मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

रेणुका के तट पर यादों की धुंध

तम्बू से बाहर निकला, रेणुका धुंध की चादर ओढ स्थिरता से बह रही थी, सूर्य की किरणें कोहरे की चादर को भेदने का प्रयास कर रही थी। कोहरा भी आज चादर लेकर नहीं, रजाई लेकर आया था और उसने भी ठान लिया था आज तो उसकी ही विजय होगी। बाहर से तम्बू ओस से भीगा हुआ था, पचकौड़ रात को कह रहा था " साहब यहाँ तम्बू मत लगाईए, रात को भालू आते हैं और जंगली सुअर भी।" मैने उसे टालते हुए कह दिया कि मुझे इनसे बचने का मंत्र मालूम है।वो तो अपने गाँव चला गया और मैं रह गया तम्बू में अकेला। अलाव में 3 मोटे लट्ठे लगा दिए थे, दो करदीप जला कर लटका दिए ताकि उनसे ऊष्मा बनी रही।

शीत लहर सी चल रही थी, नदी किनारे की रेत ठंडी हो चुकी थी, ऐसा लगता था कि इग्लू में सोया हूँ। ठंड का असर देख कर स्लीपिंग बैग के भीतर अपना सुलेमानी कोट पहनकर सोया। जब तुम नहीं होती तो कोट से निकली उष्मा तुम्हारे सानिध्य सी राहत देती है मुझे, सीने लगा कर सो जाता हूँ, सीना गर्म रहे तो शिराओं में रक्त जमने का खतरा कम हो जाता है, धमनियाँ उष्मा पाकर सुचारू रुप से कार्य करती हैं। तुम्हारी यादों के इलेक्ट्रोन, प्रोट्रोन, न्यूट्रोन, गॉड पार्टिकल्स जैसे लघु परमाणु  विस्फ़ोट करते रहते हैं। यही तो देह के विद्युत केन्द्र हैं, जो सतत उर्जा बनाए रखते हैं। 

हाँ! एक चीज तो भूल रहा हूँ, जो मय तुमने नयनों से पिलाई थी, सदियाँ बीत गई, उसका असर अभी तक है। महुआ तो बेवफ़ा है, चढता है और उतर जाता है। मगर तुम्हारी वफ़ा की मय जब से मुंह लगी है उतरती ही नहीं है। मय का सागर उमड़ता घुमड़ता है इन नयनों में। पता नहीं कौन सा जादू है, आँखें बंद करते ही भीतर उतर जाता हूँ, चलचित्र सा चलने लगता है। बाहर अंधेरा होते ही भीतर उजाले का विस्फ़ोट हो जाता है। चकाचौंध इतनी अधिक कि प्रकाशमय सतरंगी वलय आसमान में उड़ते दिखाई देते हैं। मन करता है उन वलयों को पकड़ कर तुम्हारे गले का हार बना दूँ। जब तुम आओ तो तुम्हारे साथ-साथ इन्द्रधनुष चले। मैं तो मय पीकर मत्त रहना चाहता हूँ। मुझे ऐसी तंद्रा चाहिए जिससे बाहर आना ही न हो।

नदी किनारे की रेत पर टहलते हुए सोचता हूँ कि पूर्व जन्म में भी कभी मेरा काफ़िला यहीं रुका होगा। आज भी कारवां यहीं ठहरा है, अलाव की राख में दबी चिंगारी को एक बार फ़िर हवा देकर मैने अग्नि प्रज्वलित की है। बनजारा एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव की ओर आगे बढ जाता है परन्तू कभी चूल्हे में या अलाव में पानी डाल कर अग्नि को शीतल नहीं करता। उसकी अग्नि सतत प्रज्वलित रहती है। यही अग्नि उसे अगले पड़ाव तैयार मिलती है, बनजारे की बाट देखते हुए। अग्नि जीवन से लेकर मृत्यू तक साथ निभाती है, इसी आशा में कि फ़िर वह स्वर्णकार आएगा और अपनी फ़ूंक से राख उड़ा कर अग्नि प्रज्जवलित करेगा। राख को राख कर देगा, धूंआ को धूंआ कर देगा, अग्नि को स्वर्णिम बना देगा।

इस वीराने में सिर्फ़ मैं हूँ और तुम हो, साथ है नदी का बहता हुआ जल, किनारे पर सदियों से खड़े वृक्ष मेरी ओर ताक रहे हैं, शायद सोच रहे हैं, आज फ़िर यह मुसाफ़िर अकेला है। कैसा पागल है, घूम फ़िर कर फ़िर यहीं डेरा लगा लेता है। शायद कुछ गाड़ कर गया है यहाँ। उसे ही पुन: पाने की अभिलाषा इसे बारम्बार यहाँ खींच लाती है। हाँ! गाड़ा है मैने, यहाँ जीवन की सुनहरी यादों को। उसकी पैरी की खनखनाहट आज भी मेरे कानों में सुनाई देती है। बस उसी खनखनाहट सुनने चले आता हूँ मैं। कांसे की लघु घंटिकाओं की मघुर ध्वनि मुझे रोमाचिंत कर देती है। उसके स्वागत में रोम-रोम उर्जा से भर जाता है। लगता है कि उन्मुक्त आकाश में विचरण कर रहा हूँ। नर से नारायण हो गया हूँ।

पैरों तले का रेत कसमसाकर मुझे वास्तविकता का बोध कराता है, रेत के कसमसाने की ध्वनि मुझे सुनाई दे रही है। परन्तु मधुर लघु घंटिकाओं की ध्वनि के बीच यह ध्वनि मंद हो गई। कदम आगे बढाते ही जूते रेत में धंस कर उसे रौंद रहे हैं। जूतों के तले  से होता हुआ अहसास मस्तिष्क की शिराओं तक पहुंच कर झनझना रहा है।  रेत के नीचे बहती हुई नदी इशारा कर रही है कि जम कर कदम रखो वरना बह जाओगे। न जाने तुम्हारे जैसे कितने बह गए इस बहते हुए जल में। मुझे डर नहीं है बह जाने का। अगर बह जाऊंगा तो कहीं न कहीं किनारा मिल गया जाएगा। फ़िर जीवन की डोर भी इतनी कमजोर नहीं होती। नदी के साथ साथ चलती है। पकड़ ही लूंगा उसे किसी घाट पर।

चिड़ियाँ चहचहाने लगी, धुंध और भी गहरी होती जा रही थी। सूरज की किरणें जितनी ताकत लगा रही थीं, उससे अधिक धुंध पसरती जा रही थी। चिड़ियों की चहचहाट का मधुर संगीत मुझे प्रकृति के साथ जोड़ रहा है। बीच-बीच कौंवे की कर्कश कांव कांव मधुर वीणा के संगीत के बीच ड्रमर द्वारा ड्रम ठोकने का अहसास करा रही हैं। दोनों की जुगलबंदी चल रही है। चिड़ियों की चहचहाट के साथ कौंवे की काँव काँव बढते जाती है। लगता है आज संगीत का मुकाबला ये जीत ही लेगें। हठधर्मिता है इनकी। कहाँ चिड़ियों का मधुर गान और कहाँ कौंवों की कर्कश ध्वनि। चलना चाहिए अब मुझे यहाँ से, जुगलबंदी छोड़ कर नदी किनारे से तम्बू की ओर लौट आता हूँ।

अलाव की बिखरी हुई लकड़ियों को समेट कर उन्हें थोड़ी सी हवा देता हूँ, हवा मिलते ही भभक कर ज्वाला आसमान की तरफ़ लपकती है। आज इन ज्वालाओं को भी आसमान से निपटने दिया जाए। उसे अपने आसमान होने पर बहुत घमंड है। ये ज्वालाएं उसके घमंड की जमी हुई बर्फ़ को भी पिघलाने की ताकत रखती हैं। अलाव के पास रखी शिला पर बैठ जाता हूँ। जैसे यह विक्रमादित्य का बत्तीस पुतलियों वाला सिंहासन हो। सिहांसनारुढ आसमान से टक्कर लेती ज्वालाओं का खेल देखने वाले सिर्फ़ तीन ही हैं, मैं हूँ, तुम हो और सामने वृक्ष पर बैठी काली चिड़िया है और सदियों पुरानी वही कहानी है जो बनजारे छोड़ चले।

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

न तो कारवां की तलाश है, न तो हमसफ़र की तलाश है

नुष्य सब कुछ साध लेता है पर प्रकृति को नहीं साध पाया। वह अपनी मन मर्जी से चलती है, कहीं धूप कहीं छाया, कहीं बारिश कहीं सर्दी। सफ़र पर निकलने से पहले सोचता हूँ कि सामान कम हो, क्योंकि सामान का बोझ मुझे ही उठाना है। पीठ पर जितना सामान कम होगा, सफ़र उतनी आसानी से तय होगा। यदि 2 कपड़ों  में काम चल जाए तो एक ही रखना पसंद करुंगा। नवम्बर-दिसम्बर में उत्तर भारत में कड़ाके ठंड पड़ने लगती है। रेगिस्तानी इलाके में रात ठंडी होने से रेत ठंडा हो जाता है और ठंड बढ जाती है। गुलाबी होती हुई ठंड लाल होकर जला देने की क्षमता प्राप्त कर लेती है। जब ढेर सारे गर्म कपड़े लेकर जाता हूँ तो उनकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती और जब ठंड के कपड़े कम रखता हूँ तो जान लेवा ठंड का सामना करना पड़ता है। इस तरह के मौसम घुमक्कड़ी में आड़े आते हैं। अबकि बार गर्म ओव्हर कोट रख लिया, जो किसी रजाई से कम नहीं है। पहनकर सोने पर ओढने की जरुरत नहीं पड़गी।
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डिस्पले पर गाड़ी का नम्बर और कोच नम्बर दिखाई देने लगा, वरना आधे घंटे से मरणासन्न पड़ा हूआ था। अपना सामान उठा कर निर्धारित स्थान पर ले आया और स्तम्भ के सहारे टिक कर बैठ गया। साथ ही एक अधेड़ महिला पुरुष का जोड़ा भी बैठा हुआ था। तभी करीना कपूर जैसी जीरो साईज वाला लड़का आ पहुंचा, उसने महिला और पुरुष का चरण स्पर्श किया तथा भृकूटी एवं हाथ संचालित करते हुए उनसे बात करने लगा। हर शब्द पर उसकी भाव भंगिमा बदल जाती थी। होठों से अधिक सैन से बातें कर रहा था। गजब के संकेत दिखाई दे रहे थे उसके चेहरे पर मुख मुद्रा के साथ। लगा कि उसमें स्त्री आत्मा का प्रतिशत कुछ अधिक है, हारमोनल बैलेंस बिगड़ गया। उसकी मम्मी ध्यान से सुन कर उसे घर जाने की हिदायत दे रही थी। वो भी बेचारी क्या करे, बेटी जैसा बेटा जनने की तकलीफ़ तो उठानी पड़ेगी। बाप सिर झुकाए शायद सोच रहा था कि वह कौन सी घड़ी थी, जब दुर्घटनावश गर्भाधान हुआ होगा।
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प्लेटफ़ार्म का डिस्पले नम्बर बदल गया। जहाँ बैठे थे वहाँ से एक फ़र्लांग दूर हमारा डिब्बा लगेगा। क्या करते हम? अपना सामान लादे पहुंच गए नियत डिसप्ले के समीप। रेल्वे वालों को किराया बढाने से सरोकार है, यात्रियों सुविधाओं की ओर कोई ध्यान नहीं है। ट्रेन आने के समय पर प्लेटफ़ार्म बदल देते हैं। उस वक्त सवारियों को कितनी तकलीफ़ों का सामना करना पड़ता है। सवारियों में कई व्याधिग्रस्त भी होते हैं जो सहजता से प्लेटफ़ार्म नहीं बदल सकते। वे रिजर्वेशन टिकिट होने के बाद भी ट्रेन नहीं पकड़ पाते। उनका हर्जाना कौन देगा? भारतीय रेल भी भगवान भरोसे चल रही है। करोड़ों मुसाफ़िर अपनी जान जोखिम में डाल कर यात्रा करते हैं। थोड़ी देर के लिए प्लेटफ़ार्म पर हल-चल मच जाती है। जैसे कोई तूफ़ान आ गया हो। सवारियाँ भी अपने साथ अतिरिक्त सामान लेकर यात्रा करती हैं, जिसका खामियाजा ऐसे वक्त ही उठाना पड़ता है। ट्रेन आ गई। मैने अपने लिए 30 नम्बर की बर्थ ली थी। उपर की बर्थ पर आराम से सो कर सफ़र काटा जा सकता है। न किसी की किच-किच न किसी की झिक-झिक।
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ट्रेन ने सरकना शुरु किया। सांझ ने साथ छोड़ दिया और निशा ने अपनी ड्यूटी संभाल ली। बैग सिरहाने लगाया और लेट गया। अब बर्थ पर आने के बाद निशा से मिलन होने पर निद्रा रानी का आना भी तय था। वह प्यार से मेरे बाल सहलाती रही। कभी कान में फ़ुसफ़ुसाती, कभी वन, टू, थ्री, फ़ोर का गाना सुनाती। उसका मधूर स्वर मादक होकर कानों में रस घोल रहा था। मैं उसकी चूड़ियों से खेलने लगा। जैसे पहली कक्षा में पढ़ते वक्त मनके वाली स्लेट से गिनती करता था। सावधानी इतनी थी कि चूड़ियाँ आपस में टकरा कर कहीं खनक न जाएं। यहाँ प्यार की पाठशाला में पढाई शुरु थी कि निद्रा रानी ने अब अपने बाहूपाश में बांध लिया। न कुछ सुनाई दे रहा था न कुछ दिखाई। कभी-कभी कानों में ट्रेन की पहियों की आवाज सुनाई दे जाती। सफ़र जारी था, ट्रेन के पहियों की आवाज कब दूर चली गई पता न चला। निद्रा रानी ने स्वप्न द्वार उनमुक्त कर दिया। 
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मर्द के सपने में औरतें दिखाई देती हैं या फ़िर वे जो उसके कभी अत्यधिक करीबी थे और इस दुनिया में नहीं रहे। कइयों से सुना कि सपने में फ़िल्मी अभिनेत्रियाँ आती हैं। मेरे साथ तो कभी ऐसा नहीं हुआ कि कैटरीना कैफ़ या करीना कपूर आकर गले में बाँहे डाल कर लटक गई हों। कभी सपनों में स्त्री की जगह भैंस क्यों नहीं दिखाई देती। आखिर वो भी स्त्रीलिंग है। लेकिन ऐसा नहीं होता। दिन में जो घटता है वह चेतन मन से होकर अवचेतन की ओर सफ़र करता दिखाई दे जाता है। सपने भी बड़े अजीब होते हैं, फ़िल्म की तरह चलते हैं। लेकिन सपनों की फ़िल्म चलाने वाला प्रोजेक्टर मिस्त्री बड़ी गड़बड़ करता है। कहीं की रील कहीं जोड़ देता है। मैं देख रहा हूँ कि स्कूल की क्लास लगी हुई है, टीचर पढा रहे हैं, तत्कालीन सारे सहपाठी दिखाई दे रहे हैं। मैं  हांफ़ते हुए कक्षा में पहुंचता हूँ, टीचर कहते हैं - इतने लेट क्यों आए हो? क्या बताऊँ सर! ये श्रेया-श्रुति (दोनो बेटियाँ) रोज बदमाशी करती हैं, कभी जूता-मोजा तो कभी किताबें छिपा देती हैं। इसलिए विलंब हो जाता है। अब इस स्वप्न में तीनों काल जुड़ जाते हैं। कहीं की रील कट कर कहीं जुड़ जाती है। सपने जारी रहते हैं…………
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रंग बदलते सपने तो सपने बदलते रंग होते हैं। सूर्य सी चमकीली रोशनी नीले, पीले, हरे, लाल, नारंगी, बैगनी रंगों में बदलती हैं। कभी बादलों में उड़ते हुए नीचे झांकने पर समंदर दिखाई देता है तो थरथरी आ जाती है। कहीं पहाड़ की ऊंचाई से खाई की तरफ़ देखने से पिंडलियों में सनसनी भर जाती है। अभी पैर फ़िसला और गिर जाऊंगा अंतहीन गहराई में। कभी ब्लेक होल में घुस कर कहीं से कहीं निकल जाता हूँ ,यह सपनों की दुनिया भी अजीब है। जहाँ शरीर नहीं पहुंच पाता वहाँ रुह पहुंच जाती है। अनंत का सफ़र भी कर आती है। करवट बदलते चोभा मीची में रात गुजर जाती है। चे गरम, चे गरम, पेप्योर, पेप्योर की कर्कश पुकार से दिन की शुरुवात होती है। आवाज सुनकर आँखें मलता हुआ अपनी हथेलियों को देखता हूँ, कराग्रे वसते लक्ष्मी, करमध्ये सरस्वती, कर मूले गोविंदम्, प्रभाते कर दर्शनम्। किसी अन्य का मुंह देखने से पहले अपनी भाग्य रेखा, हृदय रेखा पर नजर दौड़ा लेता हूँ। ये दोनो रेखाएं सही रही तो जीवन रेखा तो स्वमेव ही सही चलते रहेगी। 
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ए चाय, एक इधर भी देना। कितने पैसे हुए? 7 रुपए, इलायची वाली चाय है। पैसे देते हुए सोचता हूँ साले इलायची का सत डालकर चाय पिला रहा है पावडर दूध की और बखान ऐसे कर रहा है जैसे शिलाजीत डाल रखा हो। पेप्योर पेप्योर, पेपर भी दे देना। कौन सा? जिसमें कम पैसे अधिक पन्ने हों। वह 2 रुपए में भारी सा अंग्रेजी अखबार टिका देता है। चाय की चुस्कियों के साथ अंग्रेजी खाने का प्रयास करता हूँ, अंग्रेज जब हिन्दूस्तान को खा गए तो क्या मैं अंग्रेजी नहीं खा सकता है। लेकिन भाषाएं अजीब बला होती हैं। जितना खाओ, उतना ही विस्तृत होती जाती हैं। समझ आता है, खाने से अंग्रेजी खत्म नहीं होने वाली। जब तक अंग्रेजी राज-काज की भाषा बनी रहेगी, अंग्रेजी सिखाने वाले कोचिंग सेंटर फ़लते फ़ूलते रहेगें और गुलामी लदी रहेगी। बिग बॉस के घर जैसे रेल में सुबह किसी अच्छे गाने से होनी चाहिए। चे गरम और पेप्योर की कर्कश ध्वनि से नहीं। सुबह अच्छी हो तो सफ़र में दिन तो रुमानी बना रहेगा। चाय की उड़ती हुई भाप से सुनाई दे रहा था … न तो कारवां की तलाश है, न तो हमसफ़र की तलाश है, आगे पड़ाव आ रहा है, मंजिल का पता नहीं………

शनिवार, 7 दिसंबर 2013

करंज का बोधिवृक्ष: सोधी खोकर बोधि की ओर …………

रात तो गुजर गई, आँख खूली तब हिरण्यगर्भ के स्वर्णिम प्रकाश से शयनकक्ष परिपूरित था। घड़ी की ओर निगाहें फ़ेरी तो उसने 8 बजने के संकेत दिए। आज तो इन्तिहा हो गई, काफ़ी देर के बाद जागा। बिस्तर से उठने का मन नहीं, लग रहा था जैसे कंधों का भारी बोझ उठने नहीं दे रहा। कंधे ही क्यों रोम-रोम बोझिल था। बोझ ही नहीं, रग-रग दर्द से टूट रही थी। दर्द अहसास दिला रहा था कि अर्थी का बोझ उठाना देह के लिए बहुत पीड़ादेयक होता है। जब अर्थी अरमानों की हो तो पीड़ा का बोध नहीं हो पाता देह को। संज्ञाहीन देह को हिरण्यमय स्वर्णिम किरणों ने सींच कर पुष्ट किया, देह में रक्त संचार होने से बिस्तर छोड़ने का मन हुआ। बिछौना बनी देह जागृत हो गई।

अबीदा परवीन को सुनने का मन हुआ, जब वो "इक नुक्ते विच गल मुकदीए" … गहरे उतर कर गाती है तो लगता है कि सुर और साज एक हो गए। इश्क-ए-हकीकी सुनकर चेतना जागृत हो सातवें आसमान पे होती है और अवचेतन के पट भी खुल जाते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कभी कबीर, दादू, बुल्लेशाह के सहज ही खुल गए होगें। वरना सारी जिन्दगी साज ठोक-पीट कर सुर मिलाने में ही निकल जाती है। बार-बार गला खखारने के बाद भी सुर और साज कहाँ मिल पाते हैं मेरे से। कभी बहर छोटी पड़ जाती है तो कभी काफ़िया नहीं मिल पाता। कभी नुक्ते का झोल, क्या जिंदगी है। जब जिंदगी एक नुक्ते का ही खेल है तो इस काली बिंदी की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है…… इक नुक्ते विच गल मुकदीए…… शायद तभी कहा गया है "इक नुक्ते से खुदा, ज़ुदा होता है। बड़ा झोल है जीवन में, मीत मिताई मिलाई का।

उम्दा कलाम के नशे की गिरफ़्त में सरकते हुए करंज के पेड़ की घनी छांव में कुर्सी पर पसर जाता हूँ, उत्तमार्ध चाय बनाकर ले आती है, मुझे जागे हुए देख कर। चाय का कप हाथ में लेते ही लगता है कि चारों धाम की परिक्रमा पूरी हो गई। प्रेम का रस चाय में मीठे का काम करता है, वरना मेरी चाय भी बेस्वाद हो गई। तुलसी की पवित्र पत्तियों से युक्त भाप सर्दी से बंद नथूने खोल देती है, गंगा-नर्मदा का प्रवाह प्रारंभ हो जाता है, लगा अंतर से झरना फ़ूट पड़ा, जहाँ प्रेम का सोता फ़ूट पड़े समझो रब वहीं मिल गया। बुद्धत्व की प्राप्ति हो गई। करंज का वृक्ष मेरे लिए बोधिवृक्ष हो गया। सोधी खोकर बोधि को प्राप्त करना प्रचंड उपलब्धि हो सकती है, बस बात एक नुक्ते ही है। 

नुक्ता ही जीवन में कसौटी पर कसा जाता है। नुक्ता ही क्यों जूते भी मुझे सहन शक्ति की कसौटी पर कस रहे हैं। पहाड़ियों की पथरीली चढ़ाई को ध्यान में रख कर मोटे तले के खरीद लिए थे। उन्होने 2-3 सफ़र में ही मुझे तले से लगा दिया। कल रात जब से उन्हे पैरों से जुदा किया तब से तलवे भड़ककर आग बबूले हो रहे हैं। अगर मोचड़ी होती या भंदई होती तो छाछ में डूबा कर तेल पिला देता है। कम से कम तलवों को ठंडक मिलती और जूतों की सद्गति हो जाती। मशीनी जूतों में ये संभव नहीं है। अगर पाँव सलामत रहे तो जूते जीवन पर्यंत साथ निभाते हैं। जब मानव संतान धरती पर लड़खड़ाते कदमों से चलने लगती है तो जूते ही उसके चरणों के रक्षक बन प्रथम सहचर होते हैं फ़िर ताउम्र सांस छूटते तक साथ निभाते हैं, बिना वादा किए ही। किए गए वादे थोड़ी सी धूप पड़ने पर कुम्हलाकर फ़ना हो जाते हैं। 

क्या सोच रहे हो? कुछ नहीं। चाय ठंडी हो रही है? हाँ! हो तो गई है। सोच रहा हूँ कुछ दिन आराम करुं गालिब की तरह…… रहिए अब ऐसी जगह, चलकर जहाँ कोई न हो। हम सुखन कोई न हो और जुंबा कोई न हो। दिमाग भी खाली हो और मन भी स्थिर, चित्त विश्राम में। नींद ऐसी आ जाए कि सुबह होने पर तरोताजा हो जाऊं, हिरणों के छौने की तरह कुलाचें मारता फ़िरूँ। 10 मील बिना रुके लगातार दौड़ता जाऊं। किसी को यह बताने की जरुरत न पड़े कि फ़लां फ़लाँ तेल की चम्पी से एकदम तरोतजा हो सकते हैं। जैसमीन की खुश्बू वातावरण में फ़ैल रही है। सारे वजूद पर छाते जा रही है। लम्बी सांस लेकर उसे फ़ेफ़ड़ों में भर लेना चाहता हूँ जिससे वो मेरी रगों में दौड़ने लगे ताजगी बन कर।

कहाँ आराम है जिन्दगी में? बस चलते ही जाना और चलते ही जाना। पता नहीं कितने जन्मों तक निरंतर-अनवरत। गौरेया की चहचहाट के बीच करंज के पेड़ पर बैठे कौंवे भी सुर मिलाने के पुरजोर प्रयास में लगे हैं। सुर मिल जाए तो सद्गति हो जाए। कौंवे आदत से, प्रवृत्ति से मजबूर हैं। सोधी खोए हुए बोधि प्राप्ताकांक्षी पर भिष्ठा और बींठ डाल कर भाग जाते हैं। यही परीक्षा की घड़ी होती है यायावर के लिए। वह कौवों की कारस्तानी को ध्यान दिए बगैर सोधी से बोधि की ओर चलता रहे। जिस दिन बोधि की उपसम्पदा मिल गई, उस दिन के बाद आराम करने की जरुरत ही नहीं  होगी। काफ़िया मिल जाएगा, बहर सूत में होगी। नुक्ता सही जगह लगेगा। जिन्दगी गजल हो जाएगी। इक नुक्ते से गल मुक जाएगी……… देह तरोताजा हो जाएगी, आगे के सफ़र के लिए………। 

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

ई मुंबई है रे बबूआ : डर्टी पोस्ट

घर से चलने के पूर्व अतुल को फ़ोन कर दिया था कि मैं फ़लाँ फ़लाँ ट्रेन से आ रहा हूँ। यह मुंबई की मेरी पहली यात्रा थी। काफ़ी कुछ टीवी और सिनेमा के माध्यम से मुंबई के विषय में देख और सुन चुका था। मन में धुक धुकी लगी हुई थी कि शहर कैसा होगा, शहर के लोगों का बर्ताव कैसा होगा? कहीं सामान चोरी तो नहीं हो जाएगा। कोई ऑटो वाला गलत जगह ले जाकर लूट तो नहीं लेगा। तरह तरह की शंकाएँ, कुशंकाएँ, आशंकाएं मन में उमड़-घुमड़ रही थी। दिन पूरी तरह से नहीं निकला था। मेरी ट्रेन सुबह 5 बजे कुर्ला स्टेशन पहुंची। अतुल का फ़ोन बंद था। उसके घर का पता भी मुझे नहीं मालूम, अब क्या किया जाए? वहीं पर पड़ी एक बैंच पर बैठ गया। आसमान में उड़ते हुए हवाई जहाजों को देखने लगा। एक हवाई जहाज टेक ऑफ़ करता था तो उसके एक मिनट बाद कोई दूसरा हवाई जहाज लैंड करता था। इन्हें देख कर ही टाईम पास करने लगा। मेरी ट्रेन की सवारियाँ एक-एक कर निकल गई। मेरे जैसे कुछ लोग ही बच गए थे।

सामान के नाम पर मेरे पास सिर्फ़ एक बैग था। चाय की चाह हो रही थी, लेकिन चाय नहीं पी सकता था। चाय पीते ही शौचालय की तरफ़ दौड़ना पड़ता। फ़िर बैग की रखवाली कौन करता? अकेले होने के कारण सामान की रखवाली की समस्या आती ही है। सोच रहा था कि कोई मुझे लेने आ जाए तो वहीं दैनिक क्रिया से निवृत हो लूंगा। एक घंटा हो गया, कोई मुझे लेने के लिए नहीं आया। पेट में गुड़गुड़ी मचने लगी। धीरे-धीरे प्रेशर बढने लगा। लगा कि आज तो बिना चाय के ही बम फ़ूट जाएगा। बम फ़ूट जाए तो कोई बात नहीं, लेकिन फ़ोड़ने की माकूल जगह भी होनी चाहिए। थोड़ी देर तो रुक सका लेकिन फ़िर रोका नहीं जा सका। शौचालय के विषय में पूछने पर बताया कि वो परली तरफ़ है। बैग संभालते हुए उधर दौड़ कर गया। देखा की लोग लाईन में लगे हुए थे। जब तक अपना नम्बर आए तब तक तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी।

इस तरह की घटना मेरे साथ पहली बार घट रही थी। इससे पहले सार्वजनिक शौचालय के चक्कर में फ़ंसना नहीं हुआ। घुमक्कड़ी में जिन्दगी के काफ़ी वर्ष निकाल दिए, लेकिन यह अनुभव पहली बार था। मेरे पीछे भी आठ-दस लोग लाईन लगाए खड़े थे। पन्द्रह बीस मिनट बाद मेरा नम्बर आया। बैग धारण कर जैसे ही शौचालय में प्रवेश किया, वैसे ही बदबू के पहले झोंके से दिमाग पंचर हो गया। शौच की बदबू के साथ बीड़ी की बदबू फ़्री में मिल रही थी। अगर प्रेशर रोका जा सकता तो इस शौचालय में कभी प्रवेश नहीं करता। कहीं खुली जगह खेत या किसी का खाली प्लाट होता तो किसी आड़ में निपट लिया जाता। लेकिन यह मुंबई थी। यहाँ पर कहाँ खेत और खाली प्लाट मिलने वाला है। मन मार कर शौचालय में प्रवेश किया। बैग को दरवाजे के पीछे लटकाया और रुमाल निकाल कर सबसे पहले नाक बांधा, जिससे बदबू छन कर कम हो जाए।

बैठते ही दो काम होने लगे। पहला तो जिसके लिए मैं दौड़ कर आया था, दूसरा दिमाग की सोचनीय इंद्री शुरु हो गई। वह सोचने लगी शौचालय में। कहाँ फ़ँस गया मैं बड़े कस्बे की खुली हवा में रहने वाला। जहाँ मेरा बाड़ा ही 3 एकड़ का है। चारों तरफ़ खुला वातावरण एवं वृक्षों से छन कर आती सुवास के साथ मस्त हवा। मुझे मालूम होता कि यह गति होने वाली है तो मुंबई आना ही स्थगित कर देता। फ़ँसा हुआ व्यक्ति क्या करे। वैसे भी इनपुट होगा तो आऊटपुट होना ही है। अगर पता यह स्थिति होने वाली है तो इनपुट नहीं करता, 24 घंटे का उपवास ही रख लेता। मुझे बैठे 1 मिनट नहीं हुआ होगा, इतने में किसी ने बाहर दरवाजा खटखटा दिया। आवाज सुन कर हड़बड़ा गया। गाँव में तो मैदान में झुरमुट की आड़ में बैठने के बाद भी किसी की आहट आ जाए तो शौच नहीं होती। यहाँ तो 8 लोग लाईन लगा कर खड़े थे।
  
दरवाजा खटखटाने की आवाज सुनकर दरवाजे की तरफ़ देखता रहा कि कहीं कुंडी न खुल जाए और लोगों को दिल्ली के साथ पाकिस्तान दर्शन न हो जाए। बड़ी ही खतरनाक स्थिति थी। एक मिनट के बीच इतना कुछ घट रहा था कि जैसे किसी फ़ायटर पायलेट के प्लेन में गोला लगने से आग लग गई हो और उसके पास जान बचाने के लिए सिर्फ़ 1 मिनट का ही समय हो। जैसे ही दूसरा मिनट बीता फ़िर किसी ने दरवाजा खटखटाया। अबकि बार आवाज आई - जल्दी निकलो। मुझे गुस्सा आ गया। लेकिन कुछ कहने और करने की हालत में नहीं था। अगर प्रेशर में नहीं होता तो मुक्का मार कर दरवाजा खटखटाने वाले का मुंह तोड़ देता। गुस्से के कारण स्थिति सांप छछुंदर जैसी हो गई, न भीतर रहे न बाहर निकले। जैसे-तैसे पहला राऊंड पूरा हुआ और बाहर से आवाज आई - जल्दी निकलो।

अबे! मैं क्या यहाँ घर बसाने आया हूँ, साले चैन से फ़ारिग भी नहीं होने देते। 2 मिनट ही तो हुआ है। मैं गुस्से में जोर से चिल्लाया। बाहर से आवाज आई - 2 मिनट में तो 4 लोकल ट्रेन निकल जाती है। कब तक भीतर ही बैठा रहेंगा। मुझे लगा कि अब बाहर निकल ही जाना चाहिए, वरना दूसरा कोई प्रेशर के मारे दरवाजा तोड़ कर भीतर घुस जाएगा। सुबह का प्रेशर बड़ा खतरनाक होता है। पानी डाल कर जैसे ही उठा, फ़िर दरवाजा खटखटाने लगे। मैने पैंट संभाली और दरवाजे से अपना बैग उतारा। इतनी देर में फ़िर हाजतमंद ने दरवाजा खटखटा दिया। जैसे ही मैने सिटकिनी खोली और दरवाजा थोड़ा सा खुला मेरे निकलने से पहले ही एक आदमी ट्रेन की सवारी जैसे भीतर घुसने लगा। मै उसे धक्का देकर किसी तरह बाहर निकला और बाहर आकर एक लम्बी सांस ली।

नल से हाथ मुंह धोकर एक चाय ली। पहली घूंट के साथ फ़ोन की घंटी बजी। "हेलो , सर मैं प्रकाश बोल रहा हूँ। आप अभी कहाँ पर हैं?" "मैं अभी कुर्ला स्टेशन में हूँ। यहीं ऐसी की तैसी करवा रहा हूँ। जब मैने अतुल को बता दिया था कि सुबह की ट्रेन है तो डेंढ घंटे बाद फ़ोन करने के क्या मतलब है" उसकी आवाज सुनकर मेरा गुस्सा सातवें आसमान पर था। " सॉरी सर मुझे उठने में थोड़ी देर हो गई, भाई साहब ने मुझे रात को ही बता दिया था कि आप सुबह की ट्रेन से आने वाले हैं और मुझे रिसीव करने जाना है। सर माफ़ कीजिए मैं आधे घंटे में पहुच रहा हूँ।" प्रकाश के फ़ोन आने के बाद मैं आश्वस्त हो गय कि एकाध घंटे में तो घर पहुंच जाएगें। चाय पीते हुए बैंच पर बैठ गया। साथ ही दो बिहारी नौजवान बैठे थे, शायद वो भी किसी के इंतजार में थे। एक कह रहा था - ई मुंबई है रे सुरेसवा, हियाँ खाने को मिल जाएगा, काम मिल जाएगा पर हगने और सुतने को मिलना बहुत कठिन है। इनकी बातें सुनकर मैं अपना मुड़ खजुवाते आकाश में उड़ते हवाई जहाज देखते हुए प्रकाश का इंतजार कर रहा था। ई मुंबई है रे बबूआ……………

रविवार, 17 नवंबर 2013

मुटरुनंदन की बारात

ढिंग चिका ढिंग चिका ढिंग चिका ढिंग हे ऐ ऐ ऐ ……… बैलगाड़ी में लगा हुआ लाऊडस्पीकर गाना बजा रहा था। शादियों के अवसर पर अक्सर नई फ़िल्मों के गीत बजाए जाते हैं। मुटरु कका के मयारु बेटा की बारात जा रही थी। भोर से ही सारे बारातियों को इकट्ठा कर बैलगाड़ी फ़ांद दिए। सांझ तक भुरकापुर पहुंचना था, तभी बारात परघनी होती। गाना सुनकर बैल भी सिर हिलाते हुए मजे से चल रहे थे। बाराती ढिंग चिका ढिंग चिका का आनंद ले रहे थे।

जैसे ही काफ़िला ढीमर पारा से मुड कर सड़क पर आया, गंजेड़ी हवलदार ने बंदूक तान दी और चिल्लाया - रोको बे! समारु ने बैलों की लगाम जोर से खींची, चरमराते हुए गाड़ी रुक गई और उसके साथ काफ़िला भी।

हवलदार सामने आया, उसने डपट कर हवा में प्रश्न उछाला - किससे पूछ के लाऊड स्पीकर बजा रहे हो? परमीशन लिए हो लाऊड स्पीकर बजाने का?

धोती संभालते हुए मुटरु बैलगाड़ी से उतरा, - लाऊड स्पीकर बजाने के लिए भी परमीशन लेना पड़ता है क्या? मेरे बेटे की शादी है, बारात जा रही है, बिना लाऊड स्पीकर के बारात की क्या शोभा।

सामने कुर्सी पर बैठा जर्दा चबाता दरोगा उठ कर मुटरु के पास आया - तुझे नहीं मालूम का क्या, चुनाव चल रहा है। चुनाव आयोग की अनुमति बिना लाउड स्पीकर बजाना अपराध है। हवलदार इसकी गाड़ी बैला को जप्ती बनाओ और बरातियों को चालान करो।

दरोगा की बातें सुनकर बारातियों में खलबली मच गई। मुटरु हाथ जोड़ कर दरोगा के पैरों में गिर गया - ऐसा मत करो साहब! जो कुछ खर्चा पानी लेना है, ले लो और मामले को रफ़ा-दफ़ा करो। टाईम पर बारात नहीं पहुचेगी तो बेइज्जती हो जाएगी।

दरोगा को घूस देने की कोशिश करता है, कानून भी तोड़ता है। अब तो तुझे हवालात में डालना ही पड़ेगा। हवलदारSSSS, लाऊड स्पीकर जप्ती बनाकर अपराध दर्ज करो, और मुटरु को थाने में बंद करो।

नहीं साहब! माफ़ कर दो, गलती हो गई। नहीं मालूम था हमें कि लाऊड स्पीकर न बजाने के कानून आ गया है। हम लाऊड स्पीकर हटा देगें साहब - मुटरु गिड़गिड़ाते हुए बोला।

तुम्हारे लड़के की शादी में विघ्न न हो, इसलिए तुम्हे निर्वाचन अधिकारी से परमीशन लेकर आना पड़ेगा। तब ही मैं बारात को यहाँ से हिलने दूंगा।

परमीशन कहाँ मिलेगा साहब।

तहसीलदार को दरखास दो, वही परमिशन देगा।

बारात खड़ी रही, बैलों को गाड़ी से ढील दिया। मुटरु, रामस्वरुप को साथ लेकर तहसीलदार के कार्यलय में पहुंचा। अर्जीनवीस से आवेदन पत्र लिखवाया, तहसीलदार के समक्ष प्रस्तुत हुआ - बाराती गाड़ी में लाऊड स्पीकर लगाने का परमीशन चाहिए साहब।

तहसीलदार ने आवेदन पर टीप लिख दिया - लाऊडस्पीकर बजाने का परमीशन निर्वाचन अधिकारी देते हैं, मेरे अधिकार में नहीं है, मैने आवेदन पत्र अग्रेषित कर दिया है। तुम सहायक निर्वाचन अधिकारी से मिलो।

मुटरु के दिमाग में खलबली मची हुई थी। बारात में विलंब हो रहा था - पता नही किस साले का मुंह देख कर घर से निकले थे। गाँव से निकलते ही शनि सवार हो गया। चल कहाँ पर सहायक निर्वाचन अधिकारी बैठता है। 

सहायक निर्वाचन अधिकारी के कार्यालय में गहमा-गहमी थी। पंक्ति में बैठे हुए बाबू फ़ाईलों में उलझे हुए थे। मुवक्किल और वकील बाबूओं से तारीख ले रहे थे। अधिकारी साहब कुर्सी से गायब थे। - साहब कहाँ मिलेगें? रामस्वरुप ने बाबू से पूछा।

साहब तो रुम न्मबर 10 में बैठे हैं। क्या काम है?

बाराती गाड़ी में लाऊडस्पीकर लगाने का परमिशन चहिए। दरोगा ने रास्ते में गाड़ी रोक ली है और हमें शाम तक भुरकापुर तक परघनी के लिए पहुंचना है। जो कुछ भी खर्चा पानी लगे वो ले लो पर काम जल्दी करवा दो। - मुटरु एक सांस में कह गया।

बाबू ने नाक से उपर चश्मा चढाते हुए चपरासी को आवाज दी - समरित! फ़ाईल कव्हर लेकर आना। इधर बाबू नोटशीट बनाने लग जाता है। नोटशीट तैयार होते ही उसे लेकर  निर्वाचान अधिकारी को प्रस्तुत करता है।

क्या है यह? निर्वाचन अधिकारी ने नोट शीट पर नजर डालते हुए कहा।

लाऊड स्पीकर लगाने का परमिशन चाहिए बाराती गाड़ी में।

तुम्हें 15 वर्ष हो गए नोटशीट बनाते हुए, इसमें गाड़ी का नम्बर कहाँ लिखा और ड्रायवर के लायसेंस की फ़ोटो कॉपी भी नहीं लगाई है। - अधिकारी ने बाबू पर तमकते हुए कहा।

साहब! इन्हें बैलगाड़ी में लाऊड स्पीकर लगाने की अनुमति चाहिए। बैलगाड़ी का रजिस्ट्रेशन नम्बर नहीं होता साहब और न ही इसके ड्रायवर का लायसेंस बनाया जाता।

बाबू का जवाब सुनकर साहब को क्रोध आ गया। उसने फ़ाईल रख ली - जाओ सेकंड हाफ़ में ले जाना। 

बाबू मुंह लटका कर बाहर निकला तो मुटरु उसकी शक्ल देखकर ही समझ गया। कोई गड़बड़ है - क्या हुआ बाबू साहब?

बड़े साहब बोले हैं कि परमिशन सेकेंड हाफ़ में  मिलेगी।

मुझे मिलवा दो साहब से, बहुत जरुरी है, बारात रास्ते में खड़ी है।

साहब गुस्से में है, नहीं मिलने वाले - बाबू ने फ़ाईल वाला हाथ हिलाते हुए कहा।

सब गड़बड़ हो गया रामस्वरुप, पहले पता होता तो हफ़्ता भर पहले परमीशन ले लेते। अरे बिना लाऊड स्पीकर के ही चलते हैं, परन्तु इज्जत का कचरा हो जाएगा। गाँव वाले क्या सोचेगें। एक लाऊड स्पीकर भी बजाने के लायक नहीं है मुटरु। किसी की काठी में आया क्या? 

सिरतोन कह रहे हो कका। अब बेर भी मुड़ उपर आ गया है, बैलगाड़ी से तो भुरकापुर पहुंच नहीं सकते और कुछ उदिम करना पड़ेगा।

एक काम कर, कन्हैया बनिया को मोबाईल लगा कर उसका मेटाडोर बुलवा। जो भी रुपया पैसा खर्चा होगा देखा जाएगा। बारात तो जाना ही है, कान धर के चेत जा बेटा कि अब चुनाव के बेरा में कभी बिहाव नहीं रचाना है। मुटरु ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा तथा कचहरी से बाहर निकल गया। 

शनिवार, 9 नवंबर 2013

तिरपट पंडित दर्शन एवं ब्लॉगर मिलन

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
त्तीसगढ़ की सीमा समीप आ रही थी, घर पहुंचने की व्यग्रता बढते जा रही थी। शहडोल से हम अनूपपुर की ओर बढ रहे थे। तभी पाबला जी को याद आया कि हमारे ब्लॉगर साथी धीरेंद्र भदौरिया जी  व्यंकटनगर में निवास करते हैं। तो मैने झट उन्हें फ़ोन लगाया। फ़ोन पर वे मिल गए, मैने बताया कि हम लौट रहे हैं नेपाल से। व्यंकटनगर से पेंड्रा होते हुए जाएगें। तो उन्होनें घर आने का निमंत्रण दिया। मैने हिसाब लगाया कि दोपहर तक हम वहाँ पहुंच जाएगें। उन्हे भोजन व्यवस्था के लिए कह दिया और कहा कि ठाकुर भोजन नहीं करेगें। तो उन्होने हँसते हुए कहा कि हम आपको ब्राह्मण भोजन ही कराएगें। 
शहडोल ( सहस्त्र डोल)
एक स्थान पर हमने नाला देख कर इसे दिशा मैदान के लिए उपयुक्त स्थान समझा। यहां से निवृत होने पर आगे बढे। इसके बाद धीरेंद्र भदौरिया जी बार बार फ़ोन पर हम लोगों का लोकेशन लेते रहे। उन्होने कहा कि अमलाई चचाई होते हुए आप व्यंकट नगर पहुंचिए। एक बारगी तो मैने व्यंकटनगर जाना त्याग दिया था। हम लोग अमरकंटक की राह पर बढ गए थे। लेकिन धीरेन्द्र जी के पुन: आग्रह को त्याग नहीं सके। अमलाई और चचाई की तरफ़ चल पड़े। यहां से बिलासपुर लगभग 200 किलोमीटर था और बिलासपुर से रायपुर 110 किलोमीटर। आज हमें किसी भी हालत में घर पहुंचना था। मालकिन का फ़ोन आने पर हमने कह दिया था कि रात तक हम घर पहुंच जाएगें। रास्ते में एक तिरपट पंडित दिखाई दिया। बस लग गया था कि आगे का सफ़र अभी भी कठिनाईयों भरा है।
नाले किनारे दो ब्लॉगर
व्यंकटनगर छत्तीसगढ़ एवं मध्यप्रदेश की सीमा पर स्थित है। व्यंकट नगर से छत्तीसगढ़ की सीमा प्रारंभ हो जाती है। भदौरिया जी ने बताया कि वे व्यंकट नगर में सड़क के दांई तरफ़ की दुकान पर बैठे हैं। व्यंकट नगर में प्रवेश करने पर भदौरिया जी प्रतीक्षा करते दिखाई दिए। यहाँ पहुंच कर पता चला कि उनका गाँव पोंड़ी यहाँ से 6-7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। अब एक रेल्वे लाईन पार करके हम इनके गांव पहुचे। भदौरिया जी यहाँ के सरपंच भी रह चुके हैं तथा राजनीति में अच्छा रसूख बना रखा है। गाँव से बाहर आने पर इनका फ़ार्म हाऊस दिखाई दिया। किसी फ़िल्म के बंगले की तरह बाग बगीचा सजा रखा रखा है। पुराने जमाने के ठाकुरों जैसी नई हवेली बनी हुई है।
उच्चासनस्थ धीरेन्द्र सिंह भदौरिया
भदौरिया जी के घर पहुंचने पर पाबला जी तो सोने चले गए और हमने स्नान करने का कार्यक्रम बना लिया। कैसी भी परिस्थितियाँ हो दैनिक स्नान के बिना रहा नहीं जा सकता। एक बार भोजन न मिले, स्नान होने से फ़ूर्ति आ जाती है। इधर भोजन भी तैयार हो गया था। गिरीश भैया और हमने स्नान किया। भोजन लग गया तो पाबला जी भी उठ गए। भोजनोपरांत भदौरिया जी ने ब्लॉगिंग रुम दिखाया। उनकी कुछ तकनीकि समस्या का हल पाबला जी ने किया। अब हमारा लौटने का समय हो रहा था। आसमान में बारिश के आसार दिखाई दे रहे थे। पाबला जी ने पालिथिन की आवश्यक्ता महसूस की। लेकिन भदौरिया जी के यहाँ इंतजाम नहीं हो सका। उन्होने कहा कि व्यंकट नगर में मिल जाएगी, नहीं तो पेंड्रारोड़ में तो मिलना तय है।
बरसात शुरु
जैसे ही हम पोंड़ी से बाहर निकले, बूंदा बांदी शुरु हो गई। व्यंकट नगर के बाद पेंड्रा रोड़ तक की सड़क बहुत खराब निकली। इकहरी सड़क पर गड्ढे ही गड्ढे थे। धीरे-धीरे हम आगे सरकते रहे। लगभग 4 बजे हमने गौरेला में प्रवेश किया। अब पेंड्रा में हमने पालिथिन ढूंढनी प्रारंभ की। तब तक बरसात बढ चुकी थी। 10 मिनट की मूसलाधार वर्षा में ही पेंड्रा की सड़कों पर पानी भर चुका था। नाली और सड़क बराबर हो चुकी थी। सुरभि लाज वाले चौराहे पर हमने कई दुकानों पर पालिथिन तलाश की, नहीं मिली। फ़िर एक दुकानदार ने बताया कि चौराहे पर फ़लां दुकान में मिल जाएगी। मैने पाबला जी से गाड़ी में छाता होने के बारे में पूछा तो उन्होने छाता निकाल कर दिया।
गांव की डगर पर मातृशक्ति
मैं छतरी लेकर बरसते मेह में पालिथिन लेने गया। बरसात बहुत अधिक हो रही थी। दुकानदार से 2 मीटर पालिथिन ली और बांधने के लिए साथ में सुतली भी। गिरीश भैया ने चद्दर पकड़ रखी थी। पानी गाड़ी के भीतर आने लगा था। जिससे बैग भीग रहे थे। हमने बैग बीच वाली सीट पर रख लिए। अब बरसात रुके तो पालिथिन भी लगाई जाए। नगर की गलियों में चक्कर लगाते रहे, न रास्ता मिला, न पालिथिन लगाने के लिए स्थान। पेंड्रा से बिलासपुर जाने के लिए 3 रास्ते हैं। पहला जटका पसान कटघोरा होते हुए बिलासपुर। 2सरा कारीआम, मझगंवा होते हुए रतनपुर से बिलासपुर और 3सरा अचानकमार के जंगलों से कोटा होते हुए बिलासपुर। इसमें पहला मार्ग लम्बा है। दूसरा मार्ग खराब है, एक बार हम पहले भुगत चुके थे। तीसरे मार्ग पर जाना था।
तेरा पीछा न छोड़ूंगा………
मुझे याद था कि रेल्वे लाईन पार करने के बाद दो रास्ते निकलते हैं बांई तरफ़ बिलासपुर के लिए तथा दांई तरफ़ अमरकटंक के लिए। जब हम रास्ता ढूंढ रहे थे तब मालकिन का फ़ोन आया - कहां तक पहुचे हैं? अभी पेंड्रा में है, बिलासपुर के लिए निकल रहे हैं। - इतनी देर कैसे हो गई? अभी फ़ोन बंद करो, हम बारिश में फ़ंसे हैं बाद में बात करते हैं। - हमारा दिमाग भन्ना गया। जैसे तैसे करके हमें रास्ता मिल गया। एक जगह गाड़ी खड़ी करके डिक्की पर पालिथिन चढा ली। चलो अब बरसात भी होती है तो अधिक हानि नहीं होगी। जीपीएस वाली बाई ने कई बार धोखे से खराब रास्ते में डाल दिया था इसलिए उस पर सहज विश्वास नहीं हो रहा था। अगर रात को कोटा वाले जंगली रास्ते पर पड़ गए तो फ़िर लक्ष्मण झूला झूलते हुए रात काटनी पड़ती तथा इस मार्ग पर रात में अन्य वाहन भी नहीं चलते।
बढते कदम
अब हम रास्ते पर बढ चले थे। केंवची पहुंचते तक शाम ढल चुकी थी। केंवची के होटल में हमने चाय पी और अचानकमार के जंगल में प्रवेश कर गए। भारी वाहनों के लिए शाम छ: बजे के बाद प्रवेश वर्जित है। केंवची के प्रवेश करने पर घाटी पर ही गाड़ी चलती है। एक स्थान पर सड़क किनारे महिला दिखाई दी। उसने सलवार सूट पहन रखा था। सुनसान सड़क पर महिला दिखाई देने से सबसे पहले ध्यान आता है चमड़े के जहाज का व्यवसाय तथा दूसरा ध्यान आता है कोई परेतिन हो सकती है। हम परीक्षण करने के लिए रुके तो नहीं, लेकिन गिरीश भैया के साथ चर्चा अवश्य शुरु हो गई। नारी विमर्श पर गहन चर्चा के साथ हास परिहास होते रहा और गाड़ी आगे बढते रही।
चलती है गाड़ी उड़ती है धूल
पहाड़ी समाप्त होने पर वन विभाग का चेक नाका आता है। वहाँ गाड़ी का नम्बर और आने का समय दर्ज किया जाता है। फ़ारेस्ट वाले ने एक सवारी भी लाद दी हमारे साथ। उसे अचानकमार गाँव जाना था। लाठीधारी अनजान आदमी को हमने गाड़ी में बैठा लिया। उसके बैठते ही दारु का भभका सीधा नाक से टकराया। लगा कि चौकी से ही हैप्पी बर्थ डे मना कर आ रहा है या हो सकता है चौकी तक महुआ पहुंचाने गया होगा। उसे हमने अचानकमार में छोड़ा और आगे बढ़े। रात के 8 बजे होगें। लग रहा था कि 9 बजे तक बिलासपुर पहुंच पाना संभव नहीं है। मौसम बरसाती हो गया था। कोटा होते हुए हम बिलासपुर रिंग रोड़ से निकल लिए। यह रिंग रोड़ लगभग 15 किलोमीटर का है और सीधे हिर्री मांईस के समीप जाकर निकलता है। 
नेपाल से लौटते तक लौकी 60 रुपए किलो हो गई 
पिछली गर्मी में आया था तो सड़क की हालत अच्छी थी लेकिन बरसात में ओव्हर लोड गाड़ियों ने इसकी गत मार दी। हमारी गाड़ी की चाल नहीं सुधरी। हम वैसे ही लड़खड़ाते हुए आगे बढते रहे। आधे - पौन घंटे के बाद हम मुख्य मार्ग तक पहुच चुके थे। रायपुर बिलासपुर मार्ग का निर्माण चल रहा है। इसे 4 लाईन बनाया जा रहा है। नींद की झपकी आने लगी थी। हिर्री के आगे चलकर एक स्थान पर ढाबा दिखाई दिया। यहाँ हमने उड़द की काली दाल के साथ तंदूरी रोटियों से पेट भरा। ढाबे वाले सरदार जी पुराने पत्रकार निकले। गिरीश जी ने वर्षों के बाद भी उन्हें पह्चान लिया। सड़क पर ढाबा चलाने के लिए एक - दो अखबारों की एजेंसी लेने से धौंस जम ही जाती है।
गुड़हल का फ़ूल धीरेंद्र भदौरिया जी के बगीचे में
भोजन के बाद हमें नींद आने लगी। मेरी तो आँखे खुल ही नहीं रही थी। आंखे खोलने का प्रयत्न करता लेकिन आँखों को बंद होने से नहीं रोक पा रहा था। पाबला जी की हालत भी कुछ वैसी ही थी। हमने गाड़ी सड़क के किनारे लगा कर सोने का फ़ैसला किया। जब आँख खुल जाएगी तो आगे चल पड़ेगें।  सीट लम्बी करके सो गए। लेकिन नींद आती कहाँ है ऐसी परिस्थितियों में। थोड़ी देर बाद पाबला जी हड़बड़ा कर उठे। मेरी आँख खुल गई, लगा कि जैसे उनकी सांस बंद हो गई है। उन्होने हाथ के इशारे मुझसे पानी मांगा। मैने तुरंत पानी की बोतल उन्हे पकड़ाई। जब उन्होने सांस ली तो मेरी जान में जान आई। वे बोले- रात को सोने भी नहीं देता, रेल पटरियों पर बिखरा नजर आता है। मैं चुप हो गया और उनसे सोने का प्रयत्न करने को कहा।

हिर्री मांइस के पास के ढाबे में
थोड़ी देर आराम करने के बाद हम फ़िर चल पड़े। रात गहराती जा रही थी। बिलासपुर रायपुर मार्ग पर रात में गाड़ी चलाना भी खतरे से खाली नहीं है। सारी हैवी लोडेड ट्रकें चलती है और रोज कोई न कोई हादसा होते ही रहता है। अगर आप सही चल रहे हैं तो कोई भरोसा नहीं ट्रक वाला ही आपसे भिड़ जाए। धरसींवा चरोदा से आगे बढने पर हम विधानसभा वाले रोड़ पर मुड़ गए। इधर से जल्दी पहुंचने की संभावना थी। सड़क और प्लाई ओव्हर के कारण लाईटों की चकाचौंध में रोड़ ही समझ नहीं आया। थोड़ी देर तक पाबला जी से नोक झोंक होते रही। फ़िर उन्होने चुप करवा दिया और आगे बढे। थोड़ी देर में गिरीश जी के घर पहुंच गए। गिरीश जी को घर छोड़ा। मेरा नेट श्रेया रायपुर ले आई थी। बिना नेट के जग सूना।
ब्लेक बाक्स सफ़र का साथी
नेट लेने के लिए हमने फ़ैसला किया कि कृषक नगर से नेट लेकर नई राजधानी होते हुए घर पहुंच जाएगें। भाई को फ़ोन करके बता दिया कि हम पहुंच रहे हैं वो नेट लेकर घर के बाहर मिले। वैसा ही हुआ, हम अब नई राजधानी होकर अभनपुर पहुंच गए। लगभग सुबह के 4 बज रहे थे। पाबला जी को यहाँ से 50 किलोमीटर दूर भिलाई जाना था। मैं घर के गेट के सामने उतर गया। पाबला जी सत श्री अकाल कह कर मेरी यात्रा को विराम दिया और आगे बढ गए। सत श्री अकाल के उद्भोष के साथ हमारी यात्रा प्रारंभ हुई थी। करतार ने हमारी साप्ताहिक यात्रा को सफ़ल बनाते हुए सकुशल घर पहुंचा दिया। इस तरह हमारी नेपाल यात्रा सम्पन्न हुई। मारुति इको ने विश्वास के साथ इतना लम्बा सफ़र निभाया। उसके साथ जीपीएस वाली बाई को भी धन्यवाद। आज भी सज्जे-खब्बे की उसकी मधुर आवाज मेरे कानों में गुंजती है। 

शुक्रवार, 8 नवंबर 2013

विराट नगर का कलचुरी कालीन मंदिर

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
लाहाबाद से रीवा की ओर बढ चले। एकबारगी तो हमने तय किया कि रीवा से जबलपुर, कवर्धा होते हुए रायपुर पहुंचे और जबलपुर पहुंच कर गाड़ी का ब्रेक सीधे ही तोप कारखाने के सामने लगाया जाए।। प्राचीन एवं नवीन ब्लॉगर मिलन हो जाएगा। परन्तु उधर के भी रास्ते के खराब होने का समाचार मिला तो हमने जबलपुर जाने का इरादा त्याग दिया। इलाहाबाद से इज्जतगंज होते हुए हम रीवा की ओर बढे। रास्ते में ट्रैफ़िक कमोबेश पहले जैसा ही था। एक स्थान पर आने वाले मार्ग पर जाम लगा हुआ था और हम अपनी साईड में चल रहे थे। तभी हमारे सामने एक उड़ीसा नम्बर की गाड़ी आ गई। जबकि उसे दिख रहा था कि सामने से गाड़ी आ रही है। पाबला जी ने अपनी गाड़ी वहीं रोक ली और सड़क न छोड़ने की ठान ली।

हमारी गाड़ी रुकने से पीछे भी जाम लग रहा था। थोड़ी देर बार जीप वाला तो गाड़ी नीचे से उतार कर ले गया। उसके पीछे पीछे एक ट्रक वाला भी घुस गया। अब पाबला जी की खोपड़ी खराब हो गई। उन्होने ट्रक वाले को बगल से जाने कहा। ट्रक वाला कच्चे में गाड़ी उतारने को तैयार नहीं था और पाबला जी भी अपने स्थान से टस से मस होने को तैयार नहीं थे। गुस्से के मारे चेहरा तमतमा रहा था और आँखे लाल हो गई थी। मेरी बात का कोई जवाब नहीं दे रहे थे। अब जाम पूरी तरह से लग चुका था। मैं सोच रहा था कि अगर इस जाम में फ़ंस गए तो फ़िर 2-4 घंटे की फ़ुरसत। क्योंकि जाम हमारी गाड़ी के कारण ही लग रहा था। मैंने पाबला जी को बहुत मनाया तब कहीं जाकर वे गाड़ी सड़क से नीचे उतार कर आगे बढे। नहीं तो हो गया था पंगा।

मध्यप्रदेश की सीमा तक सड़क ठीक थी। जैसे ही हमने मध्यप्रदेश की सीमा में प्रवेश किया वैसे बड़े बड़े गड्ढों वाली सड़क से सामना हुआ। आगे बढने पर सड़क ही गायब हो गई थी। सिर्फ़ गड्ढे ही गड्ढे थे। रीवा से कुछ दूर पहले हमें एक ठीक ठाक होटल नजर आया। रात के 9 बज रहे थे। सोचा कि यहीं भोजन कर लिया जाए। होटल किसी भाजपानुमा नेता का था। मध्यप्रदेश पहुंच कर लगा कि हम घर ही पहुंच गए हैं क्योंकि मध्यप्रदेश हमारा बंटवारा भाई जो है। लेकिन यह नहीं सोचा था कि सड़क इतनी खराब होगी। भोजनोपरांत मैने पीछे की सीट संभाल ली और सो गया। अब रात को गाड़ी कहाँ कहाँ और कैसे-कैसे चली उसका मुझे पता नहीं।

सुबह शहडोल के पहले मेरी नींद खुली अर्थात हम अनूपपुर पेंड्रा वाले मार्ग पर थे। तभी सोहागपुर में एक मंदिर दिखाई दिया। स्थापत्य की शैली से दूर से ही कलचुरी कालीन मंदिर दिख रहा था। मैने तत्काल गाड़ी रुकवाई। जैसे मनचाही मुराद मिल गई हो। इस मंदिर को विराट मंदिर कहा जाता है। कहते हैं कि महाभारत में पांडवों के अज्ञातवास के दौरान जिस विराट नगर का वर्णन है वह यही विराट नगर है। यहाँ के सम्राट राजा विराट थे। समीप ही बाणगंगा में पाताल तोड़ अर्जुन कुंड स्थित है। शहडोल का पूर्व नाम सहस्त्र डोल बताया जाता है। कलचुरी राजाओं का राज जहाँ भी रहा उन्होने वहाँ सुंदर मंदिरों का निर्माण कराया है।

मंदिर प्रांगण में प्रवेश करने पर यह पीछे की तरफ़ झुका हुआ दिखाई देता है। आगे बढने पर एक केयर टेकर मिला। उसने बताया कि वह फ़ौज से अवकाश प्राप्त है। लेकिन उसके पास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का कोई परिचय पत्र नहीं था। उसने मुझसे कहा कि यहाँ फ़ोटो खींचने का 25 रुपए चार्ज लगता है तथा वह रसीद लेकर आ गया। मैने जब उसका मेन्युअल देखा तो उसमें वीडियो बनाने का चार्ज 25 रुपए लिखा था और फ़ोटो लेना फ़्री था। इस तरफ़ केयरटेकर पर्यटकों को ठग कर अतिरिक्त कमाई कर रहा है। गिरीश भैया और हम दोनो मंदिर के दर्शन करने के लिए आए और पाबला जी गेट के समीप ही रुक गए। उनके पैर की एडी में तकलीफ़ होने के कारण अधिक दूर चल नहीं पा रहे थे।

मंडप ढहने के कारण पुन: निर्मित दिखाई दे रहा था। केयर टेकर ने बताया कि 70 साल पहले मंदिर के सामने का हिस्सा धराशायी हो गया था, जिसे तत्कालीन रीवा नरेश गुलाबसिंह ने ठीक कराया था। उसके बाद ठाकुर साधूसिंह और इलाकेदार लाल राजेन्द्रसिंह ने भी मंदिर की देखरेख पर ध्यान दिया। अब यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है। मंदिर का मुख्य द्वार शिल्प की दृष्टि से उत्तम है। मुख्यद्वार के सिरदल पर मध्य में चतुर्भुजी विष्णु विराजित हैं। बांई ओर वीणावादिनी एवं दांई ओर बांया घुटना मोड़ कर बैठे हुए गणेश जी स्थापित हैं। मंदिर का वितान भग्न होने के कारण उसमें बनाई गई शिल्पकारी गायब है।

मंदिर के गर्भ गृह में शिवलिंग स्थापित है। जिसकी ऊंचाई लगभग 8 इंच होगी तथा जलहरी निर्मित है एवं तांबे के एक फ़णीनाग भी शिवलिंग पर विराजित हैं। यह मंदिर सतत पूजित है। जब मैने गर्भ गृह में प्रवेश किया तो कुछ महिलाएं पूजा कर रही थी। मंदिर के शिखर पर आमलक एवं कलश मौजूद है। बाहरी भित्तियों पर सुंदर प्रतिमाएं लगी हुई है। दांई ओर की दीवाल पर वीणावादनी, पीछे की भित्ती पर शंख, चक्र, पद्म, गदाधारी विष्णु तथा बांई ओर स्थानक मुद्रा में ब्रम्हा दिखाई देते हैं। साथ ही स्थानक मुद्रा में नंदीराज, गांडीवधारी प्रत्यंचा चढाए अर्जुन, उमामहेश्वर, वरद मुद्रा में गणपति तथा विभिन्न तरह का व्यालांकन भी दिखाई देता है।

मिथुन मूर्तियों के अंकन की दृष्टि से भी यह मंदिर समृद्ध है। उन्मत्त नायक नायिका कामकला के विभिन्न आसनों को प्रदर्शित करते हैं। इन कामकेलि आसनों को देख कर मुझे आश्चर्य होता है कि काम को क्रीड़ा के रुप में लेकर उन्मुक्त केलि की जाती थी। यहाँ मैथुनरत स्त्री के साथ दाढी वाला पुरुष दिखाई देता है। इससे जाहिर होता है कि यह स्थान शैव तंत्र के लिए भी प्रसिद्ध रहा होगा। प्रतिमाओं में प्रदर्शित मैथुनरत पुरुष कापालिक है। कापालिक वाममार्गी तांत्रिक होते हैं। वे पंच मकारों को धारण करते हैं - मद्यं, मांसं, मीनं, मुद्रां, मैथुनं एव च। ऐते पंचमकार: स्योर्मोक्षदे युगे युगे। कापालिक मान्यता है कि जिस तरह ब्रह्मा के मुख से चार वेद निकले, उसी तरह तंत्र की उत्पत्ति भोले भंडारी के श्रीमुख से हुई। इसलिए कापालिक शैवोपासना करते हैं।

ज्ञात इतिहास के अनुसार उन्तिवाटिका ताम्रलेख के अनुसार जिला का पूर्वी भाग, विशेषकर सोहागपुर के आसपास का भाग लगभग सातवी शताब्दी में मानपुर नामक स्थान के राष्ट्रकूट वंशीय राजा अभिमन्यु के अधिकार में था. उदय वर्मा के भोपाल शिलालेख में ई. सन् 1199 में विन्ध्य मंडल में नर्मदापुर प्रतिजागरणक के ग्राम गुनौरा के दान में दिये जाने का उल्लेख है. इससे तथा देवपाल देव (ई. सन् 1208) के हरसूद शिलालेख से यह पता उल्लेख है कि जिले के मध्य तथा पश्चिमी भागों पर धार के राजाओं का अधिकार था. गंजाल के पूर्व में स्थित सिवनी-मालवा होशंगाबाद तथा सोहागपुर तहसीलों में आने वाली शेष रियासतों पर धीरे-धीरे ई.सन् 1740 तथा 1755 के मध्य नागपुर के भोंसला राजा का अधिकार होता गया. भंवरगढ़ के उसके सूबेदार बेनीसिंह ने 1796 में होशंगाबाद के किले पर भी अधिकार कर लिया. 1802 से 1808 तक होशंगाबाद तथा सिवनी पर भोपाल के नबाव का अधिकार हो गया, किंतु 1808 में नागपुर के भोंसला राजा ने अंतत: उस पर पुन: अधिकार कर लिया।

वर्ष 1817 के अंतिम अंग्रेज-मराठा युध्द में होशंगाबाद पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया तथा उसे सन् 1818 में अप्पा साहेब भोंसला द्वारा किए गए अस्थायी करार के अधीन रखा गया. सन् 1820 में भोंसला तथा पेशवा द्वारा अर्पित जिले सागर, तथा नर्मदा भू-भाग के नाम से समेकित कर दिए गए तथा उन्हें गवर्नर जनरल के एजेंट के अधीन रखा गया, जो जबलपुर में रहता था. उस समय होशंगाबाद जिले में सोहागपुर से लेकर गंजाल नदी तक का क्षेत्र सम्मिलित था तथा हरदा और हंडिया सिंधिया के पास थे. सन् 1835 से 1842 तक होशंगाबाद, बैतूल तथा नरसिंहपुर जिले एक साथ सम्मिलित थे, और उनका मुख्यालय होशंगाबाद था. 1842 के बुंदेला विद्रोह के परिणाम स्वरूप उन्हें पहले की तरह पुन: तीन जिलों में विभक्त कर दिया गया।

इस मंदिर के आस पास कई छतरियाँ (मृतक स्मारक) बनी दिखाई देती हैं। मंदिर के मंडप में अन्य स्थानों से प्राप्त कई प्रतिमाएं रखी हुई हैं। जिनमें पद्मासनस्थ बुद्ध की मूर्ति भी सम्मिलित है। मंदिर का अधिष्ठान भी क्षरित हो चुका है। इसका सरंक्षण जारी दिखाई दिया। विराट मंदिर के दर्शन करके मन प्रसन्न हो गया। कलचुरीकालीन गौरव का प्रतीक विराट मंदिर सहस्त्र वर्ष बीत जाने पर भी गर्व से सीना तानकर आसमान से टक्कर ले रहा है। अगर इसका संरक्षण कार्य ढंग से नहीं हुआ तो यह ऐतिहासिक धरोधर धूल में मिल सकती है। यहाँ से हम अपने मार्ग पर चल पड़े।

रविवार, 3 नवंबर 2013

हैप्पी दीवाली: कुछ उनकी, कुछ अपनी

दृश्य-1

कल दशहरा मना लिया गया, रावण अपने धाम को विदा हो गया। मौसम में दीवाली महक आ गई है। सुबह-सुबह ओस के साथ मौसम दीवालियाना लगने लगा है। चाय का कप लिए करंज के पेड़ के नीचे कुर्सी डाले बैठा हूँ। इस एक महीने के त्यौहार में कितने काम रुक जाते हैं और कितने काम हो जाते हैं सोच रहा हूँ। रामगढ़ पर मेरी पुस्तक अधूरी है, उसे पूरा करने के लिए मुझे एक बार 2-4 दिनों के लिए रामगढ़ और जाना होगा। पिछले छ: महीने से योजना बना रहा हूँ। लेकिन कुछ न कुछ अड़ंगा आ जाता है। बरसात के चार महीने तो जंगल में घुसने लायक भी नहीं हैं। अब चुनाव का डंका बज चुका है। घर में रहकर ही राजनैतिक प्रतिस्पर्धा (लड़ाई) का आनंद लिया जाए। उसके बाद देखा जाएगा, कहीं जाना होगा तो। वैसे भी दीवाली का कितना काम पड़ा है।

दृश्य-2

बाईक स्टार्ट कर रहा हूँ, बाजार जाना है। तभी मालकिन पहुंच जाती है - दीवाली सिर पर आ गई है। रंगाई, पोताई, साफ़-सफ़ाई नहीं करवानी क्या? कोई चिंता ही नहीं है आपको। बाजार जा रहे हो तो रंग रोगन ले कर आना। परसों से काम शुरु हो जाना चाहिए।
अरे! हर साल रंग-रोगन तो टाटा-बिड़ला के यहाँ भी नहीं होता। पहले मकानों में चूना करना होता था तो लोग हर साल पुताई कर लेते थे। अब कितना मंहगा हो गया है, रंग-पेंट। दस हजार से कम का नहीं आएगा और पेंटरों का भी भाव बढा हुआ है। कहाँ ढूंढने जाऊंगा।
कहीं से लाईए ढूंढ कर। मुझे घर की रंगाई पुताई करवानी है। एक साल में घर की दीवारें कितनी गंदी हो जाती हैं। आपको नहीं दिखता क्या? मालकिन ने अपना आदेश सुना दिया और चली गई। मजबूरी युक्त हमारी मजदूरी शुरु हो गई।

दृश्य - 3

रंग-रोगन की दुकान में भारी भीड़। लोग सामान धक्का मुक्की कर सामान खरीद रहे हैं। सोच रहा हूँ कि ये भी मेरे जैसे ही होगें। इनकी मालकिनों ने भी इन्हें खदेड़ा होगा। दुकानदार की नजर मुझ पर पड़ती है - नमस्कार भैया! कैसे आना हुआ?
नमस्कार! यार मैं सोच रहा था कि तेरी बारात में जाने के बाद भूल गया ही गया। कम से कम बच्चों के बारे में पूछना चाहिए था कि कितने हुए। आज याद आया तो पता करने चला आया।
हे हे हे हे! आप भी मजाक करते हैं भैया। 10 साल बाद आपको याद आई।
अरे! मुझे रंग रोगन लेना है, इसलिए आया हूँ। इतना भी नहीं समझता। एशियन का इमल्शन पेंट लेना है। कलर कार्ड दिखा  मुझे। हॉल के लिए 2 रंग। बैडरुम के लिए 2 रंग, दूसरे बैडरुम में 2 रंग। भगवान के कमरे के लिए अलग लेना है। बाकी जो बच गया किचन में लगा लेगें। छत और बार्डर का रंग मिला कर भीतर के लिए लगभग 15 लीटर लग जाएगा तथा बाहर के लिए स्नोशेम कलर भिजवा दे। साथ में 1 छ: इंची ब्रस, 1 दो इंची, एमरी पेपर 80 नम्बर, व्हाईट सीमेंट 5 किलो भी साथ में देना।

दृश्य -3

भोजन जारी है- बोल आए रंग रोगन के लिए? मालकिन ने प्रश्न दागा। मेरे जवाब देते तक ही डोर बेल बजी। लड़का रंग रोगन का डिब्बा लिए सामने खड़ा था। मालकिन के चेहरे पर विजयी मुस्कान की चमक आ गई थी। रख दो भैया, उधर कोने में। साथ ही मेरी ओर मुखातिब होते बोली- कल सुबह सातपारा जाकर पेंटर का पता करके आओ। अब अधिक समय नहीं रह गया है। घर की साफ़ सफ़ाई भी करनी पड़ती है। रंग रोगन के बाद फ़र्श पर कितना कचरा फ़ैल जाता है। काम वाली बाई भी नौंटकी करने लगती है। आपका क्या है, जब देखो तब कम्पयूटर पर डटे रहते हो। थोड़ा भी ध्यान न दूं तो सारा काम ऐसे ही पड़ा रहे। आखिर सारा काम मुझे ही करना पड़ता है। मैं सिर झुकाए खाने में व्यस्त हूँ। आदेश सुनाई दे गया। अब कल की कल देखी जाएगी।

दृश्य-4

रात के 10 बज रहे हैं और मैं नेपाल यात्रा के पोस्ट लेखन से जूझ रहा हूँ। सब कुछ याद है कि कुछ भूल रहा हूँ। कीबोर्ड की खटर पटर जारी है। इसी बीच मालकिन का आगमन होता है - रविवार को बच्चों के कपड़े लेने जाना है। फ़िर सब छंटे छंटाए मिलेगें।
चले जाना भई, मैने कब रोका है। - मैने कीबोर्ड खटखटाते हुए कहा।
आप सारा दिन इसी में लगे रहते हो। कभी फ़ुरसत है यह सब सोचने की।
अरे! सारे ही सोचने लग जाएगें तो काम बिगड़ जाएगा। परिवार का काम यही है कि सब सोचें और कार्य पर विजय पाएं। अब मैं भी सोचने लग गया तो तुम्हारे लिए सोचने के लिए क्या बचेगा। इसलिए जिसका काम उसी को साजे, नही साजे तो डंडा बाजे।

दृश्य-5

कीबोर्ड विराम मोड में है और माऊस का काम चल रहा है। पोस्ट में फ़ोटो अपलोड हो रही हैं। दिमाग सोचनीय मोड में है। इसी घर में बचपन में देखते थे कि पितृपक्ष समाप्ति और नवरात्रि के पहले दिन से ही दीवाली के काम शुरु हो जाते थे। कामगारों की रेलम पेल। खेत से फ़सल आने की तैयारी। खलिहान की लिपाई शुरु हो जाती थी। उरला गाँव का बुधारु टेलर सिलाई मशीन लेकर बैठक की परछी में डेरा लगा लेता था। पंजाबी की दुकान से थान के थान कपड़े आते थे और सभी बच्चों के नाप के हिसाब से 2-2 जोड़ी कपड़ों की सिलाई शुरु हो जाती थी। स्कूल से आते ही पहला काम होता था कि आज टेलर ने किसके कपड़े सीले हैं और कल किसकी बारी है। कपड़े की दुकान घर पर ही खुल जाती थी। टेलर की भी मौज हो जाती थी, एक ही घर के कपड़े सीने में उसकी दीवाली मन जाती थी।

दृश्य-6

पेंटर काम पे लगे हुए हैं, उनकी सहायता के लिए उदय महाराज तैयार हैं, कभी इस डिब्बे की ब्रश उस डिब्बे में तो कभी इधर का पेंट उधर। हम कम्प्यूटर पर चिपके हुए हैं। कभी झांक कर देख लेते हैं क्या काम हो रहा है। आप यहाँ बैठे है और उदय उन्हें काम नहीं करने दे रहा है - तमतमाते हुए मालकिन का आगमन होता है।
उदयSSSSSSS! क्यों फ़ालतू परेशान कर रहा है। काम करने दे। चल तुझे एक काम देता हूँ, देख कितनी सारी तितलियाँ बाड़े में उड़ रही हैं। दो-चार सुंदर की फ़ोटो ही खींच ले। कम्प्यूटर का वाल पेपर बनाएगें। खुशी खुशी उदय कैमरा लेकर मंदिर की तरफ़ चला जाता है।
ये श्रुति भी न, जब काम होगा तभी स्कूल जाएगी। नहीं तो छुट्टी कर लेती है। काम के बोझ के नीचे कोई नहीं आता। सारा दिन रात खटना पड़ता है। तब कहीं जाकर दीपावली का काम निपटता है। अभी तो बिजली मिस्त्री को बुलाना है। 2 महीने से बाहर की ट्यूब लाईट खराब पड़ी है। उसे ठीक करवाना है। कोई ध्यान ही नहीं देता। - मालकिन बड़बड़ा रही थी।

दृश्य-7

पेंटर आधा अधूरा काम छोड़ कर गायब हो गए हैं ।मालिक साहब स्टूल पर चढे दीवाल पर रोगन चढा रहे हैं। अरे! इतना तो रंग मत टपकाओ। फ़र्श पर गिरने के बाद चिपक जाता है, साफ़ नहीं होता।
अब ब्रश से चूह जाता है तो मैं क्या करुं? कौन सा मैने पेंटिंग का कोर्स किया है। अब काम वाले नहीं आए तो मैं क्या करुं। ब्लेड से खुरच कर साफ़ कर दूंगा। दीवाली का काम है करना ही पड़ेगा। वरना कौन सुबह-शाम सिर पर बेलन बजवाएगा। हाँ नहीं तो। जरा ड्रम इधर खिसकाना तो।
ये छिपकिलियाँ बहुत परेशान करती हैं। जहाँ देखो वहीं घुसे रहती हैं। फ़ोटो के पीछे, कपड़ों के पीछे, आलमारी के पीछे। किताबों के सेल्फ़ में। मरती भी नहीं है। कोई इलाज नहीं है क्या इनका?
इलाज तो मुझे भी नहीं मालूम। फ़ेसबुक पर लिख कर मित्रों की राय ले लेता हूँ। अगर वे कोई समाधान बताएगें तो अमल में लाया जाएगा।
फ़ेसबुक पर लगाया हुआ महत्वपूर्ण स्टेटस, ही-ही बक-बक की बलि चढ जाता है। लेकिन मगरमच्छ की बहनों से पैदा हुई समस्या का हल नहीं मिलता।

दृश्य-8

पटाखे लाने हैं कि नहीं?
क्या करना है पटाखे लाकर। पिछले साल ही 2500 के लाए थे और किसी ने चलाए भी नहीं। अभी तक पड़े हैं घर में। फ़ालतू खर्च करने से क्या हासिल होगा।
दीवाली है, लोग पटाखे चलाते हैं। फ़िर आदि, हनी, श्रुति, श्रेया, उदय को तो पटाखे चलाने हैं। आप चलाओ चाहे न चलाओ।
रोज अखबार वाले और टीवी वाले कह रहे हैं कि पटाखे चलाने से ध्वनि प्रदूषण एवं वायू प्रदूषण होता है। साथ ही आचार संहिता लगने के कारण आज ही चुनाव आयोग का मेल-पत्र आया है कि रात 10 बजे से सुबह 6 बजे तक पटाखे चलाने पर प्रतिबंध है। अब पटाखे चलाने वालों को पुलिस पकड़ कर ले गई तो समझो मन गई दीवाली। - मैने टालने की कोशिश करते हुए कहा।
कोई पुलिस वाला पकड़ कर नहीं ले जाएगा। साल भर का त्यौहार है, इस दिन भी क्या पटाखे नहीं चलाने देगें। जाओ लेकर आओ और ज्यादा पटाखे नहीं लाना। सभी एक एक पैकेट ले आना।
बाजार से वापसी लौटते हुए उदय के पास एक बड़ी पालिथिन में भरे हुए पटाखे दिखाई देते हैं। इतने सारे क्यों ले आए? मैने तो थोड़े से लाने कहा था।
मुझसे थोड़ा सामान नहीं खरीदा जाता। साला ईज्जत का कचरा हो जाता है। तुम्हे थोड़ा सामान खरीदना हो तो किसी और से मंगवा लिए करो। मुझे मत कहे करो। हाँ ! साथ में लट्टूओं की झालर भी ला दी हैं 6 नग। मुझे मत कहना फ़िर बाजार जाने के लिए।

दृश्य- 9

आम के पत्तों को तोड़ कर नंगा करने पर तुले हैं नंदलाल और उसके लड़के। अरे! सारे पत्ते तुम ही तोड़ ले जाओगे तो दीवाली में हम कहाँ से लाएगें? मैने उन्हें झिड़कते हुए कहा।
दादी से पूछ कर तोड़ रहे हैं।
ले भई, जब दादी ने कह दिया तो पूरा पेड़ ही उखाड़ कर ले जाओ। कल तो कुछ मरदूद फ़ूल तोड़ने भी आएगें। - मैने कहा
तब तक मालकिन भी मैदान में आ जाती है- सब इन्हीं लोग ले जाते हैं दादी की सिफ़ारिश से, हमारे लिए तो बचते ही नहीं। आंगन लीपने के लिए गोबर भी नहीं आया है। श्रुति रंगोली का सारा सामान लेकर आ गई है। गोबर आएगा तो लीपा जाएगा, तब रंगोली बनेगी। इतवारी के लड़के को कब से खोवा (मावा) लाने कही हूँ, अभी तक लेकर नहीं आया है। कितना काम पड़ा है। कब खोवा लेकर आएगा तो कब गुलाब जामुन बनेगें।
मैने तो मना कर दिया था खोवे के लिए। आजकल खोवा खराब आ रहा है और मंहगा भी कितना है। 10 रुपए किलो में कोई कुत्ता भी नहीं पूछता था। आज 400 रुपए किलो हो गया है। वह भी शुद्ध होने की कोई गारंटी नहीं। नकली खोवा खाओ और अपनी तबियत खराब करो। 400 का खोवा और 1400 की दवाई।
आपकी चले तो कोई त्यौहार भी न मने। मैने कहा है उसे खोवा लाने के लिए। अगर तबियत खराब होगी तो मेरी होगी। देखा जाएगा, कम से कम दीवाली तो जी भर के मनाएं।

दृश्य -10

बरगद के पेड़ के नीचे कैमरा लिए बैठा हूँ, कुछ बगुले गाय की पीठ पर सवार हैं और लछमन झूला झूलने का मजा ले रहे हैं। बाड़े में चारों तरफ़ नजर दौड़ाता हूँ तो सूना सूना लगता है। लगता है जैसे काटने को दौड़ रहा हो। कभी इसी जगह पर त्यौहार पर 40-50 परिजन इकट्ठे होते थे। उस आनंद के कहने ही क्या थे। लक्ष्मी पूजन करने के बाद आशीर्वाद लेने-देने का क्रम चलता था और आतिशबाजी रात भर चलती थी। अब ऐसा कुछ नहीं है। कुछ बाहर चले गए, कुछ धरती में समा गए। कुछ अलग हो गए अपने - अपने कुटूंब कबीले को लेकर।
कैसा मजा रह गया है अब इन त्यौहारों का? सिर्फ़ परम्परा का निर्वहन हो रहा है। कल जब लोग पूछेगें कि दीवाली कैसी मनी? तो उन्हें बताने के लिए भी कुछ होना चाहिए। इन परिवार नियोजन वालों ने दुनिया का सत्यानाश कर दिया। वरना एक परिवार की दीवाली इतनी बड़ी होती थी, जितनी आज सारे मोहल्ले की होती है। 8-10 बच्चे होते तो उनकी उछल कूद और उत्साह से लगता कि आज कोई त्यौहार है। जब वे नए कपड़े पहन कर उत्साह से फ़ूलझड़ियाँ चलाते, आतिशबाजी करते। कोई किसी के पटाखे चुराकर जला देता तो किसी की पतलून के पांयचे में चकरी के पतंगे लग जाते। कितना आनंद होता उस दीवाली का।

क्या सोच रहे हो? चाय पीलो और मैने पानी गर्म कर दिया है, नहा धोकर तैयार हो जाओ। पूजा का मुहूर्त 6 बजे का है। आज तो कम से कम आलस छोड़ दो।

इस तरह संसार के रंगमंच पर न जाने कितने ही दृश्यों में पात्र को अभिनय करना पड़ता है और जीना पड़ता है इस दुनिया की वास्तविकता को। जो सपनों से तथा कल्पनाओं से कहीं अलहदा होती हैं। सभी मित्रों की दीप पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

सुनसान भयावह सड़क पर भटकते ब्लॉगर

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
नेपाल से जैसे ही हमारी गाड़ी ने भारतीय सीमा में प्रवेश किया वैसे ही हमारी सहचरी बोल पड़ी। बहुत सुकून मिला उसकी मधुर आवाज सुन कर। भले ही मैं उसे गाहे-बगाहे कोसता रहा परन्तु नेपाल में उसकी जरुरत हमें महसूस होते रही। जब वह गडढों भरे रास्ते पर ले जाती थी तो उसका मुंह तोड़ने का मन करता था क्योंकि समय खराब होता था गाड़ी हिचकोले लेते हुए चलती थी। फ़िर भी उस आभासी साथी का संग कभी भूला नहीं जा सकता। एक हिम्मत बनी रहती थी, किसी भी शहर में रास्ता भटकने नहीं देती थी। जैसे ही हम सोनौली गाँव से बाहर निकले तो मैने पाबला जी से कहा कि भारत में प्रवेश कर गए हैं और इसकी पहचान स्वरुप लोटाधारी एवं लोटाधारिणियाँ सड़क के किनारे बैठे/बैठी दिखाई दिए। भारत की यही पहचान है कि सुबह शाम रास्ते के किनारे शौच करते महिला पुरुष दिखाई दे जाएगें।
बढ़ते चलो बी.एस.पाबला जी 
नौतनवा बायपास से निकलने पर पाबला जी ने कहा कि अब क्या प्रोग्राम बनाया जाए गोरखपुर में रात्रि विश्राम करने के लिए। तो मैने कहा कि - गोरखपुर में नहीं रुकते, सीधे ही चलेगें और रात भर गाड़ी हांकेगें। जहाँ नींद आएगी वहीं गाड़ी खड़ी करके सो लेगें। जब जाग गए तो आगे बढ जाएगें। सबने सहमति जताई और हम आगे बढते रहे। जीपीएस के कारण रास्ता याद करने की जरुरत नहीं थी। हम इलाहाबाद होकर आगे बढना चाहते थे। पिछला रास्ता छोड़ना था। जीपीएस वाली बाई को इलाहाबाद जाने का बोल कर हम निश्चिंत हो गए। उसने गोरखपुर से लगभग 25 किलोमीटर पूर्व ही बायपास से गाड़ी मोड़ दी। लगभग नौ बजने को थे। इस मार्ग पर ट्रकों का परिवहन दिखाई दे रहा था। 

उस समय चाय की दरकार हुई। भोजन का मन नहीं था। हमने चाय के लिए एक होटल में गाड़ी रोकी तो उसने बताया कि दूध नहीं है। कारण पूछने पर पता चला कि कोई त्यौहार है, इस दिन सभी घरों में दूध की जरुरत पड़ती है इसलिए होटलों में दूध नही मिलता। आगे बढ कर एक होटल में फ़िर चाय पूछी तो उसने भी मना कर दिया। हम आगे बढे ही थे कि किसी गाड़ी के जोरों से ब्रेक मारने की आवाज आई। साथ ही गाड़ी के टायरों के घर्षण से जलने गंध। हम अपनी साईड में थे और सामने से एक ट्रक आ रहा था। पाबला जी ने साईड की और मैने ब्रेक लगा दिए, ब्रेक क्या लगाना, लगभग अपनी जगह पर खड़ा ही हो गया था। सामने पुलिया थी और सायकिल वाले दो बच्चे भी। वे भौंचक निगाहों से हमारी गाड़ी की तरफ़ देख रहे थे। ये सब कुछ सेकंडों में घट गया ब्रेक मारने वाली उसी रफ़तार से हमारे बगल से गुजर गई।
कृष्ण कुमार यादव, बी.एस.पाबला, महफूज अली, गिरीश पंकज
कुछ दे्र हम अपने आपको संयत करते रहे। अगर वह कार वाला गाड़ी नहीं संभाल पाता तो हमें टक्कर मारता या सीधे सामने से आ रहे ट्रक से टकराता तो उसके चिथड़े उड़ने तय थे। पता नहीं कैसे लोग अपनी जान खतरे में तो डालते हैं साथ ही दूसरे को परलोकवासी बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। हम आगे बढ गए, रास्ते में एक बड़ा ढाबा दिखाई दिया। जहाँ सफ़ेद कुर्ता पैजामाधारक टेबलों पर जमें  हुए थे। हमने भोजन के लिए यह जगह उपयुक्त समझी। खुले में बैठ गए, लेकिन होटल जितना बड़ा दिखाई, उतना ही घटिया था। रोटी चावल और भटे और आलू की सब्जी के अलावा कुछ था ही नहीं। जैसे तैसे हमने थोड़ा बहुत भोजन किया और आगे के सफ़र में चल पड़े। यह रास्ता अच्छा था, गाड़ी 50-60 की गति से मजे से चले जा रही थी।

जीपीस वाली बाई ने सज्जे मुड़ने कहा और सामने किसी नदी का बड़ा पुल था। पुल के पहले पुलिस की चौकी थी। एक कच्छाधारी पुलिस वाला लोटा लेकर जा रहा था तथा 3 पुलिस वाले डंडा लेकर पुल पर तैनात थे। 3 खटिया भी पड़ी थी मच्छरदानी लगाई हुई। पुल पार करते ही पुन: बड़े बड़े गड्ढे वाली सड़क मिली। हमने सोचा कि थोड़ी दूर होगी यह सड़क, फ़िर अच्छी सड़क आ जाएगी। यह रास्ता हमें बस्ती ले जा रहा था। बस्ती से अयोध्या फ़ैजाबाद होते हुए हमें इलाहाबाद पहुंचना था। यह सड़क तो बिलकुल बरबाद थी। घुप्प अंधेरे में अन्य कोई ट्रैफ़िक भी दिखाई नहीं दे रहा था। आधी रात के सन्नाटे में 4 लोग गाड़ी धकियाते चल रहे थे। 
कृष्ण कुमार यादव एवं ललित शर्मा सिरपुर के साथ 
एक स्थान पर तालाब के किनारे की सड़क ही गायब थी, उस पर नई मिट्टी डाली गई थी। पाबला जी ने गाड़ी रोक ली। अगर यहाँ गाड़ी फ़ंस जाती तो कोई निकालने वाला भी नहीं मिलता। मैने नीचे उतर कर देखा तो पहियों के निशान पर की मिट्टी सख्त थी। बस उन्ही निशान पर चलकर गाड़ी निकाली गई। गाड़ी निकल गई तो चैन की सांस आई। हम सड़क का ट्रेलर देख चुके थे। आगे बढे तो सड़क के किनारे मुसलमानों के घर, मदरसे इत्यादि दिखाई देने लगे। लगा कि हम मुसलमानों की घनी आबादी से निकल कर जा रहे हैं। सड़क दो कौड़ी और रात के एक बज रहे थे। अभी मुज्जफ़रनगर वाले मामले से हवा गर्म है और आपातकाल में इस इलाके में कोई पानी देने वाला भी नहीं मिलेगा। सियासत का क्या भरोसा? कब कौन शिकार हो जाए। सन्नाटा गहराता जा रहा था और रात रहस्यमयी होती जा रही थी। सड़क के आस पास की घास से निकल कर सियार सड़क पर दिखाई दे रहे थे, गाड़ी की रोशनी पड़ते ही भाग जाते थे। इस रास्ते पर 8 सियार दिखाई दिए।

मेरी आँखे लगातार सड़क पर लगी हुई थी। पाबला जी गाड़ी चलाते जा रहे थे। गिरीश भैया पिछली सीट पर शायद हमें कोसते हुए आराम कर रहे थे। क्योंकि उन्होने भी नहीं सोचा होगा कि इतने खतरनाक बियाबान रास्ते पर हमें चलना पड़ सकता है। शायद यह रास्ता बस्ती तक 40 किलोमीटर का रहा होगा। एक छोटे से गाँव में लगभग बहुत सारी लक्जरी बसें खड़ी दिखाई दी। पाबला जी ने कहा - ललित जी बसें देखिए। मैने कहा - यह कोई मुख्य स्टैंड होगा, जहाँ से चारों तरफ़ बसें जाती होगीं इसलिए इतनी सारी बसें एक साथ दिखाई दे रही हैं। हम आगे बढते गए और सड़क के किनारे खड़ी बसों की कतार खत्म ही नहीं हो रही थी। इतने अधिक खराब रास्ते पर लक्जरी बसें देख कर हम चौंक गए। लगभग 100 से अधिक बसें रही होगी। शायद इस इलाके में बड़ा ट्रांसपोर्ट माफ़िया होगा। तभी इतनी सारी बसें एक साथ दिखाई दी।
महफूज अली एवं गिरीश पंकज
बस्ती पहुंचने पर मैने आगे की सीट गिरीश भैया को सौंप दी तथा कुछ देर आराम करने के लिए पिछली सीट पर आ गया। पैर मोड़ कर नींद भांजने लग गया। मेरी आँख तब खुली जब हम अयोध्या से सरयू पर बने बड़े पुल से गुजर रहे थे। आगे फ़ैजाबाद हवाई अड्डे के किनारे से होते हुए हम आगे बढे। फ़ैजाबाद देख कर मुझे अमरेंद्र त्रिपाठी याद आए। यह उनका गृह जिला है। अगर समय होता तो अयोध्या का एक चक्कर फ़िर लगा लेते लेकिन हमें तो 17 तारीख तक किसी भी हालत में घर पहुंचना था। सुल्तानपुर 25 किलोमीटर था तब पाबला जी ने एक पैट्रोल पंप के किनारे गाड़ी को ब्रेक लगाया और बोले कि मैं सो रहा हूँ। जब थकान दूर हो जाएगी तो हम चल पड़ेगें। पैट्रोल पंप में एक चाय की दूकान थी और वहां कई तख्त पड़े थे। पहले तो चाय बनवाकर पी और मैं भी एक तख्त पर ढेर हो गया। गिरीश भैया पैदल घूम कर मौसम का आनंद ले रहे थे।

पाबला एक नींद पूरी करके उठे और मुझे जगाया। मौसम को देखते हुए उन्होने कहा कि डिक्की को ठकना चाहिए। आगे धूल भरा रास्ता है। वैसे भी रात भर चलने से पूरी गाड़ी में और बैग इत्यादि में धूल भर चुकी थी। गिरीश भैया की चादर को हमने डिक्की पर लपेट कर कांच बंद कर दिया। यह जुगाड़ हमें पहले ही कर लेना था। कैमरे को भी धूल से खतरा था, इसलिए मैने चित्र लेने के लिए बैग से निकाला ही नहीं। पर हमारा दिमाग तो काम नहीं किया पर सरदार का दिमाग काम आया। बात बन गई। यहां से हम आगे बढे। तभी ध्यान आया कि अपने प्रसिद्ध ब्लॉगर दम्पत्ति तो इलाहाबाद में ही रहते हैं और हमें अब नहाने और फ़्रेश होने की जरुरत थी। वैसे भी ब्लॉगर्स को मैं अपने पिछले जन्म का संबंधी ही मानता हूँ। जो इस जन्म में मुझे आभासी रुप से प्राप्त हुए। इस जन्म वाले सखा तो साथ पले बढे और खेले कूदे। पिछले जन्म के जो साथी छूट गए थे उन्हे भगवान ने इंटरनेट के माध्यम से मिलवा दिया। ये हुई न कोई बात।
महफूज अली, कृष्ण कुमार यादव, ललित शर्मा एवं  गिरीश पंकज
मैने 9 बजे मैसेज से कृष्णकुमार जी को इलाहाबाद आगमन की सूचना दी। उन्होने तुरंत मैसेज का जवाब देते हुए अपना पता भेज दिया और तत्काल मुझे फ़ोन लगाकर आने को कहा। मैने पाबला जी को बताया तो उन्होने सहचरी को जीपीओ पहुंचाने कह दिया। तभी महफ़ूज का फ़ोन भी आ गया। वह भी इलाहाबाद में था, पाबला जी ने मुझे बताया। चलो ये भी खूब रही, छोटा सा ब्लॉगर मिलन ही हो जाएगा। एक घंटे बाद हमने इलाहाबाद में प्रवेश किया। गंगा पार करने के बाद हमें एक नाका मिला। जहाँ टोल टैक्स लिया जा रहा था। छत्तीसगढ़ सरकार का पत्रकार का कार्ड दिखाने पर उन्होने कहा कि यहाँ नहीं चलेगा, ई यूपी है। चलो भई नहीं चलाओगे तो हमारा क्या जाएगा। घाटा तो यूपी सरकार का ही है। हम ब्लॉगर तो वैसे भी तुम्हारे यूपी की सड़कों को कोसते आ रहे हैं।

इलाहाबाद के ट्रैफ़िक सेंस की चर्चा क्या करुं? अगर नहीं करुंगा तो लोग कहेगें कि बताया नहीं। नाका से आगे बढने पर ट्रैफ़िक का जो हाल देखा, ऐसा कहीं देखने नहीं मिला। दांए, बांए, आगे, पीछे कोई कहीं से भी घुस जाता था। ऑटो वाले बीच सड़क से ही ऑटो मोड़ लेते थे। ट्रैफ़िक की हालत देख कर पाबला जी का दिमाग पर प्रेसर बढ रहा था और मेरा पैर पर। जी पी एस वाली बाई नगर के बीचों बीच लेकर चल रही थी। कृष्ण कुमार जी हम लोगों की लोकेशन ले रहे थे फ़ोन पर। लालबत्ती देख कर चौक पर हमारी गाड़ी रुकी। लेकिन बाकी ट्रैफ़िक नहीं रुका। हम हरी बत्ती का इंतजार करते रहे, चौक पर हमारी गाड़ी के बगल में ही सिपहिया खड़ा था। पाबला जी बोले - जब कोई नहीं रुक रहा तो हम क्यों रुकें। चलो बढा जाए, कह कर गाड़ी बढा दी।
ब्रिटिश क्राउन 
हम सिविल लाईन पहुंच गए। अब सिविल लाईन बहुत बड़ी है। किधर जाएं, जीपीएस वाली बाई जीपीओ, पोस्ट ऑफ़िस कमांड देने पर कई पोस्ट ऑफ़िस दिखाने लगी। जीपीओ की कमांड देने पर उसने हेड पोस्ट ऑफ़िस के पिछले दरवाजे पर पहुंचा दिया। वहाँ पर एक स्कूल था, लेकिन प्रवेश द्वार दिखाई नहीं दिया। हमने गाड़ी आगे बढाई तो गोल चक्कर पर चर्च दिखाई दिया। वहां से आगे बढने पर मुख्य प्रवेश द्वार दिखाई दे गया। द्वार पर पहरा लगा था, हमारी गाड़ी ने प्रवेश किया तो एक व्यक्ति हमें वहाँ मिल गए, जो हमें रिसीव करने के लिए खड़े थे। हमने गाड़ी खड़ी की तो धूल ही धूल भरी हुई थी समान में। तभी कृष्ण कुमार जी भी आ गए साथ आकांक्षा जी भी अलग कार में थे। नन्ही ब्लॉगर अक्षिता पाखी और अपूर्वा स्कूल से आए थे। हम गेस्ट रुम में पहुंच गए। पाबला जी सो गए और मैं स्नानाबाद चला गया।

खाना तैयार था, मैं पाबला जी को नींद से जगाना नहीं चाहता था, गिरीश भैया को खाने के लिए बुला लाया। हम दोनों ने भोजन किया और मैं भी एक नींद लेना चाहता था। यादव जी ने कहा था कि - जब आप लोग फ़्री हो जाएं तो मुझे फ़ोन कर लीजिएगा, मैं यहीं हूँ। मैं सोफ़े पर सो गया। पाबला जी का फ़ोन बजने लगा। 3 बार किसी का फ़ोन आया, वे गहरी नींद में थे। मैं भी निद्रा रानी के आगोश में जाने वाला था फ़ोन की घंटी बज गई। देखा तो महफ़ूज अली थे। आ जाओ भाई सीधे ही उपर। और वो पट्ठा भी सीधा ही उपर आ गया। :) थोड़ी देर में मैं नींद की खुमारी से बाहर आया। महफ़ूज ने पाबला जी को भी जगा दिया। पाबला जी ने स्नान करके भोजन किया। फ़िर मैने तीन बजे कृष्ण कुमार जी को फ़ोन लगाया। वे भी आ गए और ब्लॉगर्स की महफ़िल जम गई। मैने उन्हे सिरपुर सैलानी की नजर से पुस्तक भेंट की।
बी. एस. पाबला, महफूज अली, कृष्ण कुमार यादव, गिरीश पंकज एवं अन्य 
कृष्ण कुमार जी का जनसम्पर्क बहुत तगड़ा है, उन्होने तुरंत ही फ़ोन करके एक पत्रकार को बुला लिया। नेपाल ब्लॉगर सम्मान समारोह पर बात होने लगी। पत्रकार ने हम सबके विचार लिखे। फ़िर हम पोस्ट ऑफ़िस घूमने गए। जहाँ बहुत सारी चीजें मुझे देखने मिली। मेरी रुचि वहां मौजूद ब्रिटिश क्राऊन में अधिक थी। कृष्ण कुमार यादव जी ने बताया कि यह प्रस्तर निर्मित ब्रिटिश क्राऊन पोस्ट ऑफ़िस के कबाड़ में पड़ा हुआ था। उसे जोड़ कर उन्होने पोस्ट ऑफ़िस में रखवाया। इसका एक भाग टूट चुका है तथा लैटिन भाषा में लिखे हुए अक्षर टूटने के कारण लिखा हुआ पढा नहीं जा सका। कुछ पुरानी डाक टिकटें, हरकारों के हथियार इत्यादि यहां प्रदर्शित किए गए है। अब हमारा आगे बढने का समय हो रहा था।

हमने कुछ चित्र 1872 में निर्मित लेटर बॉक्स के साथ खिंचवाए और कृष्ण कुमार जी धन्यवाद देते हुए उनसे विदा ली। यह एक अविस्मरणीय भेंट थी, जो हमेशा याद रहेगी। अब हमें इलाहाबाद के ट्रैफ़िक से फ़िर जूझना था। चौराहे पर फ़िर वही घटना हुई। अबकि बार पाबला जी अड़ गए कि बिना हरी बत्ती हुए गाड़ी आगे नहीं बढाएगें। लाल बत्ती में भी पीछे की गाड़ियाँ वाले आगे बढने के लिए हार्न बजा रहे थे। बत्ती हरी होने पर आगे बढे। बाजार के बीचे से चलते हुए गाड़ी वाली आगे पीछे अगल-बगल से निकलने लगे। हमारी गति एकदम कम ही थी। एक सुजूकी वाले ने बाईक हमारी गाड़ी के सामने अड़ा दी और पाबला जी ने उसे हल्की की टक्कर दी। वह बाईक लेकर घूरते हुए आगे बढा। बाजार से निकल कर हम गंगानदी के पुल पर पहुंचे तो वहां खूंटे गड़े हुए मिले। मतलब इधर से लोहापुल से आगमन का रास्ता था, जाने वाला बंद था। गाड़ी वापस मोड़ी। जीपीएस ने फ़िर उसी रास्ते पर पहुंचा दिया।
तीन ब्लॉगर रास्ते में (कैम्प टी)
फ़िर हमें बंगाल के नम्बर की एक मारुति दिखाई दी। मैने कहा कि इसके पीछे पीछे चलते हैं ये भी पुल पार करेगा। इसके पीछे गाड़ी लगाने पर वह नदी के रास्ते पर गया और वहाँ से लौटती हुई सड़क से पुल पर चढने का रास्ता था। काफ़ी मशक्कत के बाद हमें पुल पार करने का रास्ता मिल गया। यहां पर जी पी एस वाली बाई फ़ेल हो गई। मुझे मालकिन ने फ़ोन करके कहा था कि घर में गंगाजल खत्म गया है। इसलिए गंगाजल लेकर आना। अब क्या बताएं गंगाजल की कहानी। एक बार इलाहाबाद में गंगा त्रिवेणी में स्नान करने के बाद 5 लीटर के डिब्बे में गंगाजल भर कर लाए थे। रायपुर पहुंचने पर देवी शंकर अय्यर मुझे स्टेशन लेने आए। गंगा जल उनकी बाईक की डिक्की में रख कर भूल गया और वो उनके घर पहुंच गया। फ़िर उनसे मांगा नहीं और न ही उन्होने मेरे घर पहुंचाया।

मैं बाजार में आस पास 5-10 लीटर का जरीकेन देखता रहा, लेकिन कहीं नहीं दिखाई दिया। गिरीश भैया कहने लगे कि डिब्बे में भरा हुआ गंगा जल बिकता है। कहीं दिख जाएगा तो ले लेगें। मैने तो आज तक डिब्बे में भरा गंगाजल बिकते नहीं देखा। हाँ डिब्बे जरुर बिकते हैं जिन पर गंगा जल लिखा रहता है। अगर कहीं डिब्बा मिल जाता तो नदी किनारे गाड़ी रोक कर भर लेते। गंगा की अथाह जल राशि से एक डिब्बा गंगा जल भी नसीब में नही था। हम पुल पार करके गंगा के किनारे भी पहुंचे, लेकिन गंगा जल लेकर किसमें जाएं। बिना गंगा जल लिए हमने इलाहाबाद छोड़ दिया और रींवा मार्ग पर चल पड़े। सूरज अस्ताचल की ओर जा रहा था। घरों में रोशनी हो चुकी थी। हमें इलाहाबाद से रींवा मार्ग पर आने में 1 घंटे से अधिक समय लग गया। एक होटल में रोक कर चाय बनवाई और पान खाए, बंधवाए और आगे बढे।

नेपाल यात्रा आगे पढे……… जारी है। 

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

तार-तार कांच, लाल पीला प्रहरी और माओवादियों का हंगामा : काठमांडू

नेपाल यात्रा प्रारंभ से पढें
सुबह तय समय पर आँख खुल गई, कैमरे की बैटरी चार्जिंग में लगी दिख रही थी अर्थात पाबला जी ने रात को मेरे कैमरे की बैटरियाँ चार्जिंग में लगा दी थी। मौसम पनीला बना हुआ था। हल्की हल्की बूंदा बांदी जारी थी। हम स्नानाबाद से होटल की लाबी में आ गए। राजीव शंकर मिश्रा जी ने चाय तैयार करवा रखी थी। नगरकोट जाने वाले ब्लॉगर तैयार होकर एक एक कर लाबी में एकत्र हो रहे थे। चलते चलते एक फ़ोटो हम सब ने खिंचाई और गाड़ी में सवार हुए। होटल में पार्किंग की जगह कम होने के कारण हमारी गाड़ी फ़ंसी हुई थी। पाबला जी गाड़ी निकालने की कोशिश कर रहे थे, मैं सामने की सीट पर था, गाड़ी के पीछे गिरीश भैया और राजीव शंकर मिश्रा जी थे। दुबारा रिवर्स करने पर भड़ की ध्वनि उत्पन्न हुई। लगा कि कुछ टकराया है गाड़ी से। पीछे लगे कैमरे ने कुछ नहीं दिखाया। मैने मुडकर देखा तो पीछे का कांच फ़ूट गया था।
नेपाल की सुबह
पाबला जी ने गिरीश भैया से गाड़ी में बैठने कहा और वे बिना पीछे देखे आगे बढ गए। रास्ता खराब होने के कारण ट्रैफ़िक जाम होने का अंदेशा बताया था, अगर हम पाँच बजे से पहले नहीं चलते तो 3-4  घंटे ट्रैफ़िक जाम में खराब हो जाते, सो हम जल्दी ही चल पड़े थे। कांच टूटने की बोहनी हो चुकी थी, अब आगे का दिन कैसा होगा राम ही जाने। नीली छतरी वाले का सुमिरन करके वापसी की यात्रा शुरु हो गई थी। मुंह अंधेरे हम काठमांडू से चल पड़े। राजीव शंकर मिश्रा के बताए रास्ते पर चल कर हम त्रिभुवन राज मार्ग पर पहुंच गए अब हमें मुग्लिंग में जाकर बांए मुड़ना था, तब तक सीधा ही चलना था। 
सुबह काम पर जाता किसान
ज्यों ज्यों हम काठमांडू की उपत्यका से नीचे आते जा रहे थे त्यों त्यों दिन की रोशनी दिखाई देने लगी। जिस स्थान पर जाम लगने की आशंका थी वह स्थान हम पार कर चुके थे। हमने बजे काठमांडू के बाहरी इलाके में नागधुंगा चेक पोस्ट के पास पेट्रोल डलवाया सुबह का समय हो और लोटाधारी न दिखें, ये संभव ही नही है। लेकिन हमें नेपाल में सुबह सड़क के किनारे शौच करते नर नारी नहीं दिखाई दिए। लगभग 70 किलोमीटर तक तथा आते वक्त भी कोई भी लोटाधारी दिखाई नहीं दिया। भारत में तो प्रवेश करते ही पता चल जाता है कि हम भारत में हैं। सड़क के किनारे और रेलपटरियों पर शौच करना यहाँ के नागरिकों का परम धरम है और इसे कर्तव्य मान कर श्रद्धापूर्वक निपटाया जाता है।
नारायणी नदी और पुल
एक स्थान पर सुंदर दृश्य देखकर हमने गाड़ी रोकी, तब तक सूरज निकल चुका था। दुकान में चाय पूछने पर उसने मना कर दिया तो हमने लीची का ज्यूस ले लिया। चलो इसी से काम चलाया जाए। आगे चलकर हम मुग्लिंग पहुच रहे थे, यहाँ से नारायणगढ़ लगभग 35 किलो मीटर था। हमने योजना बनाई थी कि लगभग 10 बजे तक लुम्बिनी पहुंच जाएगें। लुम्बिनी में घूम कर  कुछ घंटे फ़ोटो ग्राफ़ी करेगें और शाम होते तक सीमा से पार हो जाएगें।एक स्थान पर गाड़ी रोककर हम लोगों ने नाश्ता किया। मुग्लिंग प्रवेश करने पर सड़क पर कुछ वाहन रुके हुए दिखाई दिए। मैने सोचा कि यहाँ पर कोई टोल बैरियर होगा। क्योंकि नेपाल में डंडा लगाकर बैरियर खड़ा नहीं किया जाता। टोल बैरियर होने का संकेत सड़क के बीच में मार्गविभाजक पर लगा दिया जाता है।
सीढीदार खेत
लेकिन यहाँ मामला और ही कुछ था। हमने गाड़ी रोक दी, साथ ही हमारा सोचना था कि पराए देश में किसी से उलझना ठीक नहीं है, भारत होता तो कुछ भी कर सकते थे। पराए देश के नियम कानूनों का भी पता नहीं होता। जब से राजीव शंकर मिश्रा ने मुर्गी वाला कानून बताया था तब से मैं और चौकन्ना हो गया था। सड़क पर मुर्गी देखते ही ब्रेक मार देता था। यहाँ जाम लगा हुआ दिखाई दे रहा था। तभी एक ट्रैफ़िक पुलिस वाला आया, उसने गाड़ी का नम्बर देखते हुए बगल से निकल जाने को कहा तथा बताया कि चुनाव की मांग को लेकर माओवादियों ने आज नेपाल बंद का आह्वान किया है। आप लोग चाहें तो निकल जाएं, वरना खड़े रहें। गिरीश भैया अचानक उस पर भड़क गए। मैं अंचभित हो गया, पाबला जी गिरीश भैया के मुंह की तरफ़ देखने लगे। उन्होने बात संभाली, पुलिस वाला भी तैश में आ गया था। 
सड़क किनारे नेपाली मकान (आधुनिकता का प्रभाव)
हम आगे बढे, चौराहे पर झंडे लिए भीड़ और कैमरा लिए पत्रकार उपस्थित थे। उन्होने रोकने की कोशिश की, लेकिन हम बच कर आगे बढ गए। नदी का पुल पार किया और आगे बढने पर मुझे लगा कि जिस सड़क से हम आए थे, वह सड़क नहीं है, हम किसी और रास्ते पर जा रहे हैं, क्योंकि यहाँ पर एक विद्र्युत निर्माण की युनिट भी दिखाई दी। गाड़ी रोक कर टुरिस्टर वाले से पूछा तो उसने बताया कि यह मार्ग पोखरा जाता है। हमने गाड़ी वापस की और पुन: उसी चौराहे पर आ गए जहाँ हड़ताली जमा थे। चौराहे से हमने गाड़ी सज्जे पासे मोड़ी तो कुछ लोग हल्ला करते हुए पीछे दौड़ने लगे। पाबला जी ने बैक मिरर में देखते हुए गाड़ी रोक ली। कुछ लोग मेरी खिड़की पर आए और कहने लगे कि "एक बेरामी है, उसे नारायणगढ़ तक ले जाईए।" मेरी समझ  में नहीं आया "बेरामी" क्या होता है। फ़िर उन्होने बताया कि कोई बीमार बूढा है जिसे नारायणगढ में इलाज करवाना है। मैने उन्हें गाड़ी में बैठ जाने कहा।
नारायणी नदी में गिरी जेसीबी  मशीन
हम नारायणगढ़ की ओर बढे। रास्ते में वह स्थान भी आया जहाँ पर जेसीबी लोडर नदी में गिरा हुआ था। हमने कार रोक कर उसकी फ़ोटो ली। लड़के ने बताया कि आज सब जगह हड़ताल और नेपाल के वाहन चलने नहीं दिए जा रहे। लगभग 10 बजे कुछ गाड़ियाँ फ़िर खड़ी दिखाई दी हमने उनके बगल से गाड़ी आगे बढाई, लौटते हुए एक कार वाले ने बताया कि आगे जाम लगा है, इसलिए हम रुकने के लिए होटल तलाश करने जा रहे हैं। हम आगे बढे तो जुगेड़ी के पास पुलिस थाना था, उसके सामने सिपाही खड़े थे तथा थाने के बराबर में ही एक होटल था। सिपाही ने गाड़ी आगे बढाने से मना कर दिया। वह लड़का बोला कि मैं इनसे बात करके आता हूँ। उसके प्रयास से भी गाड़ी आगे जाने नहीं दी। बताया कि भारतीय गाड़ियों के साथ तोड़ फ़ोड़ कर चालकों से साथ माओवादी मारपीट कर रहे है। लड़का और बूढा गाड़ी से उतर कर थाने के सामने बैठ गए और हमने गाड़ी होटल में लगा दी।
पाबला जी फ़ोटासन में
होटल अच्छा था, सुबह जल्दी चलने के कारण पेट भी गुड़गुड़ा रहा था, होटल मे प्रवेश करते ही टायलेट तलाशा। लौटने पर दिमाग हल्का हुआ, हाथ मुंह धोकर हम एक टेबल पर जम गए। ट्रैफ़िक खुलने की प्रतीक्षा करती अन्य सवारियाँ भी थी। बीयर की बोतल खोले समय पास कर रहे थे। नेपाली चैनल बंद के दौरान घूम धड़ाके की खबरें बता रहा था। सफ़र में 3 चीजे आवश्यक होती हैं, पहला ठहरने का सुरक्षित स्थान, दूसरा आवागमन का साधन और तीसरा खाना। मुझे तीनों आवश्यक चीजें यहाँ पर दिखाई दे रही थी। इसलिए ठहरने में कोई समस्या नहीं थी। हमने भी खाने का आडर दे दिया, आराम से खाते हुए टाईम पास कर रहे थे। वेटर भी स्मार्ट था, खाने की आपूर्ती फ़टाफ़ट करता था। खाने के बाद घड़ी देखी तो 12 बजे हुए थे। धूप इतनी चमकीली थी कि लग रहा था 2-3 बज गए। मैं वहीं बैंच पर लेट गया और झपकी आ गई।
होटल का वेटर
हल्ला सुनकर आँख खुली, जाम खुल गया चलो चलो। हमने फ़टाफ़ट अपना सामान उठाया और गाड़ी की तरफ़ दौड़े, सड़क पर ट्रैफ़िक सरक रहा था, पाबला जी ने कार एक बस के सामने डाल दी और हम भी लाईन में शामिल हो गए। थोड़ी दूर चलने पर ट्रैफ़िक फ़िर रुक गया। पाबला जी ने कहा कि गाड़ी फ़िर होटल में लगा लेते हैं।अब सैकड़ों गाड़ियों के बीच से अपनी गाड़ी निकाल कर पुन: होटल में लगाना मुझे जंचा नहीं क्योंकि गाड़ी होटल में ले जाने बाद फ़िर हम सैकड़ों गाड़ियों के पीछे चले जाते। जुगेड़ी और नारायणगढ़ के बीच रामनगर एवं चितवन का जंगल है, यहीं पर माओवादियों ने सड़क जाम कर रखी थी। यह स्थान जगेड़ी से लगभग 10 किलोमीटर दूर था। मैने गाड़ी में ही सीट सीधी कर ली और सो गया। गर्मी बहुत ज्यादा थी। पाबला जी गाड़ी से नीचे उतर कर सवारियों से बात करने लगे।
जाम के दौरान मोबाईल पर चुटकुले पढते गिरीश भैया और पाबला जी
नेपाल में अभी तक मैने एक भी सरदार नहीं देखा था। पता नहीं क्यों नेपाल तक सरदारों की पहुंच नहीं थी। नेपाल के लोगों को सरदार की पहचान नहीं है, वे पाबला जी को बाबा जी कह कर संबोधित कर रहे थे। गत हिन्दू राष्ट्र होने के कारण दाढी वाले और पगड़ीधारी इन्हें साधू महाराज ही लगते होगें। इसलिए बाबाजी का संबोधन जारी था। शाम 4 बजे ट्रैफ़िक खुला। गाड़ियाँ सरकती हुई आगे बढने लगी। चितवन के जंगल में पहुचने पर गाड़ियों के टूटे हुए शीशे सड़क पर दिखाई दिए। माओवादियों ने हमारे एक दिन का सत्यानाश कर कर दिया और लुम्बिनी देखने की हमारी योजना की भ्रूण हत्या हो चुकी थी। जाम का असर हमें नारायणगढ़ के बाद भी दिखाई दिया।
नेपाल की तरफ़ से दिखती भारतीय सीमा (सोनौली)
शाम ढलने लगी, नारायणगढ़ के साथ पहाड़ियाँ पीछे छूट रही थी। हम सीमा की ओर निरंतर बढ़ रहे थे, सीमा से पहले एक रास्ता बुटबल होते हुए भैरवाह जाता है तथा दूसरा रास्ता और है जो सीधे ही भैरवाह जाता है, हम इसी रास्ते पर चल रहे थे। भैरवाह से पहले पुलिस ने गाड़ी रोकी, कांच फ़ूटने का कारण पूछा, गाड़ी के कागजात देखे तथा कहा कि सीट बेल्ट बांध लो। नेपाल में सीट बेल्ट बांधना अनिवार्य है। हम पूरे नेपाल का सफ़र करके आ चुके थे, किसी ने सीट बेल्ट बांधने के लिए नहीं टोका। जब सीमा 20 किलोमीटर बची है, तब पुलिस वाला सीट बेल्ट बांधने का कानून समझा रहा था। पाबला जी ने कहा कि बांध लो और मैने सीट बेल्ट बांध ली। जब हम भैरवाह सीमा पहुंचे तो एक व्यक्ति ने गाड़ी के कागजात देखे और उसमें एक पेपर फ़ाड़ कर रख लिया। सीमा पर एक स्थान पर नम्बर प्लेट जमा करवाई। भारतीय सीमा में प्रवेश करने पर सीमा सुरक्षा बल के जवान ने थोड़ी पूछताछ की और हम भारतीय सीमा में प्रवेश कर नौतनवा की ओर बढ गए।

नेपाल यात्रा आगे पढें…………