिकार है। किसी के घर में छठी का कार्यक्रम हो, किसी की मौत पर शोक सभा हो, या सुलभ शौचालय का उद्घाटन, इन्हे बस अध्यक्षता करने से मतलब है।
एक बार मोहल्ले वालों ने कहा कि-अध्यक्ष के पास एक अदद कार और लाल बत्ती का होना जरुरी है। आप कार क्यों नहीं खरीद लेते? फ़िर उस पर लाल बत्ती लगा कर चला करें, जिससे हमारे मोहल्ले की भी शान बढेगी शहर में।
यह बात तो कुंदन भैया को जच गयी, लेकिन लाल बत्ती के लिए भी सरकार ने कानून बना रखा है कि अपनी गाड़ी पर लाल बत्ती का उपयोग करने का अधिकार किसे है।
इसका इन्होने तोड़ निकाल लिया। एक दिन अपना हेलमेट लेकर गए अब्दुल मिस्त्री के पास और हेलमेट के उपर में ही लाल बत्ती फ़िट करवा ली। उसे चलाने के लिए स्कूटर की डिक्की में एक 6 वोल्ट की बैटरी रख ली। सोच लिया कि जब भी कहीं जाना होगा,  सर पर लाल बत्ती वाला हेलमेट लगाया और सायरन बजाते निकल पड़ेंगे सड़को पर।
एक दिन कुंदन भैया जैसे ही हेलमेट पर लाल बत्ती लगा कर निकले,
चौराहे पर पुलिस वालों ने पकड़ लिया,-“लाल बत्ती किसके परमीशन से लगा रखी है?
“जिसने हेलमेट लगाने का परमीशन दिया है”।
“तुम्हे मालूम है, लाल बत्ती लगाना जुर्म है”।
“कौन सी कानून की किताब में लिखा है कि हेलमेट पर लाल बत्ती लगाना जुर्म है, मुझे बताओ।“
अब ट्रैफ़िक पुलिस वाले चक्कर में पड़ गए। मामला ट्रांसपोर्ट कमिश्नर तक पहुंच गया, लेकिन ऐसा कानून कहीं नहीं मिला कि हेलमेट पर लाल बत्ती लगाना मना है। 
कुंदन भैया को यह बात पता थी कि हेलमेट पर लाल बत्ती लगाने पर जुर्माने का कानून की किताब  में जिक्र ही नही है, जब तक सरकार कानून लाएगी,तब तक तो लाल बत्ती का मजा लेगें, और जब कानून आ जाएगा तब इस कानून का तोड़ निकालने की सोचेंगे, लेकिन लाल बत्ती लगाना नहीं छोड़ेगें।

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

उपन्यास लेखन और केश कर्तन साथ-साथ

श्री रामभरोसा सेन-सब पर नजर
“करे करावे आप है पलटु पलटु शोर” पलटु दास यही कहते थे। सद्कार्यों का श्रेय, प्रेय मार्ग पर चलते हुए ईश्वर को देते थे। कबीर दास जी पेशे से जुलाहा थे। खड्डी पर कपड़ा बुनते थे।

 लोगों को सत्य का मार्ग दिखाते थे। अनपढ होने के बाद भी इतनी गंभीर और गुरुतर साखियाँ कह गए कि पता नहीं इन पर शोध करके कितने लोग पीएचडी लेकर डॉक्टरेट की उपाधि पा गए।

कबीर दास का चिंतन वर्तमान काल में भी प्रासंगिक है। इसी परम्परा में रविदास हुए, सारा जग जानता है कि वे जूते बनाने का काम करते थे। अपने पेशे के साथ-साथ उन्होने जग का मार्ग दर्शन किया, सच्चे कर्म योगी थे। उनके कार्य में कभी पेशा आड़े नहीं आया। ईश्वर ने सदा उन पर अपनी अनुकम्पा बनाए रखी। वे जग प्रसिद्ध हुए।

इसी परम्परा में चलते हुए एक आधुनिक युग के उपन्यासकार से आपको रुबरु करा रहा हूँ, जो पेशे से तो नाई हैं। केश कर्तन कला में माहिर हैं। अपने केश भी स्वयं ही संवारते हैं।

बाकी नाईयों को तो अपनी स्वयं की हजामत दूसरे से करानी पड़ती होगी लेकिन ये अपनी हजामत स्वयं करते हैं, यह भी एक निरंतर अभ्यास और लगन का परिणाम है।

मैं बचपन से अपनी हजामत इनसे ही कराता हूँ, चाहे कहीं भी रहु, देश-परदेश में लेकिन जब बाल बढ जाते हैं तो इनकी याद आती है और सीधा इनके पास ही दौड़ा चला आता हूँ। इनसे हमारा पीढियों का रिश्ता है, परिवार के एक सदस्य की मानिंद सुख-दुख भी आपस में बांटते हैं।

अब आप सोच रहे होगें कि एक साधारण से नाई की चर्चा मैं क्यों कर रहा हूँ। बताता चलुं कि यह शख्स साधारण अवश्य है लेकिन इनके कार्य असाधारण हैं।

ईश्वर में अटूट आस्था रखने वाले अभनपुर निवासी और पढे-लिखे कर्मयोगी राम भरोसा सेन जी की बस स्टैंड में तुलसी हेयर कटिंग सेलून एवं ब्युटी पार्लर नाम से हजामत  की दुकान है, जहां पहले ये अपने पिता जी के साथ काम करते थे अब अपने पुत्र के साथ काम करते हैं।

नगर के गणमान्य लोग इनकी ही सेवा लेते हैं। नम्बर लगा कर अपनी हजामत कराते हैं। ये छोटे-बड़े, जाति-पातिं, अमीर-गरीब इन सब बुराईयों से अलग होकर  निरपेक्ष भाव से सभी की सेवा करना अपना कर्तव्य समझते हैं,पूरानी मैट्रिक तक शिक्षा प्राप्त राम भरोसा सेन लगन से अपना काम करते हैं, ना काहु से दोस्ती, ना काहु से बैर।

सुबह 8 बजे इनकी दुकान खुल जाती है और रात को 8 बजे नियम से बंद होती है। बस यही जिन्दगी है, लोगों की सेवा करते-करते आज 58 वर्ष के हो चुके हैं। इनकी पढने और लिखने में भी रुचि है। शतरंज के अच्छे खिलाड़ी हैं।

मेरी राम भरोसा जी से हमेशा चर्चा होते रहती है, इन्होने 3 उपन्यास लिखे हैं जो सामाजिक सरोकार से संबंधित हैं। समाज का कुरीति और बुराइयों पर इनकी पैनी नजर है, इनके उपन्यासों में आस-पास समाज की झलक दिखाई देती है।

इनका पहला उपन्यास “लाल चुनरिया” है, दूसरा उपन्यास “मुसीबत” और तीसरा उपन्यास “विधवा विवाह” है। यह उपन्यास प्रकाशित नहीं है, इनकी पान्डू लिपियाँ राम भरोसा जी के पास सुरक्षित हैं, इन उपन्यासों को मैने देखा है, गांव में रहकर हजामत कार्य करते हुए, लेखन करना एक अद्भुत कार्य है।

मैं जब भी इनके पास हजामत कराने जाता हूँ तो गर्व होता है कि एक उपन्यासकार से अपने बाल कटा रहा हूँ और दाढी बना रहा हूँ। बचपन से जीवन के झंझावातों से जूझने एवं उनसे लड़ने की छाया स्पष्ट रुप से इनके लेखन में नजर आती है।

जब इन्होने मैट्रिक की परीक्षा पास की तब सरकारी नौकरियों की कमी नहीं थी, मैट्रिक पास को हाथों-हाथ मास्टरी और क्लर्की मिल जाती थी, लेकिन इन्होने नौकर बनने की बजाय मालिक बनना पसंद किया।

अपनी लगन से छोटे से टीन एवं लकड़ी के डब्बे को पक्के हेयर कटिंग सेलून में बदल दिया। इनका कहना है कि उस समय मास्टर और क्लर्कों को इतनी कम तनखा मिलती थी कि परिवार चलाना कठिन हो जाता था, इसलिए मैंने नौकरी करने की बजाय अपना पुस्तैनी धन्धा ही आगे बढाने की सोची और उसमें कामयाब भी हुआ।

इनके मन  में वर्तमान व्यवस्था के प्रति रोष भी है और वही रोष इनके उपन्यासों में झलकता है।

 सृजन के शिल्पी राम भरोसा सेन जी औरों के लिए भी प्रेरणा हो सकते हैं। इनके उपन्यास की पाण्डु लिपियाँ प्रकाशन की बाट जोह रही हैं, कहते हैं कि कोई प्रकाशक उनके उपन्यासों को प्रकाशित करेगा तो वे प्रकाशन के अधिकार उसे दे देगें।

पहले एक दो लोगों ने इनसे उपन्यास की पाण्डु लिपियां मांगी थी, लेकिन प्रकाशनों में चल रही चोरी के समाचार के कारण इन्होने अपने उपन्यास नहीं दिये।

गांव के उपन्यास कारों के उपन्यासों को प्रकाशक नामी लेखकों के नाम से प्रकाशित कर देते हैं, ऐसी घटनाएं अक्सर सुनने में आती हैं। इसलिए राम भरोसा सेन ने सावधानी बरतते हुए अपने उपन्यास किसी को नहीं दिए।

उचित प्रोत्साहन के अभाव में गांव की प्रतिभाएं दम तोड़ देती हैं,वर्तमान में जिसे भाषा का ज्ञान नही है, जिसे मितानीन और मितानी शब्द का अंतर नहीं मालूम  उनकी उपस्थिति साहित्यिक मंचों पर देखने मिलती है।

जिन्हे भाषा शउर नहीं है, जो साहित्य और काव्य के नाम से मंचों पर अश्लीलता का बखान कर रहे हैं और  बोल्ड साहित्यकार की पदवी पाकर साहित्य मंच से अपनी शोभा बढा रहे हैं। या फ़िर किसी विशेष दल, गुट या घटक में सम्मिलित होकर, चाटूकारिता करके स्थान पा लेते हैं।

लेकिन जो असली हकदार होता है वह अपनी खुद्दारी और स्वाभिमान के कारण स्थान पाने और प्रचार-प्रसार पाने से वंचित हो जाता है।

आज  उम्र की ढलान पर हैं लेकिन उनमें वही जोश और जज्बा कायम है जो आज से तीस वर्ष पूर्व हुआ करता था। इन्हे किसी मान और सम्मान की दरकार नहीं है,

भगवान का दिया इनके पास बहुत कुछ है और सुख से जीवन यापन कर रहे हैं, जमा पूंजी नहीं है तो कोई बात नहीं लेकिन इतनी कमाई हो जाती है जिससे जीवन आनंद से बसर हो जाए और कोई काम पैसे को लेकर रुके नहीं। लेकिन ऐसे प्रतिभावान लोगों को समाज के सामने और दुनिया के सामने लाना एक कर्तव्य बन जाता है,

जिनकी पहुंच दिग्गज आलोचकों, प्रकाशकों,लेखकों तक नहीं है। जिससे साहित्य जगत में इनका नाम हो सके। अहर्निश भाव से सृजन करने वाले कर्मशील व्यक्तित्व राम भरोसा सेन को मेरा नमन है। अगर आप इनसे सम्पर्क करना चाहते हैं तो इनका मोबाईल नम्बर है---09755276431

बुधवार, 18 अगस्त 2010

दही के धोखे में कपास

ह सत्य घटना है, इसका नजारा हमने देखा है. इस घटना का किसी जीवित या मृतक के साथ कोई संबंध नहीं है. कभी-कभी आदमी ज्यादा होशियारी के चक्कर में दही के धोखे में कपास खा जाता है और ऐसा सबक मिलता है कि जीवन भर याद रखता है. इसी तरह की एक घटना का वर्णन इन पंक्तियों में है. 

एक दिन की बात है 
हम चौक के पान ठेले पर शाम को खड़े थे 
और भी दो चार लोग बतिया रहे थे. 
बातों के घूँसे चला रहे थे
और सरकार को लतिया रहे थे. 
बगल में कुछ शोहदे भी खड़े थे 
जो अभी नए-नए अंडे फोड़ कर बाहर निकले थे.
नए पंखों से उड़ने को बेकरार 
पंख फडफड़ा कर एकदम हुए तैयार, 
मर्दानगी का जोश उफान पर था, 
इसलिए उनका जमघट पान की दुकान पर था.
हम पहले भी ऐसे कईयों को पीट चुके थे
उनको सबक सिखा चुके थे. 
अब हमने सोचा कि आज तमाशा ही देखें, 
हमें भी कुछ लिखने का सामान मिल जायेगा 
नही तो चाय पानी का ही खर्चा निकल जायेगा.
इतने में देखा कि हीरो होंडा पर 
दो पुरुष जैसी नारियां सवार होकर सामने से निकली, 
तभी एक लड़के की जबान फिसली, 
उसने जोर से सीटी बजाई, 
बाकी लड़कों ने भी साथ दिया 
और हाँ में हाँ मिलाई,
मतलब क्रम से सीटी बजाई,
वो सवार कुछ दूर चले गए थे
उन्हें सीटी की आवाज दी सुनाई,
सुनते ही अपनी मोटर सायकिल घुमाई,
जैसे ही वो पास आए 
सारे लड़के रह गए हक्के-बक्के
वो ना नर थे, ना नारी थे, वो थे छक्के. 
एक बोला बताओ किसने सीटी बजाई,
हम हैं बहन जैसे भाई 
आज किसकी शामत है आई,
क्या तुमको चाहिए माँ जैसी लुगाई
इतना सुनते ही वो दल खिसक गया 
सीटी बजाने वाला लड़का फँस गया. 
क्या बताऊँ वहां का आँखों देखा हाल,
दोनों छक्कों ने उस "नवोदित मर्द" का 
मार-मार कर दिया बुरा हाल. 
बीच चौराहे पर उसका तमाशा बना डाला,
कपडे फाड़ कर नंगा कर डाला, 
वो मर्द बार-बार छक्कों से कर रहा था गुहार,
एक छक्का उसे पीछे से था पकडे 
दूसरा कर रहा था प्रहार,
लड़का बोल रह था मुझे छोड़ दो
सीटी जिसने मारी थी वो तो भाग गया
उसे पकडो और उसका सर फोड़ दो,
तभी एक छक्का बोला 
क्यों फिर लेगा छक्कों से पंगा
साले बड़ा मर्द बनता फिरता है 
हो गया ना नंगा,
मर्दानगी का नशा उतर गया 
की थोडा और उतारू 
तेरी सलमान कट जुल्फे 
थोडी उस्तरे से सुधारू
उस लड़के को सांप सूंघ गया 
वो थूक गटक के लील गया 
सर-ए-आम मार खा-खा के
पूरा अन्दर तक हिल गया.
फिर हिम्मत करके बोला 
माई-बाप अब तो छोड़ दो 
फिर कभी किसी को देख के 
सीटी नहीं बजाऊंगा 
अब मैं समझ गया, अब मैं समझ गया
एक छोटी सी सीटी की इतनी बड़ी सजा 
कभी भी नहीं पाई है
क्या पता कौन सा सवार
बहन जैसा भाई है........
बहन जैसा भाई है.........

सोमवार, 16 अगस्त 2010

दिस प्रोग्राम इज स्पोन्सर्ड बाय

शब्द नहीं चित्र---दिस प्रोग्राम इज स्पोन्सर्ड बाय...........!



चित्र-गूगल से साभार

रविवार, 15 अगस्त 2010

हम आजाद हैं-ये भी करुं वो भी करुं-मेरी मरजी

दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तू ने कर दिया कमाल,” गाना पूरे जोर से बज रहा था, सामने के ग्राम पंचायत भवन में।

बगल में ही स्कूल में -“सरफ़रोशी की तमन्ना, आज हमारे दिल में है देखना है जोर कितना बाजु-ए-कातिल में है” बज रहा था। ऐसा लग रहा था कि गरम और नरम दल दोनों में काम्पिटीशन चल रहा है। हारे हुए सरपंच और जीते हुए सरपंच में।

“कुछ देर के पश्चात माननीय सरपंच लीला राम द्वारा ध्वजारोहण किया जाएगा, जल्दी से जल्दी कार्यक्रम में पहुंचे”- माइक पर गाने के बीच-बीच में उद्घोषणा भी हो रही थी।

लीला राम की लीला न्यारी ही है, झंडा फ़हराने का सुख सरपंची के बाद ही मिलता है। वह इससे वंचित नहीं होना चाहता था। कल से रिक्शे में माईक लगवा कर प्रचार करवा रहा था, अपने झंडा फ़हराने का।

मैं भी भिनसारे ही तैयार हो गए थे, आज 15 अगस्त आजादी का दिन है। बच्चे भी तैयार थे स्कूल जाने के लिए। हमारा मुल्क आजाद हो चुका है अब मुल्क में एक ही गाना चढा हुआ है लोगों की जुबान पर-“मैं ये भी करुं, वो भी करुं, चाहे जो भी करुं, मेरी मर्जी।“  सब मर्जी से ही चल रहा है।

 प्रजातंत्र है, कल ही सरपंच ने 15 हजार रुपए खाते से निकाले हैं आजादी का पर्व मनाने के लिए। बाकी पंचों ने भी अपनी मुहर लगा दी। क्योंकि उन्हे मिठाई के साथ-साथ एक-एक दारु की बोतल भी मिलनी तय है। बिना उसके आजादी का पर्व कैसे मनाया जाएगा।

जैसे ही घर से बाहर निकला तो चौक पर ध्वजारोहण की तैयारी हो रही थी। तोरण-पताका बांधी जा चुकी थी। कोटवार बिजली के खम्बे पर बांस से कटुआ डाल रहा था।

मैने पूछा-“ये क्या हो रहा है सुबह सुबह? बिजली चोरी खुले आम”।

“क्या करोगे महाराज अभी सूचना आई है, चौक का झंडा नेता जी फ़हराएंगे, लाउड स्पीकर लगाने के लिए बिजली लेनी पड़ रही है।“ – वह बोला

“फ़िर भी सीधे खंबे से बिजली लेना चोरी तो है”

“सरकार की बिजली और सरकार का झंडा, सारा आयोजन सरकारी है, फ़िर हम आजादी का पर्व मना रहे हैं, इतना तो चलता है”।

“चलाओ चलाओ भाई, सरकार की बिजली सरकार का खंबा, सरकारी आजादी है”।

इतने में जुगाली करते मियां छक्कन भी तशरीफ़ ले आए। आते ही पान की गिलौरी की एक बड़ी लम्बी पिचकारी सड़क पर मारी-“सलाम महाराज,आजादी मुबारक हो”

“राम-राम मियां जी, आपको भी आजादी मुबारक हो”
इनकी लम्बी पीक से ही पता चलता है कि देश आजाद हो गया है। कहीं पर भी थुको-मुतो आजाद जो हो गए हैं। तभी खेदु का लड़का दौड़ते हुए आता है-
“बाबा देखो तो, समारु का लड़का नल से टोंटी निकाल रहा है”। जब तक हम पहुंचते,वह टोंटी लेकर फ़रार हो चुका था। नल आजाद हो गया था और आजादी से बह रहा था।
“अगर तु सड़क के इस पार आई तो ईंट मार कर सर फ़ोड़ दूंगा” उदै राम जोर से चिल्ला रहा था। बड़े गुस्से में था।मैने आवाज सुनकर पीछे मुड़ कर देखा तो वह घर से सामने सड़क के दुसरी तरफ़ सिर्फ़ तौलिया बांधे हुए हाथ में ईंट लिए अपनी पत्नी को गरिया रहा था।
उधर उसकी पत्नी हाथ में हंसिया लेकर चंडी बनी चीख रही थी-“रोगहा घर में घुस गया तो आज तेरा गला हंसिया से काट दुंगी”. स्थिति की गंभीरता को समझते हुए मुझे ही जाना पड़ा –“ क्या हो गया भौजी? आजादी दिन सुबह-सुबह उदै भैया को आजाद करने का इरादा बना लिया”?
“कल रात से जुआ खेल रहा है, आजादी की छुट्टी है कहके। मैने जो 300 रुपया तीजा पर मायके जाने के लिए चावल की हंडी में छुपाकर रखा था, उसे भी दांव पर लगा दिया। आज तो इसका गला काट के ही रहुंगी, भले मुझे फ़ांसी हो जाए। रोज-रोज की खिट-खिट से आजादी तो मिल जाएगी,मैं कहती हूँ कि कुछ धरम करम करो, दिन रात दारु और जुआ, कब तक सहन करुंगी”?
मैने भौजी के हाथ से हंसिया लिया-“अरे इतनी बड़ी गलती मत करो भई, भला हो उदै भैया का इन्होने तुम्हे दांव पर नहीं लगाया। धर्मराज ने तो द्रौपदी को भी दांव पर लगा दिया था। तुम आभार व्यक्त करो  इनका कि तुम्हे कितना चाहते हैं, धरम-करम करके धर्मराज हो गए तो फ़िर…..समझ लो तुम।“
भौजी का गुस्सा थोड़ा ठंडा हुआ तो मैं आगे बढ लिया।
तभी बीच सड़क पर नानिक और गज्जु दोनो मस्ती से झुमते हुए गलबैंइहा डाले आ रहे थे,-“ये देश है बीर जवानों का अलबेलों का मस्तानों का”। पीछे से बस वाला हार्न बजा रहा है और ये मस्ती में उसकी परवाह किए बिना चल रहे हैं।
“अरे! साइड दो बस वाले को, कहीं तुम्हे दबा कर चला गया तो?”
“कैसे दबा कर चला जाएगा? सड़क इसके बाप की है क्या? हमने बनवाई है वोट देकर”-खेदु ने जवाब दिया।
“तुम लोग 15अगस्त तो सुबह से कहां से पीकर आ रहे हो? आज तो भट्ठी भी बंद है।“
"सब बेवस्था हो जाती है, जेब में पैसा और मुंह में जबान होनी चाहिए। जो लोग बंद करवाते हैं वही खोल भी देते हैं”- हा हा- गज्जु बोला।
"आज तो नहीं पीना चाहिए, आजादी का दिन है, मजे से झण्डा फ़हराओ, मिठाई खाओ और बांटो, आजादी का मजा लो”।
“सरकार को सबसे ज्यादा टैक्स हम लोग देते हैं। सच्चे मायने में ईमानदारी से देश सेवा कर रहे हैं”। अरे आप जाओ महाराज कहां सुबह-सुबह प्रवचन सुनाने लग गए”-कह कर दोनों ने अपना रास्ता पकड़ लिया।
साढे सात बज रहे थे, हमें भी झंडा फ़हराने जाना था, आज के दिन हमारा देश आजाद हुआ था। आजाद भारत में आजादी की खुशी मनानी थी। सामने सड़क पर सारी स्ट्रीट लाईटें दिन में जल रही थी। पता चल रहा था कि हम आजाद हो गए हैं।

शनिवार, 14 अगस्त 2010

नौजवानों की शहादत और भ्रष्टाचार

अंग्रेजों से सत्ता लिए हमको 63 वर्ष पूर्ण हो गए, हम आजादी की 64 वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। जिन उद्देश्यों को लेकर आजादी की लड़ाई हमारे पूर्वजों ने लड़ी थी, अपना खून बहाया था, माताओं ने अपने जवान बेटों का बलिदान दिया था, स्त्रियों ने अपने सुहाग एवं बच्चों ने अपने सरपरस्तों को खोया था, क्या वह उद्देश्य पूरे हो रहे हैं?

गरीबों ने अपने राज में जिस सुख की रोटी के सपने देखे थे क्या वह उन्हे मिल रही है? समाज में समानता के सपने देखे गए थे, क्या वे पूरे हो रहे हैं?
 क्या हमारे राजनेता गरीबों को सुविधा उपलब्ध करवा रहे हैं? क्या हमारे बच्चों को समान शिक्षा मिल पा रही है?
क्या सभी को रोजगार के साधन उपलब्ध हो पा रहे हैं? क्या हम शांति से सुख के साथ जीवन बसर कर पा रहे हैं? क्या भूख से मौतें होना बंद हो गयी है?

आज जब इन सवालों के जवाब ढूंढते हैं तो हमें एक ही जवाब मिलता है "नहीं"।

तो हम और हमारा लोकतंत्र, हमारे नेता इन 63 वर्षों में क्या कर रहे थे? यह एक यक्ष प्रश्न सा हमारे सामने खड़ा हो जाता है। जिसका जवाब देने को कोई भी तैयार नहीं है।

 देश में अमीरों के साथ गरीबों की संख्या भी बढती जा रही है। गरीब और गरीब होता जा रहा है धनी और भी धनी होता जा रहा है। देश में जो भी नीतियाँ या योजनाएं गरीबों को लाभ पहुंचाने की दृष्टि से बनाई जाती हैं, उन्हे अमीर लोग या उनके दलाल हाईजैक कर लेते हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री स्व: राजीव गांधी ने इसे सार्वजनिक रुप से स्वीकार किया था कि योजनाओं के बजट का सिर्फ़ 15% ही आम लोगों तक पहुंचता है। बाकी का 85% सिस्टम की भेंट चढ जाता है। यह सिस्टम नहीं हुआ सुरसा का मुंह हो गया। जो कि दिनों दिन बढते ही जा रहा है। 

63 वर्षों में एक भी दिन ऐसा नहीं आया, जिस दिन सरकार ने कहा हो कि मंहगाई कम हो गई है। मध्यम वर्ग में भी अब दो वर्ग बन गए हैं, निम्न मध्यम वर्ग और उच्च मध्यम वर्ग। सबसे ज्यादा निम्न मध्यम वर्ग पिस रहा है। जो कि न घर का रहा न घाट का।

सरकार की किसी योजना में उसका उल्लेख नहीं है। गरीबी रेखा में इसलिए नहीं है कि उसने कुछ कमा धमा कर टीवी, फ़्रिज, मोबाईल, एवं पक्का घर बना लिया है। अमीर इसलिए नहीं है कि उसके पास अकूत धन नहीं है।

निम्न मध्यम वर्ग की कमाई बिजली का बिल, पानी का बिल, राशन का बिल, फ़ोन का बिल, मोटर साईकिल का पैट्रोल, बच्चों की बीमारी और शिक्षा में ही चली जाती है। उसके पास बाद में जहर खाने के भी पैसे नहीं बचते। अगर किश्तों में सामान मिलने की योजना नहीं होती तो वह कुछ भी सामान नहीं खरीद पाता।

एक तरफ़ लोग भूख से मर रहे हैं, किसान आत्महत्या कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ नेता-अधिकारी एवं मठाधीशों का गठजोड़ चांदी काट रहा है। मंहगी से मंहगी गाड़ियों में सवार होकर कानून को धता बता रहा है।

गरीबों के वोट से बनने वाले सांसद और विधायक गुलछर्रे उड़ा रहे हैं, एक बार जीतने के बाद उनके क्षेत्र में क्या हो रहा है कभी दुबारा झांकने भी नहीं जाते। बस उन्हे तो अपने कमीशन से मतलब है।

जब विधायकों और सांसदो को सुविधा देने का बिल सदन में लाया जाता है तो पक्ष विपक्ष सभी उसे एक मत से पारित कर देते हैं, और जब किसान, बेरोजगारों को सुविधा देने का बिल लाया जाता है तो उस पर ये एक  मत नहीं होते। गरीबों की ही भूख के साथ खिलवाड़ क्यों होता है?

एक सर्वे के अनुसार भारत में 25 हजार लोग ऐसे हैं जो कि 2 करोड़ रुपयों की लक्जरी गाड़ियों में चलते हैं। 306 सांसद करोड़पति हैं। अब इस स्थिति में गरीबों का कल्याण कहां से होगा?

एक मेडिकल कौंसिल का अध्यक्ष केतन देसाई पकड़ा जाता है,उसके पास ढाई हजार करोड़ नगद एवं डेढ क्विंटल सोना बरामद होता है।

एक प्रशासनिक अधिकारी बाबुलाल के पास 400 करोड़ की सम्पत्ति बरामद होती है, एक उपयंत्री के यहां छापा मारा जाता है तो 2 करोड़ रुपए की सम्पत्ति बरामद होती है।

एक मधुकोड़ा पकड़ा जाता है तो 4000 करोड़ रुपये का घोटाला सामने आता है। मुम्बई के एक बैंक में कोड़ा ने लगभग 600 करोड़ से उपर नगदी जमा की थी। यहां आप किसी बैंक में 50 हजार रुपया जमा करने जाते हैं तो आपको बताना पड़ता है कि कहां से लेकर आए हैं?

दिनों दिन बेरोजगारों की संख्या बढते जा रही है। औद्योगिकरण ने परम्परागत उद्योगोँ का सत्यानाश कर दिया। बड़ी मशीनों के चलते परम्परागत रुप से काम करने वाले लोग बेरोजगार होकर गरीबी से जुझ रहे हैं।

उन्हे एक जून की रोटी के लाले पड़े हुए हैं, यहां टीवी पर पिज्जा और बर्गर के विज्ञापान दिखाए जाते हैं, मिस पालमपुर डेयरी मिल्क का चाकलेट खा रही है और गरीब के बच्चे एक रोटी के लिए तरस रहे हैं।भ्रष्टाचार देश को खोखला कर रहा है।

अब इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश में कितना काला धन होगा, नेता अधिकारियों एवं मठाधीशों की तिजोरी में। जिस दिन यह काला धन इनके तिजोरियों से निकल कर राष्ट्र के विकास में काम आएगा। समानता का राज होगा।

सभी के बच्चे समान शिक्षा पाएंगें। सभी को समान अधिकार होगा, जिस दिन वोट नहीं खरीदे जाएंगे। उसी दिन सही मायने में सच्ची आजादी इस देश को मिलेगी और देश की आजादी के लिए जीवनदान देने वालों की आत्मा को शांति मिलेगी।

शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

आतंक वाद कब तक झेलेगें हम

आजादी को 63 वर्ष हो चुके हैं और हम 64 वां स्वतंत्रता दिवस मनाने जा रहे हैं। बंटवारे के बाद काश्मीर को लेकर पनपे विवाद को भी इतने ही वर्ष हो चुके हैं। कबाईलियों के भेष में पाकिस्तान के सैनिक हमले से प्रारंभ हुआ युद्ध घोषित और अघोषित रुप से आज तक निरंतर जारी है।

भारत की सरकार,सेना,और जनता के लिए काश्मीर हमेशा की समस्या बन गया है। हमारे देश की शांति पड़ोसी देशों को भाती नही है। जब भी थोड़ी सी शांति दिखाई देती है वे किसी न किसी प्रकार से अशांति फ़ैलाने का प्रयास करने लगते हैं।

षड़यंत्र करके भारत को विश्व समुदाय के सामने बदनाम करने की नाकाम कोशिश करते हैं। ऐसा पड़ोसी देशों का चरित्र रहा है।

काश्मीर की सरकार हमेशा केन्द्र के दिए पैसे से ही चलती है।कर्मचारियों को वेतन भी केन्द्र सरकार के अनुदान पैकेजों से प्राप्त राशि से ही दिया जाता है।

आज तक सेना के हजारो-हजार जवान काश्मीर की रक्षा एवं उसके अमन चैन को बनाए रखने की भेंट चढ जाते हैं। शहीद हो जाते हैं, उनकी शहादत पर कोई जिक्र नहीं होता, अगर सेना या सुरक्षा दलों की गोली से कोई एक भी आतंकी मारा जाता है तो चारों ओर हा हा कार मच जाता है।

पाकिस्तानी मीडिया हमेशा की तरह झूठे समाचारों को अपने टीवी पर दिखाता है। यह बताता है कि काश्मीर में कितना अधिक अत्याचार सुरक्षा कर्मियों द्वारा किया जा रहा है। पाकिस्तान का यह दुश्चक्र वर्षों से जारी है।

जब देखो तब काश्मीर से सेना हटाने की बात वहां के नेता करते हैं। अपने देश की सेना से इन्हे इतना डर क्यों है?

सेना तो वहां पर नागरिकों को सुरक्षा देने के लिए है, सरकार के सुरक्षा बलों को सहारा देने के लिए है। इसका मतलब है कि इन नेताओं की आस्था संदिग्ध है। जो भारतीय सेना की उपस्थिति का विरोध करते हैं, वे देशद्रोही ही हैं, क्योंकि सेना उनके भारत विरोधी कार्यों में एक बहुत बड़ा रोड़ा है, जिसे वे हटाकर आजादी से अपने कुत्सित कार्यों में लगे रहना चाहते हैं।

यही देशद्रोही नेता नागरिकों को सरकार और सेना के प्रति भड़काते हैं और अशांति का वातावरण निर्मित करते हैं। जिससे राज्य में शांति व्यवस्था की जगह हमेशा अफ़रा तफ़री का माहौल बना रहे और वे अपनी राजनैतिक रोटी सेंक सके।

इनका उद्देश्य हमेशा रहा है कि घाटी में हालत को इतना बिगाड़ो कि अंतर्राष्ट्रिय स्तर पर भारत की छवि बिगड़ सके। मीडिया भी वस्तुस्थिति को सही सही समझने में नाकाम हो जाता है, अभी मैने एक समाचार पत्र में कुछ चित्र देखे थे जिसमें बदमाश सुरक्षा बलों की सड़क पर पटक कर पिटाई कर रही है और सुरक्षा बल बेबस हो कर पिट रहे हैं।

ऐसे चित्र दिखा कर मीडिया क्या कहना चाहता है?

यह सब भारतीय सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ने की साजिश है जिसमें मीडिया भी भागी बन रहा है। सेना को घाटी से हटाने के लिए दबाव बनाने की एक साजिश चल रही है। जिससे घाटी में खुल कर आतंकवादी अलगाववादी कार्यों को अंजाम दिया जा सके।पाकिस्तानी आतंकवादियों का आगमन निर्बाध हो सके।

आज भी घाटी से भगाए गए 3 लाख काश्मीरी पंडितों की सुनने वाला कोई नहीं है, उनके आंसु पोंछने वाला कोई नहीं है। अपनी मिट्टी से उजड़ कर वे अपने ही देश में शरणार्थियों का जीवन बसर कर रहे हैं। एक बहुत बड़ा समुदाय सामाजिक विकास की दौड़ में पिछड़ रहा है।

अभी जिस तरह से काश्मीर को के अमन चैन को अस्थिर कर वहां से सेना हटाने की मांग उठ रही है,इससे जाहिर होता है कि वहां के अलगाववादी क्या चाहते हैं, सेना के विशेषाधिकार वापस लेने की मांग कर रहे हैं जिससे सेना पंगु हो जाए और आतंकवादी अपने घृणित मंसुबे में कामयाब हो जाएं।

केन्द्र सरकार को इस कठिन परिस्थियों में राष्ट्र हित में सेना हटाने का निर्णय नहीं लेना चाहिए इससे घाटी की स्थिति और भी विकट हो सकती है।
काश्मीर के मसले का सैनिक हल हो या राजनैतिक हल निकालने का प्रयास दृढ इच्छा शक्ति से करना चाहिए, जो भी काश्मीर के खिलाफ़ आतंकवादियों के समर्थन में आवाज उठाए उसे देशद्रोही करार देकर दंड देना चाहिए। देश के अंग में पल रहे इस नासूर का इलाज करना चाहिए। जब कोई एक आतंकवादी मारा जाता है तो मानवाधिकार वादी सांप पिटारी से निकल कर नाचने लगता है, इस सांप को दूध पिलाना बंद कर, इसे पिटारे में ही बंद करके रखना चाहिए। जब तक सरकार कठोर निर्णय नहीं लेगी तब तक काश्मीर की घाटियों में अलगाववादी और देशद्रोही ताकतों को उत्पात करने का बल मिलता रहेगा। हमने 63 वर्षों में अपने लाखों सैनिकों को काश्मीर की रक्षा के लिए बलिदान कर दिया। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा, इस आशय का संकल्प हमें स्वतंत्रता दिवस पर लेना चाहिए।

गुरुवार, 12 अगस्त 2010

सावधान ब्लागर्स-वायरस हमले से

ल मैने हमारी वाणी पर वायरस होने पर एक पोस्ट लिखी थी। उसके बाद मेरे ब्लाग पर हमारी वाणी के 4 कमेंट आए, लेकिन ब्लाग पर नहीं दिखे, मेल में मेरे पास पड़े हैं।

कई चिट्ठों पर यह वार्निंग दिख रही थी। जिन लोगों ने ब्लाग पर हमारी वाणी का लोगो लगा रखा था। सब उस वायरस से संक्रमित हो गये थे।

मैने आलस के कारण नहीं लगाया था। पिछली बार जब गिरीश बिल्लौरे दादा ने हमारी वाणी पर पोस्ट लगायी थी तो हम भी वहां अपने ब्लाग चेप आए थे। कुछ दिनों बाद जाकर देखा तो खाली का खाली। सिर्फ़ दो ब्लाग और उसकी फ़ीड दिख रही थी।

उसके बाद हमने किसी ब्लाग पर पढा था कि हमारी वाणी पर वायरस अटैक होने डाटा लास हो गया। इसलिए दुबारा रजिस्ट्रेशन करें। इस बार फ़िर दो चार ब्लाग चेप आए। एक बार पहले इस तरह की समस्या से हम जूझ चुके हैं-ब्लाग खुलते ही लाल झंडी दिखाई देती थी।

अब ये तो हुई हमारी वाणी की कहानी। रात को कनिष्क कश्यप जी की पोस्ट आने के बाद पूरे मामले का खुलासा हुआ कि समस्या क्या है। उन्होने अपनी पोस्ट में पूरी जानकारी लिख दी।

अच्छी तरह से भी समझा दिया। इसके बाद हम रात को तीन बजे तक जाग कर अपने कम्प्युटर की मरम्मत करते रहे। सैनिकों की तैनाती करते रहे, उन्हे मुस्तैद करते रहे, पासवर्ड और ईमेल हैक होने का खतरा भी बताया गया।

हमारी वाणी के अलेक्सा रैंकिग में इतनी जल्दी सुधार होने की बात भी पता चली कि ये कैसे कमाल हो रहा है। इसलिए हमें पहले अपने घर को चौकस करना जरुरी हो गया। जो साथी हमारे साथ जग रहे थे उन्हे भी यह महत्वपूर्ण सूचना दे दी गयी कि उनका कोई नुकसान न हो जाए।

ब्लागर की सबसे बड़ी कमजोरी है कि वे किसी भी एग्रीगेटर के विषय में जानकारी लिए बगैर ही उसमें जुड़ जाते हैं जिसके विषय में कोई जानकारी भी नहीं होती। ब्लागवाणी-चिट्ठाजगत-ब्लागप्रहरी इत्यादि के विषय में पुख्ता जानकारी है कि इनके संचालक कौन है?

लेकिन हमारी वाणी, अपनी वाणी, इंडली इत्यादि के विषय में कोई जानकारी नहीं है। इनके कर्ता धर्ताओं ने अभी तक अपना मुंह छुपा रखा है। बस लोगों के कहने से इनमें जुड़ जाते हैं जिसका गंभीर नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। इसलिए ब्लागर्स को सावधान हो जाना चाहिए।

जिससे वे अपने को परेशानी में पड़ने से बचा सकें। वायरस से एक ही नुकसान हो सकता है कि हमारे कम्प्युटर में जमा डाटा खत्म हो सकता है।

इसलिए मेरा आग्रह है कि हमारी वाणी, अपनी वाणी, इंडली इत्यादि एग्रीगेटर अपने बारे में सम्पूर्ण जानकारी ब्लागजगत को दें। वे कौन हैं? जिससे ब्लाग जगत उन पर विश्वास कर सके। अधिक जानकारी के लिए यह पोस्ट अवश्य पढें। कम से कम ब्लागर सावधान हो जाएं जिससे वे किसी षड़यंत्र का शिकार होने से बच सकें।

बुधवार, 11 अगस्त 2010

हमारी वाणी की सैर पर-लाल झंड़ी से सामना

अभी हमारी वाणी की सैर पर गए तो देखा कि लाल झंडी लटक रही है, वार्निंग दिखा रहा है। खोलोगे तो फ़ंसोगे और सिस्टम को ले डूबोगे। इसलिए हमने बंद कर दिया। परसों कोई अपनी वाणी का लिंक छोड़ गया था, उसे खोलने से हमारी वाणी खुल रहा था। जुम्मा-जुम्मा चार दिनों में ही हमारी वाणी को डाटा लास का भी सामना करना पड़ गया। हम एक बार सारे लिंक लगा आए थे। दुबारा देखा तो गायब, फ़िर किसी की पोस्ट से पता चला कि कोई समस्या चल रही है। वार्निंग वाली समस्या का निदान करें क्योंकि आपका एग्रीगेटर ही नहीं खुल रहा है।

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मंगलवार, 10 अगस्त 2010

गेड़ी चलाने का हरेली त्यौहार

त्तीसगढ में सावन मास की अमावश को हरेली (हरियाली) अमावश कहते हैं, यह त्यौहार मूलत: हरियाली के साथ जुड़ा हुआ है। इस दिन को हम त्यौहारों की शुरुवात मानते हैं जो कि होली पर जाकर अंतिम त्योहार आता है।
नांगरिहा-हल चलाता

हरेली त्यौहार के साथ कई किंवदत्तियां जुड़ी है। मुख्यत: किसान इस त्यौहार को हर्षो-उल्लास के साथ मनाते हैं।

इस दिन किसान अपने कृषि के उपकरणो नांगर(हल) रांपा, कुदाल, इत्यादि की पूजा करते हैं और खेतों में भेलवा के पौधे का रोपण करके अच्छी फ़सल की कामना करते हैं। बढिया रोटी-पीठा (पकवान) बनाया-खाया जाता है।

ललित शर्मा द्वारा निर्मित गेड़ी चित्र
बचपन में हमारे लिए यह त्यौहार बहुत महत्व रखता था। हम इस त्यौहार का बेसब्री से इंतजार करते थे क्योंकि इस दिन हमें गेंड़ी चढने मिलती थी। गेंडी एक बांस का बना हुआ उपकरण होता है जिस पर चढकर हम चलते है जिससे हमारी उंचाई बढ जाती थी।

इसे चलाने के लिए संतुलन की कला आना जरुरी है। नहीं तो गिरकर हाथ पैर भी तुड़वा सकते हैं। इसे मजबूत बांस से बनाया जाता है। गांव के बच्चों के साथ हम गेंडी दौड़ लगाते थे। एक बार बांस की खप्पची में फ़ंस कर मेरे पैर का तलुवा भी कट चुका है। चीरे हुए बांस में बहुत धार होती है, कांच जैसे। मैने पिछली हरेली पर एक चित्र भी बनाया था। गेंडी चलाते हुए बच्चों का।

ललित शर्मा द्वारा निर्मित चित्र
"हरेली" त्यौहार को प्रत्येक ग्रामवासी नियम से मानते हैं. इस दिन गांव को तंत्र मंत्र से बैगा(ग्राम के तांत्रिक) द्वारा बांधा (तंत्र-मंत्र से कवचित) किया जाता है.किसी भी दैवीय या प्राकृतिक महामारी या आपदा से बचाने के लिए ग्राम देवता की पूजा अर्चना की जाती है.

जिसके लिए प्रत्येक ग्राम वासी से तंत्र-मंत्र एवं पूजा करने के लिए एक निश्चित सहयोग राशि ली जाती है और महिलाएं गोबर से घरों के चारों तरफ विभिन आदिम आकृतियाँ बनाकर उसे एक लाइन से जोड़ती है, उसके बाद बैगा सभी के घरों में जाकर नीम की एक छोटी डाली को जाकर दरवाजे में टांगता है, मान्यता है कि इससे अनिष्टकारी शक्तियां घरों में प्रवेश नहीं करती.

इसके बाद किसी भी व्यक्ति को गांव से बाहर निकलकर किसी दूसरी जगह जाने आज्ञा नहीं होती. इस दिन सब अपना काम बंद कर गांव में  रहते हैं, और शाम होते ही लोग घरों से बाहर नहीं निकलते. ऐसी मान्यता है कि अँधेरे में तंत्र मंत्र की सिद्धि करने वाले बैगा और टोनही अपनी शक्तियों को जागृत करते हैं. एवं उसका परीक्षण करते हैं. जिससे जो कोई व्यक्ति बाहर निकलेगा उसका अनिष्ट हो सकता है.बैगा (ग्राम तांत्रिक) को गांव में रक्षा करने वाला और टोनही को अनिष्ट करने वाला माना जाता है.

 मुझे भी बचपन में मेरी दादी के द्वारा घर से बाहर नही निकलने दिया जाता था. "बाहर मत निकल,आज हरेली कोई टोनही की नजर पड़ गयी तो कुछकर देगी. इस मानसिकता से ग्रसित थे लोग-टोनही नाम का एक अज्ञात भय उनमे समाया हुआ था.बाल-बच्चे -नर-नारी कोई भी रात को बाहर नहीं निकलता था.सिर्फ बैगा और उसके सहयोगी ही रात को बाहर घूम सकते थे.

जैसे जैसे लोग पढ लिख रहे हैं वैसे वैसे जागरुक भी हो रहे हैं,अब इतना भय नहीं रहता हरेली की काली अमावश की रात का। हम रात को भी उठकर घूमते हैं, लेकिन अंदर के गावों में अभी भी ऐसा ही माहौल होता है। जागरुकता आते जा रही है। लेकिन टोनही का अज्ञात भय लोगों को अभी भी सताता रहता है। वर्षों से चली आ रही परम्परा को तो लोग इतनी जल्दी भूलते नहीं है। हरेली त्यौहार से जुड़ी हुई इस टोनही और बैगा की गाथा को लोगों को भूलने में अभी और समय लगेगा।

सोमवार, 9 अगस्त 2010

चमचा साधै सब सधै

हिन्दी फ़िल्मों में हीरो के साथ एक चमचा अवश्य ही रहता है जो उसकी हां में हां मिलाता है। बिना चमचे के तो कोई फ़िल्म ही नहीं बनती। चमचा पहले कास्टिंग किया जाता है, हीरो बाद में।

हीरो तो बहुत मिल जाएगें पर उपयुक्त चमचा मिलना बहुत ही मुस्किल है। चमचा ऐसा होना चाहिए कि जिसे हीरोईन भी पसंद करे। क्योंकि हीरो और हीरोईन के बीच चमचे को सेतु का काम करना पड़ता है। इसलिए हीरो-हीरोईन दोनो की रजामंदी होना जरुरी है।

डायरेक्टर,प्रोड्युसर से लेकर पूरी युनिट में सभी के पास एक-एक चमचा होता है। क्योंकि बिना चमचा के किसी का काम नहीं चलता। चमचा छोटा हो या बड़ा लेकिन चमचागिरी के गुणों से ओत-प्रोत होना चाहिए।

कमर तक झुक कर कोर्निश करने वाले एवं दंडवत लेटने वाले चमचे ज्यादा पसंद किए जाते हैं। इस विशेष योग्यता का होना निहायत ही जरुरी है। तभी चमचा अपने मालिक के हृदय में स्थान पाता है।

कभी कभी सोचना पड़ता है कि दिनचर्या में यह चमचा कहां से घुस गया? जिसके बिना काम चलता ही नहीं है। भारतीय संस्कृति में भोजन बिना चमचे के ही किया जाता है, हाथ से खाने में थाली से भोजन सीधा मुंह में जाता है।

अगर अंधेरा भी हो जाए तो आंख मुंद कर भी खाएं तो हाथ सीधा मुंह में ही जाता है। जो कि चमचे से संभव नहीं है। फ़िर भी चमचा इतनी सहजता से हमारे जीवन में प्रवेश कर गया कि पता ही नहीं चला और पूरा राज काज अपने हाथों में ले लिया।

बिना चमचे के तो अब दिनचर्या चलाना क्या कुछ भी सोचना मुस्किल है। अत्र-तत्र-सर्वत्र चमचा ही चमचा, रसोई से लेकर सत्ता के मठ मंदिरों तक चमचे का ही राज चलता है।यथेष्ट तक पहुंचने के लिए पहले चमचे को साधना पड़ता है। तभी कार्य संभव हो पाता है।

अंग्रेज जब भारत में आए तो अपने साथ चमचा लेकर आए। उन्हे हाथ से खाना नहीं आता था। अंग्रेजो ने चमचे के दम पर 200 साल राज किया। जमकर चमचों का इस्तेमाल किया उन्होने।

बड़े बड़े खिताबों से नवाजा गया चमचों को, लोहे से लेकर सोने-चांदी के हीरे जड़े चमचे तैयार किए गए। साम-दाम-दंड-भेद प्रक्रिया को अपनाया। चमचों के साथ छुरी कांटे का भी जमकर इस्तेमाल किया और सोने की चिड़िया को खोखला कर दिया। इस दुष्कृत्य में चमचों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

अंग्रेज चले गए लेकिन चमचा छोड़ गए। चमचा संस्कृति आजाद भारत की उर्वरा भूमि में बड़ी तीव्रता से पुष्पित पल्लवित हूई।

चमचों ने मालिक बदल दिए, अंग्रेजों के द्वारा इस्तेमाल किए गए चमचों की मांग ज्यादा थी क्योंकि उन्हे राज काज का सारा गुर मालूम था। इसलिए चमचों ने अपनी उपयोगिता को बनाए रखा।

चमचे सर्वव्यापक हैं और सर्वव्याप्त हैं। आप सत्ता के गलियारों में कहीं भी जाएं,हर जगह चमचे तैनात मिलेंगे। अगर आपको कोई सही काम भी करवाना है तो चमचों से ही सम्पर्क साधना पड़ेगा।

कभी भी आपने बिना चमचे की स्वीकृति से काम कराने की कोशिश की तो वे आपका बना बनाया रायता फ़ैला देंगे। कोई काम नहीं हो पाएगा। इसलिए पहले चमचे को साधना जरुरी है,

बुद्धिमान व्यक्ति यही कार्य सबसे पहले करता है। सीधा चमचे को ही साधता है। चमचा साधै सब सधै--यह मंत्र याद रखना जरुरी है। जो इस मंत्र का नित्य जाप करता है वह संसार में कभी कष्ट नहीं पाता। तीनो भुवनों के आनंद को प्राप्त करता है, तीनों लोकों में जगह पाता है।

किसी दिलजले ने कह दिया कि-"चमचों की तीन दवाई-जूता-चप्पल और पिटाई।" चमचों की पिटाई होना बहुत ही कठिन कार्य है,क्योंकि ये घर से ही पूरे शरीर में तेल लगा कर निकलते हैं,

जहां भी आपने पकड़ने की कोशिश की, तो आपका हाथ फ़िसल जाता है और ये पकड़ में नहीं आते। साथ में तेल की शीशी भी रखते हैं। आवश्यकता पड़ने पर तेल भी लगा देते हैं- "सर जो तेरा चकराए, दिल डूबा जाए, आज्जा प्यारे तेल लगवा ले, काहे घबराए, काहे घबराए"।

दुनिया का कोई भी क्षेत्र इनसे अछुता नहीं है। अगर आप खुद मुख्तयार हैं याने चमचागिरी आती है तो सोने में सुहागा समझिए। बहुत जल्दी तरक्की करेंगे। अगर नहीं आती तो इन चमचों के माध्यम से आएगी, नहीं तरक्की किस चिड़िया का नाम है, ढुंढते ही रह जाएगें।

राजनीति,नौकरी,साहित्य इत्यादि सभी क्षेत्रों में चमचों का दखल है। राजनीति में आप चमचागिरी के सहारे एक साधारण कार्यकर्ता से बड़ी जल्दी ही मंत्री पद पा सकते हैं। अगर मंत्री पद नही मिला तो कोई एम एल सी की सीट या कार्पोरेशन की अध्यक्षी को जरुर ही पा सकते हैं।

 इसके लिए आपको जरुरत से ज्यादा मीठा होने की आवश्यकता है। भले ही शुगर की बिमारी हो जाए, लेकिन मीठा तो होना ही पड़ेगा। तभी तरक्की संभव है।

नौकरी करते हैं तो हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि- "बॉस इज आल वेज राईट"। "हां जी, हांजी कहना और इसी गांव में रहना"। जी हजुरी डटकर करो, भले फ़िर दूसरा काम मत करो। बॉस की नजर में हमेशा बने रहो। फ़िर तरक्की ज्यादा दूर नहीं है।

घटिया से घटिया लिखिए,बस नामवर साहित्यकारों की चरण चम्पी करते रहिए,नजरे इनायत होने पर आपसे बड़ा साहित्यकार-कवि कोई दूसरा नहीं है। चमचागिरी महान है चमचा देश की शान है,हमारी संस्कृति की जान है।

रविवार, 8 अगस्त 2010

ताऊ का हुक्का चोर पकड़ में आया

ताऊ जी का हुक्का चोरी हो गया चौपाल से, कोई उठा ले गया। ताऊ परेशान हो गए, दो महीने से ब्लाग पर भी नही दिखे, बस एक ही काम रह गया था, हुक्का चोर को पकड़ना और हुक्का बरामद करना। पुलिस वाले खरगोश को बंदर बनाते रहे पर हुक्का नहीं मिला, आखिर हमने अपने दोस्त जनता हवलदार को ड्युटी पै लगवाया, उसने झट चोर को हुक्के के साथ बरामद कर लिया। देखिए हुक्का चोर कैसे मजे कर रहा है।

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शनिवार, 7 अगस्त 2010

सबके अपने-अपने कल्लु खाँ

कुछ दिनों से लगातार बारिश हो रही है, हरियाली भी तेजी से बढ रही है। पशुओं के लिए भरपूर चारा है तो मनुष्य के लिए मच्छर और बीमारी।

हमारे घर पर हरियाली आई
इन सबसे अलग सोचे तो हरियाली आंखो को भा रही है, हरी-हरी घास में लोटने का मन करता है लेकिन फ़िर सांप और बिच्छुओं का ख्याल आते ही मन मार कर रह जाना पड़ता है।

क्या पता मखमली घास के नीचे किस जन्तु का डेरा हो। इसलिए संभल कर चलना पड़ता है। आज शाम को कुछ देर के लिए धूप खिली।

जो घास के हरियाले रंग में परिवर्तन कर रही थी। बस इस सुंदर दृश्य को आंखों में बसा लेने का दिल किया। लेकिन आँखे स्थाई रुप से इसे संजोकर नहीं रख सकती, इसलिए कैमरे की आँख ने दृश्य को कैद कर लिया।

चारों ओर हरियाली ही  छाई
चित्र लेते समय गालिब का एक शेर याद आ रहा था " उग रहा है दर-ओ-दीवार पे सब्जा गालिब, हम बयांबां में है घर में बहार आई है।" इस तरह बहार हमारे घर भी आई है और हम उसे देखने की बजाए, कम्प्युटर पर पिले पड़े हैं।

ऐसा ही कुछ गालिब के साथ भी हुआ होगा। तभी बहार और बयांबां का जिक्र आया है। चांदनी चौक के करीम ढाबे पर तो हरियाली नहीं तो बहार जरुर आई होगी। जिस पर मिर्जा साहब ने शेर कहे होगें और जामों के साथ साकी और दोस्तों ने जी भर दाद दी होगी।

जिसकी सदा कुचा-ए-बल्लीमरान तक उनकी बेगम सुनी होगी और कल्लु खाँ को खैरियत लेने फ़ौरी तौर पर भेजा होगा। पता नहीं कल्लु खाँ ने क्या-क्या नहीं कहा होगा, नमक मिर्च लगा कर।

देखो फ़ूल भी खिले हैं रंग रंगीले
ऐसा ही कुछ हम दोस्तों की महफ़िल में भी होता है। सभी का समय तय है और कल्लु खाँ की एवज में हाजरी चलभाष(कानाबाती) लगा देता है।

एक मित्र की बे-गम तो शाम 7 बजे ही छोटे लड़के को ड्युटी पर लगा देती है, वह अपने बाप की हर मुव्हमेंट की खबर माँ तक पहुंचाता है, फ़िर महफ़िल जमते ही वहां से दो चक्कर लगाता तीसरे चक्कर की बजाए, उनका चलभाष गुर्राता है, कानाबाती होती है।

सिर्फ़ हां, हूं और हूं के कोड वर्ड में बात खत्म हो जाती है, फ़िर खीसे निपोरते हुए कहते हैं-"घर से फ़ोन था, कह रही थी, मौसम खराब है, ज्यादा मत हरिया जाना।" तभी एक कह उठता है-"साले सब तेरी चाल है,तीसरे पैग में ही भाग लेता है।" वह फ़िर दांत निपोरता है। शायद गालिब के साथ भी ऐसा ही होता हो।
बरगद पर भी है हरियाली छाई
बरसों से हमारा चलभाष 9 बजे के अलार्म के साथ स्थाई रुप से स्थापित हो गया है, जैसे ही 9 बजता है, बिना कल्लु खाँ के आए ही वह चुपके से बता देता है कि-"अब फ़ुल हरियाली हो गयी है, ज्यादा हरियाणा ठीक नहीं है, नही तो पहले पंजाब , फ़िर हि्माचल, फ़िर बिहार होता हुआ कालाहांडी पहुंच जाएगा मामला, सारी हरियाली उतर जाएगी। 

अब चल पड़ो और सूखे से डरते रहो। अगर सूखे से डरते रहोगे तो हरियाली बनी रहेगी। जहांपनाह का जलवा कायम रहे हरियाली के साथ,"- कह के दोस्तों से विदा लेते हैं।

धीरे-धीरे सब चल पड़ते हैं क्योंकि सबके अपने-अपने कल्लु खाँ हैं, वहां दो ही बच जाते हैं साकी और ढाबे वाला, जिनके लिए बारहों महीना हरियाली है।

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

तूलिका के माध्यम से कुछ कहने का जी चाहता है

कभी कभी कुछ तूलिका के माध्यम से कुछ कहने का जी चाहता है। जीवन की आपाधापी के बीच हजारों उलझने दिमाग में चलती रहती हैं। कभी उलझती है तो कभी सुलझती हैं। कभी की बोर्ड खटखटाते हैं तो कभी ब्रश कूंची पर हाथ आजमा लेते हैं।  रंगो के साथ कभी एक रंग भी हो जाता हूँ तभी इस तरह का काम कर पाता हूँ, रंग तो आकर्षित करते ही हैं लेकिन कभी-कभी बेरंग होना भी आनंद देता है।एक पेंसिल से किया गया मेरा काम आपके सम्मुख है। 

ललित शर्मा

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

कम्यूटर के कारण क्या पेन से लिखना बंद हो जाएगा?

मेरा प्रथम परिचय फ़ाउंटेन पेन से तीसरी क्लास में हुआ था। लिखने के लिए बहुत ही गजब की चीज थी यह्। इससे पहले हम पेंसिल (बरती) से स्लेट पर लिखते थे और दिन में 20 बार मिटा देते थे।

कभी मन में इच्छा होती थी कि पेन से लिखें। लेकिन पेन उस जमाने में एक लक्जरी आईटम था। शीश पेंसिल मिल जाती थी,लेकिन पेन नहीं मिलता था। फ़ाउंटेन पेन से लिखने का मजा ही अलग था। साथ में स्याही की शीशी एवं एक ड्रापर भी रखना पड़ता था। टिकिया से भी स्याही बनाई जाती थी।

स्याही बनाना भी एक कला ही थी। निब मोटी-पतली लिखावट के लिए अलग-अलग आती थी। लेकिन जब फ़ाउंटेन पेन नाराज हो जाता था तो सजा बिना कहे ही दे डालता था। पूरी युनिफ़ार्म खराब हो जाती थी। चुड़ियाँ घिसने पर जब वह पोंक (लीक)देता था तो उंगली और अंगुठे में स्याही का दाग भी छोड़ जाता था।

फ़ाउंटेनपेन के अविष्कार के पहले लोग कलम और दवात का इस्तेमाल करते थे। कलम सरकंडे से बनती थी,उसे तेजधार चाकू से छील कर निब जैसी बनाई जाती थी और स्याही की दवात में डुबा-डुबा कर लिखा जाता था।

चित्रों में देखा है कि पहले कि विद्यार्थी और ॠषि मुनि पंख का भी उपयोग करते थे। बार बार दवात में कलम डुबा कर लिखने से कागज पर स्याही कहीं कम कहीं ज्यादा होकर फ़ैल जाती थी। होल्डर के रुप में इसका सुधार हुआ। होल्डर में निब लगी रहती थी। उसे भी दवात में डुबाकर लिखा जाता था। यह बड़ी काम की चीज थी।

किसी किसी बड़े आदमी के पास पारकर का फ़ाउंटेनपेन भी उपलब्ध रहता था। लोग देखते थे कि उसे स्याही में डुबाकर लिखने की जरुरत नहीं थी। इससे अक्षर सुडौल बनते थे। लिखावट में सुधार आता था।

अमेरिका की चंद्रयान यात्रा के लिए बॉल पेन (डॉट पेन) का अविष्कार हुआ। अंतरिक्ष यात्री इसे अपने साथ ले गए थे। कुछ वर्षों के बाद अंतरिक्ष यात्रियों के हाथों से निकल कर यह पेन आम आदमी के लिए बाजार में आया।

स्कूलों में डॉट पेन से लिखने पर गुरुजी मना करते थे। कहते थे इससे लिखावट बिगड़ जाएगी और फ़ाउंटेन पेन का ही उपयोग करने को कहते थे। इसलिए हमें 8 वीं तक तो फ़ाउंटेन पेन का उपयोग करना पड़ा।

जब 9 वीं कक्षा में पहुंचे तो डॉट पेन का इस्तेमाल करना प्रारंभ कर दिया और आज तक जारी है।डॉट पेन आने के बाद उसे इस्तेमाल करने में तो सहुलियत थी लेकिन लिखावट के विषय में वह मजा नहीं रहा जो फ़ाउंटेन पेन में था। 

मैं जब उर्दु लिखना-पढना सीख रहा था तब बॉल पेन से लिखने में बहुत समस्या आती थी। कुछ हर्फ़ों में फ़र्क ही नहीं कर पाता था। क्योंकि कुछ हर्फ़ अपने खास घुमाव से ही पहचाने जाते हैं। तब मैंने फ़ाउंटेन पेन दुबारा खरीदा और उसकी निब को घिसकर मोटा किया। जिससे हर्फ़ों के मोड़ समझ में आएं और पढ सकुं।

शायद उर्दु सीखने वाले हर तालिब को ये समस्या आती होगी। इसे लिखने का अभ्यास लगातार करना पड़ता है। अब तो बहुत दिनों से लिखने का अभ्यास छूट गया है।

उर्दु लिखने के लिए फ़ाउंटेन पेन का इस्तेमाल करना ही उत्तम होता है। तभी नया लिखने पढने वाला अक्षर समझ सकता है। नहीं तो खुद लिखे और खुदा बांचे।

कलम, होल्डर और फ़ाउंटेन पेन अब तो बीते जमाने की बातें हो गए। अब तो इनके सपने बस आते हैं,वास्तविक रुप से देखने नहीं मिलते। कुछ लोगों ने अभी तक इन्हे संभाल कर रखा है। एक पुरानी यादों के रुप में।

अब बहुत बड़ी समस्या लिखने को लेकर सामने आ रही है। पहले जब मैं लिखता था तो छ्पाई के अक्षरों जैसे अक्षर बनते थे। लोग कहते थे,वाह भई तुम्हारे अक्षर तो सुंदर बनते हैं। लेकिन अब लगभग 2 साल हो गए पेन का प्रयोग किए।

जब भी कुछ लिखना होता है कम्प्युटर पर लिख लिया जाता है। सिर्फ़ की बोर्ड खटखटाना पड़ता है। कुछ दिनों पहले भतीजे की शादी में मुझे कार्ड पर पेन से पता लिखना था। जब लि्खा तो देखा बहुत ही गंदी लिखावट थी।

बहुत अफ़सोस हुआ और कम्प्युटर पर लिखने से होने वाले नुकसान के विषय में पता चला। अब मैं कम्प्युटर के बिना लिख ही नहीं पाता हूँ।

अब तो जेब में पेन भी नहीं रहता,हमेशा रखना भूल जाता हूँ। पेन से लि्खने का अभ्यास ही अक्षरों को सुडौल एवं सुंदर बनाता है। अभ्यास छुट्ने के नुकसान के विषय में पता चल गया।

कुछ दिनों बाद तो छठ्वीं कक्षा से विद्यार्थी लैपटॉप लेकर स्कूल जाएंगे। जिसमें उनकी सारी किताबें लोड रहे्गी और प्रश्न उत्तर भी उसी पर लिखे जाएंगे।

कहीं ऐसा न हो आने वाली पीढी लिपि तो जाने लेकिन लिखना भूल जाए,जब टाईप करने से काम चल जाता हो तो लिखने की जरुरत ही क्या है?

परीक्षाएं भी ऑनलाईन हो रही हैं। कागज-पेन का इस्तेमाल तो बहुत ही कम हो गया है। इससे स्पष्ट जाहिर होता है की लिखावट पर भी्षण खतरा मंडरा रहा है।

हो सकता है कि भविष्य में लिखावट को बचाने के लिए सरकार को अभियान चलाना पड़े। यही हालात रहे तो वह दिन दूर नहीं है।