मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012

भूलनकांदा:भई डिस्कवरी मेरी है - विष्णु खरे

रायपुर। संजीव बख्शी के चर्चित उपन्यास भूलनकांदा का विमोचन वृंदावन के स्पेक्ट्रम हॉल में 26 फ़रवरी 2012 को सम्पन्न हुआ। कार्यक्रम में मुख्य वक्ता के रुप में आलोचक विष्णु खरे, डॉ राजेन्द्र मिश्र एवं साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल उपस्थित थे। भूलनकांदा उपन्यास पर डॉ राजेन्द्र मिश्र के आधार वक्तव्य से कार्यक्रम प्रारंभ हुआ।

इस अवसर पर मुख्य वक्ता विष्णु खरे ने कहा कि -"ये इतना नया उपन्यास है, इतने नए ढंग से लिखा गया उपन्यास है, इसका कारण यह है कि लगभग यह कलाहीन उपन्यास है, इसकी कला इसी में है कि यह कलाहीन है। इसका कोई शिल्प नहीं है, कोई सोचा गया स्ट्रक्चर नहीं है। कोई पूर्व आधारित आदि अंत नहीं है।"
डॉ राजेन्द्र मिश्र, विनोद शुक्ल, संजीव बख्शी एवं विष्णु खरे

"संजीव बख्शी ने ठीक नहीं किया, उन्होने विनोद जी का क्षेत्र छोड़ कर और एक ऐसा क्षेत्र चुना है, जहां उससे पहले और कोई गया ही नहीं। हम पात्रों की बात करते हैं। नि:संदेह पात्र तो है, और वह बड़ी भयानक घटना है जो हत्या है। ऐसी हत्याएं कुरासोवा अउ इंगमार बर्गमैन की फ़िल्मो में होती है, अजीब हत्याएं और उनके बड़े परिणाम होते हैं, अजीबो गरीब। यह जासूसी उपन्यास नहीं हो सकता। ये पुलिस उपन्यास हो सकता था। हत्या का उपन्यास भी है, लेकिन बड़ा मानवीय हत्या का उपन्यास है। ये अदालत का उपन्यास है, लेकिन बहुत मानवीय अदालत है।ये सजा का उपन्यास है, बड़ी मानवीय सजा है। ये प्रेम का उपन्यास है, बड़ा मानवीय प्रेम है। ये गाँव का उपन्यास है और ऐसा मानवीय गांव मै नहीं समझता कि हिन्दी में इससे पहले आया। रेणु जी ने, हाँ रेणु जी लाए थे, प्रेमचंद लाए थे, लेकिन तब भी प्रेमचंद के यहां एक दूरी बनी रहती है। लेखक संभ्रांत है गांव उतना नहीं है। संजीव बख्शी ने इन सम्भ्रांता को तोड़ा है।"
 डॉ रामकुमार बेहार एवं विश्वरंजन

"मै चाहता हूँ कि गाँव उठे, गाँव शहर जाए, लेकिन और कुछ करने के लिए भी। कुछ और भयानक करे गाँव, हमारे शहरों के साथ।"

"इस उपन्यास में जो तत्व  है, वो तत्व युरोप को इस उपन्यास के गहरे आंचलिक होने के बावजूद इतना आकृष्ट करेंगें कि पहली बार हिन्दुस्तान के गाँव पूरे चरित्र मानव के रुप में यहां आते हैं और ऐसा कभी देखा नहीं गया।"

इस उपन्यास की चर्चा जब मैने एक महिला कथाकार से की, वंदना राव से, तो उन्होने पढा और यह उपन्यास छपा भी न था, वंदना राव ने बाकायदा इसकी रिव्यू लिख दी। मुझे इतना दु:ख हुआ, इतना गुस्सा आया, मैं रिव्यू लिखना चाहता था, सबसे पहले इसकी। लेकिन उस दुष्टा ने मुझे बिना बताए, चुपचाप रिव्यू लिख दी और छपवा भी दी। अब भी नाराज हूँ मैं, इसका क्या मतलब हुआ? भई डिस्कवरी मेरी है, रिव्यू आप लिख रही हैं। ये तो एक बेईमानी है न ? 
संजीव बख्शी ने जो भाषा चुनी है, इस उपन्यास के लिए, वह भाषा वैसी नहीं है, जैसी फ़णीश्वरनाथ रेणु की थी, रेणु के यहाँ शोर बहुत है, बहुत ज्यादा साऊंड है रेणु के यहाँ, रेणु साऊंड रिकार्डिस्ट हैं, संजीव बख्शी साऊंड रिकार्ड तो करता ही है। मुलत: वह कैमरामेन है। उसका कैमरा बहुत बड़ा है, उसके साथ जो साऊंड आता है वह आ जाता है। साऊंड इन्फ़लीट नही करता इस उपन्यास पर।
उदय, लक्ष्मण मस्तुरिया एवं डी डी महंत

"विनोद जी भी बैठे हुए हैं, मुझे कहना नहीं चाहिए, लेकिन मेरी आदत है, जो मुझे कहना नहीं चाहिए वह कह देता हूँ, यह उपन्यास मुझे विनोद जी से थोड़ा हटके आगे जाता नजर आता है। इस सेंस में के विनोद जी के उपन्यास में एक इन्टेलेक्चुअल रस है, उनकी जो शैली है। वो लगातार हमें बताती है कि तुम एक वर्क ऑफ़ आर्ट पढ रहे हो। वर्क ऑफ़ आर्ट,वर्क ऑफ़ आर्ट, कोई शक नहीं। संजीव बख्शी का नावेल कहीं नहीं कहता कि मै वर्क ऑफ़ आर्ट हूँ।

ये जो संजीव बख्शी का उपन्यास है, ये किसी भी फ़िल्मकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती है, ये दिखता सिम्पल है, लेकिन बहुत कठिन है उपन्यास फ़िल्माने के लिए। क्योंकि इसमें वो इमोशन है, जो भावना है, उस इमोशन को लाने के लिए आपको सत्यजीत राय चाहिए पाथेर पंचाली वाला।"
दो ब्लॉगर

छत्तीसगढ से एक नवोदित, साठ साल के होने जा रहे है, लेकिन हैं तो नवोदित, एक नवोदित उपन्यासकार की पहली कृति, इतनी बड़ी कृति मुझे लगती है, कि ये बड़ी कृति तो है, ऐसा मैं मानता हूँ। अब ये बात अलग है कि उसका असर आप पर धीरे धीरे हो, जैसा कि विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यासों का धीरे धीरे नशा होता है।
इस अवसर पर प्रमोद स्मृति संस्थान के अध्यक्ष विश्वरंजन, राज्य भंडार निगम के अध्यक्ष अशोक बजाज, राहुल सिंह, प्रसिद्ध छतीसगढी गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिहा, डी डी महंत, सुधीर शर्मा, एवं अन्य साहित्कार उपस्थित थे।

दैनिक अखबारों में भूलन कांदा के विमोचन की खबरें

नोट- विष्णु खरे के वक्तव्य  की रिकार्डिंग सुनकर लिखा गया है। पोस्ट के साथ में रिकार्डिंग भी लगाई गयी है आपकी सुविधा के लिए, रिकार्डिंग सुन सकते हैं।

सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

चिरनिद्रा -- ललित शर्मा

निद्रा का सताया हुआ
थका तन-बदन
महसूस नहीं कर पाया
रात रानी की महक
मेंहदी की खुश्बू
बौराई हवा की गंध
महुए के फ़ूलों की
मदमाती गमक
दुर भगाती नींद को
उनकी आँखों में
तैरते हजारों प्रश्नामंत्रण
लाजवाब थे
लुढक गया वहीं
निद्रा ने भर लिया
आगोश में
शून्य सिर्फ़ शून्य था
न चेतना, न सपने
न पराए, न अपने
यह निद्रा का
सुखद अहसास था
शायद चिर निद्रा
ऐसी ही सुखद होती होगी ?

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

बेदांती महाराज की दंत कथा एवं सिरपुर भ्रमण ---- ललित शर्मा

मन की उड़ान
रती में दफ़्न जब किसी प्राचीन नगर, मंदिर देवालय या अन्य संरचना के बाहर आने की सूचना मिलती है तो रोमांचित हो उठता हूँ। निर्माण करने वाले शिल्पकारों की कारीगरी देखने की इच्छा जागृत होकर व्याकुल कर देती है। कल्पनाओं के घोड़े दौड़ने लगते हैं, अनगिनत सवाल मन में उठने लगते हैं। सारे जवाब पाना संभव नहीं। कल्पनाओं की अलग ही दुनिया है। जहाँ राजमहल होते हैं, वहाँ कल्पनाए राजा रानी की कहानियां गढने लगती हैं, सेनापति और दरबारी सामने दिखाई देने लगते हैं। उनका खान-पान, बोली, वेशभूषा कैसी होगी? जहां कब्रिस्तान होते हैं वहाँ कल्पना उठने लगती है कि कौन सोया है इन कब्रों में। कैसा होगा यह अपने जमाने और भी नाना प्रकार की बाते। खाली खोपड़ी में बहुत कुछ उपजते हुए एक चल चित्र सा चलने लगता है। ऐसा ही कुछ मेरे मन मस्तिष्क में सिरपुर के विषय में उमड़ता-घुमड़ता रहता है।

बड़े गुरुजी बेदांती महाराज (मध्य में)
छत्तीसगढ के महासमुंद जिले में महानदी के तटीय इलाके के उत्खनन में श्रीपुर नामक राजधानी प्राप्त हुई है। वैसे तो यहाँ पूर्व में कई बार जा चुका था। तब देखने लायक आँखे नहीं थी। जब आँख खुली तब सवेरा समझा और फ़िर खुली आँखों से देखने लगे। गत 16 से 18 जनवरी तक छत्तीसगढ की नदी घाटी सभ्यता पर राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन संस्कृति विभाग छत्तीसगढ शासन के सौजन्य से था। देश के विभिन्न स्थानों से पुराविद, इतिहासकार, शोधार्थी सम्मिलित होने पहुंचे थे। तीन ब्लॉगर भी थे इस सेमिनार में। 18 जनवरी का दिन सिरपुर भ्रमण के लिए तय हुआ था। बड़े गुरुजी ने कहा था कि मैं अगर सिरपुर भ्रमण पर जाऊंगा तो वे भी जाएगें। मैने भी सोचा कि येल्लो भाई, हो गया कबाड़ा, इस जनम में तो पीछा छूटने वाला नहीं। पता नहीं यह शनि कैसे सिर पर सवार हो गया। कोई तो बचाओ इससे।

यहीं खोपड़ी थी
बड़े गुरुजी सुनकर खिसिया गए, बोले- मोर खंगे रहिस त तोर ले भेंट होए है ( कुछ बाकी था, इसलिए तुम्हारे से मुलाकात हुई।) क्या बाकी था गुरुदेव, बुढौती तक तो सब निपट गया। गुरुजी बोले - एक बार की बात है, गाँव में एक ब्राह्मण रहता था। पूजा पाठ करके अपना गुजर-बसर करता था। ब्राह्मण कहीं से जजमानी करके आ रहा था तो उसे रास्ते में मनुष्य की एक खोपड़ी पड़ी दिखाई। उसने सोच कर कि इस का कुछ संस्कार बाकी है, उस खोपड़ी को अपने पंछे में बांध लिया और घर ले आया। देखा जाए कि क्या बाकी है? ब्राह्मण ने पत्नी से छिपाकर उस खोपड़ी को खपरैल में रख दिया। दूसरे दिन ब्राह्मण अपनी कथा पूजा में चला गया। पत्नी को खपरैल में कुछ पंछे में बंधा दिख गया। उसने जिज्ञासावश पंछे को खोला तो खोपड़ी दिखाई दी। उसने माथे पर हाथ मारा और कहने लगी कि आने दे पंडित को आज उसकी खबर लूंगी, जादू टोना शुरु कर दिया है।

पंडित के आने से पहले गुस्से में पंडिताईन ने उस खोपड़ी को खलबत्ता (इमामदस्ता) में कूट कर चूर-चूर करके नाली मे बहा दिया और पंडित का इंतजार करने लगी। सांझ को पंडित लौटा, उसके ढूंढने पर खपरैल के छप्पर में वह खोपड़ी दिखाई नहीं दी। पंडित ने पत्नी से पूछा तो वह उस पर भड़क गयी। क्या पंडिताई से पेट नहीं भरता जो अब जादू टोना करने चले हो। मैने उस खोपड़ी को खलबत्ता में कूट पीस कर नाली में बहा दिया। पंडित बोला - बहुत अच्छा किया। मै तो यह देखने के लिए खोपड़ी को उठा लाया था कि इसका क्या होना बचा है? उस खोपड़ी का तुम्हारे हाथों की यह संस्कार होना बाकी था इसलिए यहाँ तक पहुंच गयी। बड़े गुरुजी ये कहानी सुना कर कुछ इस अंदाज में मुस्काए जैसे विक्रम अब वेताल को फ़िर से कंधे पर उठाकर चल पड़ेगा, मेरी तरफ़ देखते हुए। मै भी मुस्कुराता हूँ और सोचता हूँ कि इस डोकरा का मेरे हाथों क्या खंगा है?

बस पंगा होने ही वाला था कि मैने बड़े गुरुजी के कान में मंतर पढ दिया और दोनो गुरु-चेला चल दिए पूर्व दिशा में जहाँ सूर्योदय पर छोटा चेतन हमारा इंतजार कर रहा था। ठिकाने पर पहुंचते ही बड़े गुरुजी मुस्काए, जैसे मोगेम्बो खुश हुआ हो। बेदांती की मुस्कान बहुत ही सुंदर लगती है। इनकी मुस्कान पर तो दस-बीस मैजिक वार दूँ। पर क्या किया जाए भविष्य को भी देखना है। चेतन ने टेबल पर मुंगफ़ल्ली-चने लाकर रख दिए। बोला- कम्पलीमेंट्री है सर। एक तरफ़ उसका घर एक तरफ़……… की तर्ज पर एक तरफ़ बेदांती महाराज एक तरफ़ फ़ल्ली और चना। मै देखता रहा कि अब क्या होगा? होगा क्या, एक घूंट लगाते ही  बेदांती महाराज बड़े गुरुजी शान से मुंगफ़ली और चने चबाने लगे और बोले - का बताओं महाराज, तोर मोर पटे घला नहीं, फ़ेर तोला भेंटे बिना मन माड़हे नहीं। कनवा ला भांव नहीं, कनवा बिना रहांव नहीं।( क्या बताऊं महाराज, तुम्हारी मेरी पटती नहीं है, पर तुम्हारे मिले बिना मेरा मन मानता नहीं है। काना मुझे पसंद नहीं है,  बिना उसके रहना भी पसंद नहीं है।

जय हो बेदांती महाराज की
बेदांती महाराज की दोस्ती अब मजबुरी बन गयी, इनके दर पर आदतन हो गया पहुंचना। चेतन फ़िर ध्यान भंग करने पहुंच गया - और क्या लाऊँ? बेदांती महाराज बोले- मेरे लिए स्माल और महाराज के लिए फ़ुल्ल। चेतन आर्डर लेकर चला गया। बेदांती महाराज से चर्चा चलते रही, मुंह कड़ुवा होते ही मीठा बोलने लगे, बड़े प्रेम से ब्लॉग कहानी सुनाने लगे। ब्लॉगिंग पर गंभीर चर्चा होने लगी। बेदांती महाराज बोले- मैने तो कमेंट करना बंद कर दिया है। जिसकी पोस्ट मुझे अच्छी लगती है वहीं कमेंट करता हूँ। मैने कहा कि कभी एकाध कमेंट मेरी पोस्ट पर भी कर दिया करो। तो बोले - तैं मोर मन के लायक लिखथस त कमेंट करथौं (तुम मनभावन लिखते हो तब कमेंट करता हूं) धन्य हुए देव! एक साल में आपके मन के लायक एक पोस्ट भी नहीं लिखे। काहे ये नालायक चेला को फ़िर याद करते हो। चेतनSSS- अगला आर्डर कैंसिल। चलो अब बहुत टैम हो गया घर जाना है। बेदांती महाराज उठते और कहते हैं - कल कितने बजे चलना है सिरपुर? तैं के बजे आबे? बिहनिया आठ बजे अजायबघर में मिलना। मिलन का करार होने के बाद दोनो अपने-अपने रास्ते चल देते हैं। :)

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

माघ शुक्ल त्रयोदशी शिल्पाचार्य भगवान विश्वकर्मा का जन्मदिन --- ललित शर्मा

प्राचीन भारतीय विज्ञान का कोई सानी नहीं है। जब हम इस विषय पर सोचते हैं तो गौरवान्वित हो उठते है। आज जिसे हम इन्ड्रस्ट्री कहते हैं इसे वैदिक काल में शिल्प शास्त्र या कलाज्ञान कहा जाता था। इसके जानने वाले विश्वकर्मा,शिल्पी या आचार्य कहलाते थे। यज्ञ मंडप, यज्ञ कुंड, यज्ञ पात्र, शस्त्रास्त, शकट और रथ आदि जितने भी कारीगरी से संबंध रखने वाले याज्ञिक पदार्थ हैं इनका निर्माण शिल्पकारों के हाथों ही होता आया है। यज्ञ पात्र मिटटी, काष्ठ, पत्थर, कांस्य, लकड़ी, तांबा, पीतल, सोने और चांदी के हुआ करते थे। यज्ञों में अनेक प्रकार के अन्नों एवं औषधियों की आवश्यकता होती थी। इसे पैदा करने के लिए भी औजारों की आवश्यकता होती थी। हल, फ़ाल इत्यादि जोतने के लिए, चक्र आदि पानी निकालने के लिए और जमीन खोदने, काटने, पीसने, कूटने के उपकरण बनाए जाते थे। इसी तरह यज्ञ की रक्षा के लिए वाणों से लदी गाड़ियाँ और रथ भी होते थे। एक चक्रवर्ती राजा से लेकर किसान तक के आवश्यक यंत्र शस्त्रास्त्र तैयार किए जाते थे। उन दिनों कारीगरों का बहुत मान था। यह भगवान विश्वकर्मा की ही देन हैं। शास्त्र कहते हैं कि भौवन पुत्र विश्वकर्मा ने अथर्ववेद के उपवेद अर्थवेद की रचना की। इसमें शिल्पकारी से धनोर्पाजन की विद्या बताई।

विश्वकर्मा एवं विश्वकर्मा वंशियों द्वारा निर्मित की गए वैज्ञानिक यन्त्रों से तो जन साधारण विज्ञ है। वैदिक काल से लेकर आज तक विश्वकर्मावंशी परम्परागत रुप से अपने निर्माण के कार्य में लगे हैं। आज शिल्पज्ञान के दृष्टा विश्वकर्मा के विषय में इसलिए लिख रहा हूँ कि माघ शुक्ल त्रयोदशी को उनका जन्मदिन है। शास्त्रों के अनुसार माघ शुक्ल त्रयोदशी को विश्वकर्मा भगवान का जन्म हुआ था। अंग्रेजों के आने के बाद निर्माण के देवता के रुप में इनकी पूजा 17 सितम्बर को की जाने लगी। इसके पीछे किसकी क्या मान्यता है इसकी मुझे जानकारी नहीं है। पर 17 सितम्बर विश्वकर्मा जी का जन्मदिन न होकर पूजा दिवस है। इसलिए 17 सितम्बर को विश्वकर्मा भगवान का पूजा दिवस एवं माघ सुदी त्रयोदशी को जन्मदिन मनाना चाहिए।

विश्वकर्मावंशियों के निर्माण कार्यों को आज भी देख कर दांतो उंगली दबाना पड़ता है। कहने का तात्पर्य यह है कि इनके शिल्प कार्य आश्चर्य चकित कर देने वाले होते हैं। एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगा। यह घटना अधिक पुरानी नहीं है। छत्तीसगढ अंचल के मरवाही इलाके में सोन नदी पर टिपरडोल गांव के पास एक पुल का निर्माण होना था। जिसके निर्माण के लिए तत्कालीन सांसद बहुत प्रयास कर रहे थे। लेकिन सोन नदी में पुल निर्माण के लिए खुदाई करने पर रेत की थाह नहीं मिल पा रही थी। अगर थाह मिलती तभी पुल के लिए पिलर्स का निर्माण हो पाता। शासकीय इंजीनियरों ने खुदाई करके देखी पर थाह नहीं मिली। इसलिए उन्होने सांसद महोदय को कह दिया कि इस नदी पर पुल का निर्माण नहीं हो सकता। सांसद भी निराश हो गए। शासकीय इंजीनियरों ने अपने हाथ खड़े कर दिए। सांसद महोदय किसी भी कीमत पर पुल का निर्माण कराना चाहते थे। कई वर्षों तक यह संघर्ष चलता रहा। कोई भी इंजीनियर जोखिम उठाने को तैयार नही था।

तभी इंजीनियरों को पता चला कि कटनी के पास गड़उवा गाँव में एक कारीगर रहता है जिसका नाम अट्ठीलाल विश्वकर्मा है। वह इस तरह के पुल बना सकता है। पुल भी छोटा नहीं था। इसकी लम्बाई 50 मीटर थी। वे अट्ठीलाल के पास गए और उससे पुल के विषय में बताया और पूछा कि वह इस पुल को बना सकता है क्या? अट्ठी लाल शिक्षा की दृष्टि से कुछ भी पढा नहीं था। उसने नदी का निरीक्षण किया और फ़िर इंजीनियरों से कहा कि वह इस पुल को बना सकता है। अगर वे चाहें तो जोखिम उठा सकते हैं। सांसद से मिलने पर उन्होने भी हामी भर दी और अट्ठीलाल के निरीक्षण में पुल का निर्माण शुरु हो गया। 1997 में टिपरडोल के पास सोन नदी पर पुल बनकर तैयार हो गया। जो आज तक चल रहा है। जिस पुल के निर्माण के लिए खंबो की थाह नहीं मिल रही थी और सारा इंजीनियरिंग अमला परेशान था। उस पर एक अनपढ अट्ठीलाल विश्वकर्मा ने पुल बना कर तैयार कर दिया।

कहते हैं कि चूहे के बच्चे को किसने बिल बनाना सिखाया। किसी ने नहीं। वह तो अपनी माँ के पेट से सीख आया है। इसी तरह विश्वकर्मावंशिय परम्परागत कारीगरों को किसी इंजीनियरिंग विश्वविद्यालय से डिग़्री लेने की आवश्यकता नहीं है। ये तो पैदाइशी इंजीनियर होते हैं। विश्वकर्मावंशियों के निर्माण की गाथाओं से वेद, पुराण एवं स्मृतियां भरी पड़ी हैं। इनके निर्माण वर्तमान में भी दिखाई देते हैं। शिल्पकारों के कार्य पुरातत्व की खुदाई में प्राप्त होते हैं। भवन विन्यास एवं मूर्तिकला के बेजोड़ नमूने आज भी हजारों वर्षों के पश्चात ज्यों के त्यों खड़े है। निर्माण के देवता भगवान विश्वकर्मा जी के जन्म दिवस पर हम उनकी वंदना करते हैं। उनको कृतज्ञता स्वरुप एक स्तुति मैने लिखी है वह भी इस आलेख के साथ प्रस्तुत है।

पोस्ट अपडेट ( 9/30 बजे)


लगभग एक साल की मेहनत के बाद दीपक विश्वकर्मा ने ग्वालियर सेंड पत्थर की नाव बनाई है। दीपक की यह नाव है तो पत्थर की लेकिन तैरती ठीक लकड़ी की नाव जैसी है। इस नाव में राम, लक्ष्मण, सीता सवार हैं तथा उसे केवट चला रहा है। दीपक के मुताबिक यह नाव दो फुट लम्बी तथा नौ इंच चौड़ी है। इसको बनाने में 70 हजार की लागत आई है। वह कहते हैं कि नाव का संतुलन बनाने के लिए उन्हें काफी मशक्कत करना पड़ी। संतुलन बनाने के लिए तीन माह तक कड़ी मेहनत करने के बाद वह पूरी तरह पत्थर से बनी इस नाव को पानी पर तैराने में सफल रहे। दीपक द्वारा बनाई गई इस पत्थर की नाव का दिल्ली की प्रदर्शनी के लिए भी चयन हुआ है।

जयति जय विश्वकर्मा विधाता
सकल सृष्टि के तुम निर्माता

तुमने जल,थल,पवन बनाए
अंतरिक्ष में गगन समाए
उसमें सूरज चांद लगाए
आकाश में तारे चमकाए

सब मंगल सुखों के हो प्रदाता
जयति जय विश्वकर्मा विधाता

रंग बिरंगे फ़ूल खिलाए
नर,नारी और जीव बनाए
पतझड़ वर्षा बसंत बनाए
रथ पुष्पक विमान चलाए

सज्जन दुर्जन सबका दाता
जयति जय विश्वकर्मा विधाता

यज्ञ, योग, विज्ञान बनाए
वेद ॠचाओं में है समाए
गिरि कंदरा महल बनाए
धरती पर अनाज उपजाए

सकल कष्टों के तुम हो त्राता
जयति जय विश्वकर्मा विधाता

अग्नि में ज्योति प्रकटाए
जनहित में आयूध बनाए
मेघों से जल बरसाए
सकल भू का हित करवाए

"शिल्पकार" ज्ञान है तुमसे पाता
जयति जय विश्वकर्मा विधाता

बुधवार, 1 फ़रवरी 2012

विकृत मानसिकता और वीभत्स चित्र ------ ललित शर्मा

फ़ेसबुक पर कई लोग वीभत्स चित्र लगाते हैं। कई बार सुबह-सुबह फ़ेसबुक खोलते ही वे चित्र सामने आ जाते हैं। फ़िर दिन भर न खाया जाता न पीया जाता। पूरे दिन की खाट खड़ी हो जाती है। एक चित्र मैने देखा कि एक युवक की खोपड़ी दो भागों में बंटी हुई थी। खून बह रहा था और लोग उस चित्र को शेयर कर रहे थे। कल ही देखा कि बच्चों के 5 भ्रूण पड़े हैं जमीन पर उनकी फ़ोटो लगाई हुई है। मैने अपनी वाल से उसे हटाया तो किसी और ने वही चित्र लगा लिया। फ़िर उसे किसी तीसरे ने शेयर कर लिया। इस तरह वह चित्र मेरे वाल से हटा ही नहीं। पता नहीं ऐसे चित्र लगाने के पीछे कौन सी मानसिकता कार्य करती है?
थक हार कर मैने अपनी वाल पर लिखा"पता नहीं क्यों लोगों को फ़ेसबुक पर वीभत्स चित्र लगाने में मजा आता है। ऐसे घृणास्पद चित्र लगाते हैं कि वितृष्णा हो जाती है और चित्र लगाने वालों में शहीदी भाव नजर आता है, जैसे बहुत बड़े पुण्य का कार्य कर रहे हों। अब ऐसे चित्र लगाने वालों को ब्लॉक करने की ठान ली है। अपनी बात बिना चित्रों के भी कही जा सकती है।" 
इस संदेश के लिखे जाने के पश्चात कुछ मित्रों की टिप्पणियाँ आई और उससे एक सार्थक बहस शुरु हुई.........।

सुनीता शर्मा जी ने कहा कि - " सच फ़रमाया ललित जी, फ़ेसबुक की दुनिया में भयानक रस का कोई स्थान नहीं है, अपने बिजि लाईफ़ से कोई 2 पल निकालता है तो विभित्स चित्र देखने के लिए नहीं। ज्ञानवर्धक एवं आनंद प्रदान करने वाली पोस्ट का इंतजार सबको होता है।"

इसके पश्चात चर्चा आगे बढती है--

Lalit Sharma @Sunita Sharma -- सही कहा आपने, अपनी बात कहने के और भी अन्य माध्यम हैं। उनका प्रयोग किया जाए। जो गुड़ खिलाने से मरता हो उसे जहर देना कहां तक तर्क संगत है।

अरूणेश सी दवे--ऐसा कार्य वही कर सकता है जिसे मानवता से कोई लेना देना नही या चंदा मांगना हो। अब क्या कहे कि वीभत्स दृष्य सहानुभूती जगा लेते है पर इसका मतलब यह भी नही अकि आपके दोस्तो की सुबह सिर कटी लाश या अजन्मे बच्चो की लाश से हो।जीवन सभी दौरो से गुजरता है पर इसका मतलब यह भी नही कि सुबह से लेकर शाम तक लोगो को सतत निमनता से रूबरू कराया जाये। दोस्ती उन्नती के लिये होती है प्रेम के लिये होती है ना कि लाशे और गंदगी देखने के लिये।

Girish Mukul - अगर हम-आप सवाल उठाऎं तो लोग कहेंगें सच दिखा रहे हैं..

Sandhya Sharma - सही कहा आपने बिलकुल सहमत हूँ आपकी बात से. घृणास्पद वीभत्स चित्र लगाना विकृत मानसिकता का प्रदर्शन है, जो किसी भी दृष्टी से उचित नहीं है. देखकर मन घृणा से भर जाता है, इसपर अति तो तब होती है जब लोग उसे like करते हैं, आखिर क्या सोच कर ऐसा करते हैं, क्या ख़ुशी मिलती है उन्हें ये सब देखकर...

Lalit Sharma @ Sandhya Sharma -- सत्य कहा संध्या जी, लाईक करने वालों की तो मत पूछिए, वे किसी भी वाल को लाईक कर जाते हैं, चाहे मृत्यु एवं ब्लात्कार सुचना क्यों न हो।

Padm Singh -  इसे दूसरी तरह से भी देखा जा सकता है... गौतम बुद्ध को ज्ञान होने से पहले इसी तरह के आघात लगे थे... कोई बीमार मिला, कोई मुर्दा मिला कोई वृद्ध मिला... इस लिए जब हमें इस तरह के मानसिक आघात लगते हैं तो हम अपनी रोज़मर्रा की तंद्रा से जागते हैं... इस लिए इसे हर जगह गलत ही नहीं ठहराया जा सकता.

Sanjay Bengani - चित्र लगाने मात्र से महान हुआ जा सकता है तो क्या बुराई है :) पर उपदेश कुशल बहु तेरे.. वाली बात है जी.

Lalit Sharma @ Padm Singh -- भैया फ़ेसबुक कोई बुद्ध बनाने का कारखाना नहीं है, कि कोई घृणास्पद चीजों को देखे और बुद्ध हो जाए। सांसारिक जीवन में कुछ वर्जनाएं भी होती है।

Sunita Sharma-KUCH LONGO KO JAHAR PAROSANE KI AADAT HO JATI HAI WO HI AISI CHIJO KO FACE BOOK ME LAGAYA KARTE HAI LALIT JI..

Sandhya Sharma - क्या हम fb पर मानसिक आघात सहने आते हैं? नहीं ना, आते हैं कुछ देर अपने विचार, कुछ जानकारियां आपस में शेयर करें तो क्यों इस तरह से अपना अच्छा खासा मन ख़राब करें...

Girish Mukul  - हिंदी कहानी कविता लेखन में अश्लील गालियों का प्रयोग करने वालो से मेरी मां ने एक सवाल किया था कि .. इसे स्वीकार्य क्यों करें हम...? काशीनाथ सिंह का तर्क था-"हम जीवन का सच दिखातें हैं.. साहित्य समाज का दर्पण जो होता है.." उसके बाद लगातार उस पट्टी वाले लेखकों कवियों से मेरा सवाल होता है-"टायलेट भी एक जीवन का सच है ड्राईंग रूम में बना के दिखाएं..!!" मुझे आज़ तक ज़वाब नहीं मिला......आपको भी वीभस्तता फ़ैलाने वाले कुं न बताएंगे..

Sandhya Sharma - हो दर्द के मारे तो दूसरों के गम में तड़पकर दिखाओ ये सब दिखाने से क्या होगा...सच कहा ना..

Janmjay Sinha - हर अच्‍छा काम मैने कीया है,और हर बुरा काम आपने कीया है... यही मानसिकता होती है लोगों की .... भ्रुण हत्‍या का ईतनीर विभत्‍स तस्‍वीरें कोई विभतस व्‍यक्ति ही लगा सकता है ... और कन्‍या बचाओ की अपील कर सकता है मै भी इनको ब्‍लॉक कर देने की बात से सहमत हूं ...........

Sandhya Sharma @janmjay sinhaji- सहमत हूँ आपकी बात से जरुरी नहीं की उस वीभत्स रूप को दिखाकर ही अपनी बात कही जाये...

Padm Singh- मुझे नहीं लगता सच को छुपा देने से वह झूठ हो जाने वाला है... रही बात वीभत्स चित्रों की तो अगर वह किसी धनात्मक और स्कारात्मक परिवर्तन के लिए हैं तो अनुचित क्यों... हाँ ऐसे चित्रों को देखकर जुगुप्सा अवश्य होती है... परन्तु केवल समाज की अच्छी तस्वीरों की अफीम खा कर ऊँघते रहना कहाँ तक उचित है

Lalit Sharma@ Padm Singh - मित्र यह तो अपनी जांघ उघाड़ कर दिखाने वाली बात हो गयी। जब बिना उघाड़े ही इलाज हो सकता है तो फ़िर दिखाने की आवश्यकता क्यों है? मेरा यह कहना है कि " जब बिना विभित्स चित्र दिखाए शब्दों से कार्य चल सकता है तो दिखाने क्या आवश्यक हैं?

Padm Singh - आपकी तरह सब लोग संवेदन शील हों यह ज़रूरी नहीं... अगर ऐसा होता तो बड़ा अच्छा होता

नीलकमल वैष्णव अनिश ‎@ Janmjay Sinha जी मैं यहाँ पर आपकी बातो से सहमत नहीं हूँ,कोई जरुरी नहीं है कि जिसने यह पोस्ट कि है, वो भी वीभत्स हो क्योंकि वह समाज को दिखाना चाहता है कि इस तरह के वीभत्स और घृणित कार्य करने वाले पापी इंसान आज भी है.

Sandhya Sharma - सबसे बड़ी बात तो यह है की दूसरों से क्या कहना सब अपने - अपने जीवन में उन विचारो को अपना लें जो उपदेश जैसे बाँटना चाहते हैं , इन चित्रों को दिखाकर. "उपदेश बांटने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी.... "

Padm Singh - संध्या जी... अगर सब अपने जीवन मे अच्छे विचारों को अपना लें तो चित्र दिखाना तो क्या कुछ कहने सुनने की ज़रूरत भी नहीं है। लेकिन बात फिर वही "अगर ऐसा हो जाय तो"

Raj Bhatia - बातो से लोग मान जाये तो बात ही क्या, जब तक लोगो को आईना ना दिखाया जाये लोगो की समझ मे नही आता... चित्र एक आईना हे जिसे देख कर गंदे कर्म करने वाला एक क्षण ठिठक कर देखता हे ओर शमिंदा होता हे, अगर उसे बातो से अकल आ जाये तो चित्र आयेगा ही कहां से? इस कारण चित्र जरुरी हे,

Lalit Sharma @ Raj Bhatia -- आपसे कदापि सहमत नहीं हूं।

Sandhya Sharma - यही तो कहा है खुद से शुरुआत करनी है, हर घर से हर परिवार से आखिर हम भी हिस्सा है इसी समाज का..ऐसा होगा कैसे नहीं होगा जरुर होगा

Padm Singh - मैंने कहा न ये आप जैसे लोगों के लिए नहीं है... उनके लिए है जो आत्म मुग्धि की तंद्रा मे हैं और जिन्हें जगाने के लिए झिंझोड्ने की जरूतत पड़ती है... अगर आपके कहे अनुसार होता तो करोड़ों साल मे ये शुरुआत हो चुकी होती और सब कुछ ठीक हो गया होता।

Sandhya Sharma - अगर यही बात है कि चित्र दिखाने से अगर समाज में सुधार आता है तो किसी ब्लात्कार के पीड़ीत का सर-ए-आम चित्र लगाने से समाज में ब्लात्कार जैसा घृणित कृत्य रुक जाएगा???????????

Lalit Sharma @ Sandhya Sharma -- आपने जवाब देने के साथ बहुत गंभीर प्रश्न उठाया है।

Padm Singh - नहीं लेकिन एक बलात्कारी को सरे आम फाँसी पर लटकाने का चित्र ऐसे घृणित कार्य के प्रति भय अवश्य पैदा करेगा... अगर ऐसा न होता तो कानून मे जेल और फाँसी की व्यवस्था क्यों होती ...

Padm Singh - मैंने ऊपर लिखा है कि चित्र का चयन रचनात्मक और धनात्मक सुधार के लिए किया जाय तभी स्वीकार्य है... और बलात्कार पीड़िता को दिखाना इसमे नहीं आता

Sandhya Sharma - यही बात भूर्ण हत्या के लिए भी लागू होती है, सजा देते दिखाइए...

Lalit Sharma @ Padm Singh - फ़ांसी की सजा देने के बाद भी, ब्लात्कार या हत्याएं रुक नहीं गयी। आंकड़े उठा कर देखिए कि प्रति वर्ष इस तरह के अपराधों में लगातार वृद्धि हो रही है। सिर्फ़ भ्रुण के विभित्स चित्र दिखाने से क्या भ्रुण हत्या बंद हो जाएगी?

Girish Mukul - वैसे अपन अन्ना टाइप के गांधी वाद से असहमत है कि मारो मारो मारो.. अरे सबसे पहले घर सुधारो बच्चों के लिये नज़रिया बदलो, बेटियों को बहादुर बनाओ न दहेज के लिये लार न टपकाओ महंगी शादी करने वालों को लताडो फ़िर आगे की बात करो

Sunita Sharma - sahi wishay par bahut hi prasangik bahas raha aaj ka
के. सुधीर - kise kya achha lag jaye ....lekin dyan rakha jaye ki bura na lage



बात आगे और बढती पर रात गहराते जा रही थी और चर्चा पर विराम लग गया। सोशियल नेटवर्किंग साईटों पर  हमें क्या प्रकाशित करना है और क्या नहीं? यह स्वानुशासन का विषय है। जिसे जो अच्छा लगेगा वह देखेगा और पढेगा। अगर हमें अच्छा नहीं लग रहा तो पढने और देखने की आवश्यकता नहीं, पर हद तो तब हो जाती, जब जबरिया दिखाया और पढाया जाए।