शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2013

झांकी फ़ेसबुकिस्तान की

मेलों की अपनी मौज है, नौटंकी, नाच-गाने, डांस पार्टियाँ, चना-चबेना, बाबा-बाबी, साधु-साधिन, मंदिर-शिवाला, गरम-ठंडा, पुलिस का डंडा आदि की फ़ौज है। साथ ही गुम इंसान की खोज में होती उद्घोषणाएं, मेले को पूर्ण रुप प्रदान कर परवान चढाएं। नदी तट पर जजमानों की जेब खाली कराते पंडे, पंडों की पहचान में लहराते झंडे और चोर-उचक्कों एवं पाकिटमारों की तलाश करते पुलिसिया डंडे, मेले की मौज हैं। धक्का-मुक्की होने से जुतम पैजार होने पर हाथ की सफ़ाई को तैयार युवकों के साथ बुढऊ भी हाथ साफ़ कर लेने का मौका नहीं चूकते। मेला घूमने की साध लिए स्वर्गारोहण को तैयार डुकरिया, टिकुली-फ़ुंदरी सांटे, नैनों से वार कर घायल करती नचनिया का ठुमका पटना को हिलाने के लिए काफ़ी है। मेला मे रेला कराने के लिए एक झुमका गिराना काफ़ी है।

ये मेले तो वर्ष में एक बार नियत तिथि, स्थान एवं समय पर भरते हैं। एक ऐसा आभासी मेला है जिसमें सतत् रेले चलते हैं। जहाँ मेले के सारे रंग दिख जाएगें। जहाँ इंटरनेट कनेक्ट हो जाए, इसे वहीं लगा हुआ पाएगें। इस मेले का नहीं कोई ठौर ठिकाना, कोई अपना है पराया है और बेगाना। यह मेला सोशल मीडिया मेला या आभासी मेला कहलाता है। 24X7 कल्लाक चलता है रुकता नहीं कभी, सबका मन बहलाता है।। कब दिन होता और कब रात होती, पता ही नहीं चलता। इसे मैं फ़ेसबुकवा मेला कहता हूँ, जो रात 2 बजे भी जमता। यहाँ मेलार्थी खा पीकर विचरण करते मिल जाएगें। कुछ तो ऐसे फ़ेसबुकिए हैं कि जिनकी बत्ती सदा हरी रहती है। बासंती सम्मिलन मुद्रा में सदा हरियाए रहते हैं। जहाँ देखी कबूतरी लाईन लगाए रहते हैं। चल छैंया छैंया छैया ये हिन्दी फ़ेसबुक है भगिनी-भैया…

मेले का प्रारंभ सुप्रभात से होता है, एक सज्जन 6 बजे फ़ोटो चेपता है। फ़िर दो लाईनों की कविता पर इठलाता है। तब तक 8 बज जाता है, उनका बेटा आता है। बाप की लगाई फ़ोटुओं पर लाईक चटकाता है, अपना पुत्र धर्म निभाता है। बाप-बेटे बारी-बारी मौज लेते हैं। बहती गंगा में स्नान के साथ कच्छे भी धोते हैं। इसके बाद शुरु होता है अखबारी कतरनों का दौर, काट-काट फ़ैलाते हैं चहूँ ओर। उनको लगता है महत्वपूर्ण खबर गर नहीं फ़ैलाई, फ़ेसबुकिए खबरों से वंचित रह जाएगें, जो अखबार नहीं खरीदते वे खबरें कहां से पाएगें। इन खबरों के बीच एक सज्जन संघियों का आव्हान कर हुए लट्ठम लट्ठा, खफ़ा इस तरह हैं कि लाठी टूटे या लट्ठा-पट्टा। फ़टफ़टिया महाराज झोले से मुंदरी-माला बेचने निकाल रहे हैं। तब तक भविष्य वक्ता भी पूजा पाठ करके अपनी चौकी संभाल रहे हैं। परबतिया भौजी का जागरण पर प्रसिद्ध डिरामा शुरु हो जाता है। बंदर डमरु बजा बजा कर मदारी को नचाता है। बिना टिकिट झांकी में लोटावन साव लोटा धरे नदिया तीर में बैठे हैं, कहते हैं मोह माया संसार त्यागो, ब्रम्ह सत्य बाकी झूठे हैं।

वाल पर कवियत्रियों द्वारा काव्य पाठ हो, मेला धर्मी टूट के पड़ते है ऐसे, सरकार की किसी योजना के अंतर्गत मुफ़्त शक्कर तेल बंट रहा हो जैसे। दो लाईनों की कविता पर हजारों लाईक और सैकड़ों कमेंट आ जाते हैं। कहीं लाईक के चक्कर में यज्ञोपवीत संस्कार के लिए तैयार बटूक दंड कमंडल धरे रह जाते हैं। कहीं पर मुल्ला मौलवियों के फ़तवे से हलकान परेशान चचा रमजानी दिखाई दे जाते हैं, डबल बेड बेचकर, सिंगल बेड खरीद कर अपनी खाल बचाते हैं। चाट का ठेला तो फ़ुलकी का रेला, तिरछी नजरों से होता बवेला, जूतों की सेल, छुकछुक रेल, बच्चों की धमाचौकड़ी, बूढों के सहारे की लकड़ी, इलाज के लिए सहायता मांगते लोग, मंदिर के चंदा की रसीद और खाटू वाले का बाबा का छप्पन भोग। कहीं अंखियों से गोली मारे और चैटियाते महिला वेष धारी पुरुष तो कहीं वेब कैम की मौज लेते बहन जैसे भाई ( दोनो लिंगों में फ़िट) कहीं होती सगाई तो कहीं होता क्रंदन, दुहाई है दुहाई।

महा साहित्यकारों के दल-दल तो कहीं दबंग नेता जोर सबल, कहीं बवाल, कहीं ख्याल, कहीं ठप्पा, कहीं ठुमरी, कहीं कुरता, कहीं कमरी। कहीं किकणी (लघु घंटिका) की रुनझुन तो कोई कोने से ताक रहा गुमसुम। कोई आत्ममुग्ध, कोई गंगा स्नानी शुद्ध, कोई बुद्ध, जेल से कमेंट करता निरुद्ध। गोंसईया को गरियाती गोंसाईन तो कहीं बनी-ठनी पतुरिया, हवा में उड़ता लहरिया। जीव जुड़ावन गोठ तो कहीं मुंग के संग मोठ। विमोचित होते कविता संग्रह, तो कहीं बिकते विग्रह, कहीं रुठे हुए ग्रह तो कहीं साठी सुंदरियों का सुमधुर नयनाग्रह। कहीं जवानी के चित्र लगाए आत्ममुग्ध बूढे-बूढिया कहीं डायमंड फ़ेसियल कराए कौंवे तो कहीं उड़ती चिड़िया। सरकार को गरियाती नौजवानी तो कहीं टपकता आँखों से पानी। कोई चढा टंकी पर तो कोई फ़िदा है मंकनी पर। कोने में खड़ी डंकनी की ढेंचू-ढेंचू तो किसी वाल पोस्ट हो जाती टिप्पणी खेंचू-खेंचू।  

रामखिलावन के बाबू जहाँ कहीं भी चले आओ, हम बड़का पुल पर तोहार इंतजार करित हैं, अरे नुनवा हम कितना देर से खोज रहे हैं, जल्दी पुलिस चौकी के पास चले आओ, तोहार माई बहुत रो रही हैं …… पल पल में खोया-पाया उद्घोषणा होती है जारी, भैया की खोज में व्याकूल है नारी। कहीं दादी की खोज में पतोहू तो कहीं नाती खोजता बिसाहू। पुलिस भी मौके पर बनती है सहाय। जिसका खो गया अपना, होता वो असहाय। बेटे-बेटी की होती है खोया पाया में एन्ट्री, एक ही जगह सिमट जाता है सारा कंट्री। आँखों ही आँखों होते हैं इशारे, चल भाग चले पूरब की ओर कहते लिव इन रिलेशन को तैयार बेचारे। लंठ पति की होती बेलनटाईन पिटाई, कहीं उघड़ते अंतर संबंधों पर होती क्राई। कहीं उबला चना तो कहीं भेजा फ़्राई। यही फ़ेसबुकिया मेला है भाई। बहनापा ओढे दिखाई देते हैं कुछ नर, ये नारी सानिध्य में सुकून पाते हैं, पत्नी संग लायसेंसी फ़ोटो लगाते हैं, विवाहित होने का चर्चा फ़ैलाते हैं फ़िर मजे से मौज लेते हैं ये नर, घोड़े के भेष में फ़िरते हैं खर। ये फ़ेसबुकिया मेला है बस तू निरंतर चर निरंतर चर। 

संझा को खुल गई फ़ेसबुकिया क्लास, विज्ञान पढाते मास्टर जी बच्चों को, कोई ज्ञानी समझाता गूढ़ ज्ञान अकल के कच्चों को। कोई ले घिस कर चंदन माथे पर सांट रहा कोई समाजवाद और साम्यवाद पर लेक्क्चर छांट रहा। कोई धर्म के नाम पर ज्ञान बांट रहा कोई लिए लकुटिया डांट रहा। किसी का हुआ है नवा-नवा बियाह, आ भैया तू भी फ़ोटो लगा। फ़ेसबुक पर हो रही है मुंह दिखाई। दुल्हनिया सकुची शरमाई। संग है भतार, चच्चा बब्बा, साथ दिख रहा सिंगार का डब्बा। कोई गुल बिजली पर निरंतर मामा की जय बुलाता है, कोई लिंक चेप-चेप जबरिया पढ़वाता है। कोई मचाए हुए टैगा टैगी, कोई टैग हटा रहा खा के मैगी। भैंगे-भैंगी की जो आँख घूमती रहती है। वह फ़ेसबुकिया मेले में ही आकर ठहरती है। शेर और बकरी दोनों एक ही घाट पर पानी पीते हैं, समाजवादी, गांधीवादी, साम्यवादी, पूंजीवादी मंसूबे यहाँ जीते हैं। जासूसी एजेन्सियाँ भी यहाँ ऐंठी हैं, भगोड़ों को ढूंढने दूरबीन लगाकर बैठी हैं। बहुत हो गया मेले का ठाठ, चलते-चलते घुटने दर्द से भर आए। ये फ़ेसबुक है भाए ये फ़ेसबुक है भाए………

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

बहुत शर्मिन्दा हूँ


अखबार में जब से समाचार पढा, तब से स्वयं को शर्मिन्दा महसूस कर रहा हूँ। शर्मिन्दगी भी जायज है, गैरतमंद व्यक्ति को शर्मिन्दा होना पड़ता है। जिसकी कोई गैरत नहीं वह क्या शर्मिन्दा होगा? कहावत है नकटा बूचा, सबसे ऊंचा। नकटा की नाक कटे, एक हाथ और बढ़े। शर्मिन्दगी इतनी है कि शर्म से धरती में गड़ना चाहता हूँ पर धरती में शर्म के मारे गड़ा भी नहीं जाता। अजीब विडम्बना है, जो धरती में गड़ना चाहता है उसे लोग गाड़ना नहीं चाहते। जो गड़ना नहीं चाहता उसे पकड़ धकड़ कर रस्सों से बाँध कर आयोजन सहित गाड़ दिया जाता है।

शर्म से धरती में गड़ने की ही बात है। पड़ोस के राज्य में प्रधानाध्यापक के घर पर आर्थिक अपराध शाखा का छापा पड़ा। उसके घर से 4 करोड़ की सम्पत्ति मिली। चपरासी के घर छापा पड़ा उसकी 8 करोड़ की सम्पत्ति मिली। क्लर्क के यहाँ से 40 करोड़ की सम्पत्ति मिली। कितने धनाढ्य लोग रह्ते हैं उस प्रदेश में। कहीं हाथ डालो वहीं रुपया ही रुपया। हमारे यहाँ उस धनाढ्य प्रदेश में सेवा कर चुके एक आई ए एस के यहाँ छापा पड़ा तो 400 करोड़ का मामला सामने आया। कमाल उस प्रदेश के पूण्य जल का है। जहाँ की एक-एक सांस भी धन उगलती है।

शर्म से डूब मरने की बात है कि मेरे जैसे गैरतमंद इंसान के लिए। हमारे यहाँ छापे में लोकनिर्माण विभाग के बड़े अधिकारी के यहाँ से भी करोड़ दो करोड़ मिलते हैं। इन लोगों ने नाक कटवा कर धर दी है। जब कभी धनाढ्य प्रदेश में चले जाते हैं तो लगता है कि उन्हे मुंह दिखाने के लायक भी नहीं रहे। वे बड़े चटखारे लगा कर शादियों की महफ़िलों में अपने प्रदेश के गुणगान करते हैं और मैं इसका उसका मुंह ताकते रहता हूँ, झेंप मिटाने के लिए। आखिर अपनी नाक कब तक कटते देख सकता हूँ इसलिए महफ़िल से रफ़ुचक्कर होने में ही भलाई समझता हूँ।

हमारा प्रदेश भारत का सिरमौर प्रदेश बन रहा है। बटवारे में मिले भीषण झंझावातों के बावजूद भी विकास की गंगा बह रही है। सड़कें, शिक्षा, उद्योग, पर्यटन, कृषि के क्षेत्र में नए आयाम गढ़ रहा है। पाँच रुपए में पेट भर खाना, एक रुपए दो रुपए किलो चावल, चना के साथ अमृत रुपी नमक दिया जा रहा है और तो और सरकार ने भोजन के अधिकार को कानूनी जामा पहना दिया है। अगर कोई भूखा है तो अब हक से भोजन मांग सकता है। इसका असर यह हुआ कि एक वरिष्ठ सेवानिवृत्त आई ए एस अधिकारी ने शादी के वक्त दहेज में मिले 50 हजार रुपए भी अपने श्वसुर को लौटा कर ईमानदारी मिसाल कायम कर दी। दिए। ऐसा उदाहरण तो सारे संसार में कहीं नहीं मिलेगा। 

लगता है कि हमारे यहाँ किसी को मेरी नाक की चिंता ही नहीं है। चिंता हो भी कैसे? मेरे जैसे न जाने कितने नासमझ हैं यहाँ। एक घर खुसरा लेखक होने नाते सरकारी कामों से मेरा कभी वास्ता ही नहीं रहा। पहले जब पत्रकारी करते थे तो तहसील, थाना और अस्पताल का चक्कर लग जाता है। कभी कोई छोटा-मोटा काम पड़ा किसी अधिकारी से तो वे लेखकीय वरियता को ध्यान में रखकर कर देते थे। उनके बाबुओं ने मुझे शर्मिन्दगी से बचाने के लिए प्रयास करते हुए कूट संकेत दिए थे। 

हम ठहरे विशुद्धमूढ़मतिमहाभट्टारकपाषाणमस्तिष्कखल्वाटखोपड़ीलौहशिरस्त्राणधारी। उनका संकेत हमारी समझ में तत्काल नहीं आया। पुराना रिसीवर होने के कारण कूट संकेत शीघ्र पकड़ में नहीं आते। एक हफ़्ते बाद जब वे टाल-मटोल करने लगे और फ़ाईल-फ़ाईल खेलने लगे तब थोड़ा समझ आया। अभी तक हम पूरे संकेत नहीं पकड़ पाए हैं। मुझे लगता है ये मुझे शर्मिन्दगी से बचाने का उद्यम करेगें लेकिन बचा नहीं पाएगें।हमारे जैसे फ़ालतु आदमी को संकेतों से समझाने की कौन मगजमारी करेगा? खुल के बोल नहीं सक्ते। लेखक का क्या भरोसा? कौन सी व्यंग्य, कहानी या कविता में रगड़ के धर दे।

हमारा प्रदेश प्रगति के नए आयाम गढ़ रहा है। प्रदेश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली का लोहा पूरा भारत देश मान रहा है। केन्द्र सरकार भी इनाम इकराम से नवाज रही है। अन्य प्रदेशों के मंत्री और मुख्यमंत्री सार्वजनिक वितरण प्रणाली सीखने के लिए छत्तीसगढ़ आते हैं। कुछ लोग हल्ला मचाते है कि भ्रष्टाचार हो रहा है। लगता है निठल्लों को कोई काम ही नहीं है। देखो भ्रष्टाचार ने अन्य प्रदेशों में कितनी अधिक प्रगति की है। कितने सोपान गढ़े हैं। कुछ महीने के लिए एक बार सत्ता हाथ लगते ही झारखंड जैसे प्रदेश में चरदिनिया मुख्यमंत्री ने 4 हजार करोड़ कमा लिए। बताईए हम कितने पीछे रह गए हैं। है कि नहीं शर्म की बात। अगर यही रफ़्तार रही तो अगले 20 सालों में भी इनकी बराबरी नहीं कर सकते।

मेरी नाक बचाने का प्रयास कुछ पटवारी सरीखे लोग अवश्य कर रहे हैं। इनसे आम जनता का पाला हमेशा पड़ता रहता है। खाता-खतौनी की नकल, फ़ौती चढाने एवं नामांतरण इत्यादि में 5-10 हजार मांग लेते हैं। कुछ दिन पहले ही एक मास्टर जी कह रहे थे कि उनकी पुस्तैनी जमीन नाम चढाने के नाम से पटवारी ने 5 हजार लूट लिए। हमने कहा कि- मास्टर जी शर्म कीजिए, 5 हजार देकर इतना हल्ला मचा रहे हैं। नाहक बदनाम कर रहे हैं, शर्म की बात है। अगर वह पटवारी 20-25 हजार आपसे लेता तो कुछ रुतबे की बात बनती। अपने पड़ोसी राज्यों के समकक्ष खड़ा करने में इनकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है। ये हमे सम्मान के रास्ते पर ले जा रहे हैं।

एक बाबु ने काम के एवज में मुझसे कहा कि "आप हमारे लिए क्या करेगें? मैने कहा कि - आपको बढिया बढिया श्रृंगार रस की कविता सुनाएगें और होली का मौसम आ रहा है, फ़ाग सुनाएगें अगर इससे भी पेट नहीं भरा तो होले भी पढ सकते हैं। इसके अतिरिक्त हमारे पास क्या मिलेगा करने को। बिजली का बिल तो भरने की क्षमता नहीं है, जब देखो तब बिजली वाले नसैनी लिए आ जाते हैं और हमें पसीना आ जाता है। कब इनकी कैंची चले और कब हमारे घर अंधेरा हो जाए पता नहीं। इतना होने पर भी शर्मिदा हूँ। न जाने इस प्रदेश में मेरे शर्मिन्दगी दूर करने का उद्यम कब होगा? कब मेरा प्रदेश इस लायक होगा जिससे मैं मूंछों में ताव देकर अपने पड़ोसियों को गर्व से कह पाऊंगा कि हम तुम्हारे से कम नहीं है।  

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

छत्तीसगढ़ खाद्यान्न सुरक्षा कानून 2012 : भोजन का कानूनी अधिकार


छत्तीसगढ़ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी शहीद वीरनारायण सिंह ने 1857 में अकाल के कारण भुखमरी की स्थिति पैदा होने के पर अंग्रेजों को सूचना देकर हजारों किसानों के साथ लेकर कसडोल के जमाखोरों के गोदामों को खोल कर दाने-दाने को तरस रही प्रजा भुखमरी से बचाने के लिए अनाज बांट दिया। जिसके परिणाम स्वरुप अंग्रेजों ने देशद्रोही व लुटेरा होने का बेबुनियाद आरोप लगाकर उन्हें बंदी बना लिया। 10 दिसम्बर 1857 को रायपुर के चौराहे वर्तमान में जयस्तंभ चौक पर बांधकर वीरनारायण सिंह को फांसी दी गई। बाद में उनके शव को तोप से उड़ा दिया गया। ये अकाल के कारण भुखमरी से उपजे हालात का दुष्परिणाम था।

एक प्रत्रिका में पढा था कि छत्तीसगढ़ का एक परिवार गरीबी और भुखमरी से तंगहाल रोजी रोटी की तलाश में आसाम की ओर जा रहा था। रास्ते में भूख से तड़पती बेटी चल बसी, उसे चलती हुई रेलगाड़ी से कलकत्ता के पहले गंगा माई में अर्पण करना पड़ा। भूख से व्याकुल परिवार की दूसरी बेटी भी मरणासन्न थी। थोड़ी देर बाद उसने भी भूख से तड़पते हुए प्राण त्याग दिए। इस बेटी को भी भारी मन से कलपते हुए पिता ने चलती हुई रेलगाड़ी से रास्ते में पड़ने वाली पद्मानदी में विसर्जित कर दिया। दो बेटियों को खोने के बाद परिवार आसाम पहुंच गया लेकिन दुर्भाग्य एवं भूखमरी ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा। स्त्री पुरुष दोनों को भूख कारण पैदा हुई व्याधियों ने घेर कर काल का ग्रास बना दिया। उनकी दस वर्ष की बच्ची अकेली पड़ गई। यह छत्तीसगढ़ के अनाथों का सहारा मिनिमाता के नाना-नानी का परिवार था।

पेट की ज्वाला क्या नहीं करवाती? चोरी, झूठ, स्वाभिमान की हत्या, जिस्मफ़रोशी से लेकर पलायन तक। जो यह सब नहीं कर पाता उसे मरना पड़ता है। लोक कल्याणकारी राज्य का कर्तव्य होता है कि वह हर हाथ को काम एवं भूखे को भोजन उपलब्ध कराए। नैतिक रुप से काम एवं भोजन उपलब्ध कराने की जवाबदारी सरकार की बनती है। वर्षों से माँग उठती रही है कि रोजगार के अधिकार को भी संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को प्रदत्त मूल अधिकारों में सम्मिलित किया जाए। जिस व्यक्ति ने भारत में जन्म लिया हो उसे रोजगार उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी भी सरकार की हो। इसी तरह गरीबों को भोजन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी भी सरकार की होनी चाहिए।

भविष्य में भूखमरी से किसी व्यक्ति या परिवार को संकट का सामना न करना पड़े इसे ध्यान में रखते हुए छत्तीसगढ़ सरकार ने एतिहासिक लोक कल्याणकारी पहल करते हुए प्रत्येक व्यक्ति को भोजन उपलब्ध कराने को अपना नैतिक दायित्व मानकर विधानसभा में छत्तीसगढ़ खाद्य सुरक्षा विधेयक 2012 शीतकालीन सत्र 21 दिसम्बर 2012 में पारित कर कानून बनाया एवं भारत गणराज्य में खाद्य सुरक्षा देने वाले प्रथम राज्य होने का गौरव प्राप्त किया है। छत्तीसगढ़ खाद्य सुरक्षा कानून बनाने का उद्देश्य राशन की वर्तमान पात्रता को कानूनी अधिकार प्रदान करना है ताकि हर गरीब और जरुरतमंद को भोजन का अधिकार प्राप्त हो सके। भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार नागरिकों को पूर्ण गरिमा के साथ जीवन का अधिकार है। जीवन हेतु भोजन सबसे महत्वपूर्ण एवं मूलभूत आवश्यकता है। भारत के संविधान के अनुच्छेद 47 के अनुसार नागरिकों के पोषाहार स्तर और जीवन के स्तर में सुधार कर लोक स्वास्थ्य में सुधार करना राज्य का दायित्व है।

केन्द्र सरकार द्वारा अपने खाद्य सुरक्षा कानून में ग्रामीण क्षेत्र की 75% जनसंख्या एवं शहरी क्षेत्र की 50% जनसंख्या को खाद्यान्न देने का प्रावधान किया गया है।  ग्रामीण क्षेत्र की 75% जनसंख्या में से प्राथमिकता वाले परिवार के नाम से मात्र 46 % जनसंख्या को गरीब परिवार तथा शेष 29 % जनसंख्या को सामान्य या गरीबी रेखा के उपर का परिवार माना गया है। इसी प्रकार शहरी क्षेत्रों की 50% जनसंख्या मे से मात्र 28% जनसंख्या को गरीब तथा शेष 22% को जनसंख्या को सामान्या या गरीबी रेखा के उपर का परिवार माना गया है।

केन्द्र सरकार के इस कानून के लागू होने से छत्तीसगढ़ राज्य के मात्र 23 लाख 64 हजार परिवारों को बीपीएल परिवार माना जाएगा और केन्द्र सरकार मात्र इतने ही परिवारों के लिए रियायती अनाज देगी। एक बात उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार द्वारा बिना विचार किए पूरे देश के ग्रामीण क्षेत्रों के 46% और शहरी क्षेत्रों के 28% परिवारों  को गरीब मानकर कानून बनाया जा रहा है। जबकि तेंडुलकर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में 13.1% जम्मू कश्मीर में 13.2% केरल में 19.7%, गोवा में 25% और पंजाब में 20.9% परिवारों को बीपीएल माना गया है। केन्द्र सरकार का खाद्य सुरक्षा कानून लागु होने से इन राज्यों के एपीएल परिवार भी बीपीएल राशन के पात्र हो जाएगें जबकि छत्तीसगढ़ जैसे गरीब राज्य में कई पात्र और जरुरतमंद परिवार रियायती दर की राशन सुविधा से वंचित हो जाएगें। छत्तीसगढ़ सरकार के मुखिया डॉ रमन सिंह ने दूरदर्शितापूर्ण सोच रखते हुए इस विसंगति को दूर करने के लिए छत्तीसगढ़ का पृथक खाद्य सुरक्षा कानून बनाया।

केन्द्र सरकार का खाद्यान्न सुरक्षा कानून गरीब के साथ छलावा होने साथ परेशानी बढाने वाला प्रतीत होता है। इससे गरीब परिवारों की समस्या कम होने की बजाए और बढ जाएगीं। इस कानून में प्रति परिवार की बजाए प्रतिव्यक्ति अनाज देने का प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार प्राथमिकता वाले गरीब व्यक्ति को प्रतिमाह 7 किलो और सामान्य परिवार के व्यक्ति को 3 किलो अनाज देने का प्रावधान किया गया। केन्द्र सरकार के इस प्रावधान से 5 व्यक्तियों के छोटे परिवार को 35 किलो से कम अनाज प्राप्त होगा जबकि सामान्य परिवार को अधिकतम प्रतिमाह 15 किलो अनाज प्राप्त होगा। इससे छोटा परिवार रखने वाले अनावश्यक दंडित होगें तथा यह कानून देश की परिवार कल्याण नीति और जनसंख्या नीति के विरुद्ध दिखाई देता है। इस कानून के लागु होने से अन्त्योदय योजना भी समाप्त होती दिखाई दे रही है।

राज्य सरकार के खाद्य सुरक्षा कानून में 11 लाख अन्त्योदय अथवा विशेष रुप से कमजोर समूह के परिवारों के लिए 1 रुपए किलो की दर से हर महीने 35 किलो चावल का प्रावधान किया गया है। शेष गरीब परिवारों के लिए 2 रुपए किलो में प्रति माह 35 किलो खाद्यान्न की व्यवस्था है। इसके अलावा राज्य सरकार के खाद्य सुरक्षा कानून में 42 लाख गरीब परिवारों को हर महीने 2 किलो नि: शुल्क नमक, अनुसूचित क्षेत्रों में 5 रुपए किलो की दर से 2 किलो चना और गैर अनुसूचित क्षेत्र में 10 रुपए किलो की दर पर 2 किलो दाल देने की व्यवस्था की गई है। केन्द्र सरकार के कानून में इसकी कोई व्यवस्था नहीं की गई है।

इस योजना का पात्र कौन होगा, गरीब परिवारों के अंतर्गत किन्हें शामिल किया जाएगा, इसका स्पष्ट उल्लेख केन्द्र सरकार के कानून में नहीं है। छत्तीसगढ खाद्य सुरक्षा कानून में यह प्रावधान है कि प्रदेश में कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे। इसके लिए सभी निराश्रित, आवासहीन, प्रवासी, प्राकृतिक आपदा प्रभावित लोगों के लिए इस कानून में भोजन की व्यवस्था की गई है। महिलाओं एवं बच्चों के लिए पोषण युक्त आहार का भी प्रावधान है। छात्रावासों एवं आश्रमों रहने वाले छात्र-छात्राओं के लिए भी रियायती दर पर अनाज की व्यवस्था की गई है। राज्य ने खाद्य सुरक्षा कानून के क्रियान्वयन के हेतू खाद्य वितरण के लिए 1 हजार 904 करोड़ रुपए की सब्सिडी, नमक के लिए 97 करोड़ रुपए की सब्सिडी, चना के लिए 208 करोड़ की सब्सिडी, दाल के लिए 132 करोड़ रुपए की सब्सिडी प्रतिवर्ष उपलब्ध कराने का प्रावधान किया है। 

छत्तीसगढ़ राज्य देश का प्रथम राज्य है जिसने अपना खाद्यान्न सुरक्षा कानून बना कर हितग्राही परिवारों को भोजन का अधिकार कानूनी रुप से प्रदान किया है तथा यह व्यवस्था की है कि राज्य में कोई भूखा न रहे। केन्द्र सरकार का खाद्यान्न सुरक्षा कानून कितने परिवारों को खाद्यान्न सुरक्षा दे पाएगा यह तो अभी तय नहीं है पर छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने एक कदम आगे बढाकर राज्य के निवासियों को भोजन प्राप्त करने का कानूनी अधिकार देकर यह सुनिश्ति कर दिया कि राज्य में सभी को जीवनोपयोगी राशन प्राप्त हो सके तथा राशन की कालाबाजारी रोकने के लिए इस कानून में कड़े प्रावधान भी किए गए हैं। जिससे हितग्राही तक राशन पहुंचने और छत्तीसगढ़ राज्य में कोई भूखा न रहे।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2013

वेलेन्टाईन डे है आया


रगों का दर्द पुराना फ़िर उभर आया
अंगुठा हिलाया कीबोर्ड खटखटाया
मुखड़ा हुआ पूरा तो अंतरा ये बोला
आरकुट गया फ़ेसबुक का जमाना
हो गए न घायल काहे दिल लगाया

माउस सुन रहा था मौज के मुड में
आ के वह बोला हो फ़ील के गुड़ में
मौसमे बहार था गोली जब घुमती
दुपट्ठे से साफ़ कर बारम्बार चूमती
आप्टिकल ने आके ठिकाने लगाया

कीबोर्ड न चुप रहा उसने मुंह खोला
जर्दे की पीक मारी खंखार के बोला
जबसे है बसंत मेरा हाल बुरा यारों
खूब खटखटाके पिंजर हिला डाला
बड़ा ये रंगीला मौसम का भरमाया

माईक्रोटेक मानिटर ने राज खोला
हम थे जवान गरदन हिलाके बोला
रुतबा था हमारा लोग रंग देखते थे
मरती थी हम पे भी कुड़ियाँ ढेर सारी
एलईडी के दिन हैं क्या जमाना आया

रैम क्यूँ चुप रहती मिसरी सी घोली
थोड़ा इठला कर मधुर स्वर में बोली
थी जब मैं 16 की सीडी खूब चलाई
फ़्लापी रही साथ फ़िल्म भी दिखाई
अब न पूछते कोई कैसी है यह माया

सुन रहा था सब डेस्कटॉप मुंह फ़ाड़े
आँखों में था आँसू रोया मार दहाड़ें
लैपटॉप मोबाईल ने कूड़ा कर डाला
जिसको भी देखो हाथ में है साला
मनाओ वेलेन्टाईन दर्द उभर आया

(C) तोप रायपुरी

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

निठल्लाई माने सदा सप्ताहांत

प्ताहांत याने संडे का दूनिया को बड़ी बेसब्री से इंतजार रहता है। शनिवार से ही सप्ताहांत मनाने की तैयारी शुरु हो जाती हैं। पश्चिमी देश चाहे नाच-गा कर मस्ती करके संडे मनाएं या समुद्र के किनारे धूप सेकते हुए इसका आनंद ले। लेकिन भारत में इसे मनाने का तरीका कुछ अलग ही है। जितना काम सप्ताह के अन्य दिनों में व्यक्ति करता है उससे दुगना काम सप्ताहांत को करने पड़ते हैं। शनिवार की रात को ही सारे काम नोट करवा दिए जाते हैं और सुबह होते ही कामों की सूची सामने होती है। दफ़्तरों के काम तो भले ही इस दिन बंद रहते हैं पर घरेलू कामों की जंग का मुहाना खुल जाता है। बाजार से सामान लाना, घर के लॉन की (अगर हो तो) साफ़ सफ़ाई, गाड़ी की धुलाई, इलेक्ट्रानिक और इलेक्ट्रिकल सामानों की रिपेयरिंग, रिश्तेदारों एवं मित्रों का उलहाना उतारने के लिए उनसे भेंट मुलाकात इत्यादि अनेक कार्य सप्ताहांत के सिर पर सवार होकर आते हैं। 

रवि का उदय होना तो नित्य है लेकिन सप्ताह में एक दिन ही रवि के नाम समर्पित होने से रविवार हो जाता है। बस इसी दिन घर-गृहस्थी को संभालना ही संडे का फ़ंडा है। नौकरी पेशा लोगों के साथ व्यापरियों में भी अब संडे का महत्व बढते जा रहा है। पहले तो लाला जी सप्ताह में सातों दिन दुकान खोले बैठे रहते थे।उनकी  मान्यता थी कि ग्राहक एवं मौत का भरोसा नहीं कब आ जाए। क्योंकि दोनो का ही इंतजार करना पड़ता है। अब बदलती पीढी के साथ संडे मनाने का तरीका बदलते जा रहा है। नए लाला जी सप्ताह में छ: दिन खूब भाग दौड़ करके कमाते हैं और सप्ताहांत याने संडे को पिकनिक मनाने के लिए यार दोस्तों या परिवार के साथ किसी स्थान पर निकल जाते हैं। 6 दिन कमा कर एक दिन खर्च करने की परिपाटी बनती दृष्टिगोचर हो रही है।  

संडे क्या होता है, उसे पता है जिसने कभी संडे का मजा चखा हो, जिसके जीवन में एक बार तो संडे आया हो। वरना देश की अधिकतर आबादी का यह हाल है कि जिस दिन काम नहीं मिला वह दिन संडे हो जाता है। खैर संडे का महत्व वही जानता है  जो सप्ताह में 6 दिन खटता है, रोजी-रोटी के पीछे भागता है। रोज रोटी के लिए दस-बीस गालियाँ खाता है। फ़िर सप्ताह में एक दिन उसे आराम करने का मिलता है। कुछ ऐसे भी लोग हैं वे चाहे जब ईशारा भर कर दें तभी संडे हो जाता है। उनके प्रभुत्व एवं प्रभाव से सप्ताह के अन्य दिन संडे की आगवानी करते हुए लिए अपना स्थान छोड़ देते हैं । क्यों न छोड़े वी आई पी का हक है जिस दिन को चाहे संडे बना दे। जबरा को तो सलाम करना ही पड़ता है। 

महानगरों के निवासी अपने मित्रों से संडे पर ही मिलने आने का आग्रह करते हैं। अन्यथा उनके पास समय नहीं रहता। कईयों का तो यह हाल है कि संडे के दिन ही वे अपने बच्चों की शक्ल देख पाते हैं। रात गुजारने की लिए घर एक सराय बनकर रह गया है। मेरे एक घनिष्ट मित्र ने मुझे यह कर चौंका दिया था कि संडे की हो मुंबई आना, अन्यथा मैं तुम्हे समय नहीं दे पाऊगां। महानगरों ने जीजीविषा ने व्यक्ति की संवेदनाओं को मार दिया है। रिश्ते-नाते सिर्फ़ औपचारिकता बन कर रह गए हैं। अगर कोई एक व्यक्ति भी घर पहुंच जाता है तो वह भारी हो जाता है। दूसरे दिन से घर मालिक का चिंतन शुरु हो जाता है और  मन ही मन "अतिथि कब जाओगे "मंत्र का जप शुरु कर देता  है।

हमें भी संडे महत्व तब पता चला जब जीवन में पहली बार संडे आया। अन्यथा सप्ताह के बाकी दिन भी हमारे लिए संडे जैसे ही थे। नहीं तो लोगों से पूछना पड़ता था कि आज कौन वार है भाई? ऐसी स्थिति तब पैदा होती है जब व्यक्ति अत्यधिक व्यस्त हो या पूरा  निठल्ला हो। निठल्ला नामक इस विशिष्ट प्रजाति के लिए हर दिन संडे हैं। इनकी जिन्दगी में कभी बाकी 6 दिन आते ही नहीं है। आएं भी कैसे? बाकी दिनों की आने की हिम्मत ही नहीं होती। अगर ये वक्त बेवक्त किसी के घर चले जाएं तो उसका भी संडे मनवा देते हैं। इनके संडे की दादागिरी से सप्ताह के छहों दिन भय खाते हैं। कौन निठल्लों से पंगा ले तथा पंगा लेकर अपने सप्ताह के बाकी दिनों का सत्यानाश करे। संडे हो या मंडे, रोज गाड़ो निठल्लाई के झंड़े इनका स्वघोषित नारा है। इतना तो तय है सप्ताह के सातों दिनों का राजा संडे को माना ही जा सकता है। क्यों है कि नहीं?

(कैरिकेचर गुगल से साभार)

मंगलवार, 5 फ़रवरी 2013

सरगुजा का सतमहला

प्रारंभ से पढ़े 
खनपुर फ़ोन लगाने पर पता चला कि अमित सिंह देव को अम्बिकापुर आना है। इसलिए हम अम्बिकापुर के रायपुर आने वाले चौक पर ही रुक गए। उनके साथ कलेक्टर दफ़्तर तक जाकर वापस लखनपुर आए। अमित लखनपुर के जमीदार परिवार से हैं। लखनपुर में इनकी जमीदार कोठी है, जिसे अंचल वासी महल कहते थे। अब वह पुराना महल हो चुका है। महल के सामने ही इनका नया घर और बगीचा है। जिसमें आम आदि के वृक्ष लगे हैं। महल अब खंडहर हो चुका है। सामने का परकोटा बस बचा है। बाकी धराशायी हो चुका है। पुराने जमाने की ईंटों, सुरखी एवं चूने से निर्मित यह महल कभी स्थानीय सत्ता का केन्द्र हुआ करता था। लोकशाही की स्थापना के साथ-साथ जिस तरह राजशाही, जमीदारियां नेपथ्य में चली गयी, उसी तरह महलों की ड्योढी का महत्व भी घटता चला गया। जनता का, जनता के द्वारा, जनता के लिए शासन हो गया। राजा और प्रजा सब एक बराबर हो गए। मजदूर एवं बेगार को भी एक वोट देने का हक मिला और राजा को भी एक वोट का ही अधिकार मिला। 
लखनपुर का महल 
हम इनके निवास पर चाय पीने के लिए पहुंचे, जहाँ बाबूजी अजीत प्रताप सिंह देव से मुलाकात हुई। चाय के साथ चर्चा के दौरान उन्होने बताया कि उनकी उच्च शिक्षा बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय में हुई। उसके साथ ही बनारस के संस्मरणों का खजाना खुल गया। उनसे मिल कर ज्ञान रंजन हुआ। कभी समय मिला तो अवश्य ही उनके अनुभव की पिटारी से कुछ चुराना चाहुंगा। इस उम्र में भी लगातर पढते हैं। स्वाध्यायाम  न प्रमदति की सुक्ति को चरितार्थ करते हुए उनका स्वाध्याय का सफ़र जारी है। यहीं स्थानीय प्रत्रकार मुन्ना पाण्डे से भेंट होती है। उन्हे क्षेत्र की भौगौलिक स्थिति की अच्छी जानकारी है। अमित सिंह देव की रुचि भी अपने इतिहास एवं संस्कृति में है। जो व्यक्ति अपने इतिहास और संस्कृति को संजोने का प्रयास करता है वही सही  मायने त्रिॠणों के उॠण होने का अभ्यासी होता है। 
लखनपुर के मंदिर 
कहावत है कि लखनपुर में लाख पोखरा। कभी लखनपुर जमीदारी में लाख तालाब थे। लेकिन वर्तमान में 360 तालाबों मे    लखनपुर बस्ती के आस-पास बैगाई डबरी, मटकोरना डबरी, ढोड़िहा डबरी, सेमर मुड़ा, सिंवार तलवा, भावा ढोड़हा, देव तालाब, केसरुवा डबरी, दलदली तालाब इत्यादि हैं। राजमहल के रास्ते में ही प्राचीन शिवालय है, जिसकी रेख देख ट्रस्ट करता है। इसकी स्थापना स्थानीय जमीदारों ने ही कराई थी। परिसर में बजरंग बली भी विराजमान हैं। यहां जलकुंड है, कहते हैं कि इस स्थान के समस्त तालाब एक दुसरे से भूमिगत जल मार्ग से जुड़े हुए हैं। महल के दायीं तरफ़ महामाया मंदिर है। महामाया रकसेल राजवंश की कुल देवी हैं। इसके समीप  ही ठाकुर बाड़ी है।
श्री अजीत प्रताप सिंह देव
कोरिया राज्य के दीवान रघुबीर प्रसाद द्वारा लिखित झारखंड झंकार में सरगुजा की पाँच रियासतों सरगुजा, उदयपुर, जशपुर, कोरिया, चांगभखार का वर्णन किया है। ये रियासतें 1905 तक बंगाल प्रांत के अतंर्गत थी फ़िर इन्हे मध्यप्रदेश में शामिल किया गया। उपरोक्त पांचो रियासतों के नरेश क्षत्रिय थे। सरगुजा नरेश को "महाराजा" की एवं उदयपुर नरेश  को "भैया" की उपाधि वंशानुगत है। 1905 मे उदयपुर राज्य की एक सड़क के अलावा किसी भी राज्य में सड़क नहीं थी। आज हम उसी सड़क से चाय के उपरांत हम सतमहला की ओर चल पड़े। लौटकर उदयपुर के रेस्ट हाऊस में पंकज एवं राहुल से भेंट होनी थी।
देवगढ़ 
लखनपुर से थोड़ा आगे चलकर हम बायी तरफ़ नहर के कच्चे रास्ते पर चल पड़े। मुन्ना पांडे हमें छोटे रास्ते से सतमहला ले जा रहे थे। सतमहला से पूर्व हम देवगढ पहुंचे। यह स्थान रेंड नदी के किनारे पर स्थित हैं। दूर से देखने पर नवीन निर्माण दिखाई दे रहा था। समीप पहुंचने पर वट वृक्ष की जड़ो में फ़ंसे हुए मंदिर के अवशेष दिखाई दिए। यहाँ पर बलुई पत्थरों  से निर्मित शिव मंदिर समूह दिखाई दिया।। निर्माण में प्रयुक्त हुए पत्थरों रेत के मोटे दानों से बने हैं। जिसके कारण भुरभुरे एवं घिसे हुए दिखाई दे रहे थे। भग्न मंदिरों के अवशेष यत्र-तत्र बिखरे हुए पड़े हैं। मंदिर विनष्ट होने के कारण स्थानीय निवासियों ने एक मुखी शिवलिंग पर नवीन मंदिर का  निर्माण करवा दिया। यहाँ प्रतिवर्ष शिवरात्रि को तीन दिवसीय मेला भरता है। पास ही एक मंदिर के गर्भगृह में हनुमान की प्रतिमा स्थापित है। भग्न मंदिरों के आमलक भूमि पर पड़े हुए हैं।
सतमहला का शिवालय 
हम यहां से सतमहला की ओर चल पड़े। गांव के कच्चे रास्ते से चलकर सतमहला मंदिर समूह पहुंचे। कलचा-भदवाही ग्राम स्थित इस स्थान को सतमहला नाम दिया गया है। इससे प्रतीत होता है कि कभी यहाँ पर सप्त प्रांगण का महल रहा होगा। लेकिन वर्तमान में जो मंदिरों के समुह दिखाई देते हैं उनसे लगता है कि सप्त मंदिरों के समुह होने के कारण इस स्थान का नाम सतमहला रुढ हुआ होगा। यहाँ पर तालाबों की भरमार हैं। तालाबों में कमल खिले हुए दिखाई दे रहे थे। मंदिर समूह के समीप ही ईंटों से निर्मित एक षटकोणिय प्राचीन बावड़ी दिखाई देती है। एक ग्रामीण ने बताया कि इस स्थान पर संरक्षित करने का कार्य जी एल रायकवार तत्कालीन रजिस्ट्रीकरण अधिकारी के द्वारा हुआ है। मैने रायकवार जी को फ़ोन लगा कर उनसे इस स्थान के विषय में जानकारी ली। यहाँ उत्खनन का कार्य ताला डीपाडीह वाली जोड़ी रायकवार जी एवं राहुल सिंह जी ने किया। 
अष्टकोणिय प्राचीन बावड़ी
ग्राम सतमहला में सन् 1964-65 में बैजनाथ गिरी गोस्वामी के द्वारा स्थानीय लोगों की मदद से टीलों की खुदाई कराई गयी। इस स्थान पर देवबोरा तालाब, पखना तालाब, मांझी तालाब, मंझियाईन तालाब, डोकरा डबरी, आदि तालाबों के नाम गिनाए जाते हैं। इस स्थान पर पंचायतन शिव मंदिर दिखाई देता है जिसके स्तंभ खड़े हैं और अधिष्ठान सलामत हैं। द्वार पर नदी देवियाँ बनी हुई हैं। देखने से लगता है कि यह मंदिर भव्य रहा होगा। इस मंदिर समूह के अवशेष पूरे टीले में बिखरे हुए हैं। साथ ही आवासीय संरचना भी दिखाई देती है। इसके साथ ही पंचायतन शिवालय के सामने दाईं तरफ़ वृक्ष के नीचे बड़े पत्थरों से निर्मित एक संरचना में छत बनी हुई  है जिसमें शिवलिंग के साथ त्रिशुल इत्यादि भी रखे हुए हैं। कुछ पत्र पुष्प भी अर्पित किए हुए दिखाई दिए।
ताराकृति मंदिर 
इस स्थान से थोड़ा आगे चलने पर प्रस्तर के अधिष्ठान पर निर्मित भग्न ताराकृति मंदिर दिखाई देते हैं। एक मंदिर पूर्वाभिमुख है तथा दूसरा मंदिर पश्चिमाभिमुख। इस मंदिर के खंडित अवशेषों से कोई जानकारी नहीं मिलती कि यह किस देवता को अर्पित था और यहां कौन देवी देवता विराजते थे। हम लोग यहाँ कयास लगाते रहे लेकिन जानकारी नहीं मिल पाई। देवगढ़, सतमहला एवं ताराकृति मंदिर 8-9वीं शताब्दी के कलचुरी कालीन माने जाते हैं। अब यहाँ दोपहर हो चुकी थी और हमें वापसी की यात्रा के लिए काफ़ी मार्ग तय करना था। अब पक्की सड़क से हम उदयपुर विश्राम गृह पहुंचे जहाँ पर पंकज एवं राहुल प्रतीक्षा में थे। दोपहर का नाश्ता करके मित्रों से विदा लेते हुए हम अपने गंतव्य की ओर रवाना हो गए। अभी सरगुजा का भ्रमण सम्पन्न नहीं हुआ है। मिलते हैं अगले दौरे के बाद कुछ ही दिनों में।

सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

सरगुजा राज


मैनपाट से पहुच गए अम्बिकापुर, इस नगर को राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। सरगुजा राज का मुख्यालय यही था। हजारों  वर्षों  पूर्व से लेकर अद्यतन तक लोग सतत् निवास कर रहे हैं । ग्राम की रक्षा करने एवं शक्ति का पुंज ग्राम देवता आदि होते हैं तो राजा की रक्षा करने के लिए कुल देवता और कुल देवी। प्रत्येक राजवंश के कुल देवता और कुल देवी रक्षार्थ उपस्थित रहते हैं। जहाँ से राजा शासन करने की शक्ति प्राप्त करता है। विश्रामपुर का नाम महाराज अम्बिका शरण सिंह देव के शासन काल में कुल देवी अम्बिका (महामाया) के नाम पर अम्बिकापुर परिवर्तित किया गया। यह शहर इतिहास का गवाह है।  पोखर की पार पर खड़े महावटवृक्ष गवाह है कभी इनकी छाया में योद्धाओं ने विश्राम किया था तो कोई राहगीर घोड़े की  पीठ पर चढे-चढे ही रोटियाँ खाकर क्षूधा शांत कर आगे बढ गया होगा। किसी की डोली तनिक विश्राम करने बरगद की ठंडी छांह में ठहरी होगी।
यायावर 
सरगुजा राजवंश के इतिहास पर फ़ोन पर चर्चा करते हुए रकसेल राजवंश के 117 वीं पीढी के अद्यतन शासक  एवं विधायक महाराज त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव कहते हैं कि रक्सेल राजवंश का प्रारंभ सन् 197 ईं में राजा विष्णुप्रताप सिंह से प्रारंभ होता है। इसका जिक्र डी ब्रेट द्वारा लिखित गजेटियर में है। साथ ही राजिम नगर स्थित राजीव लोचन मंदिर में कलचुरी शासक पृथ्वी देव द्वितीय के 1145 के शिलालेख  के अनुसार किसी जगपालदेव द्वारा पृथ्वी देव (ईं 1065-1090) प्रथम के लिए दंदोर पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख है। सरगुजा को पहले 22 दंदोर कहा जाता था क्योंकि इसमें 22 जमींदारियाँ थी। इससे ज्ञात होता है की सरगुजा का रकसेल राजवंश लगभग दो शहस्त्राब्दियों से चला आ रहा है।
महाराजा त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव

डॉ रामकुमार बेहार अपनी किताब छत्तीसगढ़ का  इतिहास में लिखते हैं कि 1906 से पूर्व सरगुजा क्षेत्र छोटा नागपुर के अंतर्गत आता था। मि रफ़शीड ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि सरगुजा राज्य पर रक्सेल राजपूतों ने अपना अधिकार स्थापित किया। उन्होने गोंर, कंवर, खैरवार जैसी आदिम जातियों से इसे जीता। सरगुजा का प्रारंभिक इतिहास अस्पष्ट है। यहां द्वविड़ सरदारों का छोटे-छोटे भूभाग पर कब्जा था। आपस में लड़ाई होती थी। पलामू जिले के कुंण्डरी के रक्सेल राजपूतों ने इन पर आक्रमण किया। अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। उदयपुर, जशपुर, कोरिया, चांगभखार के क्षेत्र पर इनका अधिकार हुआ। उदयपुर एवं सरगुजा रियासत का गहरा पारिवारिक नाता है। त्रिभुनेश्वर शरण सिंह कहते हैं कि सरगुजा रियासत के वंशज ही दत्तक के रुप में उदयपुर रियासत के राजा बनाए जाते थे। 
महाराजा शस्त्र पूजा करते हुए 
इतिहास भी गवाह है कि रकसेलों द्वारा सरगुजा की जीत के बाद उदयपुर का एक हिस्सा भी रकसेल राजपूतों के अधिकार में आया। सरगुजा राजपरिवार का एक सदस्य यहाँ शासक बना। 1857-58 में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने वाले उदयपुर के शासक भाईयों  में कल्याण सिंह एवं धीरज सिंह की मृत्यु हो गयी और शिवराज सिंह को रायगढ़ के राजा देवनाथ ने धोखे पकड़वा दिया, उसे कालापानी की सजा दी गयी तब 1860 में सरगुजा नरेश के पुत्र लाल विंधेश्वरी प्रसाद सिंह को अंग्रेजों ने उदयपुर का सामंत राजा बनाया। विंधेश्वरी प्रसाद सिंह को विद्रोह शांत करने में भूमिका निभाने के कारण अंग्रेजों ने लाल से राजा बना दिया। राज बहादुर एवं सितारे हिन्द की दो उपाधियाँ दी गई।सन 1876 ई में उनकी मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र धर्मजीत सिंह  उदयपुर के राजा बने। रामको  नामक गांव को राजधानी बनाकर धर्मजयगढ़ का नाम दिया गया।
क्रिकेट : युवाओं का उत्साह वर्धन 
सरगुजा इतिहास प्राचीन है। डॉ केपी वर्मा छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला में सरगुजा की जानकारी देते हुए कहते हैं कि पौराणिक प्रमाणों के अनुसार माना जा सकता है कि चौथी शताब्दी में मौर्यों के आगमन पूर्व इस क्षेत्र पर नंद वंश का आधिपत्य था। इसके पश्चात 324 ईं में मौर्य ने नंदों को परास्त किया सरगुजा जिले की सीमा को छूने वाले अहिक्षेत्र, जिला मिर्जापुर से प्राप्त अशोक के शिलालेख, रामगढ़ पहाड़ी के जोगीमाड़ा गुफ़ा के शिलालेख एवं बिलासपुर के अकलतरा एवं ठठारी से प्राप्त नंद एवं  मौर्य काल के स्वर्ण एवं चांदी के सिक्के मौर्य साम्राज्य के शासन के प्रतीक हैं।
महाराजा त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव
सरगुजा अंचल कलचुरियों के आधिपत्य में भी रहा वर्तमान सरगुजा के महेशपुर से प्राप्त प्रस्तर लेख के आधार पर प्रोफ़ेसर केडी बाजपेयी के अनुसार लेख की रचना 9 वीं शताब्दी ईं के मध्य की प्रतीत होती है। अभिलेख में तीन राजाओं यथा युवराज, आदित्यराज एवं लक्ष्मण का उल्लेख हैं जिसके मध्य पिता-पुत्र के संबंध की जानकारी होती है। सरगुजा में कलचुरी राजवंश से संबंधित कई ग्राम आज भी हैं। जैसे लखनपुर (लक्ष्मण राज से संबंधित) शंकर गढ़ (शंकरगण से संबंधित) आदि यह प्रमाणित करते हैं कि सरगुजा में त्रिपुरी कलचुरियों का आधिपत्य था। डॉ एस के पाण्डेय के अनुसार कलचुरि नरेश युवराज प्रथम के महेशपुर अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र पर डाहल के कलचुरियों का 9 वीं सदी में आधिपत्य हो चुका था।
महाराजा त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव
कलचुरी शासकों में वंश परम्परा के अनुसार द्वितीय लक्ष्मणराज के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण सिंहासन पर बैठा। इसके सभी पूर्वज शैव मतावलम्बी थे परन्तु शंकरगण वैष्णव था। सम्भवत: यह पुत्रहीन दिवंगत हुआ और उसके बाद अनुज  युवराज देव द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ। कलचुरियों की कहानी कुछ लम्बी है। इसके बाद कोकल्ल द्वितीय फ़िर उसका पुत्र गांगेयदेव शासक बना। तीसरी शताब्दी ई सन् में बिहार राज्य के पलामउ जिले के कुंदरी के रकसेल राजपूत ने किसी समय छोटे-छोटे  सरदारों पर आक्रमण कर उन्हे अपने अधीन कर लिया। पलामउ में प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार रकसेल राजपूतों ने प्रदेश के इस भाग पर 1613 ईं तक शासन किया। जिन्हे चेरों ने अपदस्थ किया।
हर्रा टोला बेलसर  शंकरगढ़ 

भगवंतराय चेरो जनजाति का प्रमुख था। 1612 में चैनपुर से भाग कर पलामउ आया और वह पलामउ के रकसेल राजा मान सिंह के साथ इस अभिप्राय से मिल गया कि मौका पाते ही सत्ता स्थापित कर ले। सन् 1613 ईं में जब मानसिंह सरगुजा प्रमुख की पुत्री के साथ अपने पुत्र का विवाह करने गया था तो उसकी अनुपस्थिति में भगवंतराय ने अपने अनुयायियों के साथ विद्रोह कर दिया तथा मानसिंह के परिवार की हत्या कर अपने को पालामउ का प्रथम चेरो राजा घोषित कर दिया। मानसिंह ने अपने राज्य की वापसी हेतु कोई प्रयास नहीं किया लेकिन विरोध स्वरुप  सरगुजा के प्रधान की हत्या कर राज्य को अपने अधीनस्थ कर लिया। यह रकसेल राजवंश की शुरआत थी।
ड़ीपाडीह 
छत्तीसगढ़ फ़्युडेटरी स्टेट्स गजेटियर 1909 से ज्ञात होता है कि सरगुजा अधिपति कभी उदयपुर, जशपुर, कोरिया और चांग भखार के समीपस्थ राज्यों का शासक था। सरगुजा जिले के गजेटियर से प्राप्त जानकारी के अनुसार विक्रम संवत 251 में भोजकुरपुर के एक रकसेल चंद्रवंशी राजपूत राजा विष्णु प्रताप सिंह ने सरगुजा जिले के डीपाडीह ग्राम में प्रवेश किया तथा आस-पास के स्थानों पर आक्रमण किया तत्पश्चात उसने द्रविण प्रधान सामनी सिंह  को पराजित किया। इसके बाद विष्णु प्रताप सिंह ने रामगढ़ में एक किले का निर्माण कर 35 वर्षों तक शासन किया तथा वि सं 286 में उसका पुत्र देवराज उत्तराधिकारी बना। महाराजा रामानुज शरण सिंह देव मूल शासक महाराजा विष्णु  प्रताप सिंह के 114 वंशज थे एवं महाराजा त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव 117 वें वंशज हैं।
रामगढ की गुफा 
डॉ रामकुमार बेहार लिखते हैं कि उदयपुर रियासत का इतिहास सरगुजा रियासत से जुड़ा हुआ है। 1857-58 के संग्राम में उदयपुर के शासकों ने सक्रीय भागीदारी निभाई। 1818 की संधि के दौरान अप्पा साहब भोंसले ने संधि की शर्तों के अनुसार उदयपुर का भाग अंग्रेजों को सौंप दिया। कल्याण सिंह उस समय उदयपुर के राजा थे। 1857-58 के विद्रोह में उदयपुर के राजपरिवार ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया। ह्त्या के आरोप में सजा काट रहे तीनो भाई कल्याण सिंह, शिवराज सिंह और धीरज सिंह रांची जेल से छुटकारा पाकर अपनी रियासत में आए और आधिपत्य स्थापित किया। विद्रोही राजा कल्याण सिंह और धीरज सिंह की मृत्यु हुई और विद्रोही राजा शिवराज सिह को रायगढ़ राजा देवनाथ सिंह की सहायता से पकड़ा गया तथा कालापानी की सजा दी गई।1857-58 के काल  में उदयपुर के पूर्व राजा व उसके भाईयों का विद्रोह एतिहासिक महत्व रखता है। छत्तीसगढ़ की अन्य रियासतें भी उनका साथ देती तो छत्तीसगढ़ भी राष्ट्रीय परिदृश्य में चर्चित क्षेत्र होता। अगली कड़ी में सरगुजा रियासत की वर्तमान स्थिति के विषय में चर्चा करेगें। आगे पढ़ें 

(महाराजा त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव के चित्र विष्णु सिंह देव की वाल से साभार)

शनिवार, 2 फ़रवरी 2013

बारुद के धमाकों के बीच संस्कृति को बनाए रखने का प्रयास : मुलमुला


मुलमुला! हां यही नाम लिया अनुज ने। मुलमुला चलना है भैया 21 दिसम्बर को वहां "अनुज नाईट" का आयोजन है। छत्तीसगढ़ी फ़िल्म स्टार अनुज शर्मा ने फ़ोन पर निमंत्रण दिया। मुलमुला गाँव का नाम मैने पहले भी सुना था। यह गाँव अकलतरा क्षेत्र में है। अनुज शर्मा ने बताया कि हमें जिस मुलमुला जाना है वह कोण्डागाँव (बस्तर अंचल) से लगभग 17 किलोमीटर की दूरी पर है। मेरे घर से कोण्डागाँव तक का सफ़र लगभग 4 घंटे का है. कोण्डागाँव निवासी साहित्यकार एवं ब्लॉगर हरिहर वैष्णव जी से मिलने एवं चर्चा करने का लोभ भी मेरे मन में उत्पन्न हो रहा था। उन्हे फ़ोन लगा कर कोण्डागाँव आने की सूचना दी। उन्होने कहा कि वे भी हमारे साथ मुलमुला चलेगें। चलो ये भी सोने में सुहागा हो गया। अब काफ़ी समय मिलेगा चर्चा करने के लिए। 
बस के यात्री
दोपहर अनुज का फ़ोन आने के बाद मैं तैयार था अनुज शर्मा नाईट की टीम के साथ सफ़र करने को। सड़क पर आकर देखा तो बड़ी लक्जरी बस दिखाई दी। प्रवेश करने पर उसमें अनुज की सारी टीम अपने साज-ओ-समान के साथ मौजूद थी। अब मैं भी इनकी टीम का हिस्सा बन चुका था। अनुज को छोड़ कर बाकी चेहरे मेरे लिए अनजान थे। ऐसी स्थिति में मुझे पुस्तकों की  याद आई। होता तो यही है किसी से प्रथम मिलने के पहले वे अनजान ही होते हैं। मिलने पर जानपहचान के साथ स्वभावानुसार मित्रता होती है। सफ़र के दौरान समय काटने का सर्व प्रचलित साधन बावनपरी को माना जाता है। 
अनुज नाईट - मुलमुला
चाहे रेलगाड़ी के दैनिक यात्री  हों या फ़िर बस के लम्बे सफ़र के यात्री। जेब से ताश  की गड्डी निकालने के बाद खिलाड़ी मिल ही जाते हैं। चाहे वे किसी अन्य प्रांत के भी निवासी हों। हमारी बस में भी यही चल रहा था। ताश के कुछ खेल पूरे भारत में खेले जाते हैं भले ही उन्हे अन्य नामों से पुकारा जाता हो। एक दो बाजी देखने के बाद समझ में आ जाता है कि कैसे खेला जा रहा है और इस खेल के क्या नियम हैं। मुझे याद नहीं कि मैने कब ताश खेली होगी क्योंकि ताश के लिए समय नहीं मिल पाता और इतने निठल्ले लोग भी नहीं मिल पाते जिनके साथ ताश खेली जा सके। आज मैं कुछ घंटों के लिए निठल्ला ही था। मैं भी ताश युद्ध में सम्मिलित हो गया। दोपहर का भोजन गुरुर की पुलिया के दाएं तरफ़ बने ढाबे में था।
बोरियों पर जमे दर्शक
लगभग 25-30 लोगों को एक साथ भोजन कराने में ढाबे वाले को अच्छी कवायद करनी पड़ती है। साथ ही एक फ़ायदा भी रहता है कि पुराना-धुराना जितनी भी सब्जी-दाल इत्यादि सामग्री है वह भी खप जाती है। अगर दाल कम पड़ गयी तो थोड़ा पानी डालकर नमक मिर्च का तड़का लगा कर बढाई जा सकती  है। भोजनोपरांत हम आगे चल पड़े। केसकाल घाट पार करने के बाद मैंने हरिहर वैष्णव जी को फ़ोन लगाया तो उन्होंने सभी को चाय का निमंत्रण दिया। लेकिन साथ चलने के वादे से मुकर गए। यह एक झटका ही था मेरे लिए। कोण्डागाँव के आगे चलकर जगदलपुर मार्ग पर पर्यटन विभाग के रिसोर्ट में चाय नास्ते का इतंजाम था बस को रवाना कर दिया गया, उसमें सांउड लाईट का सारा सामान था। हमारे पहुंचने से पहले साऊंड लाईट सब तैयार हो जानी थी और हमें छोटी गाड़ियों से हमें मुलमुला जाना था।
अनुज शर्मा का गायन
हम 10 बजे मुलमुला के लिए चले। रास्ते में मोटर सायकिलों पर तीन-तीन, चार-चार सवारियाँ एवं जिसको जो भी साधन मिला वह उसी से अनुज शर्मा नाईट का आनंद लेने के लिए मुलमुला की ओर जा रहे थे। कार्यक्रम स्थल पर पहुचने पर देखा कि ठंड के मौसम में खुले आसमान के नीचे नर-नारियों की भीड़ देख कर आश्चर्य में पड़ गया। सभी बेसब्री से कार्यक्रम प्रारंभ होने का इंतजार कर रहे थे। जब दर्शक मनोयोग से कार्यक्रम देखना-सुनना चाहे तो कलाकार को प्रस्तुतीकरण में आनंद आता  है। अनुज शर्मा नाईट के मैनेजर एम के गुप्ता मुस्तैदी से कार्य में लगे हुए थे। इस उम्र में उनकी उर्जा देखते ही बनती है। लगभग 11 बजे हीरो की एन्ट्री के साथ दर्शकों  में कौतुहल जागता है। मंच पर आक्टोपेड पर नरेन्द्र, ढोलक पर डॉ एस के लाहोर एवं बिक्कु, आर्गन पर यदुनंदन एवं नवनीत के साथ साऊंड लाईट की व्यवस्था मनोज साऊंड द्वारा हो चुकी थी।
ज्ञानिता द्विवेदी का प्रस्तुतिकरण
मुझे जानकारी नहीं थी अनुज अभिनय के साथ गाते भी हैं। उन्होने दर्शकों को अपने गीतों से बांध लिया। सहयोगी गायकों के रुप में अनुराग शर्मा एवं ज्ञानिता द्विवेदी ने मनमोहक प्रदर्शन किया। महिला बाल विकास मंत्री लता उसेंडी ने कार्यक्रम में उपस्थित होकर सभी को दियारी तिहार की बधाई दी। कार्यक्रम स्थल पर प्रशासन द्वारा सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था की गयी थी। 11 बजे रात्रि से प्रारंभ हुआ कार्यक्रम विद्युत बाधा के साथ सतत 2 बजे तक चलता रहा। दर्शक रात भर सुनना चाहते थे। लेकिन वे क्या जाने कि अनुज शर्मा नाईट सिर्फ़ 3 घंटे की होती है। साजिदों ने सामान समेट लिए। लेकिन दर्शक अभी तक अपनी बोरियों पर जमें थे। इस कार्यक्रम में अनुज को सुनने के लिए 50-50 किलो मीटर से भी दर्शक आए थे।
दर्शकों की भीड़
दीवाली त्यौहार बीतने के एक माह के बाद मनाए जाने वाले दियारी तिहार के विषय में मेरी जानने की उत्सुकता थी। हरिहर वैष्णव जी ने बताया कि दियारी तिहार बस्तर अंचल का प्रसिद्ध तिहार है। जिस तरह हम दिवाली के बाद गोवर्धन पूजा करते हैं उसी तरह बस्तर अंचल में पूष एवं माघ के महीने में कृषि कार्य से निवृत्त होने पर स्थानीय निवासी प्रत्यके ग्राम समूह में दियारी तिहार का उत्सव मनाते हैं। प्रत्येक गाँव में तिहार मनाने का दिन निश्चित होता है और निश्चित दिन ही मनाया जाता है।

अनुज नाईट की टीम
इस तिहार में ग्राम वासी अपने निकट संबंधियों एवं मित्रों को निमंत्रित करते हैं और सबकी उपस्थिति में उल्लासपूर्ण ढंग से पूजा पाठ कर दियारी उत्सव को मनाया जाता है। जिस दिन तिहार मनाना निश्चित होता है उसकी पूर्व रात्रि को चरवाहा (यहाँ पशु चराने का कार्य (गांदा) गाड़ा जाति करती है) ग्राम के प्रत्येक घर में जाकर पशुओं को "जेठा" (सोहाई) बांधता है। जेठा बांधने आए हुए चरवाहे का सम्मान द्वार पर आरती उतार कर किया जाता है।
जरा नच के दिखा
इसके पश्चात अगले दिन सभी पशुओं को नहला कर पूजा की जाती है तथा विभिन्न तरह की सब्जियों एवं अनाज से तैयार खिचड़ी खिलाई जाती है। तत्पश्चात इस खिचड़ी को तिहार के प्रसाद के रुप में गृह स्वामी एवं परिजन ग्रहण करते हैं। चावल के आटे से घर की दुआरी में पद चिन्ह बनाए जाते हैं। जो लक्ष्मी के आगमन का सूचक होता है। इसके बाद गोवर्धन भाटा में गांव का बुजुर्ग एक बैल पर सिंगोठा (सिंगबांधा) बांध कर दौड़ाता है  जिसे चरवाहे को पकड़ना होता है। अगर चरवाहा बैल  को पकड़ लेता है तो उसे पुरस्कार दिया जाता है यदि चरवाहा बैल को नहीं पकड़ पाता तो उसे दंड दिया जाता है। 
दियारी तिहार के गाड़ा गाड़ा बधई
मैदान में एक स्थान पर चरवाहे की पत्नी दीया जलाकर बैठती है, यहां पर ग्राम वासी उसे दक्षिणा स्वरुप अन्न-धन देते हैं। (बैल पकड़ने की प्रथा विवाद होने के कारण वर्तमान में कई गांवों में बंद करा दी गई है। सिर्फ़ परम्पराओं का ही निर्वहन किया जाता है। अत: दियारी तिहार को मैं कृषि से जुड़ा हुआ त्यौहार ही मानता हूं। रात तीन बजे रिसोर्ट में पहुंच कर भोजन किया। भोजनोपरांत अपने गंतव्य की ओर लौट चले दियारी तिहार मना कर…… बंदुक की गोलियों एवं बम के धमाकों के बीच परम्पराओं को निभाने की जद्दोजहद जारी है बस्तर अंचल में ………।