रविवार, 22 अप्रैल 2012

कटघरी,कोटमी सोनार और बड़े बखरी अकलतरा --- ललित शर्मा

काली घोड़ी बढ रही है कोट गढ से कटघरी की तरफ़, उसके टापों की आवाज वातावरण की खामोशी को भंग कर रही है। बाबु साहब इस इलाके अच्छे जानकार हैं। कहते हैं कि "सामने दलहा पहाड़ है, इस पर नागपंचमी के दिन श्रद्धालु चढते हैं, वे भी कई बार चढे हैं। मैकल श्रेणी है का यह इकलौता पहाड़ है, जो सबसे अलग है।" सड़क के दोनो तरफ़ हरियाली है, धान की रबी फ़सल बोई गयी है। बलखाती सड़क पर कुशलता से बाबु साहब सवारी हांकते हुए कहते हैं - "सड़क के दोनो तरफ़ जहाँ तक आपको बैल आँख से दिखाई देता है वहाँ तक "बड़े बखरी" की मालकियत है। 250 वर्षों के इतिहास में बड़े बखरी के पास 84 गांव की जमीदारी थी। अब भी बहुत कुछ है। जमीन का तो ओर छोर मालिकों को ही नही पता कितनी है, गांव के लोग और दरोगा ही जानते हैं, गांव के लोगों को बोने के लिए बंटाई में दी जाती है। रेग की वसुली दरोगा करता है।

कटघरी की जनसंख्या लगभग 1800 है, जिसमें 80% गोंड़, कंवर, नायक जाति के लोग हैं, बाकी 20% में क्षत्रिय, सतनामी, केवंट इत्यादि हैं। सिंचाई का साधन होने के कारण दो फ़सली है। फ़सल में धान, गेंहूं, तिलहन-दलहन इत्यादि बोई जाती है। दलहा पहाड़ की तराई में मुनि कुंड है, मान्यता है कि इसमें स्नान करने से चर्मरोग इत्यादि का शमन होता है। यहां जगदेवानंद जी की समाधि है। कटघरी के चारों ओर कोटगढ, पचरी, पंडरिया एवं पोंड़ी गांव हैं। इन गांव की सीमा से कटघरी की सीमा जुड़ती है। यहाँ पर की पहाड़ी पर चांदी के सिक्के भी मिलते हैं। कहते हैं कि किसी राजा का खजाना इस पहाड़ी में गड़ा है। चांदी के सिक्के पहाड़ी पर जाने वाले किसी को भी प्राप्त हो जाते हैं। बरसात के दिनों में संभावना अधिक रहती है क्योंकि पानी से मिट्टी धुल जाती है और सिक्के उभर आते हैं।

कटघरी गाँव में प्रवेश करते ही स्कूल दिखाई देता है। इस स्कूल को सत्येन्द्र सिंह जी ने बनवाया था। बड़े बखरी के बाड़े में पहुंचते हैं तो बाबु साहब दरोगा को आवाज देते हैं। दरोगा तो दिखाई नहीं देता पर एक महिला आती है और घर का ताला खोलती है।काफ़ी बड़ा सारा घर है, खेती का सामान पड़ा है। बड़े बखरी के मालिक यहाँ नहीं रहते, वे बिलासपुर और रायपुर में रहते हैं। यहां कभी कभी आते हैं, दरोगिन कहती है। सामने ही 10 एकड़ का बगीचा है। सत्येन्द्र सिंह जी आमों के बड़े शौकिन थे, इस बगीचे में आमों की सभी किस्मे हैं। लेकिन देख रेख के आभाव में बगीचा उजाड़ पड़ा है। पानी पीकर यहाँ से हम दलहा पोंड़ी की ओर चलते हैं। रास्ते में अघोर पंथ वाले अवधूत राम जी का आश्रम है। बाबु साहब आश्रम देखने के लिए पूछते हैं तो समयाभाव के कारण मै मना कर देता हूं। बनोरा वाले आश्रम की ही शाखा है यह भी। काफ़ी बड़ा एरिया घेर रखा है।

पोंड़ी दहला के बीच से शार्ट कट रास्ता निकाल कर बाबु साहब कोटमी सोनार की ओर चलते हैं। रास्ते में एक छोटी सी दुकान तालाब के किनारे पर दिखाई देती है, वहां कोल्ड ड्रिंक रखी हुई दिखने पर हम रुकते हैं, प्यास अधिक होने के कारण एक-एक कोल्ड ड्रिंक उदरस्थ करते हैं। तालाब के बारे में किंवदंती है कि इसमें कलगी वाला बड़ा सांप है। जो कभी कभी दिखाई देता है। रात को ठहरे पानी में सांप की हलचल के कारण बुलबुले उठते हैं। गांव में मनोरंजन के लिए लोग फ़ंतासियां गढ लेते हैं जो पीढी दर पीढी चलते रहती है। एक से बढकर एक कहानियां सुनाई देती हैं। सफ़ेद घोड़े पर सवार की कहानियां लोग बड़े आत्मविश्वास से बताते हैं कि उन्होने देखा है। परन्तु दिखाने के नाम पर मौन रह जाते हैं या कोई विशेष तिथि एवं परिस्थिति होने पर दिखाई देने का बहाना बना देते हैं।

पोंडी से हम कोटमी सोनार पहुंचते हैं, रास्ता बहुत अच्छा है, डामर रोड़ है। कोटमी पहुंचने पर एक बड़े तालाब के चारों ओर तारों की बड़ी बड़ी बाड़ दिखाई देती है। मुख्य द्वार पर वनविभाग की देख रेख में होना लिखा है। यहां से एक फ़र्लांग पर ही कोटमी सोनार का पैसेंजर हाल्ट भी है। लोकल ट्रेन से बिलासपुर से यहां पहुंचा जा सकता है। पिकनिक स्पॉट के रुप में इसे विकसित किया जा रहा है। यहाँ प्रवेश करने के लिए पॉच रुपए की टिकिट लेनी पड़ती है। बच्चों के लिए मुफ़्त सेवा है। हम तालाब के किनारे पहुंचते हैं तो एक व्यक्ति रजिस्टर लिए बैठा है, वहां पहुचने वालों के नाम गांव दर्ज करता है। बाबु साहब ने हाजरी लगा दी। सूर्य अस्ताचल की ओर है, मगरमच्छ दिखाई नहीं देते। तालाब के बीच में बनी टेकरी पर के वृक्षों पर असंख्य बगुले बैठे दिखाई देते हैं। हम तालाब का एक चक्कर लगाते हैं। मगरमच्छ नहीं दिखने पर निराश होकर वापस जाने का मन बनाते है। तभी सामने सीताराम बाबा दिखाई देते हैं।

बाबु साहब बोले- बन गए काम, बाबा जी आ गे हे, अब दिखाही मंगर। बाबा से राम राम होती है, बाबु साहब मेरा परिचय बाबा से राहुल सिंह जी के मित्र के रुप में कराते हैं तो बाबा बहुत खुश होते हैं और तालाब के किनारे आवाज देते हुए आगे बढ़ते हैं - आ, आSSSS आ, आSSSS, चले आओ, आओ। बाबा की आवाज सुनकर पानी में हलचल होने लगती है। तल में डूबे मगरमच्छ पानी के उपर आने लगते हैं। तीन मगरमच्छ विभिन्न दिशाओं से किनारे की ओर बढते हैं जहां बाबा खड़े होकर आवाज दे रहे हैं। बाबा बताते हैं कि इस तालाब में लगभग 350 से 400 मगरमच्छ हैं। इनके खाने के लिए तालाब में मछली डाली जाती हैं। मगरमच्छों को आगे बढते देख कर और भी दर्शक आ जाते हैं। जबकि यह तो हमारे लिए विशेष प्रदर्शन करवा रहे हैं बाबा सीताराम। जिसका लाभ अन्य सैलानियों ने भी उठा लिया।

एक मगरमच्छ तालाब के किनारे पर आकर मेरे समीप बैठ जाता है और आंखे बंद कर लेता है। जैसे नमन कर रहा हो। यह लगभग 9 से 10 फ़िट लम्बाई का होगा। मैं समीप से ही उसका चित्र लेता हूँ। वह एक दो पोज देता है चित्र के लिए, फ़िर शिथिल होकर चित्त हो जाता है। बाबा जी का बांया हाथ आधा किसी मगरमच्छ ने खा लिया। वे गमछे से बार-बार उसे छिपाते हैं। इतना होने पर भी मगरमच्छों को गाय भैंस जैसे ही हांकते हैं। राहुल सिंह जी की बड़ी तारीफ़ करते हैं। हमने भी राहुल सिंह जी का आभार माना। उनके नाम से ही बाबा जी ने मगरमच्छ बाहर निकाल दिए। जिससे हम देख सके। बाबा जी राहुल सिंह जी अपना अभिवादन हमारे हाथों भेजते हैं और कहते हैं कि - मैं रायपुर आकर मिलूंगा। मैने कहा - स्वागत है आपका। हम भी दर्शनाभिलाषी है, जरुर आईए।

अब हम अकलतरा चलते हैं, वहां पहुच कर बाबु साहब हमें महल में ले चलते हैं और बताते हैं कि महल में कौन रहता है और किसके हिस्से में कौन सा क्षेत्र है। पुरानी हवेली नुमा आंगन और चौबारे वाली कोठी है। बीच में देव स्थान है, यहीं की मिट्टी से मान्यतानुसार मुसलमान ताजिए बनाने की शुरुवात करते हैं। महल के सामने एक लेटर बाक्स लगा है जिसका ताला टूटा हुआ है पेंदा भी जंग खा चुका है। लगता है अब इसका उपयोग नहीं होता। पर किसी जमाने में सुदूर सम्पर्क यही एकमात्र साधन था। लेटर बाक्स के हवाले चिट्ठी करके निश्चिंत हो जाते थे कि अब यह ठिकाने तक पहुंच जाएगी और कुछ दिनों में जवाब भी मिल जाएगा। अब इंटरनेट, मोबाईल फ़ोन का जमाना है, चिट्ठियां लिखता ही कौन है? चिट्ठियां गुजरे जमाने की बात हो गयी। सिर्फ़ सरकारी चिट्ठियों एवं नोटिसों से ही डाक विभाग चल रहा है।

यहां से हम अमित राजा (स्थानीय विधायक सौरभ सिंह) के ठिकाने तक पहुंचते हैं, पता चलता है कि वे कहीं दौरे पर हैं। इनसे मुलाकात पर फ़िर कभी लिखेगें। बगल में ही टॉकिज हैं, यहां "कहानी" का प्रदर्शन हो रहा है। पता चलता है कि दर्शकों का तोड़ा पड़ गया है। रात के शो में तो 10-12 दर्शक आ गए वही बहुत है। लेकिन शो तो करना ही पड़ेगा। "कहानी" पिट चुकी है। घर पहुंचने पर भोजन बन चुका है। माताजी भोजन करने का आग्रह करती हैं और मै थोड़ी देर के लिए नेट पर ऑन लाईन हो जाता है। चैट पर राहुल सिंह जी याद दिलाते हैं कि विवेकराज सिंह अकलतरा में ही रहते हैं और उनका नम्बर देते हैं। बाबु साहब उन्हे फ़ोन लगा कर बुलाते हैं, हमारे भोजन करने के बाद  विवेकराज सिंह जी पहुंच जाते हैं।  विवेकराज सिंह अविवाहित युवा हैं, इनका क्रेशर का काम है और लिखते भी अच्छा हैं। मैने उन्हे पढा है। वे अपने क्रेशर पर चलने की जिद करते हैं तो हम तैयार होकर चल पड़ते हैं। 10 बज रहे हैं एक घंटे बाद वापस आने का वादा है।

क्रेशर पहुचते हैं, अलग-अलग साईज की गिट्टियां बनाई जाती है। अभी सारी सप्लाई वर्धा इलेक्ट्रिसिटी जनरेशन प्लांट में हो रही है। घड़ी में रात के 11 बज चुके हैं, हम वर्धा प्लांट की ओर चलते हैं। 600X 600 मेगावाट का प्लांट हैं। 6 टरबाईनों से 3600 मेगावाट बिजली तैयार होगी। प्रथम टरबाईन का कार्य लगभग पूर्ण हो चुका है वह शीघ्र ही चालु हो सकता है। प्लांट के भीतर ही विवादित "रोगदा बांध" है। जिसे वर्धा प्लांट वालों ने मिट्टी से पाट दिया है। यह बांध लगभग 100 एकड़ में बना है। अब मिट्टी का ढेर दिखाई दे रहा है। रात के अंधेरे में रोशनी से जगमग करता हुआ प्लांट निराली छटा बिखेर रहा है।  विवेकराज सिंह कहते हैं कि इस प्लांट के प्रारंभ होने पर अकलतरा का तापमान बढ जाएगा। ग्रीष्म काल में गर्मी जम के पड़ेगी। जब भट्ठी में कोयला जलेगा तो उससे गर्मी होना और धूल का उड़ना स्वाभाविक है। पर्यावरण को भी नुकसान होगा।

कटघरी का घ्रर 
वर्धा प्लांट देखकर हम घर चलते हैं, घर से निकले दो घंटे हो गए, हम एक घंटे में ही वापस आने वाले थे। वर्धा प्लांट देखने के चक्कर में एक घंटा और लग गया।  विवेकराज सिंह जी के साथ समय का पता ही न चला। बाबु साहब कार में बैठे-बैठे झपकी ले रहे हैं, आज सुबह से ही भाग दौड़ जारी है, थकान ने चूर कर दिया। सुबह जल्दी उठ कर जांजगीर होते हुए हमें पटियापाली जाना है। लगभग 65 किलोमीटर का सफ़र है और वापस भी आना है। घर पहुंच कर  विवेकराज सिंह को धन्यवाद देते है और उनके निमंत्रण पर पुन: आने का वादा करके आराम करने की जुगत लगाते हैं। सुबह जल्दी जो उठना है आगे के सफ़र के लिए।

11 टिप्‍पणियां:

  1. bahut badhiya hai ji.. katghari .... sunder gyanwardhak aalekh ke liye shukriya

    जवाब देंहटाएं
  2. रोचक और ज्ञानवर्द्धक यात्रा वृतांत ..
    चित्रों के साथ पोस्‍ट आकर्षक हो जाती हैं ..
    आगे के सफर के वर्णन का इंतजार रहेगा !!

    जवाब देंहटाएं
  3. आपके लेख नयी नयी जगह की सैर करा देते हैं ... बढ़िया यात्रा वृतांत

    जवाब देंहटाएं
  4. बड़ी हिम्मत का काम है, एक हाथ खोने के बाद भी सीताराम बाबाजी का मगर मच्छों के साथ होना... रोचक विवरण अगले अंक का इंतजार है...

    जवाब देंहटाएं
  5. भाई ललित जी अकलतरा की ओर एक कार्यक्रम और बनाये .जैरामानगर के नामकरण के पीछे एक एक रोचक कहानी है .सुनी तो कई बार है आपकी लेखनी उसे सूचनापरक और रोचक बनाएगी

    जवाब देंहटाएं
  6. आसपास का तापमान ५-६ डिग्री बढ़ना स्वाभाविक है।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 23-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-858 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

    जवाब देंहटाएं
  8. हम भी घूम लिए ....लेकीन बाबा जी ने तो हमें हतप्रभ कर दिया .....उनका मगरमच्छ प्रेम ...वह बुला लाये मगरमच्छों को आपसे मिलाने ....एक हाथ खोने के बाद भी ...! रोचक और प्रेरक यात्रा संस्मरण ...!

    जवाब देंहटाएं
  9. धन्‍य हैं बाबाजी, बाबू साहब और सबको गतिशील कर देने वाले आप.

    जवाब देंहटाएं
  10. my dear LALIT BHAI SAHAB i am thankful to you.
    aapane mujhe kisi kam ke layak samajhaa aapaka aabhari.aasha hai aapaka prem bana rahega.
    PATIYAPALI STAFF AUR BACHCHHON KI OR SE AAPAKO
    DHANYAWAD AAP FIR PADHAREN .

    जवाब देंहटाएं
  11. Bahut hi badhya jaanakariprad aur rochak yaatra varnan............aabhaar.

    जवाब देंहटाएं