मंगलवार, 26 जून 2012

निजी स्कूलों का मोह और सरकारी स्कूल ........... ललित शर्मा

गर्मियों की छूट्टी के बाद स्कूल खुल गए हैं, सरकारी धूम धड़ाका भी प्रवेशोत्सव के नाम पर चल रहा है। गाँव में पंच-सरपंच एवं स्कूल की कमेटी के मेम्बरों को नैतिक दायित्व बताया गया कि कोई भी बच्चा शाला त्यागी न हो। सभी को समीप के स्कूल में भर्ती कराया जाए। गुलाल चंदन लगा कर मिठाई खिला कर स्कूल में शिक्षक उनका स्वागत करें। सरकारी स्कूलों में प्रवेशोत्सव जारी है साथ ही प्रायवेट स्कूलों के शिक्षक भी अपनी दर्ज संख्या बढाने के लिए घर-घर जाकर सर्वे कर रहे हैं। साथ ही सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का प्रशिक्षण कार्यक्रम भी जारी है। नयी शिक्षा नीति के हिसाब से उन्हे ग्रेडिंग कर विद्यार्थियों को नम्बर देना सिखाया जा रहा है। वैसे शिक्षा विभाग में शिक्षकों का प्रशिक्षण तो बारहों महीने चलता है। प्रशिक्षण अधिक और पढाई कम। कभी उन्हे नाचना कूदना सिखाया जाता है तो कभी कठपुतली नचाना। एक तरह माने तो शिक्षा जगत एक प्रयोग शाला हो गया है। दिल्ली की सरकार बदलते ही पुरानी सभी नीतियां बदल जाती हैं और फ़िर नए सेटअप, नए नियमों, नए पाठ्यक्रमों से पढाई शुरु करने प्रशिक्षण दिया जाता है। यह प्रक्रिया सतत जारी रहती है, इसका खामियाजा विद्यार्थियों को ही भुगतना पड़ता है। वर्तमान में अच्छे स्कूल कालेजों  (निजी स्कूल एवं कालेज) में प्रवेश प्रतिशत के आधार पर ही होता है। यह घड़ी विद्यार्थियों की परीक्षा के साथ उनके पालकों की परीक्षा की भी होती है।
विद्यार्थी को स्कूल में भर्ती कराने के लिए पालक को अपनी जेब और बचत खाते की ओर देखना पड़ता है। जिसके पास जितनी आमद है उसी के हिसाब से अपने पाल्य के लिए स्कूल का चयन करता है। सरकारी स्कूलों की गत यह है कि वहां कोई भी अपने बच्चे को पढाना नहीं चाहता। सरकार की गलत नितियों के कारण सरकारी स्कूलों का स्तर गिरता जा रहा है। शिक्षकों को अब पांच अंको में वेतन मिलता है। उन्हे स्वयं ही अपने स्कूल के शिक्षा के स्तर पर विश्वास नहीं है। आज लगभग सभी शिक्षकों के बच्चे निजी स्कूलों में पढते हैं। जहां निजी स्कूल नहीं है वहां मजबूरन ये अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में पढते हैं। अन्यथा निजी स्कूल को ही प्राथमिकता दी जाती है मान्यता है कि अंग्रेजी बोलने समझने वाले विद्यार्थी लोग ही सिविल सर्विसेस में जाते हैं। बाकी हिन्दी पढने वाले कलम घिस्सू बाबु, पत्रकार या लेखक बन पाते हैं। अंग्रेजी स्कूलों का भूत सर चढ कर बोल रहा है। आज निजी स्कूलों के एक माह की इतनी फ़ीस हो जाती है कि उतने खर्चे में हमने पांचवी तक की पढाई कर ली थी और अच्छे नम्बरों से पास भी हुए थे। अच्छे नम्बर लाने का विद्यार्थी के कोमल मनोमस्तिष्क पर दबाव होता है और इसकी परिणीति कभी कभी जान लेवा भी हो जाती है।
आज देश में दो वर्ग स्पष्ट दिखाई दे रहे हैं। पहला वह है जिसे अंग्रेजी स्कूलों में पढ कर शासन करना है, दूसरा वह है जिसे हिन्दी माध्यम के सरकारी स्कूलों में पढ्कर अपना शोषण करवाना है। शासक और शोषित दो वर्ग बन गए हैं। सरकारी हिन्दी स्कूलों में पढाना अब लोग अपनी शान के खिलाफ़ समझने लगे हैं। बस स्कूल के नाम के साथ कान्वेंट लगा होना चाहिए, चाहे उसका स्तर कैसा भी हो। पालक आँख बंद करके उस स्कूल में अपने पाल्य को भर्ती करवा देता है। इस मानसिकता की पुष्टि तब होती है जब वैदिक कान्वेंट स्कूल, बजरंगबली कान्वेंट स्कूल,दुर्गा पब्लिक स्कूल नाम धरे जाते हैं। प्रश्न यहां पर उठता है कि सरकारी स्कूलों पर से पालकों का विश्वास क्यों उठता जा रहा है। क्या सरकारी स्कूल में पढने वाले विद्यार्थी डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, अधिकारी नहीं बन सकते?  आज से 25 वर्ष पूर्व सरकारी स्कूल से पढने वाले विद्यार्थी अच्छे नम्बर लाकर महाविद्यालयों में दाखिला पा लेते थे और सिविल सर्विसेस की परीक्षा पास कर उच्च पद भी प्राप्त कर लेते थे। इन्ही उच्च पद प्राप्त करने वालों की मानसिकता बन जाती है कि अपने बच्चों को मंहगे से मंहगे स्कूल में पढाना। जहाँ पढ कर वह सरकारी नौकरी में अच्छे पद को प्राप्त कर ले तो उसका जीवन सफ़ल हो जाए।
यही सोच हमारे नेताओं की भी है। राजनीति रुपया छापने की मशीन हो गयी है। एन केन प्रकारेण धन एवं सम्पत्ति में वृद्धि हो रही है और ये भी अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढा रहे है। जब प्रवेशोत्सवों के कार्यक्रमों में जाते है तो सरकारी स्कूलों की जम कर तारीफ़ करते हैं। ग्रामीणों का आह्वान करते हैं कि वे अपने बच्चे को पढने के लिए भेजे। ऐसा सुनकर इनके दोगले पन का आभास होता है। इनके खुद के बच्चे तो निजी स्कूलों में पढ रहे हैं फ़िर किस मुंह से सरकारी स्कूलों की तारीफ़ के पुलंदे बांधे जा रहे है। जब सरकारी स्कूल तारीफ़ के काबिल हैं तो क्यों नहीं अपने बच्चों को नेता, अधिकारी, कर्मचारी सरकारी स्कूलों में दाखिला दिलवाते? छत्तीसगढ प्रदेश में लगभग 6767 स्कूलों में एक ही शिक्षक हैं जो पाँच कक्षाओं को पढाता है। इसे एक शिक्षकीय शाला का नाम दिया गया है। कहीं स्कूल में पानी की व्यवस्था नहीं है तो कहीं शिक्षक की तो कहीं भवन की। सरकारी स्कूलों को सभी तरह की सुविधाएं एवं शिक्षक उपलब्ध कराए जाएं तो क्यों पालक मंहगे स्कूलों की तरफ़ अपना रुख करेगा? आजादी के 65 सालों में भी हम अपने बच्चों के पढने की उचित व्यवस्था नहीं कर पाए तो ऐसी आजादी के क्या मायने हैं?
अगर शिक्षा के क्षेत्र में सरकारी स्कूलों को आगे लाना है तो उच्च पदों पर बैठे नेता एवं अधिकारियों को अपने बच्चे को सरकारी स्कूलों में पढाना चाहिए। जब सरकार के लोग सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को पढाएगें तभी  अन्य पालकों का विश्वास भी उस स्कूल के प्रति बनेगा और वह भी निजी स्कूलों की बजाए अपने बच्चे को सरकारी स्कूल में दाखि्ला दिलाएगा। पिछले साल एक खबर अखबारों की सुर्खी बनी थी कि तमिलनाडु के एक पिछड़े ज़िले इरोड के ज़िलाधीश यानी कलेक्टर डॉ आर आनंदकुमार ने अपनी छह साल की बेटी को एक सरकारी स्कूल में भर्ती करवाया है तथा उन्होने अपने बेटी को अन्य पालकों की तरह कतार में खड़े होकर दाखिला दिलाया। डॉ आर आनंद कुमार ने एक आदर्श रखा है निजी स्कूल के हिमायती नेताओं और अधिकारियों के समक्ष। जिसका पालन नैतिकता के आधार पर सभी को करना चाहिए। जब नेताओं और बड़े अधिकारियों के बच्चे सरकारी स्कूलों में दाखिल होगें तो वहाँ शैक्षणिक कार्य भी गंभीरता से होगा। स्कूल में होने वाली समस्याओं से अधिकारी रुबरु होगें और उसका निदान करेगें। ऐसे स्कूल के अध्यापक चुस्त हो जाएगें कि पता नहीं कब कौन अधिकारी आ जाए अपने बच्चे को देखने या मिलने। सरकार के सेवा अधिनियम में यह भी जोड़ना चाहिए कि जो सरकारी नौकरी करेगा उसे अपने बच्चों को अनिवार्य रुप से सरकारी स्कूल में पढाना पड़ेगा। जो भी पंच-सरपंच विधायक-सांसद, मंत्री पद पर रहेगा उसे भी अनिवार्य रुप से अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में ही पढाना होगा। देखिए फ़िर इस कदम के बाद सरकारी स्कूलों की शिक्षा में कैसे बदलाव नहीं आएगा। आवश्यकता है शुरुवात करने की, तो शुरुवात भी हो गयी, डॉ आर आनंद कुमार ने अपनी बेटी को सरकारी स्कूल में दाखिला दिला दिया।

 दिनांक 25/6/12 सांध्य दैनिक छत्तीसगढ़ में यह पोस्ट ......



शुक्रवार, 22 जून 2012

हिडिम्बा टेकरी और गंजों के लिए खुशखबरी ………… ललित शर्मा

हम बोधिसत्व नागार्जुन संस्थान के पिछले गेट से पहाड़ी पर चढने के लिए चल पड़े। इस पहाड़ी को स्थानीय लोग हिडिम्बा टेकरी कहते हैं। धूप बहुत तेज थी,  पहाड़ी के किनारे बहुत बड़ी झील है, जिसके नाम पर ही इस गाँव का नाम मनसर पड़ा। मनसर नाम मणिसर का अपभ्रंस है। इसे देखने से आभास होता है कि पहाड़ियों के बीच यह एक प्राकृतिक झील है। जिसमें बारहों महीने पानी रहता है। पहाड़ी की तरफ़ झील का उलट है, अर्थात झील लबालब भरने पर पानी की निकासी का मार्ग बना है। इसमें लोहे का गेट भी लगा है। पहाड़ी छोटी है पर चढाई खड़ी है। रास्ते में हमें रुक कर कुछ जलपान लेना पड़ा। उस दिन की गर्मी का अहसास करता हूँ तो आज भी उबल उठता हूँ। 
हिडिम्बा टेकरी से मनसर झील का नजारा
पहाड़ी पर चढते समय ही धरती पर पाषाण काल के मानव के रहने चिन्ह प्राप्त होते हैं। मिट्टी के बर्तनों की ठेकरियाँ और चकमक पत्थर के पाषाण कालीन औजार बिखरे पड़े हैं। कौन कितना उठाए और सहेजे। गर्मी से संध्या जी तो लाल हो गयी थी, पुरातात्विक धरोहरें देखने के मजे के साथ कष्ट भी था, लेकिन इस कष्ट का भी हर हाल में आनंद लेना था। पैट्रोल के बढे हुए रेट ने रोते-गाते भी मजा लेने को मजबूर कर दिया। पहाड़ी पर चढते ही एक चार दीवारी दिखाई दी। इसके भीतर एक बड़ी शिला पर लिखे हुए अभिलेख है, जो समय की मार से धुंधले हो गए, पढने मे  ही नहीं आया क्या लिखा है? वैसे भी हम कोई प्राचीन भाषा के विशेषज्ञ तो हैं नहीं जो पढ लेगें, पर आडी टेढी लाईने तो समझते हैं। 
समय की मार से धुंधले होते शिलालेख
इस स्थान से उपर पहाड़ी पर ईंटो की अंडाकार कलात्मक इमारत अभी भग्नावस्था में है। हम ईमारत पर चढते हैं, पर वैसा कुछ दिखाई नहीं देता जैसा भंते रामचंद्र ने बताया था। उनका कहना था कि यह एक बौद्ध मठ था, इसके आचार्य नागार्जुन थे। ईमारत में त्रिआयामी त्रिभुजों का निर्माण हुआ है। पूरी ईमारत पक्की ईंटो की बनी है। उपर जाने के लिए त्रिकोणी घुमावदार सीढियाँ बनी हैं। पहाड़ी के शिखर पर बनी हुई यह सुंदर संरचना है। ईमारत के चारों तरफ़ लाल पत्थर के शिवलिंग स्थापित हैं। जिन्हे अभी भी देखा जा सकता है। इससे पता चलता है कि यह एक शिवालय था। 
हिडिम्बा टेकरी के द्वादश शिवलिंगों मे से एक
पूर्व दिशा में एक टीन शेड बना हुआ है जिसके दरवाजे पर ताला लगा है। वहां पर पुरातत्व विभाग का कोई व्यक्ति नहीं मिला। अगर कोई पर्यटक ईमारत को नुकसान पहुंचा दे तो कोई देखने वाला नहीं है। पहाड़ी से मनसर कस्बे का सुंदर दृश्य दिखाई देता है। साथ ही मणिसर झील भी खूबसूरत दिखाई देती है। पूर्व दिशा में एक पहाड़ी पर भी ईमारत के चिन्ह दिखाई दिए। वहां जाने के लिए किसी दूसरे रास्ते का उपयोग होता है। इस पहाड़ी से उसका कोई संबंध नहीं है। हम मंदिर की उत्कृष्ट  कलाकारी को देखते रहे। समय कम था और हमें आगे भी जाना था। एक पेड़ के नीचे बैठ कर आराम किया। संग में लाए छाछ और फ़लों को उदरस्थ किया।
लू लग जाएगी, कुछ तो खा लीजिए
लौटते हुए मुझे ईमारत में एक दरवाजा दिखाई दिया, बाहर तो ईंटों की दीवाल है पर भीतर जाने पर पत्थरों को खोद कर बनाई गयी एक सुरंग दिखाई देती है। सुरंग का मुहाना भी ईटों से बनाया हुआ है। मै उसके भीतर उतरता हूं तो घुप्प अंधरा था। मोबाईल के टार्च की रोशनी में दीवाल से चिपकी हुई एक गोह (गोईहा) दिखाई दी। मैने आगे बढने का ईरादा त्याग दिया। क्योंकि शुरुवात में ही कुछ ऐसे चिन्ह दिखाई दे दिए कि आगे बढना जान जोखिम में ही डालना नजर आया। जैसे कभी अनजान गाँव के तालाब में गहरे नहीं जाना चाहिए वैसे ही अनजान जगह में सुरंग या पहाड़ी खोह को पूरी देख भाल कर जाना चाहिए। 
सुरंग का मुहाना
अनजान जगह पर भीतर जाने का विचार त्याग देना चाहिए। क्योंकि भालू जैसा प्राणी ऐसे स्थानों पर पाया जाता है। जो कि बड़ा खतरनाक होता है। साथ ही पहाड़ी पर तेंदुए भी विचरण करते हैं जो रहने के लिए ऐसे ही मुफ़ीद स्थानों की तलाश करते हैं। सुरंग में जाने पर सड़ांध आई, जिससे अहसास हो गया कि यह किसी मांसाहारी प्राणी का ठिकाना बन चुकी है। इससे दूर ही रहना सही होगा। भंते रामचंद्र ने बताया कि यह सुरंग 25-30 फ़ुट आगे तक जाती है, फ़िर बंद है। ऐसी ही एक सुरंग और भी है। उसका दरवाजा बंद है।
हिडिम्बा टेकरी का शीर्ष
दो लड़के भी चश्मा लगाए हमारे पीछे पीछे यहाँ आए थे। वे तो थोड़ी देर में ही कूद फ़ांद कर नीचे जाने लगे। मैने उन्हे रोक कर पूछा कि उन्होने यहाँ क्या देखा और समझा? दोनो यूवक महाविद्यालय के छात्र थे। उनका कहना था कि कुछ समय होने के कारण इसे देखने चले आए। अब यह क्या है और किसने बनाया है? इसके विषय में उन्हे जानकारी नहीं है। सरासर सच कहा दोनों ने, उनकी बातें सुनकर अच्छा लगा। पुरातात्विक पर्यटन स्थलों पर अधिकतर यही होता है। गाईड की व्यवस्था न होने पर पर्यटक को कुछ समझ ही नहीं आता कि वह क्या देख रहा है और क्यों देख रहा है? 
शिल्पियों द्वारा कलात्मक निर्माण
बिना गाईड के किसी भी स्थान के विषय में जानकारी नहीं मिल पाती। पर्यटक आता है और मुंह फ़ाड़े देखकर चला जाता है।थोड़े से पैसे खर्च करके किसी स्थान के विषय में सार्थ जानकारी मिल जाए तो घुमने का उद्देश्य पूरा हो जाता है।  हम भी सिर्फ़ देखकर यहाँ की जानकारी लिए बिना ही वापस चल पड़ते हैं। खड़ी चढाई से उतरते समय सावधानी रखने की जरुरत है। थोड़ा सा पैर फ़िसला नहीं कि एकाध हड्डी टूटने की गारंटी मानिए। हड्डी टूटने पर धरती पर यमराज के एजेटों का चक्कर पड़ सकता है। इसलिए हम संभल कर नीचे उतरे और नागार्जुन स्मारक संस्था में पहुचे। जहाँ हमारी मोटरसायकिलें खड़ी थी।
हिडिम्बा टेकरी पर यायावर- पुख्ता सबूत
संस्थान में एक स्थान पर लिखा था कि यहाँ गंजों के सिर में 10 दिन में शर्तिया बाल उगाए जाते हैं। इसे पढकर जानने की इच्छा हुई तो केयर टेकर प्रो रामचंद्र से ही हमने पूछा। उन्होने बताया कि बाल उगाने वाली दवाई वे ही देते हैं और शर्तिया 10 दिनों में बाल उग आते हैं। उनके पास आने वाले बहुत से लोगों का वे ईलाज कर चुके हैं। मैने मजाक में कहा कि शर्मा जी सिर के बगल के कुछ बाल उड़े हुए हैं उन्हे उगा दीजिए। इसका अनुभव हम भी ले लेते हैं। तो उनका कहना था कि हम सिर्फ़ 30 साल से कम उम्र वाले व्यक्ति के ही बालों का ईलाज करते हैं। इससे अधिक उम्र वालों के सिर पर पूरे बाल नहीं आते तथा यह ईलाज गर्मी के दिनों में नहीं करते। क्योंकि गर्मी में दवाई से सिर पर फ़ोड़े फ़ुंसी निकलने का डर रहता है। 
प्रो रामचंद्र उके (केयर टेकर)
इसलिए बरसात का मौसम सबसे अच्छा होता है बाल की फ़सल उगाने के लिए। साथ ही उन्होने अपनी फ़ीस 10,000/- अक्षरी दस हजार रुपए भी बता दी। लेकिन बाल उगाने का मजबूत दावा पेश किया। हमने उनका पता लिया। उन्होने बताया कि इस स्थान से दो किलोमीटर पर नालंदा जैसी एक सरंचना भी उत्खनन में प्राप्त हुई है। उसे आपको अवश्य देखना चाहिए। पहाड़ी पर उत्खनन में प्राप्त सामग्री को यहाँ स्थित एक भवन में रखा गया है। पर उसकी चाबी अरुण कु्मार शर्मा जी के पास ही है। इसलिए उसे खोला नहीं जा सकता। प्रो रामचंद्र से हम विदा लेकर अगले स्थान की ओर चल पडे। 
शिल्पियों द्वारा ईंटो से निर्मित त्रिआयामी भवन विन्यास
गंजे सर पर बाल उगाने वाले का पता है - प्रो रामचंद्र उके, केयर टेकर, बोधिसत्व नागार्जुन स्मारक संस्था व अनुसंधान केन्द्र, मनसर, तहसील रामटेक जिला नागपुर (महाराष्ट्र) मो. 09823214196, 08055397715। इनसे सम्पर्क कर अपने रिस्क से सिर पर बाल उगाएं। (मनसर के ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक पहलू पर मैने नागपुर से आने के बाद सिरपुर जाकर अरुण कुमार शर्मा जी से चर्चा की वह विवरण आपको आगामी पोस्ट में मिलगा।) आगे पढें

बुधवार, 20 जून 2012

मनसर की ओर यायावर ------------- ललित शर्मा

 अयोध्या का ददुवा राजा महल
जीवन चलने का नाम, चलते रहो जब तक हो प्राण। चलना ही जीवित रहने का परिचायक है, ठहरना मुर्दा होने के समान। रमता जोगी और बहता दरया, दोनो ही उत्तम होते हैं। साधू रमता रहे तो दाग लगे न कोय। साधू तो हूँ पर जोगी नहीं हूँ। साधना मुझे आता है, जोग गृहस्थ का लिया है। गृहस्थी जीवन में समय निकाल कर यायावरी करना बहुत कठिन कार्य है। फ़िर भी कुछ समय चुरा ही लिया जाता है। गत फ़रवरी माह में पारिवारिक कार्यों से नागपुर गया था, फ़िर वहाँ से उमरेड से शंकरपुर होते हुए हीरापुर गया। जो कि नागपुर से लगभग सौ किलोमीटर है। वहाँ एक मैगालिथिक पुरातात्विक साईट की खोज की है डेक्कन विश्वविद्यालय के कांति कुमार ने। तब से इस साईट को जाकर देखने की इच्छा थी। हम साईट पर बाईक से गए, बहुत सारे फ़ोटो लिए। लेकिन उसके बारे में लिखने से पहले ही मेरा मोबाईल गुम हो गया और सारी मेहनत पर पानी फ़िर गया। हीरापुर की साईट का एक भी चित्र  नहीं था मेरे पास। इसलिए उस पर लिख भी न सका। वहां पर किसी ने बताया था कि आस-पास की पहाड़ियों में आदिम मानव निर्मित शैल चित्र भी हैं। साथ यह भी चेताया था कि उस पहाड़ी पर शेर और भालु भी हैं। इसलिए दिन रहते ही जाना और आना पड़ता है। देखते हैं दुबारा कब समय मिलता है जाने का?

कवियत्री संध्या जी और सत्येन्द्र जी
तीन चार किलोमीटर पहाड़ी पर चल कर गुफ़ाएं देखना और वहाँ शैल चित्रों का अवलोकन करना, कष्टप्रद कार्य है। पर मुझे पसंद है, इसलिए फ़िर कभी जाना चाहुंगा। दुबारा महात्मा फ़ूले टैलेंट अकादमी के कार्यक्रम में 14 अप्रेल को अंजु चौधरी के निमंत्रण पर जाना हुआ। पहुंचने के पहले ही संध्या जी और सत्येन्द्र जी ने कार्यक्रम बना लिया था कि 15 अप्रेल को रामटेक जाएगें। रामटेक का नाम मैने बहुत सुना था। कुछ मराठी भाई रामटेके सरनेम भी लगाते हैं। इसलिए यह नाम जाना पहचाना लगा और रामटेक जाने का मन भी बना लिया। नागपुर से रामटेक 56 किलोमीटर है और वर्धारोड़ सोमलवाड़ा से 70 किलोमीटर है। अप्रेल की भीषण गर्मी में वहाँ जाना मूर्खता से कम नहीं था, परन्तु पहले से कार्यक्रम बन गया था,हमने बाईक से जाना तय कर लिया। पारा 45-46 डिग्री पर चल रहा था। सुबह 8 बजे से ही धूप चमकने लगती थी। सुबह की सैर से लौटने में ही पसीने की धार बह निकलती थी। बाईक से लम्बा सफ़र करना तकलीफ़देह तो है, पर बाईक से ही चल कर आस पास के सभी स्थान आसानी से देखे जा सकते हैं। सड़क पर जाम लगने की स्थिति में थोड़ी सी ही जगह मिलने पर आसानी से निकला जा सकता है। इस तरह समय की बचत के साथ सफ़र चलता रहता है।

कुलेश्वर दर्शन
सुबह 10 बजे हम तीनों (मैं, संध्या जी, सत्येन्द्र जी) दो मोटर सायकिलों पर प्रात:रास के प्रश्चात चल पड़े। वर्धा रोड़ सोमलवाड़ा से हम सीधे ही नेशनल हाईवे 7 पर सवार पर हो गए। यह हाईवे कामठी के बाद कन्हान पार करके मनसर जाता है, यही से आगे रामटेक के लिए राज्य मार्ग है। सत्येन्द्र जी ने गर्मी से बचने के लिए टोपी लगा ली और संध्या जी ने स्कार्फ़ बांध लिया। मुझे आदत नहीं सिर ढक कर चलने की, चाहे कितनी भी लू चले। एक गॉगल आँखों पर चढा लिया वही बहुत है। हेलमेट लगाने में भी समस्या होती है। पहली बार जब हेलमेट लगाया था, तब एक बार में जी भर के पान थूक लिया और हेलमेट की नमस्ते हो गयी। हमने भी उससे पीछा छुड़ा लिया। हाईवे नम्बर 7 पर चलते हुए हम कामठी पहुंचे। शहर के भीतर से चल कर पुन: हाईवे पर आ गए। तिराहे पर मुझे मनपसंद सामान मिल गया। मतलब बर्फ़ की चुस्की (गोला भी कहते हैं) मिल गयी। तुंरत गाडी किनारे लगाई और तीन चुस्की बनवाई। जलती बरसती गर्मी में चुस्की से कुछ राहत मिली। पर एक चुस्की से क्या होना था। दूसरी भी बनवा ली, पहली खत्म होते ही। यहां से रिचार्ज होकर आगे बढे, 4 लाईन हाईवे पर फ़ुल स्पीड में बाईक ड्राईव करने का मजा आ रहा था। सड़के के किनारे पेड़ों पर तोरी (तोरई) की सूखी बेलें लटकी हुई थी। उनमें सूखी तोरई भी लटक रही थी। एक बार तो मन किया कि रुक कर इसे तोड़ा जाए। (ग्रामीण जानते हैं सूखी हुई तोरई किस काम आती है) समय की कमी को देखते हुए रुकना ठीक न समझा।

मनसर से रामटेक की ओर
कन्हान से लगभग 25 किलोमीटर चलने पर मनसर कस्बा है यहाँ से एक रास्ता  दाहिनी तरफ़ रामटेक के लिए जाता है। इस रास्ते पर स्वागत द्वार बना हुआ है। मनसर नाम देखते ही मेरे मन में बिजली सी कौंधी। लगा कि यह नाम कहीं सुना है, क्यों सुना, किस लिए सुना, किसने सुनाया?  कुछ याद नहीं, बस नाम कुछ जाना पहचाना सा लगा। मैने सत्येन्द्र जी को बाईक रोकने के लिए इशारा किया और किसी दुकान वाले से इस गाँव की विशेषता के बारे में पूछने कहा। पूछने पर पता चला कि यहाँ से 4 किलो मीटर पर खुदाई में कोई प्राचीन स्थल मिला है। तब दीमाग की घंटी बज गयी, एक दिन रायपुर पुरातत्व परिमंडल के तात्कालीन अधीक्षण प्रवीण मिश्रा जी ने इसके विषय में बताया था और यहाँ जाकर एक बार देखने कहा था, साथ किसी भी जानकारी के लिए नागपुर पुरातत्व मंडल में कार्यरत नंदिनी साहू जी का मोबाईल नम्बर भी दिया था। अब तो सोने में सुहागा हो गया, मन चाही जगह रास्ते में ही मिल गयी। दीदे खोल कर हम आगे बढे। 4 किलों मीटर पर बाएं हाथ की तरफ़ बहुत सी बुद्ध की मूर्तियाँ लगी है तथा बहुत बड़ा इलाका चार दीवारी से घेरा हुआ है। हमने यहीं पूछना उपयुक्त समझा। संस्थान के भीतर प्रवेश करने पर पेड़ की छांव में दो लोग बैठे दिखाई दिए। बाईक स्टैंड पर लगा कर हमने उत्खनित स्थल के विषय में पूछा तो एक व्यक्ति ने पीछे की तरफ़ की पहाड़ी की ओर ईशारा कर दिया। परिचय पूछने पर उसने अपना नाम प्रो रामचंद्र उके एवं संस्थान का केयर टेकर होना बताया।

नागार्जुन स्मारक संस्था एवं अनुसंधान केंद्र
उन्होने कुर्सियाँ मंगवाई, बैठने के बाद उस स्थान के विषय में चर्चा होने लगी। उन्होने बताया कि पहाड़ी पर नागार्जुन से संबंधित पुरावशेष उत्खनन में प्राप्त हुए हैं तथा जापान के आर्थिक सहयोग से यहाँ उत्खनन हुआ है। यहां से एक किलोमीटर की दूरी पर नालंदा के विश्वविद्यालय जैसी संरचना भी प्राप्त हुई है। यह सुनने के पश्चात मेरी जिज्ञासा और बढ गयी। यहाँ उत्खनन करने वाले विद्वान का नाम पूछने पर उन्होने अरुण कुमार शर्मा जी नाम लिया। बताया कि शर्मा जी ने 1998 से 2008 तक यहाँ अपने निर्देशन में उत्खनन कार्य करवाया। अरुण कुमार शर्मा जी से मेरी भेंट होते रहती है। लेकिन नालंदा जैसे विश्वविद्यालय की बात मेरे गले से नहीं उतरी। मैने बैठे-बैठे सोच लिया कि इस स्थल के चित्र लिए जाएं और वास्तविक जानकारी शर्मा जी से सिरपुर जाकर प्राप्त कर लेगें। यही उत्तम रहेगा। हम नागपुर से ही अपने साथ खाने का सामान लेकर चले थे और साथ में पानी भी। 12 बज गए थे और सूरज सिर पर पहुंच कर भीषण आग बरसा रहा था। इतनी गर्मी झेलना बहुत ही कठिन है। संध्या जी गर्मी से हलाकान हो रही थी। पहाड़ी पर चढने पर तो इससे भी अधिक गर्मी झेलनी पड़ेगी। खैर हमने अपनी बाईक वहीं खड़ी की और संस्थान के पिछले दरवाजे से पहाड़ी की ओर चल पड़े……… जारी है मनसर कथा…… आगे पढें

सोमवार, 18 जून 2012

केरा तबहिं न चेतिया जब ढिंग लागी बेर…………… ललित शर्मा

रामगढ से लौटते हुए
कॉलेज के दिनों से ही प्रकृति का सामिप्य एवं सानिध्य पाने, प्राचीन धरोहरों को देखने और उसकी निर्माण तकनीक को समझने की जिज्ञासा मुझे शहर-शहर, प्रदेश-प्रदेश भटकाती रही। कहीं चमगादड़ों का बसेरा बनी प्राचीन ईमारतें, कहीं गुफ़ाएं, कंदराएं, कहीं उमड़ता-घुमड़ता ठाठें मारता समुद्र, कही घनघोर वन आकर्षित करते रहे। मेरा तन और मन दोनों प्रकृति के समीप ही रहना चाहता है। जब भी समय मिलता है, प्रकृति का सामीप्य पाने का कोई मौका छोड़ना नहीं चाहता। संसार विशाल है, यातायात तथा संचार के आधुनिक साधनों ने इसे बहुत छोटा बना दिया। एक क्लिक पर हम हजारों किलोमीटर की दूरी तय कर लेते हैं, एक क्लिक पर मंगल एवं चंद्रमा की सैर पर पहुंच जाते हैं। पर ये आधुनिक साधन है जिनसे हम सिर्फ़ उतना ही देख पाते हैं जितनी कैमरे की आँख देखती है। मनुष्य की आँखे कैमरे के अतिरिक्त भी बहुत कुछ और उससे अलग देखती हैं। कैमरे की आँख में पूरा विषय नहीं समाता। किसी भी दृश्य को आँखों से देखने के बाद उसे सहेजने के लिए निर्माता (ईश्वर) कोई साधन नहीं बनाया। अगर बनाया होता तो कैमरे का अविष्कार ही नहीं होता। इसलिए इन्हे अपनी आँखों से ही देखने की मेरी कोशिश रही है।

अयोध्या में सरयु के किनारे फ़ैली हुई थैलियां
मनुष्य की एक प्रवृति यह भी है कि वह अपने घर का आँगन साफ़ रखना चाहता है पर अपने आँगन का कचरा दूसरे के आँगन में फ़ेकना भी चाहता है। घुमंतु होने के कारण मैने पर्यटन स्थलों पर देखा है कि लोगों को पर्यावरण की तनिक भी समझ नहीं है। वे अपने साथ लाया हुआ कचरा उपयोग के पश्चात जहाँ जाते हैं वहीं फ़ैला देते हैं, छोड़ आते हैं। प्लास्टिक की थैलियाँ हों या पानी की बोतले, यह कचरा कभी भी खत्म नहीं होता। इससे पर्यावरण को हानि पहुंचती है। लोग नदियों के उद्गम, समुद्र के किनारे, नदियों के किनारे बसे हुए धार्मिक स्थलो पर प्लास्टिक का कचरा छोड़ आते हैं। चारों तरफ़ हवा में प्लास्टिक की थैलियाँ ही थैलियाँ उड़ते रहती है। पानी की बोतलें पड़ी रहती है। कचरे को साफ़ करने वाले हाथ सीमित होते और फ़ैलाने वाले लाखों। इन्हे देखकर पर्यावरण एवं प्रकृति प्रेमी सिर्फ़ सिर ही पीट सकता है, दु:खी हो सकता है इसके अलावा कुछ नहीं कर सकता। क्योंकि समझने, समझाने वा्ले कम है, बर्बाद करने वाले लाखों। प्रदूषण से पवित्र गंगा का जल भी प्रदूषित हो चुका है। अब तो गंगा जल का आचमन करने में संक्रमित होने का डर बना रहता है। प्रदूषण का स्तर इतना अधिक बढ गया है, जल-थल-वायु प्रदुषण से मुक्त नहीं है। यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रदूषण ही फ़ैला हुआ है।

वृक्ष के वक्ष पर गोदना 
प्रकृति का श्रंगार वन हैं, हरियाली है, जब मनुष्य शहरी जीवन से ऊब जाता है तो वनों की ओर भागता है, लेकिन वहाँ भी प्रदुषण फ़ैलाने में यहां भी नहीं चूकता, कहीं पेड़ों के तने को खोद कर अपना नाम लिखेगा तो कहीं प्लास्टिक का कचरा फ़ैलाकर वनस्पति को हानि पहुंचाएगा। प्लास्टिक के कचरे में खाने का सामान होने पर लोभवश पशु उसे थैली सहित ही खा लेते हैं जो पशुओं के अमाशय में जमा होकर उनकी मृत्यु का कारक बनता हैं। वनों की अंधाधुन्ध कटाई के साथ बढते हुए शहर और गाँव के कारण वनों में मनुष्य हस्तक्षेप बढते जा रहा है। पशु, पक्षी, अपने प्राकृतिक निवास में असुरक्षित हो गए हैं। पर्यावरण असंतुलन होने के कारण उन्हे भोजन-पानी नहीं मिल पाता और वे शहर,गाँव की ओर आकर ग्रामीणों द्वारा मारे जाकर अकारण ही काल का ग्रास बन जाते हैं। अगर यही स्थिति रही तो कुछ वर्षों में धूप से सिर छिपाने के लिए भी जगह नहीं मिलेगी एवं पीने के लिए पानी नहीं। मनुष्य अपने हाथों ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रहा है। जिस सभ्यता पर उसे गर्व है, उसे अपने हाथों ही खत्म कर रहा है। वह दिन दूर नहीं जब यह सभ्यता भी समाप्त होकर किसी बड़े टीले के नीचे हजारों साल बाद किसी पुराशास्त्री को उत्खनन में प्राप्त होगी और वे इसका काल निर्धारण कर कयास लगाएगें कि इस सभ्यता का विनाश कैसे हुआ?

प्राचीन नाट्य शाला सीता बेंगरा रामगढ सरगुजा
जहाँ कहीं भी पुरातात्विक धरोहरे हैं वहाँ पर मैने देखा है कि कुछ बेवकूफ़ किस्म के पर्यटक दीवारों पर अपने नाम गोद देते हैं। अपने नाम के साथ किसी लड़की का नाम जोड़ कर लिखना  नहीं भूलते, और हद तो तब हो जाती है जब वे दीवालों पर तीर से बिंधा हुआ दिल का चिन्ह बनाते हैं। इस कुकृत्य (इसे कुकृत्य ही कहुंगा) पीछे इनकी मंशा पत्थर पर अपना नाम गोद कर अमर हो जाने की रहती है। जैसे हीर-रांझा, सीरी-फ़रहाद, सस्सी-पुन्नु, लैला-मजनुं, सोहनी-महिवाल, लोरिक-चंदा आदि की प्रेम कहानियाँ अमर हो गई, उसी तरह इतिहास में ये भी याद रखे जाएं। परन्तु इन्हे पता नहीं कि वे जिस पुरातात्विक धरोहर के साथ ऐसा व्यवहार कर रहे हैं वह उनकी गलती के कारण आने वाली पीढी के लिए असुरक्षित हो गयी है। जिस दिन से उन्होने उसके साथ छेड़खानी की, उसी दिन से पुरातात्विक धरोहर के नष्ट होने की उल्टी गिनती शुरु हो गयी। मैने कई जगह देखा कि उत्त्खनन से प्राप्त मूर्तियों पर लोग धार्मिक भावना से सिंदूर पोत देते हैं, रोली लगा देते हैं। अक्षत या फ़ल फ़ूल चढाते हैं, इससे सड़न होकर बैक्टीरिया पैदा होते हैं जिससे कालांतर में प्राचीन मूर्तियों का क्षरण होता है। इनकी सुरक्षा को लेकर लोग संबंधित विभागों पर चढाई करते हैं, लेकिन ध्यान में यह भी होना चाहिए कि देश का नागरिक होने के कारण पर्यावरण, एवं पुरातात्विक धरोहरों की सुरक्षा की महती जिम्मेदारी उनकी भी है।  

सीता बेंगरा रामगढ में मंच का निर्माण कर प्राकृतिक सौदर्य का खात्मा
जिन किलों और महलों के द्वार पर खड़े होने की हिम्मत किसी ऐरे-गैरे इंसान की नहीं होती थी वह मजे से पर्यटक बनकर जाता है और अपनी दुर्बुद्धि का चिन्ह वहाँ छोड़ आता है। अभी मैने रामगढ में ही देखा, गुफ़ा तक पहुचने के लिए सीढियाँ बना दी गयी हैं। गुफ़ा के सामने मंच बना दिया है। जिससे गुफ़ा की प्राकृतिक पहचान खो गयी है। पर्यटक सीढियों से चढ कर सीधे ही गुफ़ा में प्रवेश कर जाते हैं। जहाँ बेशकीमती भित्ति चित्र है, उनका भी क्षरण हो रहा है। नाट्यशाला के सामने चट्टानों पर लोगों ने अपने नाम गोद दिए हैं। जो दूर से ही दिखाई देते हैं। बलुआ पत्थर से निर्मित चट्टानों का धीरे-धीरे क्षरण हो रहा है। महेशपुर में बड़े देऊर मंदिर में शिव की प्रतिमा के समक्ष किसी ने संगमरमर का नंदी स्थापित कर दिया है। वहाँ पूजा पाठ शुरु है। ग्रामीण चौकीदारों का कहना नहीं मानते, उनसे लड़ने पर उतारु हो जाते हैं। मामला धार्मिक आस्था पर जाकर खत्म हो जाता है। मेरी राय में पुरातात्विक धरोहरों तक पहुचने के लिए जब से सड़क का निर्माण हुआ है, तब से पर्यटकों की पहुंच आसान हुई है। इससे धरोहरों को हानि अधिक पहुंची है। पुरातात्विक धरोहरों को बचाने के लिए आम नागरिक को भी इनके प्रति संवेदनशील एवं जागरुक होकर अपना योगदान करना पड़ेगा।  

सिरपुर: चेतावनी के बाद भी कोई नहीं चेतता
दुनिया बहुत बड़ी है, अनेक सभ्यताओं ने यहां जन्म लिया, फ़ली-फ़ूली और फ़ना हो गयी। कोई नहीं बता सकता यह संसार कितनी बार बसा और कितनी बार उजड़ा। संसार के बसने का कारण प्रकृति और ईश्वर है तो विनाश का कारण मनुष्य ही है। अपनी कुबुद्धि से मनुष्य ने इस सुंदर संसार का विनाश ही किया है। इसने पूर्ववर्ती गलतियों से कोई सीख नहीं ली और आज भी नहीं ले रहा है। धरती को उजाड़ने एवं विनाश करने के सारे संसाधन जुटा लिए हैं, परन्तु इसे सुरक्षित रखने की दृष्टि से मनुष्य सभ्य नहीं हुआ है। अगर मनुष्य का बस चलता तो पुरातात्विक महत्व की कोई भी धरोहर इससे बच नहीं पाती, चाहे मोहन जोदडो, हड़प्पा कालीन सभ्यता हो, चाहे मिस्र के पिरामिड हो, चाहे प्रागैतिहासिस काल की प्राचीन खगोल वेधशाला स्टोनहेंज हों, वर्तमान में मनुष्य के समक्ष अपने पूर्वजों के निर्माण एवं उनकी सभ्यता पर गौरव करने के लिए कुछ नहीं बचा होता। इन सबका विनाश अगर प्रकृति ने किया है तो इनका संरक्षण भी प्रकृति ने अपने गर्भ में किया है। कहीं मिट्टी के टीलों में दबी हुई पुराधरोहरें मिली तो कहीं समुद्र की तलहटी में सुरक्षित। परन्तु जैसे ही उत्खनन या अन्य प्रकार से प्रकाश में आईं, इनके विनाश का आगाज़ हो गया और यह अनवरत जारी है। धरोहरों को बचाने की दिशा में समाज को भी जागरुक होना पड़ेगा। तभी हमारी गौरवशाली विरासत बच पाएगी, तभी हम अपनी आने वाली पीढी को सौंप पाएगें।

रामगढ से लौटते हुए तीन ब्लॉगर 
सरगुजा भ्रमण को यहीं विराम देते हैं, अब मिलेगें हम शीघ्र ही मनसर (महाराष्ट्र) में राजा प्रवरसेन एवं महारानी प्रभावती से तथा रामटेक का भी भ्रमण करेगें।

पोस्ट अपडेट: 18/5/12 के सांध्य दैनिक छत्तीसगढ में पोस्ट का प्रकाशन, (पढने के लिए न्युज क्लिप पर क्लिक करें।)

शुक्रवार, 15 जून 2012

रामगढ: सुतनुका देवदासी और देवदीन रुपदक्ष ------------ ललित शर्मा

रामगढ में लगे सरकारी स्टाल
रामगढ छत्तीसगढ के एतिहासिक स्थलों में सबसे प्राचीन है, यह अम्बिकापुर से 50 किलोमीटर दूरी पर समुद्र तल से 3202 फ़ुट की ऊंचाई पर है। रामगढ की पहाड़ी पर स्थित प्राचीन मंदिर, भित्तिचित्रों एवं गुफ़ाओं से सम्पन्न होने के कारण इस स्थान पर प्राचीन भारतीय संस्कृति का परिचय मिलता है। यहाँ सात परकोटों के भग्नावेश हैं। रामगढ पहाड़ी पर स्थित सीता बेंगरा गुफ़ा के समीप ही रामगढ महोत्सव का स्थायी मंच बनाया गया। इस मंच पर ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों का मंचन होना है। मंच के समीप से ही बना हुआ कांक्रीट का रास्ता सीता बेंगरा गुफ़ा तक जाता है जिसे प्राचीन नाट्य शाला कहते हैं। कार्यक्रम प्रारंभ होने में विलंब था तब हमने तय किया गुफ़ा देख कर आया जाए। जंगल में महोत्सव स्थल पर शासन की ग्रामोन्मुख एवं विकासोन्मुख जानकारियाँ देने के लिए सभी विभागों के स्टाल लगे हुए थे। जिसमें पांम्पलेट फ़ोल्डर के साथ जानकारियाँ दी जा रही थी। समीप ही मेले जैसे उत्सव था, खाई-खजानी (मेले के चटर-पटर मिष्ठान) के साथ घरेलु उपयोग में आने वाली वस्तुओं की दुकाने सजी हुई थी। वनवासी मेले एवं सांस्कृतिक कार्यक्रम का आनंद लेने आए हुए थे। पहाड़ के पास कोई बसाहट नहीं है, दुरस्थ वनवासी मेले में शिरकत करने करमा नाच करने अपने मांदर, ढोल के साथ साज श्रृंगार करके बाजे गाजे के साथ अतिथियों का स्वागत करने के लिए आए हुए हैं।

जोगीमारा गुफ़ा  में सुतनुका और देवद्त्त की कथा कहता शिलालेख
हम सीता बेंगरा गुफ़ा में पहुचे। सीता बेंगरा नाम सीता जी से संबंधित होने के कारण पड़ा। पहाड़ में ऊंचाई पर खोद कर इसे बनाया गया है। सामने मुख्य नाटय मंच है तथा दांयी तरफ़ जोगी मारा गुफ़ा है जिसमें हजारों साल पुराने शैल चित्र हैं। जो समय की मार से अछूते नहीं रहे। धीरे-धीरे इनका क्षरण हो रहा है। लाल रंग से निर्मित कुछ शैल चित्र अभी भी स्पष्ट हैं। जोगीमारा गुफ़ा में मौर्य ब्राह्मी लिपि में शिलालेख अंकित है, जिसे राहुल भैया ने पढ कर सुनाया। जिससे सुतनुका तथा उसके प्रेमी देवदीन के विषय में पता चलता है। जोगीमारा गुफ़ा की उत्तरी दीवाल पर पाँच पंक्तियाँ उत्कीर्ण हैं - पहली पंक्ति-शुतनुक नम। दूसरी पंक्ति-देवदार्शक्यि। तीसरी पंक्ति-शुतनुक नम देवदार्शक्यि। चौथी पंक्ति-तंकमयिथ वलन शेये। पांचवी पंक्ति-देवदिने नम। लुपदखे। अर्थात सुतनुका नाम की देवदासी (के विषय में),सुतनुका नाम की देवदासी को प्रेमासक्त किया। वरुण के उपासक(बनारस निवासी) श्रेष्ठ देवदीन नाम के रुपदक्ष ने। जोगीमारा गुफ़ा की नायिका सुतनुका है। जोगीमारा की गुफ़ाएं प्राचीनतम नाट्यशाला और कवि-सम्मेलन के मंच के रुप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।

सीता बेंगरा नाट्य शाला का विहंगम दृश्य
हम जोगीमारा गुफ़ा से सीता बेंगरा गुफ़ा में चढते हैं। आज मेला होने के कारण काफ़ी ग्रामवासी पर्यटक आए हुए हैं। गुफ़ा में राम दरबार की मूर्तियां सजा दी गयी हैं। यहां एक पुजारीनुमा बैगा बैठा है जो मुर्तियों सहारे कुछ आमदनी की आस लगाए हुए है। गुफ़ा के भीतर दोनो तरफ़ कक्ष बने हुए हैं जो सामने से दिखाई नहीं देते। मुझे बताया गया कि नाटक करने वाले कलाकार यहीं पर बैठ कर सजते थे और अपनी पात्र की प्रस्तुतिकरण की प्रतीक्षा करते थे। विद्वानों का कहना है कि भारतीय नाट्य के इस आदिमंच के आधार पर ही भरतमुनि ने गुफ़ाकृति नाट्यमंच की व्यवस्था दी होगी- कार्य: शैलगुहाकारो द्विभूमिर्नाट्यामण्डप:। सीता बेंगरा गुफ़ा पत्थरों में ही गैलरीनुमा काट कर बनाई गयी है। यह 44.5 फ़ुट लम्बी एवं 15 फ़ुट चौड़ी है। दीवारें सीधी तथा प्रवेशद्वार गोलाकार है। इस द्वार की ऊंचाई 6 फ़ुट है जो भीतर जाकर 4 फ़ुट ही रह जाती हैं। नाट्यशाला को प्रतिध्वनि रहित करने के लिए दीवारों को छेद दिया है। प्रवेश द्वार के समीप खम्बे गाड़ने के लिए छेद बनाए हैं तथा एक ओर श्रीराम के चरण चिन्ह अंकित हैं। कहते हैं कि ये चरण चिन्ह महाकवि कालीदास के समय भी विद्यमान थे। मेघदूत में रामगिरि पर सिद्धांगनाओं(अप्सराओं) की उपस्थिति तथा उसके रघुपतिपदों से अंकित होने का उल्लेख भी मिलता है।

सीता बेंगरा में शिलालेखा
पिछले दिनों मै रामटेक की यात्रा पर गया था, वहां भी कहा गया कि कालीदास ने मेघदूत की रचना यहीं रामटेकरी पर की थी। विद्वानों से प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रो वी वी मिराशी द्वारा रामटेक(नागपुर) में रखे गए दो लकड़ी के खड़ाऊं आदि के आधार पर उसे रामगढ बनाने का प्रयास किया था। पर 1906 में पूना से प्रकाशित श्री वी के परांजपे के शोधपरक व्यापक सर्वेक्षण के "ए फ़्रेश लाईन ऑफ़ मेघदूत" द्वारा अब यह सिद्ध हो गया कि रामगढ(सरगुजा) ही श्रीराम की वनवास स्थली एवं मेघदूत का प्रेरणास्रोत रामगिरी है। इस पर्वत के शिखर की बनावट आज भी वप्रक्रीड़ा करते हाथी जैसे है। सीता गुफ़ा के प्रवेश द्वार के उत्तरी हिस्से में तीन फ़ुट आठ इंच लम्बी दो पंक्तियाँ(जिसमें 2.5 इंच अस्पष्ट) उत्कीर्ण हैं। जो किसी राष्ट्र स्तरीय कवि सम्मेलन का प्रथम प्रमाण कही जा सकती हैं। "आदिपयंति हृदयं सभाव्वगरु कवयो ये रातयं… दुले वसंतिया! हासावानुभूते कुदस्पीतं एव अलगेति। अर्थात हृदय को आलोकित करते हैं, स्वभाव से महान ऐसे कविगण रात्रि में… वासंती दूर है। संवेदित क्षणों में कुन्द पुष्पों की मोटी माला को ही आलिंगित करता है।" इस पंक्ति का मैने छाया चित्र लिया। 

सीताबेंगरा नाट्य शाला के समक्ष लेखक
गुफ़ा को भीतर से अच्छे से देखा तथा वहां बैठ कर अहसास किया कि उस जमाने में जब यहां नाटक खेले जाते होगें तो यहां से पहाड़ी के नीचे का दृश्य कैसा दिखाई देता होगा? पात्रों के संवाद बोलने के समय उनकी आवाज कहां तक जाती होगी? गुफ़ा तक जाने के लिए पहाड़ियों को काटकर पैड़ियाँ बनाई गयी हैं। नाट्यशाला(सीता बेंगरा) में प्रवेश करने के लिए दोनो तरफ़ पैड़ियाँ बनी हुई हैं। प्रवेश द्वार से नीचे पत्थर को सीधी रेखा में काटकर 3-4 इंच चौड़ी दो नालियाँ जैसी बनी हुई है। शायद यहीं पर नाटक करने के लिए मंच बनाया जाता होगा। कालीदास के मेघदूत का यक्ष इसी जोगीमारा गुफ़ा में रहता था जहां उसने प्रिया को प्रेम का पावन संदेश दिया था यही के प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन कालीदास ने मेघदूत में किया है। यहीं पर जल का कुंड है। वनौषधियाँ, कंदमूल फ़ल भी इस स्थान पर प्रचूर मात्रा में मिलते हैं। गुफ़ा के सामने शासन द्वारा मंच बनाकर इसके प्राकृतिक सौंदर्य को समाप्त कर दिया गया है। सीमेंट से बना यह मंच मखमल में टाट का पैबंद नजर आता है। पर्यटकों की सीधी पहुंच गुफ़ा तक होने के कारण इसका भी क्षरण हो रहा है। यदि ऐसा ही रहा तो इसका प्राकृतिक सौंदर्य समाप्त हो सकता है।

180 फ़ुट लम्बी सुरंग"हाथी पोल"
गुफ़ा के नीचे पहाड़ी में हाथी पोल नामक सुरंग है। इसकी लंबाई 180 फ़ुट है। पहाड़ी उस पार के निवासी इस गुफ़ा सुरंग के रास्ते सीता बेंगरा तक आते हैं। यह सुरंग इतनी ऊंची है कि इसमें हाथी आसानी से पार हो जाते हैं। इसीलिए इसे हाथी खोल या हाथी पोल कहा जाता है। हम सीता बेंगरा गुफ़ा से नीचे उतर कर हाथी पोल सुरंग में पहुचे, यहाँ सामने खड़े होने पर सुरंग से दूसरे सिरे आता हुआ प्रकाश स्पष्ट दिखाई देता है। सुरंग के भीतर प्रवेश करने पर जानी पहचानी गंध आती है। यह गंध सभी पुरातात्विक स्थलों पर मिलती है। दिमाग भन्ना जाता है, इस गंध से मुझे प्राचीन जगह की पहचान होती है। यह गंध चमगादड़ के मल-मुत्र की है। जहाँ भी गुफ़ाओं या पुरानी इमारतों में अंधेरा रहता है चमगादड़ उसे अपना आदर्श बसेरा समझ कर निवास कर लेते हैं। सुरंग में पहाड़ी से कई जगह पानी रिस रहा है, आए हुए लोग इस पानी को पी रहे हैं। कुछ लोग धूप से बचने के लिए सुरंग में नींद ले रहे है, एक महिला और उसकी बेटी पत्थरों का चुल्हा बनाकर भोजन बना रही है और खाने के लिए ताजा पत्तों की पत्तल का निर्माण हो रहा है। इससे प्रतीत होता है कि आदिम अवस्था में मनुष्य इन कंदराओं में ऐसे ही गुजर बसर करता होगा।

रामगढ पहाड़ी का दृश्य
महाकवि  कालिदास का रामगिरि और सीतबेंगरा से गहरा नाता है। यह पुरातात्विक प्रमाण और कालिदास द्वारा रचित मेघदूत से मिलते हैं। हम कालिदास से तो मिले नहीं पर उनके द्वारा रचित मेघदूत के छंद और यक्ष-प्रिया की प्रेम कथा अभी तक रामगढ के वनों में पहाड़ियों में गुंज रही है। आज भी मधुमक्खियों के छत्तों से उत्तम मकरंद झर रहा है। महुआ के वृक्ष फ़ल फ़ूल रहे हैं, सरई (साल) के वन गर्व से सिर उठाकर आकाश की ऊंचाई से होड़ लगा रहे हैं। गजराज आज भी अपनी उपस्थिति इस अंचल में बनाए हुए हैं। यहां के हाथी इंद्र के एरावत से कम नहीं है। डील-डौल और कद में उतने ही मजबूत है। आषाढ के प्रथम दिन वर्षा का आगमन नहीं हुआ है। बदला है तो सिर्फ़ प्रकृति का चक्र बदला है। मानसून के आगमन की तिथि पीछे रह गयी। वही मांदर की थाप वनवासियों का नाच हो रहा है। जो रामगढ की गौरव गाथा गा रहे हैं उल्लासित होकर। रामगढ से लौट आया पर मेरा मन उन्हीं कंदराओं में अटका हुआ है जहाँ भगवान श्रीराम के चरण पड़े थे, सीता माता ने निवास किया था। महाकवि कालीदास ने मेघदूत रचा था, जहाँ सुतनुका देवदासी और रुपदक्ष (मेकअप मेन) श्रेष्ठी देवदीन का प्रेम हुआ था। फ़िर कभी लौट कर आऊंगा रामगढ यक्ष बनकर प्रिया से मिलने के लिए आषाढ के प्रथम दिवस में। 

बुधवार, 13 जून 2012

दंतैल हाथी से मुड़भेड़ ----------- ललित शर्मा

हेशपुर के मंदिरों के पुरावशेष देख कर जंगल के रास्ते से लौट रहे थे। तभी रास्ते में सड़क के किनारे हाथी दिखाई दिया। एक बारगी तो दिमाग की बत्ती जल गयी। सरगुजा के जंगलों में हाथी का दिखना और देखना दोनो ही खतरनाक होता है। छत्तीसगढ के रायगढ, कोरबा, जशपुर और सरगुजा के जंगलों में हाथियों के उत्पात से प्रतिवर्ष बहुत सी जाने जाती हैं और जंगलवासियों के घर तबाह हो जाते हैं। इन हाथियों से मुकाबला करने एवं बचाव के लिए सरकार के प्रतिवर्ष करोड़ों रुपए खर्च होते हैं। एक बार आसाम से 2003 में ही हाथी विशेषज्ञ पार्वती बरूआ के नेतृत्व में जशपुर में हाथियों को पकड़ने का प्रयोग किया जा चुका था, जिसमें एक हाथी पकड़ा गया और अठारह दिनों में ही मर गया। हाथी के मरने पर प्रदेश सरकार ने पार्वती बरूआ के साथ अपने अनुबंध को समाप्त कर उन्हें वापस भेज दिया। परन्तु जंगली हाथियों से बचाव का कोई हल नहीं निकला। ये वनों के प्राकृतिक वातावरण में स्वछन्द विचरण कर रहे हैं। जिस गांव में प्रवेश कर गए उसे तो पूरा ही तबाह करके छोड़ते हैं। आज इन हाथियों से तकरीबन पूरा एक जिला ही नहीं पूरा संभाग आतंकित है। मानवीय छेड़छाड़ और धान, महुआ शराब के प्रति इनकी रूचि इतनी बढ़ गई है कि हाथियों के एक दल ने जिला मुख्यालय के मायापुर मुहल्ले में अपनी उपस्थिति बताकर शहरी लोगों को भी सावधान रहने चेतावनी दे डाली है।
मेरे द्वारा हाथी का पहला चित्र- सड़क पार से

आज 122 हाथियों का दल पांच दलों में बंटकर इन प्रभावित जिलों में लूटपाट एवं आतंक पैदा कर रहा है। इनमें से लगभग पचास हाथियों के तीन दलों ने जिले में भ्रमण कर सरगुजा जिले को अपने प्रभाव क्षेत्र में कैदकर रखा है। पिछले कुछ सालों में हाथियों ने 72 लोगों को कुचल डाला है।हाथियों का प्राकृतिक आवास और उदरपूर्ति का क्षेत्र लगभग समाप्ति की ओर है इसलिए हाथी सरगुजा में घुस रहे हैं। सिंहभूमि के हाथी भी इन्हीं कारणों से झारसुगुड़ा होकर यहां अपना रहवासी क्षेत्र खोजने आ रहे हैं। स्थानीय जंगलों में इन हाथियों को कुछ सुकून मिल रहा है इसलिए यहां ये बार-बार दस्तक दे रहे हैं। जिले में अवैध कटाई, बस्तियों का अतिक्रमण एवं वनभूमि अधिकार पत्र पाने की होड़ में जंगल रातों-रात साफ हो रहे हैं। इन्हीं कारणों से हाथियों का दल अब मानवीय बस्तियों से भी गुरेज नहीं कर पा रहा है। सरगुजा के नामकरण के पीछे हाथियों का बहुत बड़ा हाथ है। इससे ऐसा भान होता है कि सरगुजा में भारी तादाद में हाथियों की उपस्थिति रही होगी। सरगुजा शब्द सुरगज, सरगजा या स्वर गजा का विकृत रूप हो सकता है। सुरगज- जहां इन्द्रदेव के हाथी ऐरावत जैसे हाथी पाए जाते हों। सरगजा- जहां हाथियों के विशालकाय सिर ही सिर दिखते हों। स्वरगजा- जहां हाथियों का स्वर चिंघाड़ गुजता रहता हो। इस प्रकार सरगुजा नाम की व्युत्पत्ति इन शब्दों से विकृत होकर हो सकती है।
दूसरा चित्र - हाथी के नजदीक जाकर, इसके बाद मेरे मोबाईल की बैटरी धोखा दे गयी

हम हाथी तो बचपन से देखते आए हैं।पालतु हाथी देखे और उसकी सवारी भी की। लेकिन हाथी के प्राकृतिक आवास में उसे पहली बार हम सभी ने देखा। हाथियों का झुंड नहीं था वह अकेला ही सड़क उस पार पेड़ों के बीच खड़ा था। कुछ वनवासी भी सड़क के इस पार खड़े होकर हाथी की गतिविधि देख रहे थे। हमने थोड़ी दूर पर कार रोक दी क्योंकि फ़ोटो लेने का लोभ नहीं छोड़ पा रहे थे। मै, राहुल सिंह, बाबू साहब, के पी वर्मा ने अपना-अपना हथियार(कैमरा) संभाला और चित्र लेने लगे।
बाबू साहब के मोबाईल कैमरे का चित्र

मेरे मोबाईल में दूरी होने के कारण हाथी का चित्र ठीक से नहीं आ रहा था। हाथी को चित्र में कैद करने के लालच से मै सड़क पार करके उसके समीप चला गया। मुस्किल से 20-25 फ़ुट की दूरी होगी। तब हाथी का पार्श्व भाग दिख रहा था। जैसे ही मैने कैमरा साधा उसने मुंह सीधा करके कैमरे की तरफ़ कर लिया जैसे फ़ोटो खिंचाने के लिए पोज दे रहा हो। लेकिन जैसे ही उसने आगे मेरी ओर कदम बढाया, मुझे लगा कि दौड़ाने वाला है। जान बचाकर भागने में ही भलाई है। बस मैने दौड़ लगा दी। मेरे कार के समीप पंहुचते तक सभी साथी कार में समा चुके थे।
समीप से फ़ोटो लेने  के लिए जाते हुए- बाबू साहब के मोबाईल कैमरे का चित्र

हमारे सामने हाथी और कार को उसके सामने से निकालना खतरे से खाली नहीं था। हाथी तो बड़ी-बड़ी बस को टक्कर मार कर पलटा देते हैं। फ़िर उसके सामने कार की क्या बिसात है? तभी लोगों के मना करने के बाद भी एक मोटर सायकिल सवार हाथी के सामने वाले रास्ते से गुजर गया। हाथी का ध्यान उधर बंटते ही हमारे ड्रायवर ने कार आगे बढा दी। डब्लु बी एम रोड़ होने के कारण स्पीड भी नहीं चला सकते थे। पर जीवन में पहली बार जंगली हाथी को इतने करीब से देखा और उसकी फ़ोटो लेना रोमांचित कर गया। फ़ोटो लेते वक्त सभी मित्रों के कैमरे की फ़्रेम ऐसे फ़िट थी कि मजा आ गया।
पोजिशन लेकर मुझे और हाथी को कैद करते बाबु साहब - चित्र: राहुल सिंह जी द्वारा

मै हाथी को फ़ोटो ले रहा था तो बाबु साहब का कैमरा मेरी और हाथी की। फ़िर राहुल सिंह जी का कैमरा मेरी, हाथी और बाबु साहब की फ़ोटो ले रहा था। इसके बाद केपी वर्मा जी अपने एस एल आर कैमरे से हम सबकी फ़ोटो ले रहे थे। मतलब इस मुड़भेड़ के सभी गवाह थे। जंगली हाथी खतरनाक ही होते हैं और एक बार पीछे पड़ गए तो जान बचाना नामुमकिन है। कुछ दिनों पूर्व तीन हाथी हाईवे पर बैठ गए थे। 6 घंटे तक ट्रैफ़िक जाम रहा। सारा प्रशासनिक अमला लगा रहा उन्हे हटाने के लिए, पर वे गए अपनी मर्जी से। जंगली हाथी यह मुड़भेड़ जीवन भर याद रहेगी। क्योंकि जंगली हाथी शेर से भी खतरनाक होता है।
हाथी के आगे बढते ही  रवानगी डालते मैं और बाबु साहब - चित्र: राहुल सिंह जी द्वारा
डॉ के पी वर्मा के पास SLR (रील वाला) कैमरा था, उसके चित्र डेवलप होकर नहीं आए हैं। फ़ुल साईज में देखने के लिए चित्र पर क्लिक करें.
पोस्ट अपडेट - डॉ कामता प्रसाद वर्मा के एस एल आर कैमरे की फ़ोटो

मंगलवार, 12 जून 2012

नींद की खुमारी ------------- ललित शर्मा

किरींग… किरींग… कीरिंग… की आवाज सुनकर चेतना जागी। लगा कि कहीं कुछ बज रहा है चलभाष जैसा, कहाँ बज रहा है? क्यों बज रहा है? आँखे मसलते हुए उठ कर देखता हूँ, टेबल पर पड़े गुप्त चलभाष की घंटी आवाज दे बुला रही है। सुनाई देता है- अब तो उठ जाओ,कब तक सोए रहोगे। तब मुझे अहसास होता है कि मैं सोया हुआ हूँ। फ़ोन सुनने के बाद भी अर्धचेतनावस्था मे ही हूँ। क्या घट रहा है समझ नहीं आ रहा। लगा कि सुबह हो गयी, घड़ी में 6 बज रहे हैं। ओह सुबह की सैर को एक घंटा विलंब हो गया। अब क्या करुंगा सैर पर जाकर, दिन तो निकल गया, सूरज सर पर होगा। अब सुबह की सैर का मजा किरकिरा हो गया। क्यों न आज सुबह की सैर से डूबकी मार ली जाए? कल ही तो गया था सैर पर। बेड पर पड़े-पड़े आवाज लगाता हूँ, मम्मी…… चाय,  मम्मी…… चाय, उठ गया क्या? अभी लाती हूँ, तू गहरी नींद में सो रहा था, सोचा न जगाऊं, सोने दूँ। वैसे भी सोते से जगाना मुझे अच्छा नहीं लगता। मम्मी ने किचन से जवाब दिया।

मै बेड से उठकर किचन में पहुंचता हूँ, फ़्रीज से पानी निकालकर पीना है, प्यास लग रही है जोरों से। खिड़की के पार अभी उजास दिखाई दे रही है जैसे सूर्य निकलने वाला है। मम्मी रोटियाँ सेक रही है। इतनी जल्दी रोटियाँ बनाने की जरुरत क्यों आन पड़ी? अभी तो ठीक से सुबह भी नहीं हुई है। दूसरे चुल्हे पर चाय चढी देख कर मन को तसल्ली होती है। वापस बेड पर आ जाता हूँ, चाय पीकर थोड़ी देर और सोया जाए, आज मार्निंग वाक की पक्की छुट्टी। कोई कहेगा तब भी नहीं जाऊंगा। थकान सी मन और तन पर है, अलसाई सी सुबह, कुछ बेहतर अहसास नही। तभी ख्याल आता है कि वार्ता तो लिखना ही भूल गया रात को। कल संगीता जी ने लिखी थी और आज मुझे लगानी थी। कोई बात नहीं, अभी कौन सी देर हुई है। चाय पीकर लगा दुंगा। कमरे से खिड़की के बाहर देखता हूँ, आम के वृक्ष पर कोयल कूक रही है। मन कोयल की कूक के साथ रम जाता है चाय की प्रतीक्षा के साथ, अगर सुबह की चाय न मिले तो लगता ही नहीं कि दिन निकल गया है, लत सी हो गयी है। शाम को चाय की कोई अधिक दरकार नहीं। वैसे भी मैं चाय नहीं के बराबर ही पीता हूँ, पर सुबह होने का अहसास तब होता है जब गरमा-गरम चाय का कप मेरे हाथ में होता है और आँख बंद किए पीता रहता हूँ।


कभी-कभी एक आँख खोलकर देख लेता हूँ, दोनों आँखे खोलने में आलस आता है। मम्मी हँसती है - तेरी बचपन की आदत अभी तक गयी नहीं। चाय पीकर फ़िर सो जाएगा। नहीं अब नहीं सोऊंगा, कुछ काम करना है मुझे, पर घूमने नहीं जाऊंगा। चाय पीने के बाद पीसी ऑन करता हूँ, तभी एक मित्र चैट पर आते हैं, वे भी मार्निंग वाक करते हैं और कभी-कभी मानिंग वाक के साथ चलते-चलते मोबाईल से ही चैट पर आ जाते हैं। उनसे पूछता हूँ - मार्निंग वाक पर हो? नहीं… घर पर पीसी पर हूँ। मै कल वार्ता नहीं लगा पाया। कोई बात नहीं, अभी लगा देता हूँ। कोयल लगातार कूके जा रही है, खिड़की से देखता हूँ कालू कुत्ता रेत के ढेर पर अठखेलियाँ कर रहा है, तभी उसका एक जोड़ी दार और आ जाता है, दोनो मस्ती करने लगते हैं, रेत के ढेर पर कुश्ती करने का मजा ले रहे हैं। मै वार्ता लगाने के लिए डेशबोर्ड खोलता हूँ, चैट पर हाजिर एक वार्ताकार मित्र से पूछता हूँ- कल की वार्ता लगाई किसी ने? क्या हो गया आपको…… कल की वार्ता संध्या जी ने लगाई थी और आज की संगीता जी ने। कौन सा वार है आज? सोमवार…… मै पीसी की सिस्टम ट्रे पर कर्सर ले जाता हूँ, तो 11 जून सोमवार दिखा रहा है। हद हो गयी ये क्या हो रहा है? सब कुछ उल्टा-पुल्टा, मेरी तो समझ के बाहर का काम हो गया।

कुर्सी से उठकर मुंह धोकर आता हूँ। खिड़की से देखता हूँ तो सुबह होने की बजाए अंधेरा गहराने लग रहा है। हम्म! अब समझ में आता है कि शाम हो रही और रात होने वाली है। मतलब मैं दोपहर में सोया था और शाम को जागा, लगा कि सुबह हो गयी। मम्मी रात का खाना बना कर रख रही थी। तभी तो मैं कहूं कि इतनी सुबह कभी खाना नहीं बनता, आज कैसे बन रहा है? नींद का खुमार उतरने लगता है धीरे-धीरे और सब कुछ फ़िर समझ आने लगता है। दोपहर को गहरी नींद में सोया और पता ही नहीं चला कहां, कब सोया। कभी-कभी ही आती है ऐसी नींद, जिसमें शरीर की जैविक घड़ी भी धोखा दे देती है। सुबह और शाम में अंतर करना कठिन हो जाता है। मम्मी कहती है- बिजली का बिल आया है। कितने का है?…… मैने देखा नहीं… कोई गेट पर ही टांग कर चला गया था। मम्मी बिजली का बिल लाकर देती है तो मै पूरे ही होश में आ जाता हूँ, एक झटके से खुमारी उतर जाती है…… 4840/- रुपए। बहुत ज्यादा बिल आया है? क्या एक मही्ने में हमने इतनी बिजली जला ली?…… कोई मीटर रीडिंग करने आया था क्या इस महीने? … नहीं आया……। बस यही झमेला है…… घर बैठे रजिस्टर में रीडिंग भर देते हैं। जिसका खामियाजा उपभोक्ता को भरना पड़ता है। अब मगजमारी करो बिजली ऑफ़िस में जाकर। तब भी वे बिल कम करने वाले नहीं है। इतना ही भरना पड़ेगा।


आम के पेड़ पर हलचल मची हुई है, मम्मी कहती है - बंदर फ़िर आ गए। इन लंगुरों ने इस साल बहुत नुकसान किया। पहले नहीं थे, लेकिन पिछले दो साल से न जाने कहां से पूरी डार की डार ही पहुंच गयी। इस साल तो हम कैरियां भी नहीं तोड़ पाए। इंतजार कर रहे हैं आमों के पकने का। जब एक बारिश आए तो पेड पर पके हुए आम खाने का मजा ही कुछ और है। लेकिन ये लंगुर छोड़ेगें तब न। आधा खाते है और आधा गिराते हैं जो किसी के काम का नहीं होता। मिट्ठू और कोयल जितना नहीं खाते उससे अधिक नुकसान बंदर कर जाते हैं और इनका इलाज हकीम लुकमान के पास भी नहीं। बाहर जाकर भगाता हूँ उन्हे, उनका सरदार मेरी तरफ़ खों खों करके चिल्लाता हुआ भाग कर टीले पर बैठ जाता है। सारे वहीं इकट्ठे हो जाते हैं, प्रतीक्षा में कि मैं जाऊं और वे फ़िर आम के पेड़ पर मौज मस्ती शुरु कर दें। उदय होता तो उसे पटाखे फ़ोड़ने कहता, जिससे दो-चार दिन के लिए आराम मिल जाता। लेकिन बंदर अब पटाखों  की आवाज से परिचित हो गए हैं। क्योंकि सड़क पर किसी नेता के आगमन पर रोज धमाके होते हैं उनके चमचों द्वारा।

कभी नींद आने में बहुत समय लग जाता है, करवटें बदलते रहो नींद नहीं आती। बिस्तर पर पड़े रहो तो कम्पयुटर की हार्डडिस्क जैसे दिमाग चलता ही रहता  है। जैसे घड़ी चलते रहती है। पुन: उर्जा संचय करने के लिए गहरी नींद जरुरी है। एक मित्र का कहना है कि- दिन भर काम करके अपने को इतना थका दो कि बिस्तर पर पड़ते ही नींद आ जाए। एक गहरी नींद आदमी को तरोताजा कर देती है। थकान उतर जाती है और नए सिरे से काम में लग जाता है। नींद का आना भी जरुरी है, निठल्ले ब्लॉगर को नींद आने पर सपने भी कमेंट के दिखाई देते हैं। अगर बिना सपनों के चैन की नींद आए तो क्या बात है, जैसी आज आई मुझे। 4 घंटे की चैन की नींद ने उर्जा भर दी तन मन में। सोचता हूँ वह नींद कैसी होगी, जिसकी सुबह नहीं होती? न प्रतिदिन का जागना होगा न सोने की तैयारी। एक लम्बी नींद अगले जन्म में काम करने के लिए भरपूर उर्जा भर देती होगी। लेकिन इस लम्बी नींद से सब डरते हैं। जो सोया है उसके उठने की प्रतीक्षा की जाती हैं, नहीं उठता है तो झिंझोड़ कर उठाया जाता है। फ़िर भी नींद तो नींद ही हैं। चाहे छोटी हो या लम्बी……  आखिर उर्जा तो देगी ही जीवन के लिए……।

सोमवार, 11 जून 2012

महेशपुर ---------- ललित शर्मा

बड़े देऊर मंदिर, के पी वर्मा,ललित शर्मा, राहुल सिंह
महेशपुर की ओर बढ रहे हैं, उदयपुर रेस्टहाउस से आगे जाकर दायीं तरफ़ के कच्चे रास्ते पर गाड़ी मोड़ने का आदेश मिलता है। यह रास्ता आगे चलकर एक डब्लु बी एम सड़क से जुड़ता है। थोड़ी दूर चलने पर जंगल प्रारंभ हो गया जहां सरई के वृक्ष गर्व से सीना तान कर खड़े हैं जैसे सरगुजा के वैभव का बखान कर रहे हों। सरगुजा है ही इस लायक रमणीय और मनोहारी, प्राकृतिक, सांस्कृतिक एवं पुरासम्पदा से भरपूर्। जिस पर हर किसी को गर्व हो सकता है। गर्मी के इस भीषण मौसम में भी सदाबहारी वृक्षों से हरियाली छाई हुई है। महुआ के वृक्षों के पत्ते लाल से अब हरे हो गए हैं। फ़ूल झरने के बाद अब फ़ल लगे हुए हैं, जिन्हे कोया, कोवा, टोरी कहते हैं। इनका तेल निकाला जाता है। तेल निकालने के बाद खल भी कई कार्यों में ली जाती है। पेड़ों पर परजीवी लताएं झूल रही हैं। जंगल का जीवन मनुष्य से लेकर वन्यप्राणियों एवं पेड़ पौधों से लेकर पशु पक्षियों तक एक दूसरे पर ही निर्भर है। कह सकते हैं कि सभी एक दूसरे पर ही आश्रित हैं। तभी जीवन गति से आगे बढ रहा है। वरना किसी की क्या बिसात है जो दो पल भी जीवन का सुख या दु:ख झेल ले। शाम होने को है, कच्ची सड़क के 5 किलोमीटर की एक पक्की सड़क आती है जो सीधे महेशपुर के पुरावशेषों तक ले जाती है। कुल मिलाकर उदयपुर से महेशपुर की दूरी 12 किलोमीटर है।

मंदिर की ताराकृति प्रस्तर जगती
महेशपुर रेण नदी के तट पर बसा है, यह क्षेत्र में 8 वीं सदी से लेकर 11 वीं सदी के मध्य कला एवं संस्कृति से अदभुत रुप से समृद्ध हुआ। इस काल के स्थापत्य कला के भग्नावेश महेशपुर में यत्र-तत्र बिखरे हुए हैं। उपलब्ध पुरासम्पदा की दृष्टि से महेशपुर महत्वपूर्ण पुरातत्वीय स्थल है। यहाँ शैव, वैष्णव एवं जैन धर्म से संबंधित पुरावशेष मिलते हैं। रियासत कालीन प्रकाशित पुस्तकों में महेशपुर प्राचीन स्थल एवं शैव धर्म के आस्था स्थल के रुप में उल्लेखित है।अभी भी कई बड़े टीलों का उत्खनन होना है। जिससे इस स्थान  के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलेगी तथा इसका इतिहास प्रकाश में आएगा। सड़क मार्ग से जुड़ा यह पुरास्थल अम्बिकापुर से 45 किलोमीटर की दूरी पर है। इस रास्ते से ही भगवान राम का दण्डकारण्य में आगमन हुआ और उन्होन वनवास का महत्वपूर्ण समय यहाँ पर व्यतीत किया। दण्डकारण्य सरगुजा के लेकर भद्राचलम तक के भू-भाग को कहा जाता है। जनश्रुति के अनुसार जमदग्नि ॠषि की पत्नी रेणुका ही इस स्थान पर रेण नदी के रुप में प्रवाहित है। रेण नदी का उद्गम मतरिंगा पहाड़ है और यह अपने आंचल में प्रागैतिहासिक काल से लेकर इतिहास के पुरावशेषों को समेटे हुए है।

विध्वंस कथा:विशाल वृक्ष की जड़ में फ़ंसा मंदिर का आमलक
हमारी कार सबसे पहले बड़का देऊर कहे जाने वाले शिव मंदिर के सामने रुकती है। सन 2008 में पुरातत्व एवं संस्कृति विभाग छत्तीसगढ द्वारा पुराविद जी एल रायकवार के निर्देशन में यहाँ उत्खनन प्रारंभ हुआ। उत्खनन से विभिन मंदिरों की संरचनाएं सामने आई और दक्षिण कोसल की एतिहासिक शिल्पकला प्रकाश में आई। हम शिव मंदिर का निरीक्षण करते हैं, मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। पत्थरों से बनी ऊंची जगती पर स्थापित यह मंदिर ताराकृति में बना हुआ है। पुराविद कहते हैं कि ताराकृति मंदिर की बनावट बहुत कम देखने मिलती है। शिल्पकारों के बनाए नाप जोख के निशान अभी भी पत्थरों पर निर्माण की मूक कहानी कहते हैं। हम मंदिर की जगती के चारों तरफ़ घूम कर देखते हैं। मंदिर का सिंह द्वार पश्चिम की ओर है अर्थात मंदिर पश्चिमाभिमुख है। आस-पास मंदिरों के प्रस्तर भग्नावेश बिखरे पड़े हैं। मंदिर की पश्चिम दिशा में रेण नदी प्रवाहित होती है। मंदिर के प्रांगण में सैकड़ो वर्ष पुराने वृक्ष इन मंदिरों की तबाही की गाथा स्वयं कहते हैं। किसी कारण वश जब इनकी मंदिरों की देख रेख नहीं हो रही होगी तब इन वृक्षों की जड़ों ने मंदिरों को तबाह किया। 

वामन और राजा बली
यहाँ से हम आगे चल कर दायीं तरफ़ स्थित टीले की ओर जाते हैं वहाँ सैकड़ो प्रस्तर मूर्तियाँ खुले में रखी हुई हैं। जिन्हे देख कर महेशपुर के वैभवशाली अतीत की एक झलक मिलती है। हमने मुर्तियों के चित्र लिए तथा बायीं तरफ़ स्थित मंदिरों की देखने गए। यहां भी सैकड़ों मुर्तियां एवं मंदिरों के विशाल आमलक पड़े हैं। एक आमलक तो वृक्ष की विशाल जड़ में फ़ंसा हुआ दिखाई दिया। मंदिरों की जगती एवं दीवारों को अपनी जड़ों से जकड़े विशाल वृक्ष खड़े हैं। कुछ टीलों का पुरातत्व विभाग ने उत्खनन कर मुर्तियों को बाहर निकाला है। अभी भी सैकड़ों टीले कई किलोमीटर में जंगल के भीतर फ़ैले हुए हैं जिनका उत्खनन करना बाकी है। इन मंदिरों को त्रिपुरी कलचुरी काल में निर्मित बताया गया है। त्रिपुरी कलचुरी राजाओं की राजधानी जबलपुर में स्थित थी। महेशपुर की विशालता से पता चलता है कि यहां तीर्थयात्री आते थे तथा यह स्थान दंडकारण्य में प्रवेश करने का द्वार रहा होगा। यहीं से होकर यात्री रतनपुर एवं रायपुर ओर बढते होगें।

आदिनाथ
इस स्थल के पास से आदिनाथ की प्रस्तर प्रतिमा प्राप्त हुई है। पुराविद कहते हैं कि आदिनाथ की यह प्रतिमा कहीं अन्य टीले से लाकर यहाँ रखी गयी होगी। इस स्थल पर रखी हुई मूर्तियों में विष्णु, वराह, वामन, सू्र्य, नरसिंह, उमा महेश्वर, नायिकाएं एवं कृष्ण लीला से संबंधित मूर्तियां प्रमुख हैं। इस स्थान से 10 वीं सदी ईसवीं का भग्न शिलालेख भी प्राप्त हुआ है। उत्खनन से प्रागैतिहासिक काल के कठोर पाषाण से निर्मित धारदार एवं नुकीले उपकरण भी प्राप्त हुए हैं। उत्खनन से महेशपुर की कला संपदा का कुछ अंश ही प्रकाश में आया है। महेशपुर की प्राचीनता का प्रमाण प्राचीन टीलों, आवसीय भू-भागों, तथा सरोवरों के रुप में वनांचल में 2 किलोमीटर तक फ़ैले हैं। महेशपुर की शिल्पकला को देखकर दृष्टिगोचर होता है कि वह समय शिल्पकला के उत्कर्ष दृष्टि से स्वर्णयुग रहा होगा। महेशपुर से उत्खनन में प्राप्त दुर्लभ शिल्प कलाकृतियाँ हमारी धरोहर हैं। इन्हे संरक्षित करना सिर्फ़ शासन का ही नहीं नागरिकों का कर्तव्य भी है। इस स्थान को देख कर मन रोमांचित होकर कल्पना में डूब गया कि आज से हजारों वर्ष पूर्व यह स्थल भारत के मानचित्र में कितना महत्वपूर्ण स्थान रखता होगा। जो आज खंडहरों में विभक्त हो धराशायी होकर मिट्टी के टीलों में दबा पड़ा है।

नृसिंह  
महेशपुर के विषय में शोध होना अभी बाकी है। यहां के मंदिरों एवं भवनों का निर्माण कराने वालों के नाम उल्लेख अभी प्रकाश में नहीं आया है। निर्माणकर्ताओं का नाम प्रकाश में आने के पश्चात छत्तीसगढ की गौरवमयी विरासत में एक कड़ी और जुड़ जाएगी। मंदिर के समीप ही उत्खनन में प्राप्त प्रतिमाओं एवं सामग्री को रखने के लिए संग्रहालय का निर्माण अपने अंतिम चरण में है। संग्रहालय की छत टीन की चद्दरों की है, चौकीदार ने बताया कि बिजली लगने पर संग्रहालय में प्रतिमाएं रख दी जाएगीं जिससे प्रतिमाओं का क्षरण एवं चोरियाँ न हो। मूर्ती तस्करों निगाह खुले में पड़ी मूर्तियों पर रहती है। जिसे चोरी करके वे अंतर्राष्ट्रीय बाजार में बड़ी कीमत में बेचते हैं। सूर्य अस्ताचल की ओर जा रहा है, आदिनाथ टीले के पार्श्व में बने एक मकान में फ़लदान (सगाई) का कार्यक्रम चल रहा है। सगे-संबंधी महुआ रस के साथ नए संबंधों के जुड़ने का गर्मजोशी से स्वागत कर रहे हैं। खंडहर हुए महेशपुर में भी कभी ढोल नगाड़े बजते होगें तीर्थयात्रियों, पर्यटकों, पथिकों की चहल-पहल रहती होगी। दुकाने एवं बाजार सजते होगें। वर्तमान दशा को देखकर लगता है कि संसार में कुछ भी स्थायी नहीं है। चाहे बनाने वाले ने कितना ही मजबुत और विशाल निर्माण क्यों न किया हो? हम समय के साथ अपने आश्रय स्थल पर पहुचने के लिए चल पड़ते है।