रविवार, 27 फ़रवरी 2011

रेल बजट में छत्तीसगढ के साथ सौतेला व्यवहार

वर्तमान रेल बजट को देख कर लगता है कि यह देश का रेल बजट न होकर सिर्फ़ बंगाल के लिए ही है।  बिलासपुर जोन से रेल्वे को सर्वाधिक कमाई होती है। लेकिन बजट के अवसर पर हमेशा छला जाता है। छत्तीसगढ को रेल बजट में झुनझुना थमा दिया जाता है।

रायपुर से धमतरी चलने वाली नैरो गेज रेल को गत एवं वर्तमान रेलमंत्रियों ने बजट में घोषणा के बाद ब्राड गेज में नहीं बदला है। इस बजट में एक नयी सुरसुरी और छोड़ दी गयी कि “नैरो गेज को कांकेर तक ब्राडगेज किया जाएगा।" रेल के हिस्से में अधिकतर मंत्री बिहार या बंगाल से ही आए हैं।

इन लोगों ने हमेशा छत्तीसगढ के साथ सौतेला व्यवहार किया है। ऐसा लगता है रेल मंत्रालय बंगाल और बिहार तक ही सिमट कर रह गया है। कुछ राजनैतिक ज्योतिषियों ने कहा था कि इस बार भी छत्तीसगढ को कुछ नहीं मिलने वाला। 

नीतिश कुमार रेलमंत्री थे तो छत्तीसगढ के गर्वनर दिनेश नंदन सहाय के प्रयास प्रत्येक बजट में कुछ ट्रेने युपी और बिहार जाने वालों के लिए मिल जाती थी। लेकिन देश के अन्य हिस्सों को रेलमार्ग से जोड़ने का प्रयास किया जाना चाहिए था।

सम्पर्क क्रांति, दुर्ग-जयपुर, पुरी-जोधपुर ट्रेनों के फ़ेरे बढाए जाने चाहिए थे। दक्षिण की ओर जाने वाली ट्रेनों की कमी हमेशा महसूस होती है। रायपुर या बिलासपुर से दक्षिण के लिए नयी ट्रेन शुरु करने की मांग काफ़ी पुरानी है। लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। दिल्ली के लिए नान स्टाप सुपर ट्रेन चलानी चाहिए। इन मार्गों पर एक महीने पहले भी आरक्षण नहीं मिलता। 

छत्तीसगढ से 11 सासंद लोकसभा में प्रतिनिधित्व करते हैं। तब भी ये सब मिलकर दबाव बनाने में कामयाब नहीं हो सके। ममता का बजट देश का बजट न होकर सिर्फ़ बंगाल के लिए ही रेल बजट है।

यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न यह उठता है कि क्या रेलमंत्री के बजट में सिर्फ़ उसके प्रदेश को ही प्राथमिकता मिलनी चाहिए? सारी नयी योजनाएं परियोजनाएं उनके प्रदेश में ही होनी चाहिए। देश के अन्य राज्यों के लिए सौतेला व्यवहार क्यों?

कहा गया है –“मुखिया मुख सो चाहिए खान पान को एक” प्रधानमंत्री को ध्यान देना चाहिए कि रेल मंत्री के बजट में कहीं असंतुलन तो नहीं है। बजट असंतुलित होने से विरोध के स्वर उठना स्वाभाविक है। पता नहीं कब छत्तीसगढ की सुध रेलमंत्री को आएगी।    

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

इनकम टैक्स छापा और वेवफ़ा मुर्गी : व्यंग्य

पूछ-परख दो तरह के लोगों की ही होती है, कुख्यात या विख्यात। कुख्यात होने के लिए दुष्कर्म करने पड़ते हैं, विख्यात होने के लिए सत्कर्म। जीवन भर सत्कर्म करो लेकिन कोई पूछने वाला नहीं रहता।
लेकिन एक बार किसी हवाले-घोटाले में नाम आ जाए सारा जग उससे परिचित हो जाता है। परसों की ही बात है, एक पत्थर की दूकान वाले के यहाँ इनकम टैक्स का छापा पड़ गया। जैसे ही यह खबर शहर में फ़ैली, पड़ोसी को बुखार चढ गया। 
आते ही बोला-“महाराज किरपा करो, इनकम टैक्स वालों ने बैंड बजा रखी है।“

मैने कहा-“बढिया तो हो रहा है, जिसकी इनकम नहीं उसकी कदर नहीं और तुमने कौन सी कसर छोड़ रखी है। यहाँ वहाँ जहाँ तहाँ सब खदाने तुम्हारी ही हैं। करोड़ों का कारोबार चलता है।“

“प्रभु ऐसा नहीं है, जैसा आप समझते हैं। ग्राहक फ़ंसाने के लिए रोल पट्टी तो देना पड़ता है। थोड़ा बहुत क्या झूठ बोल दिया, पंगे ही गले पड़ गए।“

“मतलब जैसा तुम कहते हो वैसा नहीं है, मतलब सरासर झूठ। कंगले के कंगले। तब तो ठीक है कि तुम्हारे यहाँ इनकम टैक्स का छापा पड़ जाए।“

“मरवाओगे क्या प्रभु मुझे।“ माथे पर पसीना चुचवाते वह बोला।

“अरे भाई जिस कंगले के यहां इनकम टैक्स का छापा पड़ जाता है। उसकी मार्केट वैल्यु बढ जाती है। बाजार में जिसको कोई दो रुपए की उधारी न दे, छापे के बाद उसे करोड़ों की उधारी मिल जाती है। तुम्हे पता है कि नहीं कल्लु मल बनिए की बेटी का रिश्ता नहीं हो रहा था। उसका कोई रिश्तेदार इनकम टैक्स में अफ़सर है, उसने कल्लु मल के यहाँ छापा लगवा दिया। बस फ़िर क्या था दूसरे दिन से लड़के वालों की लैन लग गयी। इनकम टैक्स के छापे के बहुत फ़ायदे हैं।“

“यह तो आपने बहुत ज्ञान की बात बताई महाराज।”

“अरे मैं तो कब से चाह रहा हूँ कि मेरे घर पर भी कोई इनकम टैक्स की रेड मारे। जिससे मेरा भी नाम नामी-गिरामियों की लिस्ट में आ जाए। लेकिन ससुरे हमारा नाम का बोर्ड देख कर ही भाग लेते हैं। कहीं हम उनके गले ना पड़ जाएं, कौन कवि लेखक से पंगा ले?   कविता-व्यंग्य मार-मार मुंह सूजा देगा। न इधर के रहेंगे न उधर के।“

“हां! आज तक सुना नहीं किसी कवि-लेखक के यहाँ इनकम टैक्स का छापा पड़ा हो।“

“जिसका खुद का ही छापा खाना हो, उसे कौन कैसे छापेगा?

अब चचा को ही लो, हर कार्यक्रम में वे किसी ना किसी कवि,लेखक,साहित्यकार का सम्मान करते हैं। कार्यक्रम न भी हो तो अनुराग के साथ घर तक अभिनन्दन, सम्मान-पत्र भेज देते हैं, अब तक इतना सम्मान बाँट चुके हैं कि उनका ही सम्मान जाता रहा। 

परसों ही कह रहे थे- "कोई हमारा भी सम्मान कर दे, थोड़ा ही सही। कंगाल कर दिया सालों ने सम्मान ले-लेकर।"
हमने कहा-" इनकम टैक्स की रेड मरवा लें फ़िर देखे सम्मान की बरसा होने लगेगी चारों तरफ़ से।“

चचा को बात जंच गयी, उन्होने भी अपने रिश्तेदार से सम्पर्क किया। जल्द ही उनके यहाँ भी इनकम टैक्स की रेड पड़ जाए तो सम्मान गति को प्राप्त होएं। अब तो जिन्दगी में दो ही काम रह गए हैं सम्मान पाना और सम्मान करना। अब चैन नहीं है। रिश्तेदार भी ने भी सोचा कि इस कंगले के यहाँ इनकम टैक्स की रेड पड़वा दुंगा तो साला और भी अधिक अकड़ कर चलेगा। अभी तो अपने मतलब से पेट में घुसा जा रहा है। उसने भी बदला लिया। चचा के दुश्मन पड़ोसी के यहां इनकम टैक्स की रेड पड़वा दी।

पड़ोसी के यहाँ इनकम टैक्स की रेड की खबर सुनते ही चचा झनझना गए। कैसे-कैसे रिश्तेदार हैं विपत्ति के टैम काम भी नहीं आते। वो तो कल्लु मल बनिए का रिश्तेदार था जिसने उसका मार्केट में रुतबा बढा दिया। चचा के सगेवाले ने एक तीर से दो निशाने साध लिए। 

अब पड़ोसी रोज चचा को सुनाकर कहता और भीतर ही भीतर गदगद हुआ जाता –“ ऐसे पड़ोसी किसी को मत देना भगवान, मुंह में राम बगल में छूरी। शकल तो कृष्ण जैसी चिकनी चुपड़ी बना कर रखते हैं और काम कंस या दु:शासन जैसा करते हैं। अब देखो हमारे यहाँ इनकम टैक्स का छापा लगवा दिया। इनका सत्यानाश हो। ईर्ष्या में जल कर भस्म हो जाएगें हमें तो भगवान और कहीं दे देगा“

सुन कर चचा के तो बदन में आग लग जाती। अगर उनका बस चलता तो दो खून करते, पहला अपने रिश्तेदार का और दूसरा पड़ोसी। अब सुनिए मुकद्दर की बात, चचा ने मुर्गी पाल रखी थी। शुरु में तो दो चार अंडे दिए, फ़िर अंडे देने बंद कर दिए। चचा को शक हो गया कि मुर्गी अंडे कहीं दूसरी जगह जाकर देती है। गुस्से में आकर उन्होने मुर्गी को 5 दिन दबड़े में बंद कर दिया। मुर्गी ने अंडे नहीं दिए। चचा ने थक हार कर स्वीकार कर लिया कि यह मुर्गी अंडे नहीं देती। दो दिनों बाद हम उनके पड़ोसी के यहाँ दोपहर में पहुंचे। देखा कि एक मुर्गी सरपट आकर कुर्सी के उपर से टेबल की खुली दराज में घुस गयी।

मैने कहा -"मुर्गी दराज में घुस गयी निकालो उसे।"

चचा के पड़ोसी ने जवाब दिया कि- "यह चचा की मुर्गी है, अंडे मेरे यहां आकर देती है।"

 नसीब खराब हो तो अपनी मुर्गी ही अंडे पड़ोसी के यहाँ दे जाती है, इनकम टैक्स की रेड का सम्मान तो बहुत दूर की बात है। आदमी तो क्या मुर्गी भी बेवफ़ा हो जाती है।

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

कल्लू मल घी वाले की बेटी और चचा गालिब

चचा की इश्कबाजी तो मशहूर है, कोतवाल साहब ने मौका देखकर बदला ले ही लिया था, लेकिन काजी की दोस्ती काम आ गयी। चचा हवालात की हवा खाने से बच गए।

कर्ज की पीते थे मय और समझते थे कि हां, रंग लाएगी अपनी फाकामस्ती एक दिन। गालिब चचा की कर्ज की मय बहुत रंग लाई। मुफ़्त की होती तो और भी रंग लाती। क्योंकि खुद खरीदी गई मय में रंग कहाँ होता है।

सितारे नहीं झिलमिलाते, चाँद भी नजर नहीं आता। छोड़ गए बालम जरुर याद आता है। इश्क भी गजब की शै है। इसका चढा हुआ खुमार उतरता कहाँ है। ताजिन्दगी कायम रहता है। थोड़ा सा झोंका चलते ही जख्म हरे हो जाते हैं। 

ड्रायवरी करते वक्त मनभावन संगीत चलना चाहिए। चाहे एक ही गीत बार बार बज रहा हो। अब कारों में कैसेट के जमाने लद गए। एफ़ एम रेड़ियो ने कसर पूरी कर दी।

गालिब चचा के जमाने में होता तो वे क्यों जाते चंडूखाने में। अचकन की जेब में रेड़ियो रख कर मन की मुराद पूरी कर लेते। न डोम टंटा होता, न कोतवाल से साबका। कल्लु खाँ को चुगली करने का मौका नहीं मिलता। खैर, कार का रेड़ियो रेंज से बाहर होते ही सरसराने लगा। जैसे सागर किनारे लहरों की घरघराहट होती है।

अब बिना गीत के मन नहीं करता ड्राईव करने का। खोपड़ी खुजाने लगती है, जब टेप बंद हो तो गाना कौन सुनाए? हम ही गुनगुनाने लगे, लेकिन कोई वाह-वाही करे तो मजा आए गाने का। पर गर्दभगान पर कोई वाह वाही कैसे करे?

मय भी कमाल की चीज है, बस इशारा कर दो कि “साथ चलो यार फ़ुल इंतजाम है।“ फ़िर तो ऐसे लोग मिल ही जाते हैं, जो गंगा तक पहुंचाकर आ जाएं। साथ न छोड़ें रास्ते भर। थोड़ी लगी होनी चाहिए।

चचा के पास मौरिस (फ़िएट) कार थी। उन्हे काली घोड़ी पसंद थी। लेकिन कार हरियाली होनी चाहिए। दरवाजे भी उसके उल्टे खुलते थे। केरोसिन तेल से चलाते थे इसलिए उसका कोई भरोसा नहीं था कि कहाँ खड़ी हो जाए।

चचा ने इसके लिए जुगाड़ किया। घर से कार निकालते ही दो बोतल डेशबोर्ड पर ऐसे रखते कि लोगों को दिख जाए। फ़िर तो चार-पाँच निठल्ले आदमी उन्हे मिल ही जाते थे। कार में बैठते ही बोतल उन्हे पकड़ा देते और शहर की ओर चल पड़ते।

जहाँ कार खड़ी होती, वहीं एक-एक गिलास उन्हे दे देते। वे भी मस्त और चचा भी मस्त। अब चाहे उनसे धक्के लगवा कर ही कार घर पहुंचानी पड़े तो वो भी काम हो जाएगा और किरासन तेल भी बच जाएगा। बड़ी जुगत लगाते थे। कल्लु खाँ तो स्थाई सेवा देता था एक अद्धे के बदले।

टेप बंद होते ही हमने भी उन्हे गाना सुनाने के लिए कहा। उनका कहना था कि उन्हे गाना नहीं आता। हम भी चक्कर में पड़ गए। जीवन विरथा चला गया इनका। एक गीत भी इंद्रधनुष के दिखने पर इन्हे नहीं आया।

जीवन में प्रेम उमड़ा ही नहीं, श्रंगार रस से रचे बसे गीत अंतर में ही नहीं उतरे। वह प्रेम को क्या जाने, वह तो गुंगे का गुड़ है। चचा की गज़ल नहीं सही, चना जोर गरम ही सही। कुछ तो चलता रहेगा।

अजब शेख तेरी जिन्दगानी गुजरी, एक शब भी न सुहानी गुजरी। मुझे तो कुछ याद नहीं रहता। चचा कहते थे सुनाने के लिए, लेकिन याद रहे तब न सुनाऊं। एक अंतरा सुनाकर चुप रह जाता।

शादी की पार्टी में आर्केष्टा हो रहा है। लोगों की फ़रमाईश चल रही है, सोफ़े पर लातें लम्बी किए काले अंगूर के रस की चुस्कियाँ ले रहे थे।

हमने भी “तेरे नैना हैं जादू भरे, ओ गोरी तेरा नैना हैं जादू भरे” की फ़रमाईश कर दी। गायक ने गाया भी उम्दा। डूब गए जादू भरे नयनों में।

सहसा देशी घी की खुश्बू तंद्रा से बाहर ले आई। इस मंहगाई के जमाने में देशी घी। कनखियों से देखा तो कल्लू मल घी वाले की बेटी मंहगाई टहलते हुए आ रही थी। लग रहा था कोई रोड़ रोलर आ रहा है घी के फ़व्वारे उड़ाते हुए।

पी.डी.एस का सारा माल ही जैसे उदरस्थ कर लिया हो, पहले तो ऐसी नहीं थी। सुंदर कमसिन काया का क्या हाल कर लिया। इतर की खुश्बू से दूर से ही पता चल जाता था कि कल्लु मल घी वाले की बेटी आ रही है।

अब तो कोई भी सेंट इतर का इस्तेमाल कर लेता है, समाज में बदलाव आ रहा है, अमीरी का रौब-दाब दिखाने के लिए घी की खुश्बू से उम्दा रास्ता कोई नहीं।

चचा भी दीदे फ़ाड़े ताक रहे थे, उनके जन्नत-ए-उलफ़िरदौस इतर के खुश्बू की देशी घी ने खाट खड़ी कर दी। वे कभी अपनी अचकन तो कभी रोड़रोलर को देखते हैं।

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

बैल-बछड़ा भिड़ंत और किंगफ़िशर की उड़ान

ललित डॉट कॉम की 401 वीं पोस्ट है, इसका सीधा अर्थ यह है कि मैने 401 दिन लगातार लिखा है इस ब्लॉग पर। भाग दौड़ भरी जिन्दगी में से 401 दिन पोस्ट लिखने के लिए समय चुरा लेना भी बड़ी बात है।

निरंतरता बनाए रखने की कोशिश करते रहे। पाठक एवं ब्लॉगर  साथियों का स्नेह मिलता रहा और आगे बढते गए। इन दो वर्षों में देखा कि बहुत से ब्लॉगर आए और चले गए। दो चार पोस्ट के बाद उनकी अगली पोस्ट नहीं आई।

अंतर जाल पर नित्य समय देना हमारे जैसे निठल्लों का ही काम हैं। निठल्लाई चलते रही और पोस्ट बढते रही। 10 दिनों तक चिट्ठा जगत के 1 नम्बर पर रहने का भी मजा लिया। ब्लॉग जगत से मैने बहुत कुछ पाया, लेकिन जीवन का महत्वपूर्ण समय भी यहाँ लगाया।

गत एक सप्ताह से ब्लॉगर और साहित्यकार की बहस हो रही है। इस मुद्दे को उछालने के पीछे क्या राज है? यह तो मुझे मालूम नहीं।

यदा-कदा देखा है स्वयंभू साहित्यकार कहते रहे हैं कि ब्लॉग पर साहित्य नहीं है। कचरा भरा है, कूड़ा करकट पड़ा है। जब कोई नवीन विधा आती है समाज में तो पुरानी विधा वालों को समझ में नहीं आती और अकारण ही उसका विरोध करने लगते हैं।

गुड़ खाने वालों को सर्व प्रथम मावे की मिठाई मिली होगी तो उन्होने मावे की मिठाई का जरुर विरोध किया होगा। क्योंकि गुड़ के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा था। इसी तरह ब्लॉगर और साहित्यकार का मसला है।

ब्लॉगर सीधी सच्ची बात सीधे ही कह डालता है। जैसे शब्द उसे मिलते हैं उनका प्रयोग अपने लेखन में कर लेता है। शब्दजाल का प्रयोग करके वह अपनी विद्वता सिद्ध नहीं करना चाहता।

उसका ध्येय तो सिर्फ़ यही है कि एक हिन्दी पोस्ट लिखो और 10-20 ब्लॉगों को पढो और टिप्पणी आदान-प्रदान करो और फ़िर अगले दिन की पोस्ट के लिए तैयार हो जाओ।

ब्लॉगर ऐसे अछूते विषय पर लिख जाता है जो किसी साहित्यकार की डायरी या उसके चिंतन में कभी भी न आया होगा। कुल मिला कर वर्तमान को ब्लॉग पर उतार कर इतिहास में दर्ज कर रहा है।

साहित्य की समझ अब हमें भी आने लगी है और साहित्यकारिक हथकंडे भी समझ आने लगे हैं। सबके अपने-अपने दल और दायरे हैं और उसी दल के लोगों को साहित्यकार कहके प्रसारित प्रचारित किया जाता है।

10-20 कविताएं या गद्य प्रकाशित होते ही साहित्यकार का ठप्पा लग जाता है।  चम्पी चापलुसी करके अनुदान से एक दो किताब प्रकाशित हो जाती हैं और वे सरकारी आलमारियों में बंद हो जाती है या घर पर रखे-रखे दीमक चाट जाती है।

आम आदमी तक पुस्तकें नहीं पहुंच पाती। बस दल के लोग ही जानते हैं किसने क्या लिखा है। आपस में ही समीक्षा करके इति श्री कर लेते हैं।

वह समय निकल चुका है जब आम पाठक पुस्तक खरीद कर पढता था। कौन दो ढाई सौ में तथाकथित साहित्य खरीद कर पढे। साहित्य तो मुफ़्त में ही मिल जाता है। जब कचरा पढना ही है (जैसा कहा जाता है) तो मुफ़्त में ब्लॉग में पढना कौन सा घाटे का सौदा है।

अंतरजाल में लिखा हुआ वैश्विकस्तर पर उपलब्ध है। एक क्लिक पर कहीं भी पढा जा सकता है। बोझा उठाकर चलने की आवश्यकता नहीं रही। बैल सींग कटाकर बछड़ा नहीं बन सकता, लेकिन बछड़े में बैल बनने की अपार संभावनाएं हैं।

अंतरजाल ने वैश्विकस्तर हमें पाठक उपलब्ध कराए हैं। मैने देखा है कि मेरे ब्लॉग पर भारत के बाद सबसे अधिक पढने वाले युक्रेन से आते हैं। फ़िर अमेरिका और इंग्लैंड का नम्बर आता है।

अगर मैं एक किताब लिखता हूँ तो क्या वह इनके पास सहज उपलब्ध हो सकती है? इसलिए ब्लॉग पर जो भी लिखा जा रहा है। उसकी महत्ता भविष्य के गर्भ में है। कौन साहित्य रच रहा और कौन कचरा ठेल रहा है। यह तो समय ही बताएगा।

रात एक होटल में बैठा था, मेरी सामने टेबल पर एक लड़का आया और उसके बाद एक लड़की पहुंची। आमने-सामने टेबल पर बैठते ही हाथ मिलाया। किस किया और बैरे को कुछ आर्डर दिया। तभी लड़के की नजर मेरी तरफ़ पड़ी।

उसने तुरंत लड़की तरफ़ इशारा किया और धीरे से खिसक लिए। पता नहीं क्या समझे और क्या जाने? हो सकता है वे पहचानते हों और मैं नही। शादी  का न्योता आएगा तभी पता चलेगा।

थोड़ी देर में मोहल्ले के पिद्दे भी दिखाई पड़े और मेरी नजर उन पड़ गयी। नौनिहाल किंगफ़िशर की उड़ान पर थे। मैं उनके पास गया तो हवाईयाँ उड़ने लगी। सोचा कि आज तो गए,  पिटाई पक्की है।

सब उठ कर खिसकने की तैयारी में थे। मैने उन्हे कहा कि- “लगे रहो बेटे, किंगफ़िशर से सुपरसोनिक तक की उड़ान भरो। आसमान तुम्हारा इंतजार कर रहा है। लेकिन सड़क पर मत चलना। एक्सीडेंट होने का खतरा है। तुम्हारे लिए हवाई सफ़र ही ठीक है।“ हैप्पी ब्लॉगिंग, वेरी हैप्पी ब्लॉगिंग।

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

फ़र्जी वंशावली लेखकों के गोरख धंधे

फ़र्जी पंडा नम्बर--1
आर्यो में प्राचीन काल से ही वंशावली लेखन का कार्य हो रहा है। विभिन्न जातियों एवं उपजातियों की वंशावली गोत्र एवं गाँव के नाम से वर्गीकृत की जाती है।

वंशावली तीन स्थानों पर मिलती है। 1-जन्म वंशावली— बड़वा (राव भाट, जागा, वृध्दावलि) 2- अस्थि विसर्जन का रिकार्ड रखने वाले पंडे। 3- गया जी में पितृ मोक्ष तर्पण कराने वाले पंडे के पास।

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार व्यक्ति इन स्थानों पर अवश्य जाता है तथा इनके पास कुल-गोत्र के समस्त रिकार्ड दर्ज रहते हैं। सभी जातियों के वंशावली लेखक पृथक होते हैं।

हजारों वर्षों के रिकार्ड को सहेज कर रखना भी एक महत्वपूर्ण कार्य है। विगत दिनों देश भर के वंशावली लेखक नर्मदा के किनारे मंडला में एकत्रित हुए।

वहां इनसे और भी गहन जानकारी मिलती। लेकिन एक मित्र के काका जी का देहावसान होने के कारण मैं सम्मेलन में सम्मिलित नहीं हो पाया। फ़िर कभी बड़वा (वंशावली) लेखकों का सम्मेलन हो्गा तो वर्षों से गुप्त कुछ राज जानने की कोशिश करुंगा।

कहते हैं जिस जाति का उल्लेख राव-भाटों की बही में नहीं है। उसे जाति ही नहीं माना गया है। वंशावली लेखन का कार्य राजाओं से ही प्रारंभ हुआ होगा। फ़िर सभी जातियों को इसमें शामिल किया होगा।

हमारे भी कुल की वंशावली के लेखक राव-भाट हैं। इनके बही खातों से पता चलता है कि हमारा वंश  ने भारत में कहाँ-कहाँ  निवास किया  और अब देश के किस-किस स्थान पर हैं। मुझे राव-भाटों के वंशावली लेखन के कार्य प्रति जिज्ञासा रही है।

यजमान द्वारा दी गयी दक्षिणा पर ही इनके परिवार का भरण पोषण होता है। इसके लिए कोई सरकारी अनुदान इन्हे प्राप्त नहीं होता। जब वंशावली लेखक किसी के घर आता है तो उसका आदर सत्कार किया जाता है एवं यथा योग्य दक्षिणा भी दी जाती है।

हमारे कुल में अस्थि विसर्जन गढ मुक्तेश्वर (गढ ) में किया जाता है। खानदानी पंडे मृतकों की जानकारी  के साथ परिवार अन्य जीवित सदस्यों की जानकारी भी रखते हैं।

चाचा जी के देहावसान पर फ़ूल (अस्थि) लेकर जाने की बारी मेरी थी। गढ पहुंच कर मैने गंगा में अस्थि विसर्जन किया और फ़िर गढ गाँव गया। वहाँ चौक पर पंडे बैठे थे। मैने गाँव एवं गोत्र बताया तो पंडों ने मुझे अपने कुल के पंडे के पास पहुंचा दिया।

जहाँ काली स्याही से लिखे उसके बही खाते में पापा जी एवं चाचा जी के हस्ताक्षर थे। हमारे परिवार के सभी सदस्यों का नाम लिखा था।

मुझे उन पर विश्वास हो गया कि सही जगह आया हूँ। यदा योग्य दान दक्षिणा कर के उनसे विदा ली। इस तरह मैं अपने खानदानी पंडे से परिचित हो गया।

वर्तमान में फ़र्जी पंडे भी समाज में घुम रहे हैं। आज से दो वर्ष पूर्व मेरे घर पर भी दो फ़र्जी पंडे आए थे। उस वक्त मैं दिल्ली में था। शाम को जब घर पहुंचा तो माता जी बताया कि गढ से दो पंडे आए थे। उसने तुम्हारे पिता जी दादा जी एवं तुम्हारे सबके नाम बताए। मैने उनका सत्कार कर दक्षिणा दे दी।

मुझे शक हुआ तो मैने माता जी से पूछा कि उन्होने मेरे परदादा, षड़दादा एवं उदय आदि का नाम पढा की नहीं। नहीं पढा-माता जी ने बताया। तो मैने कहा कि वे पंडे फ़र्जी थे। अगर मुझे मिल जाएं तो उनको सुधार दूँ।

हमारे पंडे कॉलेज में मैथ्स डिपार्टमेंट के एच ओ डी हैं एवं उन्हे इतनी फ़ुरसत नहीं है कि वे दो चार सौ रुपए के लिए 1500 किलो मीटर आएं। बात आई गयी हो गयी।

एक सप्ताह पश्चात मुझे सारंगढ के सांसद का फ़ोन आया कि उनकी बेटी की शादी पलारी में है और मुझे जरुर उपस्थित होना है। मेरी भी आदत है कि यदि कोई अनुराग एवं आदर से बुलाए तो समय होने पर अवश्य ही उस कार्यक्रम में उपस्थित होता हूँ स्थान की दूरी की परवाह किए बिना।

मैने सोचा कि सुबह ट्रेन से भाटापारा जाएं फ़िर वहां से गाड़ी लेकर पलारी शाम को आराम से जा सकते हैं। शादी में भी हो आएगें और रिश्तेदारों से भी मिल लेंगे। सुबह मैं भाटापारा पहुंचा, जाकर बैठा ही था कि दो लोग धोती-कुर्ता-सदरी पहने एवं चंदन चोवा लगाए भीतर आकर सोफ़ा पर विराजमान हो गए।

बाबू जी को पूछने लगे। बाबूजी के आते ही उन्होने उल्हाना देना शुरु कर दिया कि आप हरिद्वार नहीं आते। हम आपके पंडे हैं। कभी तो आना चाहिए?

इनकी बातें सुनकर मुझे माताजी द्वारा बताई गई घटना याद आ गयी। मैने बाबू जी भीतर आने का इशारा किया और उनसे पूछने कहा कि वे किधर से पधार रहे हैं? और अभनपुर भी गए थे क्या?

अगर गए थे किनसे मिले। बाबू जी उनसे पूछा तो उन्होने बताया कि वे अभनपुर गए थे। ललित शर्मा के यहाँ उनकी माता जी मिली थी। बहुत दान दक्षिणा पाए।

बाबू जी ने पूछा कि आप ललित जी को पहचानते हैं तो उन्होने बताया कि ललित जी कहीं प्रवास पर थे। इसलिए नहीं मिल पाए। बात साफ़  हो गयी थी कि ये फ़र्जी डॉट कॉम हैं और अब सही जगह मिल गए। क्योंकि हमारे और ससुराल के पंडे कभी एक जगह हो ही नहीं सकते।

मैने उनसे कहा कि-“महाराज हमारी वंशावली सुनाओ? तो उन्होने उतना ही सुनाया जितना अभनपुर में सुनाया था। मैने उनसे पूछा कि” आपको यह नाम कहाँ से मिले? उन्होने कहा कि अपनी बही से उतार कर लाए हैं।

मैने उनकी डायरी छीन ली और उसमें लिखे नामों को पढने लगा। अचानक एक जगह पर मेरी नजर ठहर गयी और इनकी चतुराई का भंडाफ़ोड़ हो गया। सामाजिक प्रत्रिका में हमारी जानकारी प्रकाशित हुई थी, वह कहीं से इनके हाथ लग गयी और ये उसी को जस का तस लिख लाए थे।

उस पत्रिका में कई लोगों का नाम गलत लिखा था। इन्होने उसे जस का तस ही उतार लिया था। बस फ़िर क्या था। मैने एक झन्नाटेदार चमाट लगाया, पूरा कमरा गूंज उठा। अप्रत्याशित मिले सम्मान से वे भौंचक्के रह गए।

फ़र्जी पंडा नम्बर--2
उसने पूछा कि- मार क्यों रहे हो, हम हरिद्वार के पंडे हैं। मैने दूसरे का गाल भी सेंक दिया। बाबू जी ने मारने से मना किया। मैने कहा कि - अभनपुर में तुम गढ गंगा के पंडे बने हुए थे और भाटापारा में हरिद्वार के बन गए।

तुमने जो नाम डायरी में कहां से लिख रखे हैं, उसका भी मुझे पता है। अब तुम जेल जाओगे इससे कम कुछ नहीं हो सकता। उठो मत यहीं बैठ जाओ। अभी तुम्हारा और आदर सत्कार होगा। इतन कह कर मैने मित्र स्थानीय एस डी ओ पी को फ़ोन लगाया।

उन दोनो ने उठ कर मेरे पैर पकड़ लिए। एक बार माफ़ कर दीजिए, आईन्दा यह गलती नहीं होगी। उसका साथी पंडा अपने साथी से ही कहने लगा कि-“महाराज गलत काम मत किए करो।

अपने साथ मुझे भी पिटवा दिया। चलो माफ़ी मांगो।“ उसने पैंतरा बदल दिया था। बाबूजी के कहने पर मैने उन्हे चेतावनी देकर छोड़ दिया था कि अब इलाके में दिखाई नहीं देना। वे चले गए और ट्रेन पकड़ो निकल लो, भलाई चाहते हो तो।

चोर की चोरी एक दिन पकड़ी ही जाती है। अभनपुर में ठगी की और भाटापारा में पकड़े गए। उनकी किस्मत खराब थी। मैं न शादी में जाता तो वे पकड़े नहीं जाते।

भगवान ने अजब संयोग मिलाया। कल इस घटना की पुनरावृति हो गयी। दोपहर में आराम कर रहा था तभी माता जी ने कहा कि- दो पंडे आए हैं हरिद्वार से। मैं बाहर निकला तो उन पंडो जैसी वेशभूषा में दो आदमी दिखाई दिए।

मुझे देखते ही कहने लगे कि हम ब्राह्मणों के पंडे हैं और हरिद्वार से आए हैं। आप लोगों ने हरिद्वार आना ही छोड़ दिया है। मेरी लड़की की शादी है।

इसलिए कुछ सहयोग मिल जाए तो अच्छा रहेगा। मैने कहा जरुर करते हैं जी, सहयोग में कोई कमी नहीं होगी। उसकी उमर 35-37 साल होगी और साथी की 20 साल के आस पास। मुझे उन पर शक हो गया।

मैने पूछा कहाँ कहाँ घूम आए महाराज? तो उसने मेरे छोटे भाई का नाम लिया, मैने उनसे कहा कि हमारे पंडे गढ गंगा में हैं। हरिद्वार से हमें क्या लेना देना। इतनी देर में छोटा भाई भी आ गया।

उनके सामने ही उसने बताया कि इन्होने उसे गढ मुक्तेश्वर से आना बताया था। अब आमने सामने ही पकड़े गए। उन्होने छोटे भाई से हमारे अन्य रिश्तेदारों का पता पूछ कर डायरी में नोट कर रखा था।

मैने उनसे डायरी छीन ली और उसे देखा। उसमें अन्य ब्राह्मणों के भी पते लिखे थे। आज ठंड अधिक थी इसलिए चमाट लगाने का मन नहीं हुआ, उन्हे बख्शने का मन बना लिया था। वह कहने लगा कि उसके साथी के मामा जी गढ मुक्तेश्वर में रहते हैं। यह भी गढ मुक्तेश्वर में रहा है।

उनकी डायरी का एक पृष्ठ
छोटे भाई ने कहा कि-अभी तो तुम अपने चाचा के बारे में कह रहे कि वे गढ मुक्तेश्वर में रहते हैं। 15 मिनट में मामाजी पर आ गए।

मैने कहा कि अब झूठ बहुत अधिक हो गयी। इनकी थोड़ी थोड़ी दंड सेवा कर दो। जिससे ठंड भी दूर हो जाएगी और दीमाग भी काम करेगा।

सुनकर दोनो जाने के लिए उठ लिए। मैने कहा ठहरो महाराज दान दक्षिणा तो लेकर जाओ। खाली हाथ भेजने का नियम हमारे यहाँ भी नहीं है।

जो भी यथा योग्य सेवा होगी करेंगे और तृप्त करके भेजेगें। उन्हे हमारा सेवा भाव समझ में आ रहा था। कहने लगे कि अब इन पतों पर हम नहीं जाएगें। आपसे माफ़ी मांगते हैं। तब तक मेरा मोबाईल कैमरा काम कर चुका था। फ़र्जी पंडे कैद हो चुके थे। मैने उन्हे जाने दिया।

हमारा समाज धर्म भीरु है। अपनी परम्पराओं की रुढियों में जकड़ा हुआ है। जिसके कारण ठग लोग अपनी कलाकारी दिखा ही जाते हैं और जो वास्तविक हकदार है उसका नुकसान हो जाता है।

अगर हमारी वंशावली लेखक राव-भाट या वास्तविक पंडे आते तो उनका सम्मान करना फ़र्ज बनता है। क्योंकि वे एक स्वयंसेवी संस्था हैं, जो पीढी दर पीढी हमारी वंशावली सहेज रहे हैं और उसके एवज में  कुछ दान-दक्षिणा देने का हक हमारा भी बनता है। जिससे उनका भी जीवन यापन हो सके।

मैं तो कहता हूं कि धन्य है यह वंशावली लेखक जिन्होने श्रम पुर्वक जातियों की वंशावली को संभाल कर सहेज कर रखा है। इनके बही खातों की वंशावली को अदालत भी कुटुम्ब के जमीन जायदाद के विवाद के अवसर पर प्रमाण के तौर पर मानती है।

अगर ये फ़र्जी पंडे बिना कोई कहानी ग़ढे ही सौ-पचास मांग लेते तो दे देता, लेकिन लेकिन झूठ बोलकर फ़ंस गए। चोर-डकैत भी हो सकते हैं, किसका  क्या पता? शीघ्र ही किसी असली वंशावली लेखक से आपको मिलाते हैं और तब तक आप इन फ़र्जियों को पहचाने एवं मिल जाएं तो खूब खातिरदारी करें।    

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

एक शाम नन्हे मुन्ने बच्चों के साथ-

गत १६ फरवरी को साईं कृष्णा पब्लिक स्कूल राजेंद्र नगर रायपुर का वार्षिकोत्सव हुआ. जिसमे छात्र-छात्रों ने बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया. कार्यक्रम का शुभारम्भ रायपुर नगर की मेयर श्रीमती किरणमयी नायक ने किया.

इस अवसर पर पार्षद कविता ग्वालानी, रेखा रामटेके, अमितदास पूर्व पार्षद रियाज अहमद एवं ललित शर्मा उपस्थित थे. स्कूल के स्टाफ ने अतिथियों का स्वागत किया. स्कूल के मैनेजिंग डायरेक्टर सुमितदास ने कार्यक्रम का संचालन किया.

इस अवसर पर दर्शकों की बड़ी संख्या में पालक दर्शक उपस्थित हुए. पेश हैं वार्षिकोत्सव कार्यक्रम की चित्रवलियाँ.

उपस्थित दर्शक
ललित शर्मा,रियाज अहमद, मेयर किरणमयी नायक
पार्षद अमितदास, कविता ग्वालानी,रेखा रामटेके,एवं ललित शर्मा
मेयर किरणमयी नायक, सुमित दास, प्रधानाध्यापिका रंजना दास 
ललित शर्मा एवं सुमित दास
स्कुल में मेधावी विद्यार्थियों के साथ मेयर
सुन्दर नृत्य संयोजन 
समूह नृत्य
दबंग-दबंग
बच्ची ने तो कमाल कर दिया

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

(चित्रावलियाँ) राजिम कुंभ से लौटकर

राजिम कुंभ के उद्घाटन समारोह में पहुंचते ही रात घिर आई, लेकिन पुनम का चाँद अपने पूरे शवाब पर था। हमने कोशिश की इस समारोह को अपने मोबाईल कैमरे में कैद करने की। पिक्चर क्वालिटी रात के हिसाब से संतोषजनक ही है। कभी दिन में जाना होगा तो और भी चित्र उपलब्ध कराएगें सैर कीजिए कुंभ मेले की।

राजीव लोचन मंदिर का प्रकाशित प्रवेश द्वार
साडा पुराणा मित्तर-- बलदेव सिंग हुंदर, मुछों को बल देते हुए
भगवान राजीव लोचन
गंगा आरती--महानदी तट पर
कुंभ मेले का विहंगम दृश्य

सजी हुई दुकान--ग्राहक के इंतजार में

राजिम की बेटी ने रेत पर फ़ूल बनाकर कुंभ का स्वागत किया
राजीव लोचन मंदिर के शिखर पर पुनम का चाँद
सजा धजा मंच
दो दीवाने --- ललित शर्मा-- संतोष शुक्ला
राहुल भैया द्वारा खाई-खजानी का सिंहावलोकन
कांची काम कोटि पीठाधीश्वर शंकराचार्य जयेन्द्र सरस्वती



संस्कृति मंत्री बृजमोहन अग्रवाल, विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक,
कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहु, राज्य भंडार गृह निगम अध्यक्ष अशोक बजाज
एवं समस्त साधु संत समाज
गम्मतिहा द्वारपाल -- पारम्परिक वेशभूषा में

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

बसंत पंचमी के अवसर पर काव्य गोष्ठी

संतोषी नगर में बसंत पंचमी के अवसर पर काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया। सरस्वती पूजन के पश्चात कार्यक्रम संचालन का भार श्री शिवराम शर्मा को सौंपा गया और कवि गोष्ठी प्रारंभ हो गयी।

इस कवि गोष्ठी में दुर्भाग्य से मैंने ही 40 बसंत देखे थे बाकी सभी 60 से अधिक बसंत देख चुके थे। कहने का मतलब यह है कि काव्य रचना के मामले में मेरा अनुभव कम था।

सभी उपस्थित कवियों ने अपनी-अपनी रचना का पाठ किया। जो धूरंधर थे उन्होने चौके छक्के लगाए एवं श्रोताओं के छक्के छुड़ाए एवं हमारे जैसे रंगरुटों ने एक्का दुआ से ही काम चलाया। लेकिन आऊट नहीं हुए क्रीज पर ड्टे ही रहे।

संतोषी नगर की काव्य गोष्ठी में मुझे पहली बार शामिल होने का अवसर मिला। सभी के पास अपनी-अपनी डायरी थी।

मेरे पास डायरी न होने के कारण मुझे लैपटॉप से काम चलाना पड़ा। बसंत का मौसम हो और गीत कविताओं में मौसम का असर न दिखे, यह नहीं हो सकता।

कुछ सुंदर गीत श्री शीतलाबख्श सिंह द्वारा प्रस्तुत किए गए। शिवराम शर्मा , सत्यप्रकाश चौबे , रिछारिया, राममूरत शुक्ला, कैलाश तिवारी, नंदलाल यादव जी ने काव्य के माध्यम से साक्षात ॠतुराज को ही धरती पर उतार दिया। गोष्ठी श्री शीतलाबख्श सिंह के प्रांगण में हुई।

इस अवसर पर सुधि श्रोताओं के साथ गणमान्य अश्विनी कुमार तिवारी, दशरथ शूक्ला, श्रीकांत दुबे, नरेश मिश्रा, अरविंद सिंह, एस बी सिंह, डॉ नरेन्द्र बहादुर सिंह उपस्थित थे।

नंदलाल यादव ने छत्तीसगढी में सुंदर गीत सुनाया। हमने भी एक गीत और दो कविताएं सुनाई। इस आयोजन का बैम बजर पे लाइव टेलीकास्ट किया गया था।

जिससे कई प्रदेशों में इस काव्य गोष्ठी के लाईव प्रसारण का आनंद लिया गया। साऊंड सेटिंग नहीं होने के कारण आवाज में कट रही थी। गोष्ठी के आयोजक साधूवाद के पात्र हैं। कवि गोष्टी के कुछ गीतों की रिकार्डिंग इसमें लगा रहा हूँ। आप उसे सुन सकते हैं।


मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

संकल्प शक्ति - राम सजीवन और पुस्तक मेला

किताबें मनुष्य सच्ची और अच्छी जीवंत साथी होती हैं। किताबों से प्राप्त ज्ञान को व्यवहार में लाने से सामाजिक जीवन में लाभ मिलता है। जब मनुष्य ने ज्ञान को सहेजना प्रारंभ करने की दिशा में पहल की होगी तभी पहली किताब का जन्म हुआ होगा।

सहेजा हुआ ज्ञान आने वाली पीढी का मार्गदर्शक बने,इसके पीछे यही सोच रही होगी। श्रुति परम्परा से ज्ञान को संरक्षित करने में हमारे पूर्वजों का कोई सानी नहीं था।

आतताईयों के आक्रमण में विशाल ग्रंथालय नष्ट हो गए, लेकिन श्रुति परम्परा से कुल में संरक्षित वाचिक ज्ञान कायम रहा। पश्चात श्रुति ज्ञान को किताबों का रुप दिया गया। जो आज तक प्रचलित है।

साहित्य का तात्पर्य है कि “वह ज्ञान जिसमें समाज हित निहित हो।“ मनुष्य के हित में समाज को नए विचार देने में साहित्य की महती भूमिका रही है।

वेदों के मंत्र दृष्टा ॠषियों से लेकर कवि, लेखक, आलोचक आदि ने श्रम पूर्वक अपनी श्रेष्ठ कृतियाँ समाज को दी। इसी कड़ी में शांतिकुंज हरिद्वार एवं गायत्री परिवार के अधिष्ठाता आचार्य श्रीराम शर्मा ने भी समाजोपयोगी वैदिक साहित्य का संकलन किया और उसे नए कलेवर में समाज के समक्ष प्रस्तुत किया।

कहते हैं उन्होने अपने जीवन काल में 3200 छोटी बड़ी पुस्तकों की रचना की। कुछ मैनें भी पढी हैं। इस पुस्तकों ने सर्व साधारण के लिए ज्ञान प्राप्ति का मार्ग खोल दिया।

विगत 11 फ़रवरी को अभनपुर के गायत्री परिवार सत्संग परिसर में पुस्तक मेले का आयोजन किया गया है। जिसे नगरवासियों का अच्छा प्रतिसाद मिल रहा है।

पुस्तक मेले के अवलोकन के लिए समाज के सभी वर्गों के लोग आ रहे हैं तथा अपनी पसंद के अनुसार किताबें क्रय कर रहे हैं।

इस पुस्तक मेले में शांति कुंज हरिद्वार से आचार्य श्रीराम शर्मा द्वारा रचित सभी 3200 पुस्तकों को प्रदर्शित किया है। शायद ही ऐसा कोई विषय हो जिससे संबंधित पुस्तक यहाँ उपलब्ध न हो।

आर्षग्रंथ, गायत्री विद्या, कथा एवं पुराण, गीत एवं संगीत, स्वास्थ्य एवं औषधि, शिक्षा एवं स्वावलंबन  व्यसन मुक्ति, पर्यावरण, नारी जागरण, व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण, समाज निर्माण, आत्मचिंतन,  भारतीय संस्कृति धर्म एवं दर्शन, महापुरुषों के प्रेरक जीवन वृत्तांत, विद्यार्थियों के लिए उपयोगी साहित्य एवं ज्योतिष विज्ञान आदि से संबंधित पुस्तकें विक्रय के लिए उपलब्ध हैं।

नगर में गायत्री परिवार की स्थापना तो 80 के दशक में हो चुकी थी। वर्षादि में एकाध बार यज्ञ हुआ करते थे। उसके पश्चात मिशन का प्रचार कार्य सिर्फ़ अखंडज्योति के सदस्य बनाने तक सिमट गया।

90 के दशक तक यही चलते रहा। फ़िर एक व्यक्ति ने गायत्री परिवार की दीक्षा ली और उसने प्रचार अभियान प्रारंभ किया। 24 घंटे समाज सुधार एवं समाज कल्याण का ही चिंतन करते थे साथ ही परिवार में नए परिजन जोड़ते थे।

शीघ्र ही उनका प्रयास रंग लाया। एक जगह गायत्री मंदिर की स्थापना हुई। लोगों को जुड़ने के लिए एक नियत स्थान मिल गया। इससे युग निर्माण का कार्य सुचारु रुप से प्रारंभ हुआ। समाज के सभी तबकों के लोग जुड़ने लगे। मंदिर में नित्य हवन पूजन प्रारंभ हुआ। नित्यता ही सफ़लता का कारक होती है। इसके लिए दृढ संकल्प आवश्यक है।

संकल्प के धनी इस व्यक्ति का नाम राम सजीवन चौरसिया है। हम भी पहले इनसे मजाक करते थे कि-"क्या यार पागल हो गए हो और कोई काम नहीं है क्या? दिन रात इसी बक-बक में लगे रहते हो।" लेकिन इस तरह के तानों से विचलित नहीं हुए। एकनिष्ठ होकर गायत्री मिशन के कार्य में लगे रहे। प्रारंभ की आर्थिक कठिनाईयों में अपना वेतन भी इन्होनें मिशन कार्य में लगाते रहे। घर-परिवार, नौकरी के साथ जीवन की जीजीविषाओं से जूझते हुए गायत्री मिशन के कार्य को गति देते रहे।

प्रज्ञा पुत्र-श्री देवलाल साहू एवं श्री राम सजीवन चौरसिया
एक दिन मुझसे कहने लगे कि नगर में कोई सार्वजनिक संत्संग हॉल नहीं है। इसकी कमी नगर में महसूस की जा रही है। मैने भी सहमति जताई। उस दिन से इन्होने सत्संग भवन निर्माण हेतू कार्य शुरु कर दिया।

नगर के मध्य में लगभग 22000 शासकीय भूमि का आबंटन कराया गया। इसके पश्चात नगर वासियों से सम्पर्क किया गया। किसी ने निर्माण सामग्री दी तो किसी ने नगद धन राशि।

उसके पश्चात 3000 वर्गफ़ुट में हॉल का निर्माण हो गया, जिसमें 50 लाख रुपए जन सहयोग से खर्च हुए हैं, इसके साथ ही यज्ञशाला का निर्माण हो रहा है। सम्पूर्ण योजना का बजट लगभग 2 करोड़ रुपए का है।

प्रारंभ में लगता था कि इतना रुपया कहाँ से आएगा? लेकिन साथी मिलते गए और कारवाँ बढता गया। कहा जाता है कि संकल्प में बल होता है। कभी कभी मैं मजाक में कह देता था कि “सुबह से झोला उठाकर मांगने निकल पड़ते हो।“ तो ये हँस कर कहते थे कि – 

मांगन से मरनो भलो,मांगु तन के काज।
परमारथ के कारने आवे न मोहे लाज ॥ 

अब इसी सत्संग परिसर में पुस्तक मेला सजा हुआ है। लोग पुस्तक मेले का लाभ उठा रहे हैं। यह पुस्तक मेला 20 फ़रवरी तक चलेगा। जिससे अंचल के पाठक और विद्यार्थी लाभान्वित होगें। आज इनके साथ अनुशासन बद्ध कार्यकर्ताओं की फ़ौज खड़ी है।

जो निरंतर अर्थ दान के साथ समय दान भी कर रही है। मैं राम सजीवन चौरसिया को हृदय से धन्यवाद देता हूँ तथा मिशन की सफ़लता की कामना करता हूँ।

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

कागभुसुंडी ज्योतिषी--वेलेन्टाईन डे--समाज सुधारक

वाह! वेलेन्टाईन बाबा, जब तुम आए हो हमारे देश में निठल्लों को काम मिल गया है। जो दिन भर बैठ कर ताश पीटते थे वे भी सजग हो गए हैं। छोकरे-छोकरी से लेकर डोकरे-डोकरी तक काम में लग गए हैं।

दोनो एक दूसरे पर निगाह रखे हुए हैं। किसका फ़ेंका हुआ गुलाब, किसके आंगन में गिरता है और मामला कोट कचहरी तक पहुंचता है यह तो वक्त ही बताएगा। बाग-बगीचों में अदृश्य कैमरे फ़िट हो चुके हैं।  

जाओ बेटा कहाँ तक जाते हो? फ़ूलों एवं टेडी बियर की दुकानें सज चुकी हैं। पुलिसिए भी अपने डंडे को तेल पिला कर तैयार हैं।

जनता हवलदार ने नयी नकोर चालान बुक निकाल ली है। कहीं हत्थे मत चढ जाना, बिना चालान के ही अंदर का रास्ता दिखा देगा। उसे पिछला वेलेन्टाईन याद है, जब कप्तान साहब ने फ़ीत उतारने की धमकी पिलाई थी।

शाम को कुछ निठल्ले समाज चिंतकों ने घेर लिया। गाहे-बगाहे टैम खराब करने चले आते हैं। इन्हे समाज सुधारने की घोर चिंता है। रोज कोई न कोई टापिक छेड़ ही देते हैं और खुद ही उसमें उलझ जाते हैं।

चौबे जी कहने लगे “इस वेलेन्टाईन ने तो सत्यानाश कर दिया। जो हरकतें खुले आम हो रही हैं, उससे तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। भारतीय संस्कृति का ह्रास हो रहा है। हमें यूँ ही हाथ पर हाथ धरे खाली नहीं बैठना चाहिए, कुछ करना चाहिए।“

“क्या करना चाहिए?”

“अरे! गाँव मोहल्ले में घर-घर जाकर युवाओं को समझाना चाहिए, इस विदेशी त्यौहार के फ़ेर में मत पड़ो। हमारी संस्कृति पर खतरा है। समझाने से कुछ लोगों में तो जागृति आएगी।“

“हां! आपका कहना तो सही है चौबे जी। तनि ये भी सोचिए, हमारी संस्कृति पर तोप, गोला, बारुद से हमला होते रहा है सदियों। तब तो नष्ट नहीं हुई। क्या त्यौहार मनाने से संस्कृति का नाश हो जाएगा।“-बालु बाबा गंभीरता ओढे हुए बोले।

“अरे भाई बसंत उत्सव मनाओ, फ़ाग गाओ, डफ़ और नंगाड़े बजाओ, नफ़ेरी तुनतुनाओ। किसने मना किया है? पर वेलेन्टाईन जैसे उल्टे काम तो छोड़ो।“

“वाह! क्या उम्दा रास्ता ढूंढा है आपने। जब आप फ़ाग में गाते हो “खिड़की से यार को बुलाए रेSSS। तो संस्कृति कायम रहती है?”

“अरे हमारा मुंह मत खुलवाओ?  बात निकरेगी तो बहुत दूर तक जाएगी। पिछले वेलेन्टाईन में हम तुम्हारे लड़के को घर में चौका बर्तन करने वाली फ़ूलमतिया के साथ फ़टफ़टिया पर नहीं पकड़े थे क्या? बड़े संस्कार और संस्कृति के पहरुवा बने हो”

“देखो! प्रवचन देना आसान है, लेकिन उस पर अमल करना बहुत मुस्किल। आपै खारी खात है बेचत फ़िरै कपूर। गए साल रामखिलावन के खेत में तुम्हारी छोकरी को सबने नहीं देखा था क्या? चोट्टे पंसारी के लड़के के साथ।

बात कहाँ समाज सुधारने की हो रही थी और व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप तक पहुंच गयी।  एक दूसरे की पोल खोलने लगे, धोती खींचने लगे, वाद, विवाद में बदलने लगा तो मुझे ही हस्तक्षेप करना पड़ा। नहीं तो इनका बेलनटाईन अभी ही मनने लगता।

“जाईए आप लोग बहुत देर हो गयी, घर पर प्रतीक्षा हो रही है। अपना-अपना घर संभालिए। समाज सुधारने की चिंता समाज पर ही छोड़ दीजिए। बेमतलब लट्ठम लट्ठा होने से कोई फ़ायदा नहीं है। वेलेन्टाईन मनाईए, प्रेम से रहिए।“

इधर वेलेन्टाईन डे की आहट सुनकर परदेशी राम के कान खड़े हो जाते हैं। हर बरस 14 तारीख को दिल से गुलाब लगाए, बगीचों, मॉल, वी आई पी रोड़ पर चक्कर लगाते रहते हैं।

कोई तो, कहीं तो मिलेगी दिलरुबा। साल भर सपने देखने के बाद 14 फ़रवरी को सपनों के हकीकत में बदलने का दिन आ जाता है। लेकिन पुलिस के डंडे और हिन्दुवादी संगठनों के अंडे ख्याल आते ही सार फ़ितूर उतर जाता है। पिछले साल पिछवाड़े में पड़े डंडों का दर्द आज तक है।

हिम्मते मर्दां मददे खुदा। अगर ईश्क की राह में दो चार डंडे और अंडे खा लिए तो क्या हुआ। कौन सी शर्म की बात है? शर्म तो आनी-जानी चीज है, बंदा ढीठ होना चाहिए।

हुआ यूँ कि पार्क में परदेशी राम को बैठे बहुत देर हो गयी थी, कोई अकेला आयटम नजर नहीं आ रहा था। सभी बुक थे, अब किसकी ओर दोस्ती का गुलाब बढाएं?

बैठे-बैठे थाह ले रहे थे। दो घंटे बुरबक जैसे बैठने के बाद इन्होने दुसरी जगह जाने की ठानी। जैसे ही बेंच से उठकर चलने लगे तो आवाज आई “परदेशी परदेशी जाना नहीं, मुझे छोड़ के, मुझे छोड़ के।“ इन्होने मुड़ कर देखा तो पेन्सिल जींस टॉप में सपनों की रानी दिख ही गयी।

परदेशी की तो बांछे खिल गयी। चलो मेहनत सफ़ल हुयी। ये बोले-“ कहाँ जा रहे हैं हम। येल्लो आही गए, हैप्पी वेलन्टाईन डे- कहते हुए उसकी ओर गुलाब बढाया। पता नहीं उसके बाद क्या हुआ? तीन दिनों के बाद अस्पताल में ही होश आया।

बुजुर्ग कहते हैं कि इतिहास से सबक लेना चाहिए, तभी भविष्य और वर्तमान कारगर होता है। परदेशी राम ने तय कर लिया कि इस साल कागभुसुंडी ज्योतिषी से कुंडली पढवा कर जाएगें। जिससे खतरा कम हो जाएगा।

कागभुसुंडी ज्योतिषी महाराज सुबह से अपने स्थान पर पोथी पतरा लिए तैनात थे। क्योंकि वेलेन्टाईन डे पे ग्राहकों की संख्या बढ जाती है।  परदेशी राम को  जोतिस महाराज ने बता दिया की आज दक्षिणा का रेट बढ गया। सवा रुपया से काम नहीं चलेगा। परफ़ेक्ट नुश्खा चाहिए तो 251 रुपया लगेगा।  मरता क्या न करता परदेशी ने 251 रुपया महाराज के नजर किया। रुपया अंटी में धर के महाराज बल्लु को स्कूल छोड़ने गए हैं।

परदेशी मुंह फ़ाड़े दरवाजे पर बैठा है, आए तो नुश्खा बताएं। आपके पास कोई नुश्खा हो तो परदेशी की सहायता करें और वेलेन्टाईन का पुण्य लाभ अर्जित करें।

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

डायरी के जर्द पन्नों से


बसंत का आगमन हो चुका है, पुराने जख्म फ़िर कुरेद रहा हूँ यानी की दैनन्दिनी के पन्ने पलट रहा हूँ। बांच रहा हूँ, कुछ पुरानी यादें जिसमें तुम टुबलाकड़ी की तरह जगमगा रही हो। मेरे दिल की धड़कने भी घरघंटी सी पीस रही हैं पुराने सूखे गुलाब को इत्र बनाने के लिए। जिससे महक उठे सारा वजूद। सामने झूल रहा है छीका, जिसमें रखा है यादों का स्नेह। वह छलक रहा है धीरे-धीरे। दूर कहीं सन्नाटे को चीरती नगाड़े की आवाज में स्वर उभर रहा है गायक का, :-

पृष्ठ 47 दिनांक 2 मार्च 1969

धीरे बहो नदिया धीरे बहो, धीरे बहो
धीरे बहो नदिया धीरे बहो
राधा जी उतरैं पार
नदिया धीरे बहो


काहेन के तोरे नाव-नउलिया काहेन के पतवार
कौन है तोरे नाव खिवैया कौने उतरै पार
नदिया धीरे बहो


अगर-चंदन के नाव-नउलिया सोनेन के पतवार
कृष्णचन्द्र हैं नाव खिवैया राधा उतरै पार
नदिया धीरे बहो

धीरे बहो नदिया धीरे बहो, यौवन की रुपी नदी की तीव्रता, चपलता एवं चंचलता विध्वंसक होती है। उछलती-उफ़नती, पहाड़ों को काटती, वनों को चीरती, हुई बेखौफ़ अल्हड़ सी आगे बढती है। चाहे जो भी सामने आ जाए, उसे ठिकाने लगा ही देती है। लेकिन जब यौवन का ज्वार उतरता है तो चूक सामने दिख ही जाती है। इसलिए नदिया धीरे बहो, बाद पछताना ठीक नहीं है। मेरी सलाह मानो तो जरा आँखें खोल लो।

पृष्ठ 74 दिनांक 8 मार्च 1973

होली का मौसम है, मौसम न सर्द है न गर्म है। गुलाबी ठंड है बासंती रंग में रंगी हुई। कल्पना में खोया हुआ हूँ। कल्पनाओं को रचने के लिए भी समय और एकांत चाहिए। आम के तले खाट पर पड़ा हुआ आँखें बंद कर लेता हूँ। यहाँ इसलिए कि व्यवधान न हो, आँखे बंद करते ही चलचित्र प्रदर्शित होता है। कल्पनाएं तुम्हारे साथ होली खेलने को मचलती हैं। रंगों का चयन करता हूँ जिससे रंगने के बाद तुम अलग ही नजर आओ और उस पर दूजा रंग न चढे। तैयार हूँ मैं, तभी एक सन्यासी कवि का गीत गूंजने लगता है-

एक थी लड़की मेरे गाँव में चंदा उसका नाम था
वह थी कली अछूती लेकिन हर भंवरा बदनाम था।

महानदी-सी लहराती थी
जैसे उसकी चाल में
पवन हठीला ज्यों थिरका हो
नौंकाओं की पाल में

प्रश्न चिन्ह सी लचक कमर में आगे पूर्ण विराम था
वह थी वनवासिन सीता-सी बिछड़ा जिसका राम था

उसकी गागर की लहरों से
सागर भी शरमाता था
गोरी पिंडलियों को धोने
पनघट तक आ जाता था

वह नदिया थी हर प्यासे को छलना उसका काम था
वह ढाला करती थी लेकिन खाली रहता जाम था।

गीत गूंजता अमराई में
चरवाहे की तान से
छंद-पंक्ति सी वह बलखाती
आंगन में अभिराम से

उमर दिवस की घटने लगती चढ़ता आता घाम था
उसका सपना देहरी पर बेसुध करता आराम था।

वह रुकती थी हाथ जोड़ कर
मलयालिन रुक जाता था
तुलसी की मंजरियों का
बोझिल मस्तक झुक जाता था

उसके चरणों में अर्पित सूरज का नम्र प्रणाम था
स्वपनिल चिंतन में उतराता मेरा दिवस तमाम था।

उसकी खोज में बाग का पंछी
बना हुआ बनजारा है
जब से वह ससुराल गयी है
मेरा गाँव कुंवारा है

उसका प्यार लूटने वाला हर प्रयत्न नाकाम था
मुझे स्मरण दहला देता है उस अंतिम शाम का।

पड़े-पड़े यही सोचता हूँ। एक तरफ़ पढाई का मौसम और दूसरी तरफ़ बासंती होली का धमाल। गत वर्ष तो एक घर में पहुंचा रंग खेलने तो खेलावन भैया होली खेलने के डर से घर की दीवाल कूद कर बाहर भाग गए और भौजी फ़्रंट में आ गई………….।


(नोट- चंदा उसका नाम था गीत आदरणीय संत पवन दीवान जी का है)

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

भ्रष्ट तंत्र की भेंट चढता प्रजातांत्रिक गणतंत्र

भ्रष्टाचार का लगातार विरोध हो रहा है और उसके बावजूद  भी हजारों करोड़ के घोटाले  सामने आ रहे हैं। कलफ़दार नेता से लेकर बाबा सन्यासी तक ढोल पीट रहे हैं। नेता अधिकारियों एवं व्यापारियों के मिले जुले गिरोहों द्वारा जनता के धन पर डाले गए डाकों की फ़ेरहिस्त लम्बी है।

आजादी बचाओ आन्दोलन चलाने वाले स्व: राजीव दीक्षित 2 दशक तक स्विस बैंक के काले धन की वापसी पर देश भर में प्रवचन करते रहे और भ्रष्टाचार के आंकड़े देश की जनता तक पहुंचाते रहे।

एक समय ऐसा आया कि उनके भी जन जागरण के साधन चूक गए। राजीव दीक्षित के बाबा रामदेव से मिलन के पश्चात स्विस बैंक एवं भ्रष्टाचार के मुद्दे को बाबा जी ने अपने हाथों उठा कर मुद्दा बना लिया। अब ये भी इसी मुद्दे के साथ चुनाव की वैतरणी पार करना चाहते हैं।

राजतंत्र में राजा मठ और सेठ का गठजोड़ ही प्रजा पर राज करता था। मठ आम जनता को धर्म से बांध कर रखते थे तो सेठ धन से। राजा इन दोनो का पोषण करता था। कुल मिलाकर इनके चंगुल में सारी प्रजा फ़ंसी रहती थी।

राजतंत्र के अवसान के पश्चात भी यह गठजोड़ कायम है। राजा, मठ, सेठ (नेता, बाबा, व्यापारी) ही लोकतंत्र में मजा कर रहे हैं। सत्ता की धुरी बने हुए हैं। प्रजा इनकी प्रदक्षिणा कर रही है। भ्रष्टाचार की विष बेल बढती ही जा रही है।

कम होने का नाम ही नहीं लेती। भ्रष्टाचार एक ऐसा पेड़ है जिसकी जड़ आसमान में है और शाखाएं जमीन पर। हम इसे जमीन पर खड़े होकर काट रहे हैं कि यह समाप्त हो जाए,लेकिन समाप्त होने की बजाए पोषित पल्लवित होकर विकराल रुप धारण कर रहा है। जनता की गाढी कमाई पर खुले आम डाका डाला जा रहा है।

राजनैतिक दल एवं इनके कार्यकर्ता अपने प्रचार-प्रसार के लिए बैनर फ़्लेक्स से लेकर अखबारों में लाखों रुपयों के विज्ञापन देते हैं। कोई भी युवक किसी भी राजनैतिक पार्टी के संगठन का पदाधिकारी बनते ही अखबारों में लाखों के विज्ञापन दे देता है।

शहर को अपने फ़ोटो लगे फ़्लेक्स बैनरों से पाट देता है। जगह-जगह स्वागत द्वार खड़े हो जाते हैं। स्वागत रैली में सैकड़ों गाड़ियाँ लगाई जाती है और हजारों की भीड़ एकत्रित की जाती है। एक दिन में इतना पैसा कहाँ से आ जाता है।

क्या पदाधिकारी बनते के साथ कोई जादू की छड़ी मिल जाती है या कल्पवृक्ष की छत्र छाया मिल जाती है? ये इनसे क्यों नहीं पूछा जाता कि खर्चा करने के लिए रुपया कहाँ से आया?

कॉलेज में दाखिल होने वाले युवा छात्र राजनीति में आ जाते हैं। छात्र संघ के चुनावों में लाखों रुपए फ़ूंक दिए जाते हैं। यह रुपया क्या छात्रों के पालक खर्च करने में सक्षम हैं? अगर नहीं तो इनके पास यह रुपया कहाँ से आता है?

नौकरी करते हुए राजनीति में आना संभव नहीं है। जिस युवा को नौकरी मिल जाती है वह राजनीतिक पार्टियों से दूर हो जाता है लेकिन जिसे नौकरी नहीं मिलती वह युवा राजनीति में आ जाता है। राजनैतिक पार्टियाँ द्वारा अपने संगठन में लेने से वह पूर्णकालिक नेता बन जाता है।

जब 24 घंटे वह पार्टी का काम करता है तो जीविकोपार्जन के लिए धन कहाँ से लाएगा? इसके लिए उसे कहीं दलाली करनी पड़ेगी। नौकरी लगाने, लायसेंस दिलाने, ट्रांसफ़र कराने के लिए रुपए लेने-देने पड़ेगें। क्योंकि कोई भी राजनैतिक पार्टी अपने कार्यकर्ताओं को वेतन नहीं देती।

इनके पास सीधा फ़ंडा है कि खुद भी खाओ और हमें भी खिलाओ। राजनैतिक दल अपने कार्यकर्ताओं को वेतन नहीं देकर उन्हे भ्रष्टाचार करने की खुली छूट देते हैं एवं उनके अनैतिक कार्यों को संरक्षण एवं समर्थन। 

युवा पीढी राजसत्ता के समीप रहने वाले लोगों को जब चमचमाती हुई, लकदक करती लाखों की गाड़ियों में घुमते एवं एश-ओ-आराम के जुटाए गए सभी सामान देखती है तो इनसे प्रभावित हुए बिना नहीं रहती।

भले ही यह सब भ्रष्ट आचरण करके जुटाया गया हो। वह इनकी दबंगाई को देखकर प्रभावित होती है। जब सत्ता के समीप रहने वालों का कुछ नहीं बिगड़ता और उन्हे गुनाह करने पर नेताओं द्वारा बचाया जाता है तो धनार्जन एवं प्रभाव प्राप्त करने के लिए इनका ही अनुशरण करती है। वही पथ अपनाती है जिस पर भ्रष्ट लोग चल रहे हैं। 

जितना काला धन स्विस बैंकों में जमा है उससे कई गुणा अधिक धन देश में कालेबाजारियों, अधिकारियों एवं नेताओं की तिजौरी में कैद है। बेनामी सम्पत्तियों की देश में भरमार है।

विगत दिनों कई समाचार आए हैं कि किस तरह उच्च पदों पर आसीन अधिकारियों ने भ्रष्टाचार कर अकूत संपत्ति एकत्रित की है। किस तरह धन पापर्टी में लगाया गया है। भ्रष्टाचार में लिप्त लोकतंत्र के पहरुए चौथे खंबे की भी कलई खुली है।

देश के नामी पत्रकारों का भी नाम सामने आया है। बड़े-बड़े कार्पोरेट हाउस अखबार छापने लगे हैं। टीवी चैनल शुरु कर रहे हैं अपने काले धन एवं काले कारनामों के छिपाने लिए। सरकार को ब्लेकमेल कर रहे हैं। इनकी करतूतों से आम आदमी का जीवन दुभर हो रहा है तथा मंहगाई निरंतर बढती जा रही है।

नैतिकता एवं ईमानदारी किस चिड़िया का नाम है, लोग भूलते जा रहे हैं। आज आम आदमी का जीना दुश्वार हो गया है। किसी तरह परिवार के लिए रोटी और कपड़ा का जुगाड़ कर पाता है,मकान का सपना देखना तो भूल ही गया है।

बाबा रामदेव अलख जगाने के लिए निकल पड़े हैं देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध। जगह-जगह उनके कार्यक्रम हो रहे हैं। लेकिन इनके ईर्द-गिर्द भी वही जाने-पहचाने चेहरे नजर आ रहे हैं। जो अन्य नेताओं के ईर्द-गिर्द देखे जाते थे।

बाबा रामदेव के आन्दोलन की नीयत पर प्रश्न नहीं है लेकिन इनके आस-पास दिखाई देने वाले चेहरों को देखते हुए है आन्दोलन की सफ़लता पर संदेह अवश्य होता है।  किसी का एक शेर याद आ रहा है- 

गुनाहगारों पे जो देखी रहमत-ए-खुदा ।
बेगुनाहों ने भी कहा हम भी गुनाहगार हैं।।

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

रांग नम्बर को कंट्रोल करना ट्राई के बस की बात नहीं

“कित्ती दे हो गयी, दोनो बखत मिलने को हैं, अभी तक खाना खाने नहीं आए, बेर मत करो?”- मुझे मोबाईल चालु करते ही सुनाई पड़ा। मैं तो घर पर ही था। फ़िर खाने का निमंत्रण कहाँ से आया? किसी ने बताया भी नहीं? “आप कौन हैं और किनसे बात करनी है? मैने कहा।

तो उधर से जवाब आया कि-“ अब यह भी बताना पड़ेगा कि मैं कौन हूँ? मैने रांग नम्बर कह कर फ़ोन काट दिया। दूबारा वही नम्बर स्क्रीन पर चमकने लगा। मोबाईल चालु करते ही वही आवाज सुनाई दी,

खाने के निमंत्रण के साथ -" कित्ती बेर हो गयी, दुकानदारी होते रहेगी, पहले खाना तो खा लो"।" तो मैने खीज कर कह दिया कि –“आज खाना नहीं खाऊंगा। मुझे दूबारा फ़ोन नहीं लगाना।“

अगले दिन फ़िर उसी समय फ़ोन आया। फ़िर वही खाने पर नहीं पहुचने का उलाहना देती आवाज। मैने उन्हे समझाया कि यह रांग नम्बर है। आप सही जगह फ़ोन करिए।

तो उसने कहा कि –“ हम तो उनको दुकान पर फ़ोन लगाते हैं, पता नहीं आपको कैसे लग जाता है। हम लोग जैनी हैं और दिन छिपने से पहले खाना खाते हैं। इसलिए उनको फ़ोन करके याद दिलाना पड़ता है। मैं टीकमगढ से बोल रही हूँ।“

मैने उन्हे कहा कि आप उनका नम्बर ठीक से डायल करें। उसने कहा कि-“ ठीक से ही डायल करती हूँ, पर आपको कैसे लग जाता है पता नहीं?“ पता रखो-हमने कहा

अगले दिन फ़िर उसी समय उसका फ़ोन आ गया। उठाते ही फ़िर वही चिरपरिचित आवाज और खाने का बुलावा। अब मैने कहा कि –“ आप अपने घर का पता दे ही दें। एक दिन आ ही जाते हैं भोजन करने के लिए। आपकी इच्छा पूरी हो जाएगी।“ वह खिल-खिला कर हंसी और कहा जरुर आईए। फ़िर फ़ोन कट गया।

मैं भी सोच रहा था कि भोजन के निमंत्रण पर 1000 किलो मीटर जाना पड़ेगा। तब तक भोजन ठंडा भी हो जाएगा। मैने उसका निमंत्रण लपेटे ही रखा। खोला नहीं। उसका फ़ोन नियत समय पर नित्य ही आने लगा।

जैसे ही मोबाईल की घंटी बजती, मैं श्रीमति से कहता –“ आज खाना मत बनाना, भोजन का निमंत्रण आ गया है। फ़ोन उठाते ही फ़िर वही निमंत्रण मिलता। पूरे डेढ साल मोहतरमा ने फ़ोन पर भोजन का निमंत्रण दिया। लेकिन हम नहीं पहुंच पाए।

एक फ़िर उनका फ़ोन आया तो मैने कहा कि-“आपके टेलीफ़ोन सेट का कोई एक नम्बर काम नहीं कर रहा है, या डबल दब जाता है। इसे बदल दीजिए, जिससे मुझे भी निजात मिले, आपके फ़ोन से। चाहे कहीं पर भी रहूँ आपका फ़ोन आ ही जाता है।

मुफ़्त में रोमिंग लग जाता है और आपको कहना पड़ता है येल्लो फ़िर वहीं लग गया।“ डेढ बरस से झेल रहा हूँ। आप अपना पता दे दें इससे तो अच्छा है कि मैं आपको एक टेलीफ़ोन सेट ही भेज दूँ तो फ़ायदे में रहूँगा।

पता नहीं आपके पति देव भी कैसे आदमी है। एक टेलीफ़ोन सेट नहीं बदल सकते।“ इसके बाद अब तीन चार महीनों से उनका फ़ोन नहीं आया है। शायद टेलीफ़ोन का सेट बदल लिया है।

लैंड लाईन पर पहले बहुत रांग नम्बर आते थे। परेशानी भी होती थी। व्यर्थ की कॉल अटेंड करके। लेकिन फ़िर बाद मैं भी मजे लेने लग गया। एक दिन रात को एक बजे फ़ोन घनघनाया, उठाते ही किसी ने कहा –“ महाराज प्रणाम, हमने भी खुस रहो का आशीष दिया।

उसने कहा कि- “ मैं बम्बई से बोल रहा हूँ, तीन दिन हो गए लोड नहीं मिल रहा है, खाली आ जाऊं क्या?” खाली आ जाओ-मैने कहा और फ़ोन रख कर सो गया।

कु्छ दिनों बाद फ़िर एक फ़ोन आया –“ भैया! धान का कोड़हा नई मिल रहा है, भूसा ले आऊं क्या? मैने कहा – भूसा ले आओ। अब इनके मालिकों ने इन्हे जुतिया कर लाल कर दिया होगा और ये भी फ़ोन का नम्बर सावधानी से डायल करने लगे होगें।

अब मोबाईल पर ही रांग नम्बर आने लगे हैं और इनकी मुर्खता के तो क्या कहने? फ़ोन खुद ही लगाएगें और पूछेगें कि –“आप कौन बोल रहे हैं?” अरे जिसको तुमने फ़ोन लगाया है वही बोल रहे हैं, दूसरा कौन बोलेगा।

जब तुम्हें ही नहीं मालूम किसको फ़ोन लगाया है तो लगाते क्यों हो? ससुर कहीं के। एक दिन मोबाईल पर फ़ोन आया, उधर से मधुर आवाज आई –“ जीजाजी बोल रहे हैं? हाँ! बोल रहा हूँ, बताओ क्या हाल-चाल है?

सब बढिया है, दीदी कहाँ है?”-उधर से आवाज आई।

“वो तो मायके गयी है, पहुंची नहीं क्या?”-हमने पूछा तो उधर से आवाज ठिठकी, फ़िर बोली –“ आप जीजाजी नहीं बोल रहे हैं और कोई हैं।

मैने कहा-“विश्वास करो जीजा जी ही बोल रहा हूँ। पर हो सकता है तुम्हारा नहीं होऊं तो किसी और का तो हूँ। जीजाजी तो जगत जीजाजी होते हैं, अब कोई जीजाजी बोले तो कौन मना करेगा?“ उधर से लाईन कट चुकी थी।  

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

सावधान! ॠतुराज बसंत पधार चुके हैं

बसंत आ गया, आना ही था, ॠतुराज को कौन रोक सकता है? इसके भी आगमन का इंतजार करना पड़ता है आनंदोत्सव हेतु। बसंतोत्सव की कुछ दिनों की खुशियों के लिए पतझड़ एवं लू से झुलसना पड़ता है, फ़िर पूरे 12 महीने इंतजार करने के पश्चात बसंत का आता है।

तन-मन उपवन महकाता है और जाता है तो झुलसाता हुआ, धूल का गुबार उड़ाता चला जाता है निर्दयी बेरहम होकर। ऐसा नहीं हो सकता था कि पहले पतझड़ आता फ़िर उसके बाद बसंत।
झुलसी हुई गात पर मरहम लगाता। तन-मन को हरषाता। नहीं हो सकता । यह मनुष्य की फ़ितरत है कि अधिक खुशी और आनंद सहन नहीं कर पाता।

हृदय पर बोझ आते ही हृदयाघात का खतरा मंडराने लगता है। बसंत भी जानता है, उसे कब आना है। आने से पहले बरस भर तैयारी करनी पड़ती है। तब लवा-जमा लाव-लश्कर के साथ आता है।

राजे-महाराजों के लिए तो बारहों महीने बसंत है। केवड़ा, गुलाब, चमेली, खस की सुवास मिले जल का छिड़काव होते ही बसंत की बयार आ जाती है।

चेटी, बांदी की सेवाओं के साथ नृत्यांगनाओं के नृत्य बसंत को आने के लिए लुभा ही लेते हैं। संगीत की स्वर लहरियाँ झूमने को उत्साहित कर देती हैं। मृदंग एवं तबले की थाप सुन कर पैर थिरकने लगते हैं। मधुर पायल की ध्वनि चीर देती है वातावरण के सन्नाटे को।

बसंत का यहां स्थाई डेरा है। जब चाहो तब हाजिर। अकुलाहट बसंत के हृदय में भी है, वह कैद हो गया चांदी की दीवारों में। आजाद होना कौन नहीं चाहेगा?

बसंत भी आजाद होना चाहता है। जब वह कैद से आजाद हो जाता है तो आ जाता है अपनों के बीच। तब हम कहते हैं कि बसंत आ गया।

आम जन बसंत के स्वागत के लिए पलक पांवड़े बिछा देता है। उन्मुक्त सुवासित पवन बहने लगती है। मंद-मंद शीतलता सुवासित समीर के साथ आम जन को भी राजा बना देती है। क्योंकि बसंत आ गया है।

बसंत सभी के जीवन में आता है। तन-मन हरषाता है, प्रकृति बसंत का स्वागत करती है। भौंरे गुनगुनाते हैं, कोयल कुकती है, पलाश खिल जाते हैं, अमिया बौरा जाती है, तितलियाँ रंगबिरंगे वसन धारण करती हैं, इंद्रधनुषी छटा चहूं ओर बिखर जाती है। ॠतुराज बसंत पधार चुके हैं अपने लाव लश्कर के साथ, आईए स्वागत करें। एक गीत के साथ।


सरसों  ने  ली अंगडाई गेंहूँ की बाली डोली
सरजू ने ऑंखें खोली महुए ने खुशबु घोली

अमिया पर यौवन छाया जुवार भी गदराया
सदा सुहागन के संग गेंदा भी इतराया
जब रजनी ने फैलाई झोली 
गेंहूँ की बाली डोली

रात-रानी के संग गुलमोहर भी ललियाया
देख महुए की तरुणाई पलास भी हरषाया
जब कोयल ने तान खोली
गेंहूँ की बाली डोली

बूढे पीपल को भी अपना आया याद जमाना
ले सारंगी उसने भी छेडा मधुर तराना
जब खूब जमी थी टोली
गेंहूँ की बाली डोली

गज़ब कहर बरपा है महुए के मद का भाई
आज चांदनी बलखाई बौराई थी तरुणाई
खुशियों की भर गई झोली
गेंहूँ की बाली डोली

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

जेठू राम! कुर्सी खाली मत छोड़ो यार

दिल्ली से बड़े मंत्री पधारे हुए थे। मेरे परिचित थे और मुझे भी कुछ काम था उनसे। मेरे साथ जेठू राम भी था। जिस हॉल में मंत्री जी का कार्यक्रम था वहाँ बहुत सारी कुर्सियाँ लगी थी। हमने सामने  वाली कुर्सियों पर कब्जा जमा लिया। सारी कुर्सियाँ भर चुकी थी।

कुछ लोग कुर्सियों के खाली होने पर कब्जियाने के चक्कर में ताक रहे थे। मंत्री जी के स्वागत के लिए मंच से पुकार होने लगी। हमारा नाम आने पर स्वागत करने गए।

जब वापस लौटे तो जेठू राम की कुर्सी पर किसी ने कब्जा कर लिया। जेठू ने मेरी तरफ़ देखा, वह बताना चाहता था कि उसकी कुर्सी पर कब्जा हो गया,वह मायूस हो गया । 

मैने उसे गरियाते हुए और कुर्सी कब्जाने वाले को सुनाते हुए कहा कि-“ साले कुर्सी छोड़कर जाओगे तो ताकने वाले कब्जा कर ही लेगें। लोगों ने कुर्सियों के लिए इमान धरम बेच खाया, तुम्हें क्या छोड़ेगें।

दिन में कुर्सी और रात को खटिया कभी खाली नहीं छोड़नी चाहिए, नहीं तो कब्जा होने में टैम नही लगता। राजनीति करना है तो कुर्सी कभी खाली छोड़ कर नहीं जाओ।

उस पर अपना कब्जा बना कर रखो। खुल्ली गाय और खाली कुर्सी का मालिक वही होता है जिसका कब्जा होता है। इतना सुनकर भी खद्दरधारी कुर्सी नहीं छोड़ी और मुंह फ़ेर लिया, बड़े नेता जो ठहरे। जेठू खड़ा रह गया।

कभी-कभी बस में सफ़र करते हुए भी सोचना पड़ता है कि कोई वरिष्ठ महानुभाव न मिल जाएं, नहीं तो पूरा सफ़र खड़े-खड़े ही करना पड़ेगा। दूसरी अन्य सवारियाँ भी यही सोचती होगीं।

बस में चढते ही कोई पहचान वाला दिख जाए और उसे पहचान लिए तो मुसीबत समझो। सीट छोड़नी ही पड़ेगी। इसलिए पहचान लेने की बजाए मुंह फ़ेरना ही ठीक है, जैसे की उसे देखा ही नहीं।

अब तो साधन भी मिल गया है, आँखें फ़ेर कर मुंह चुराने का। बस मोबाईल का हेड फ़ोन कानों में ठूंस कर रंगीन ऐनक लगा कर आँखें बंद करके मजे से गाना सुनिए। पहचान वाला समझ जाएगा कि सो रहा है और उसे सीट भी न देनी पड़ेगी।

जब ठिकाने पर पहुचे तो अंगड़ाई लेकर उठें जैसे नींद से जागे हो और फ़िर उसकी तरफ़ देख कर कहें कि- नमस्कार जी, क्या हाल चाल है? आगे जाएगें तो मैने सीट खाली कर दी है आपके लिए।

जो सज्जन रेल के दैनिक यात्री होते हैं, उन्हे सीट कब्जा करने एवं अपनी सीट बचाकर रखने का गजब का अनुभव होता है। राजनीति में सफ़लता की संभावना अन्य से अधिक होती है।

लोकल ट्रेन आते ही प्लेट फ़ार्म पर अपने-अपने रुमाल, तौलिए, पंछे, छाते, बोतलें, अखबार लेकर तैयार हो जाते हैं जैसे ही ट्रेन प्लेटफ़ार्म पर लगती है, खिड़कियों से अपने सामान सरका देते हैं और निश्चिंत हो जाते हैं। अगर कोई पूछता है कि सीट खाली है क्या? तो कह देते हैं कि सवारी आ रही है।

सीट उनकी और उनके बाप की हो गयी। आराम से अपनी सीट पर टांगे फ़ैलाते हुए सफ़र का मजा लेते हैं। एक दो साथी मिलते ही ताश का खेल शुरु हो जाता है। दैनिक यात्री जो ठहरे। ट्रेन में विशेष छूट रहती है इनके लिए। आर पी एफ़ से लेकर टी टी तक सब ताबेदार रहते हैं।

मैं बिलासपुर जाने के लिए लोकल में फ़ंस गया। दरवाजे से चढने लगा तब तक कब्जाने वाले सारे हथियार सीटों पर आ चुके थे। मैं खिड़की के पास एक के रुमाल पर ही बैठ गया। अब वह अपना रुमाल ढूंढता फ़िर रहा था।

बार-बार मेरे पास आता था, लेकिन कहता कुछ नहीं था। जब उसने तीसरा फ़ेरा लगाया तो मैने उससे कहा कि- क्यों मित्र क्या ढूंढ रहे हो?

उसने कहा कि- मैने यहाँ पर कहीं अपना रुमाल रखा था।, मैने रुमाल दिखाते हुए कहा कि-‘ यह तो नहीं है? उसने अपना रुमाल पहचान कर ले लिया। तो उसने मुझे धौंस जमाई कि सीट उसकी है।

मैने कहा कि- यूँ अपना सामान लावरिस छोड़ना ठीक नहीं है। कोई ले जाता तो। एक तो तुम्हारा रुमाल ईमानदारी से लौटा रहा हूँ और मुझे ही धौंस दे रहे हो। अगले स्टेशन में सीट खाली होगी वहाँ बैठ जाना। तब तक खैनी खाओ।

सीट और कुर्सी का लफ़ड़ा जमीन पर ही नहीं आसमान में भी है। मुझे चीलगाड़ी से कहीं जाना होता है तो खिड़की वाली कुर्सी की ही मांग करता हूँ और ईश कृपा से मिल भी जाती है।

एक बार रायपुर से दिल्ली के लिए चढे, अपनी कुर्सी संभाले ही थे कि पड़ोसी ने खिड़की के पास बैठने की मंशा जाहिर की। उन्हे समझाया कि मुझे खिड़की वाली सीट ही लेनी थी इसलिए आधे घंटे पहले बोर्डिंग किया।

उसने अपनी मजबूरी बताई कि- खैनी खाने के बाद थूकना पड़ता है। इसलिए खिड़की वाली सीट चाहिए। मैं समझ गया कोई नया-नया कलफ़ चढा है, ट्रेन-बस की सवारी फ़्लाईट में आ गयी। 

मैने अपनी जेब से खैनी की डिबिया निकाल कर दिखाई, और कहा कि हम भी गंवईहा है भाई, तुम्हारे से पहले जहाज चढ लिए, इसलिए अपना  देहाती जुगाड़ फ़िट  कर लिए। प्लेन में खिड़की खुलती ही नहीं है दादा, कहाँ थूकोगे?

उसने कहा कि आप कहाँ थुकते हैं? मैने कहा कि इसके लिए सामने कुर्सी में एक थैली है। जिसे अंग्रेजी में वोमैटिंग बैग कहते हैं, थूकने के लिए इसका ही इस्तेमाल करता हूँ। आप भी करिए और मजे से मौज लीजिए,

क्या बताएं? नेता से कुर्सी बचाना बड़ा मुस्किल है भैया। कुर्सी का चक्कर गजब है भाई, इसे पाना भी कठिन है तो बचाना उससे भी कठिन। 

कहते हैं कि राजा पहले रानी के पेट से पैदा होता था। सोने का सिंहासन साथ लेकर आता था। लेकिन  अब राजा पेटी के पेट से पैदा होता है और अपनी कुर्सी साथ लेकर आता है।

जनता की, जनता के द्वारा,जनता के लिए सरकार आने के बाद जिन्होने कुर्सी पकड़ी, आज तक छोड़ी ही नहीं। फ़ेविकोल लगा के चिपक गए। बिना रिनिवल के ही कुर्सी पर लदे हैं। ड्रायविंग लायसेंस के रिनिवल न होने पर जनता हवलदार चालान कर देता है।

एक्सपायरी लायसेंस से सरकार चला लेते हैं। इनका चालान कौन करे? हर छोटी कुर्सी बड़ी कुर्सी के नीचे, बड़ी कुर्सी छोटी कुर्सी के उपर है, यह सनातन परम्परा है।

कुर्सियाँ आपस में तय करती हैं किस कुर्सी पर किसे बिठाना है और किसे कुर्सी से हटाना है। कुल मिला कर कुर्सियाँ ही चलती-चलाती हैं। जमीन पर खड़े होने वाले हम लोग कमर तक झुक कर फ़र्शी सलाम ठोंकने लिए ही हैं।

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

अविष्कार नए तरह के हेलमेट का

आवश्यकता ने किए अविष्कार। इजिप्त के गृह युद्ध में नागरिकों ने हमलो से सिर बचाने के साधन ढूंढ लिए।

















दैनिक छत्तीसगढ से साभार


शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

आज से इंटरनेट बिना आई पी एड्रेस के चलेगा

(माईक्रो पोस्ट) एक समाचार है कि इंटरनेट अब बिना आई पी एड्रेस के चलेगा। आई पी एड्रेस का कोटा खत्म हो गया है। 4.1 अरब आई  पी आबंटित किए जा चुके हैं। वेब विकास करने वालों ने इस संख्या को पर्याप्त माना था।  शुरुवाती दौर में सोचा गया था कि इंटरनेट सिर्फ़ शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए प्रयोग में लाया जाएगा।  आज से इंटरनेट बिना आई पी एड्रेस  के चलेगा। नामी बेनामियों की मौजा ही मौजा । 

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

एक महामारी का रुप लेती शराब

समाज में शराब एक महामारी का रुप लेते जा रही है। युवा नशे की गिरफ़्त में आ रहे हैं। बेरोजगार होने पर यह बीमारी कोढ में खाज का काम कर रही है।

शराब खरीदने के लिए रुपए न  होने पर चोरी, डकैती, लूटपाट जैसे अपराध बढ रहे हैं। अपराध समाज के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द है। युवा अपराध की ओर बढ रहे हैं।

आपको प्राण रक्षक दवाएं कहीं उपलब्ध न हो पाएं पर शराब प्रत्येक जगह उपलब्ध है। कहीं भी सड़क के किनारे खड़े-खड़े भी शराब की तलब लग जाए, वहीं आपको उपलब्ध हो जाएगी।

यह सर्व सुलभ है। सरकारों के राजस्व प्राप्ति के लोभ ने इस महामारी को विकराल रुप दिया है। जिसके दुष्परिणाम बढते हुए अपराध के रुप में हमें देखने मिल रहे हैं।

अशोक बजाज ने रायपुर जिला पंचायत अध्यक्ष पद पर रहते हुए 2007 में स्थानीय भाषा में नारा दिया “नशा हे खराब, झन पीहू शराब” (नशा है खराब,मत पीना शराब)। जब यह नारा सुनाई पड़ा तो मैने सोचा कि बहुत कठिन काम है शराब बंदी।

सिर्फ़ नारा देने से काम नहीं चलने वाला। शराब बंदी के लिए राजनैतिक और सामाजिक इच्छा शक्ति और आत्मबल की आवश्यकता भी है। अशोक बजाज जी ने नशा मुक्ति रैली का आयोजन किया जिसमें मुख्यमंत्री रमन सिंह जी, काबीना मंत्री बृज मोहन अग्रवाल, लता उसेंडी इत्यादि ने अपनी उपस्थिति दी थी।

अशोक बजाज जी नशा बंदी के लिए अपना जन जागरण अभियान, रैलियों, बैठकों, संचार माध्यमों, ट्रेक्ट पोस्टर इत्यादि के माध्यम से लगातार जारी रखा।

जन जागरण अभियान के फ़लस्वरुप छत्तीसगढ सरकार ने महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए आगामी वर्ष में 250 शराब दुकानों को बंद करने का निर्णय लिया। सरकार के इस कदम का हम स्वागत करते हैं।

गाँवों में फ़ैल रही शराबखोरी की महामारी को रोकने में शराब दुकानों को बंद करने का कदम सहायक होगा। सड़क दुर्घटनाओं में कमी आएगी। लेकिन जिन्हे शराब की लत लग चुकी है। उन्हे लत से बाहर निकालने के लिए सरकार और समाज को भी आवश्यक कदम उठाना होगा। तभी शराब बंदी लागू हो सकेगी।

नशा मुक्ति पुनर्वास केन्द्रों की स्थापना करनी पड़ेगी। जिससे आदतन शराबियों को नशा मुक्त किया जा सके।

“नशा हे खराब, झन पीहू शराब”, नारे ने शराब बंदी के लिए जमीन तैयार करने का काम किया। जिस पर देवजी पटेल ने कंधे से कन्धा मिला कर अशोक बजाज जी का साथ दिया. मजे की बता तो यह है कि उन्होंने बेवरेज कार्पोरेशन का अध्यक्ष बनते ही इस दिशा में कार्यवाही शुरु की।

शराब बंदी की ओर कदम उठाए। इसका मजबूत शराब लॉबी ने विरोध किया  किन्तु  इसे नजर अंदाज कर मुख्यमंत्री रमन सिंह जी की केबिनेट ने मुहर लगादी। पूर्ण शराब बंदी होना तो बहुत कठिन है। लेकिन जितनी भी शराब की बिक्री कम हो और उपलब्धता काम हो उतना ही समाज के लिए बेहतर है। सुलभ न होगी तो शराब सेवन भी कम होगा।

शराब बंदी के लिए कड़े कदम उठाने की आवश्यकता है। शराब बंदी के महत्वपूर्ण कदम के लिए हम मुख्यमंत्री जी, देवजी पटेल बेवरेज कार्पोरेशन एवं भाई अशोक बजाज (अध्यक्ष राज्य भंडार गृह निगम) को धन्यवाद देते हैं और आशा करते हैं कि नशा मुक्ति के लिए जन जागरण अभियान जारी रहे।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

ब्लॉग पर ब्लेक आउट-विरोध एवं निंदा

अभनपुर क्षेत्र में विगत एक माह से अघोषित विद्युत कटौती हो रही है। विगत एक माह से कभी भी घंटो बिजली काट दी जाती है। हम अघोषित विद्युत कटौती का पुरजोर विरोध एवं निंदा करते हैं और इसीलिए कोई पोस्ट लिखने की अपेक्षा ब्लॉग पर  एक दिन के लिए ब्लेक आउट कर रहे हैं।

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मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

काफ़ी हाऊस की वाल पर सामाजिक सरोकार लिखने वाले रियाज अहमद

अगर आज से २० वर्ष पहले की बात करें तो उस समय इंटर नेट का जाल घरों तक नहीं पंहुचा था. विचार तो तब भी मानव मन में उठते थे और वह विचारों को जनमानस तक पहुँचाने के नए नए रास्ते अख्तियार करता था.

एक शख्शियत से आपका परिचय करने जा रहा हूँ. रियाज अहमद जी रायपुर में रहते हैं और वृक्ष लगाने का काम करते हैं. लोगों को खेतों में बाग बगीचे डेवलप करके देते हैं.

सन १९७८ से १९९० तक इन्होने "निठल्लों के अड्डे" याने काफी हॉउस की दीवार पर प्रतिदिन अपनी एक टिप्पणी लिखी. जिसे पढ़ने के लिए लोग आते थे. सम-सामयिक विषयों को लेकर इनका चिंतन काफी हॉउस की दीवार पर प्रति दिन चस्पा हो जाता था.

मानव मन में जब विचार जन्म लेते हैं तो उन्हें जन मन तक संप्रेषित करने का माध्यम भी ढूंढा जाता है. एक समय था जब पम्पलेट, किताब, ट्रेक्ट, पोस्टर इत्यादि के माध्यम से अपनी बात जनता तक पहुंचाई जाती थी.

अंतर जाल का अविष्कार होने के साथ अपने विचार रखने के लिए फेसबुक, ब्लॉग, वेब साईट, आर्कुट जैसे माध्यम आ गए हैं. जहाँ अपनी बात मंच पर रख दी जाती है और पाठक अपनी प्रतिक्रिया भी देते हैं.

ये कम्युनिटी साइटें काफी चर्चित एवं प्रचारित भी हो रही हैं. अपने विचारों को सम्प्रेषित करने के लिए एक मंच मिल गया है. 

जीवन के सफ़र में चलते चलते कोई शौक कब पैदा हो जाये इसका पता नहीं चलता और वह शौक कब जूनून की हद तक जा पहुंचे इसका भी पता नहीं है. बरसों पहले "निठल्लों के अड्डे" याने काफी हॉउस की दीवार पर एक टिप्पणी रोज लिखी मिलती थी.

वह टिप्पणी मैं भी पढता था. सम-सामयिक विषयों पर टिप्पणी के माध्यम से गहरी चोट होती थी. जिसका असर दूर तक होता था. गेरू से पुती हुयी दीवार पर खड़िया से लिखी हुयी टिप्पणी को उस सड़क से आने जाने वाले सभी पढ़ते थे और जिन्हें पता था वे नित्य उस टिप्पणी को पढ़ने आते थे.

आज तो हमारे पास नेट पर फेसबुक, आर्कुट, ट्विटर, ब्लॉग जैसे साधन है. जिनके माध्यम से हम अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते  है और उसे पाठको तब पंहुचा देते है. इस दीवार को बीते ज़माने के ट्विटर ही समझिये.

अख़बारों के फोटोग्राफर इन टिप्पणियों की फोटो खींच कर प्रतिदिन अपने अख़बारों में प्रकाशित करते थे. मेरी बात-चीत आज रियाज अहमद जी से हुई. मैंने पूछा की आपको काफी हॉउस की दीवार पर टिप्पणी लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली?

रियाज अहमद जी कहते हैं कि -" हम रोज काफी हॉउस में बैठ कर निठल्ला चिंतन करते थे. काफी हॉउस के लगी हुयी एक नाली थी जो बरसों से साफ नहीं हुयी थी. उसकी बदबू हमें रोज परेशान करती थी.

एक दिन मैंने नाली के ऊपर दीवार पर एक कमेन्ट लिख दिया... उसे अख़बार वालों ने छाप दिया... दुसरे ही दिन नाली साफ हो गई. हमें राहत मिल गई.

दीवार पर लिखे कमेन्ट का असर हमें दिखाई दिया. दोस्तों ने कहा रोज लिखे करो. उसके बाद से निरंतर १२ बरसों तक काफी हॉउस की दीवार पर सम-सामायिक मुद्दों पर लिखा."

काफी हॉउस की वह दीवार प्रसिद्द हो चुकी थी. रियाज अहमद साहब नगर निगम में पार्षद भी बन गए. पार्षद बनने के बाद इन्हें समय नहीं मिला. तब से काफी हॉउस की दीवार इनका इंतजार कर रही थी. कुछ दिनों पहले मैं काफी हॉउस के रास्ते पर गया तो देखा वह बिल्डिंग टूट चुकी है,

साथ ही वह दीवार भी. जहाँ कभी "काफी हॉउस की दीवार से" कालम रोज सुबह ७ बजे लिखा जाता था. दीवार पर अपनी टिप्पणी लिख कर रियाज साहब ने जनता को जगाने का काम किया और इसका प्रतिफल भी इन्हें मिला.

पृथक छत्तीसगढ़ की मांग इन्होने अपनी दीवार से बहुत पहले कर दी थी. इनके विचारों को पढ़ कर लोग इनके साथ जुड़े. काफी हॉउस में आने वाले नेता प्रभावित हुए और पृथक छत्तीसगढ़ आन्दोलन ने जोर पकड़ा.

आज हम छत्तीसगढ़ को एक राज्य के रूप में देख रहे हैं. इस तरह दीवार पर लिखे कमेन्ट ने रियाज साहब को एक मुकाम तक पंहुचा दिया.