शनिवार, 19 जनवरी 2013

सामत सरना डीपाडीह की ओर यायावर


बिलासपुर टेसन
यात्राएं चलते रहती हैं जीवन के साथ। जीवन भी एक यात्रा कहा जाता है। मैने देखा कि यात्राओं का कोई कारण होता है। कोई निमित्त होता है, अकारण यात्राएं भी अकारथ नहीं होती। इस यात्रा का कारण पंकज का 27 नवम्बर 2012 की रात का फ़ोन संदेश बना। शाम को पंकज का फ़ोन आता है और वह कहता है कि आज रात को नेपाल चलते हैं कार से। बहुत दिन हो गए कहीं गए। रात को और सीधे नेपाल हीं, नहीं मुझे नहीं जाना है। फ़िर कहीं भी चलिए लेकिन आज ही चलना है। कल सुबह आता हूँ उसके बाद सरगुजा चलते हैं। वहीं के स्मारकों एवं जंगल की सैर करते हैं। कई दिनों से वहां के मित्र बुला भी रहे हैं। सही मौका है उधर ही चला जाए। सरगुजा भ्रमण तय हो जाता है। अगले दिन हमें सरगुजा जाना है। यहाँ जाने का कार्यक्रम बाईक से क्वांर नवरात्रि के समय भी बन गया था। लेकिन पंकज की तरफ़ से ढिलाई होने के कारण रह गए।

सुंदरवन
सरगुजा जाना पहले भी हुआ है। लेकिन जी भर के नहीं देखा था। घने जंगलों के बीच सुरम्य वादियाँ और उतने ही स्नेही निवासी मुझे हमेशा आकृष्ट करते रहे हैं। बिलासपुर पहुंच कर पता चला कि शाम को 4 बजे चलना है। तो मुड खराब हो गया। बना बनाया प्लान चौपट। मुझे रास्ते में चैतुरगढ और कलचुरियों की प्राचीन राजधानी तुम्माण भी देखना था। वैसे नवम्बर-दिसम्बर के माह में दिन छोटे हो जाते हैं। अब 4 बजे निकलने के बाद पाली पहुंचते तक ही शाम हो जाएगी। इसके बाद तुम्माण देखना तो संभव ही नहीं है। दोनो जगहों को देखते हुए हमें रात 8 बजे तक कटघोरा के विश्रामगृह में पहुंचना था। कटघोरा पहुंचते तक अंधेरा हो चुका था। अब हमें उदयपुर तक जाना था तथा हमारा रात्रि विश्राम उदयपुर के विश्रामगृह में तय हुआ। लखनपुर के अमित सिंहदेव ने वहाँ व्यवस्था कर दी थी।

दूरियाँ बताता सूचना फ़लक

अमित सिंह देव लखनपुर ने बताया कि कटघोरा से उदयपुर की दूरी लगभग 70 किलो मीटर होगी। कटघोरा से अम्बिकापुर वाली सड़क पर पहुंच कर यह लगा कि हमने सड़क मार्ग द्वारा अम्बिकापुर जाने की बहुत बड़ी भूल कर दी। सड़क की हालत देखकर लगा कि 70 किलो मीटर का रास्ता अगर रात भर में तय हो जाए तो बहुत बड़ी बात है। सड़क कहीं है ही नहीं, सिर्फ़ गड्ढे ही गड्ढे। कहना चाहिए गड्ढों में सड़क ढूंढना भी बहुत कठिन कार्य है। छत्तीसगढ में इतनी गंदी सड़क पहली बार देखी है। ऐसा लग रहा था किसी अन्य राज्य की सीमा में प्रवेश कर गए। पता नहीं सरगुजा की इस सड़क के प्रति सरकार सौतेला व्यवहार क्यों कर रही है। जब ओंखली में सिर दे ही दिया तो अब मुसल का प्रहार भी सहना पड़ेगा। मै पिछली सीट पर लेट गया, पंकज और राहुल दोनो पायलेट और नेवीगेटर की भूमिका में थे।


उदयपुर विश्राम गृह
रास्ते में भूख लगने लगी। एक ढाबा देख कर गाड़ी को किनारे लगाया और ढाबे में पहुंच गए। ढाबा छोटा ही था, लोग हिलते डुलते नजर आ रहे थे। रात का समय हो और जंगल के निवासी हिलते डुलते नजर न आएं तो समझना चाहिए कि हम वन क्षेत्र में नहीं है। आज कुछ स्पाईसी खाने का मन था। हमने भी जंगली खाने का आडर दिया। उसने कुक्कड़ बहुत बढिया बनाया।  मनवांछित भोजन मिलने के बाद आत्मा तृप्त हो गयी। अन्य सहयात्रियों ने भी खाने की तारीफ़ की। भोजन जैसा महाआयोजन सफ़ल हो गया। इससे हम भी धन्य हो गए। गाड़ी फ़िर सड़क पर आ गयी। मै पिछली सीट पर लेट गया। क्योंकि इस सड़क पर सोते हुए चलना ही ठीक है। जागते हुए तो रास्ता भी नहीं कटता। मेरी आँख 11 बजे उदयपुर रेस्ट हाऊस के मुख्यद्वार पर पहुंच कर खुली। रेस्ट हाऊस के गृह मंत्री ने गेट खोला। ठंड अच्छी थी मै बिस्तर के हवाले हो गया।

सामत सरना शिवमंदिर एवं विष्णु सिंह देव
सुबह चौकीदार लाल चाय बनवा कर ले आया। सुबह की चाय के बाद थोड़ी नींद की खुमारी उतरी। चाय के बाद रेस्ट हाऊस का एक चक्कर लगाया तो आस पास के शहरों दी दूरियाँ बताता हुअ एक सूचना फ़लक दिखाई दिया। जिसमें कटघोरा से उदयपुर की दूरी 112 किलो मीटर लिखी थी। चौकीदार गरम पानी ले आया और हम स्नानाबाद से लौटकर आगे की यात्रा के लिए तैयार हो गए। सुबह से दो बार अमित सिंह देव का फ़ोन आ गया था। हम रेस्ट हाऊस से बिना नाश्ता किए ही लखनपुर चल पड़े। अमित सिंह देव लखनपुर में रहते हैं। इनके विषय में चर्चा बाद में की  जाएगी। इन्होने अम्बिकापुर के युवा नेता विष्णु सिंह देव को साथ लिया। जायसवाल होटल में नाश्ता करके डीपा डीह की ओर चल पड़े। अम्बिकापुर से शंकरगढ 60 किलोमीटर पर एवं शंकरगढ से डीपाडीह 15 किलोमीटर पर स्थित है। डीपाडीह पुरातात्विक स्थल है, जहाँ उत्खनन कार्य राहुल सिंह के द्वारा हुआ॥

विष्णु सिंह देव, अमित सिंह देव, ललित शर्मा
लगभग 10 बजे हम डीपाडीह के लिए चले, अम्बिकापुर से डीपाडीह की सड़क अच्छी है। सड़क को देख कर हम कटघोरा से अम्बिकापुर आने का दर्द भूल चुके थे। विष्णु सिंह देव शंकरगढ जमीदारी से हैं। उन्हे इस इलाके की अच्छी जानकारी होने के कारण उनका साथ हमारे जैसे जिज्ञासु के लिए अच्छा रहा। यह सुरम्य वन आच्छादित इलाका है। डीपाडीह के सामत सरना समूह को देखने इच्छा कर दिनों से थी। कई बार जाने का प्रयास हुआ लेकिन समयाभाव के कारण सफ़लता नहीं  मिली। आज समय आ गया हमारे डीपाडीह पहुचने का। कुछ वर्षों पूर्व इस इलाके में नक्सलियों की आमद हो चुकी है। यह इलाका नक्सल प्रभावित माना जाता है। चर्चा के दौरान हम 12 बजे शंकर गढ पहुंच कर विष्णुसिंह देव के चाचा जी से मिले। उसके बाद हम डीपाडीह के सामत सरना समूह पुरातत्विक स्थल पर पहुंचे।

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7 टिप्‍पणियां:

  1. यात्रा वृत्तान्त जीवंत ....

    पढ़कर लग रहा था टिपण्णी करने वाला बन्दा

    भी आपके साथ है ....और वृत्तांत में अपने सुपुत्र

    का नाम भी लिखा पाया "सुरम्य" .....बहुत बहुत शुक्रिया!

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  2. स्थानीय सूत्रों में व्यक्त होते इतिहास के अध्याय..

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  3. वाह घुमक्‍कड़ी की बात ही कुछ और है और फि‍र मनपसंद को कुक्‍कड़ भी मि‍ल जाए तो क्‍या कहने

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  4. "यात्राएं चलते रहती हैं जीवन के साथ। जीवन भी एक यात्रा कहा जाता है"
    सत्य वचन... जारी रखिये...शुभकामनायें

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  5. Bahut shandar lekh aur gajab ka yad dasht lag raha hai aaj ki baat hai.

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