सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

सरगुजा राज


मैनपाट से पहुच गए अम्बिकापुर, इस नगर को राजधानी होने का गौरव प्राप्त है। सरगुजा राज का मुख्यालय यही था। हजारों  वर्षों  पूर्व से लेकर अद्यतन तक लोग सतत् निवास कर रहे हैं । ग्राम की रक्षा करने एवं शक्ति का पुंज ग्राम देवता आदि होते हैं तो राजा की रक्षा करने के लिए कुल देवता और कुल देवी। प्रत्येक राजवंश के कुल देवता और कुल देवी रक्षार्थ उपस्थित रहते हैं। जहाँ से राजा शासन करने की शक्ति प्राप्त करता है। विश्रामपुर का नाम महाराज अम्बिका शरण सिंह देव के शासन काल में कुल देवी अम्बिका (महामाया) के नाम पर अम्बिकापुर परिवर्तित किया गया। यह शहर इतिहास का गवाह है।  पोखर की पार पर खड़े महावटवृक्ष गवाह है कभी इनकी छाया में योद्धाओं ने विश्राम किया था तो कोई राहगीर घोड़े की  पीठ पर चढे-चढे ही रोटियाँ खाकर क्षूधा शांत कर आगे बढ गया होगा। किसी की डोली तनिक विश्राम करने बरगद की ठंडी छांह में ठहरी होगी।
यायावर 
सरगुजा राजवंश के इतिहास पर फ़ोन पर चर्चा करते हुए रकसेल राजवंश के 117 वीं पीढी के अद्यतन शासक  एवं विधायक महाराज त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव कहते हैं कि रक्सेल राजवंश का प्रारंभ सन् 197 ईं में राजा विष्णुप्रताप सिंह से प्रारंभ होता है। इसका जिक्र डी ब्रेट द्वारा लिखित गजेटियर में है। साथ ही राजिम नगर स्थित राजीव लोचन मंदिर में कलचुरी शासक पृथ्वी देव द्वितीय के 1145 के शिलालेख  के अनुसार किसी जगपालदेव द्वारा पृथ्वी देव (ईं 1065-1090) प्रथम के लिए दंदोर पर विजय प्राप्त करने का उल्लेख है। सरगुजा को पहले 22 दंदोर कहा जाता था क्योंकि इसमें 22 जमींदारियाँ थी। इससे ज्ञात होता है की सरगुजा का रकसेल राजवंश लगभग दो शहस्त्राब्दियों से चला आ रहा है।
महाराजा त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव

डॉ रामकुमार बेहार अपनी किताब छत्तीसगढ़ का  इतिहास में लिखते हैं कि 1906 से पूर्व सरगुजा क्षेत्र छोटा नागपुर के अंतर्गत आता था। मि रफ़शीड ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि सरगुजा राज्य पर रक्सेल राजपूतों ने अपना अधिकार स्थापित किया। उन्होने गोंर, कंवर, खैरवार जैसी आदिम जातियों से इसे जीता। सरगुजा का प्रारंभिक इतिहास अस्पष्ट है। यहां द्वविड़ सरदारों का छोटे-छोटे भूभाग पर कब्जा था। आपस में लड़ाई होती थी। पलामू जिले के कुंण्डरी के रक्सेल राजपूतों ने इन पर आक्रमण किया। अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। उदयपुर, जशपुर, कोरिया, चांगभखार के क्षेत्र पर इनका अधिकार हुआ। उदयपुर एवं सरगुजा रियासत का गहरा पारिवारिक नाता है। त्रिभुनेश्वर शरण सिंह कहते हैं कि सरगुजा रियासत के वंशज ही दत्तक के रुप में उदयपुर रियासत के राजा बनाए जाते थे। 
महाराजा शस्त्र पूजा करते हुए 
इतिहास भी गवाह है कि रकसेलों द्वारा सरगुजा की जीत के बाद उदयपुर का एक हिस्सा भी रकसेल राजपूतों के अधिकार में आया। सरगुजा राजपरिवार का एक सदस्य यहाँ शासक बना। 1857-58 में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने वाले उदयपुर के शासक भाईयों  में कल्याण सिंह एवं धीरज सिंह की मृत्यु हो गयी और शिवराज सिंह को रायगढ़ के राजा देवनाथ ने धोखे पकड़वा दिया, उसे कालापानी की सजा दी गयी तब 1860 में सरगुजा नरेश के पुत्र लाल विंधेश्वरी प्रसाद सिंह को अंग्रेजों ने उदयपुर का सामंत राजा बनाया। विंधेश्वरी प्रसाद सिंह को विद्रोह शांत करने में भूमिका निभाने के कारण अंग्रेजों ने लाल से राजा बना दिया। राज बहादुर एवं सितारे हिन्द की दो उपाधियाँ दी गई।सन 1876 ई में उनकी मृत्यु के पश्चात उनके पुत्र धर्मजीत सिंह  उदयपुर के राजा बने। रामको  नामक गांव को राजधानी बनाकर धर्मजयगढ़ का नाम दिया गया।
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सरगुजा इतिहास प्राचीन है। डॉ केपी वर्मा छत्तीसगढ़ की स्थापत्य कला में सरगुजा की जानकारी देते हुए कहते हैं कि पौराणिक प्रमाणों के अनुसार माना जा सकता है कि चौथी शताब्दी में मौर्यों के आगमन पूर्व इस क्षेत्र पर नंद वंश का आधिपत्य था। इसके पश्चात 324 ईं में मौर्य ने नंदों को परास्त किया सरगुजा जिले की सीमा को छूने वाले अहिक्षेत्र, जिला मिर्जापुर से प्राप्त अशोक के शिलालेख, रामगढ़ पहाड़ी के जोगीमाड़ा गुफ़ा के शिलालेख एवं बिलासपुर के अकलतरा एवं ठठारी से प्राप्त नंद एवं  मौर्य काल के स्वर्ण एवं चांदी के सिक्के मौर्य साम्राज्य के शासन के प्रतीक हैं।
महाराजा त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव
सरगुजा अंचल कलचुरियों के आधिपत्य में भी रहा वर्तमान सरगुजा के महेशपुर से प्राप्त प्रस्तर लेख के आधार पर प्रोफ़ेसर केडी बाजपेयी के अनुसार लेख की रचना 9 वीं शताब्दी ईं के मध्य की प्रतीत होती है। अभिलेख में तीन राजाओं यथा युवराज, आदित्यराज एवं लक्ष्मण का उल्लेख हैं जिसके मध्य पिता-पुत्र के संबंध की जानकारी होती है। सरगुजा में कलचुरी राजवंश से संबंधित कई ग्राम आज भी हैं। जैसे लखनपुर (लक्ष्मण राज से संबंधित) शंकर गढ़ (शंकरगण से संबंधित) आदि यह प्रमाणित करते हैं कि सरगुजा में त्रिपुरी कलचुरियों का आधिपत्य था। डॉ एस के पाण्डेय के अनुसार कलचुरि नरेश युवराज प्रथम के महेशपुर अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र पर डाहल के कलचुरियों का 9 वीं सदी में आधिपत्य हो चुका था।
महाराजा त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव
कलचुरी शासकों में वंश परम्परा के अनुसार द्वितीय लक्ष्मणराज के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र शंकरगण सिंहासन पर बैठा। इसके सभी पूर्वज शैव मतावलम्बी थे परन्तु शंकरगण वैष्णव था। सम्भवत: यह पुत्रहीन दिवंगत हुआ और उसके बाद अनुज  युवराज देव द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ। कलचुरियों की कहानी कुछ लम्बी है। इसके बाद कोकल्ल द्वितीय फ़िर उसका पुत्र गांगेयदेव शासक बना। तीसरी शताब्दी ई सन् में बिहार राज्य के पलामउ जिले के कुंदरी के रकसेल राजपूत ने किसी समय छोटे-छोटे  सरदारों पर आक्रमण कर उन्हे अपने अधीन कर लिया। पलामउ में प्रचलित किंवदंतियों के अनुसार रकसेल राजपूतों ने प्रदेश के इस भाग पर 1613 ईं तक शासन किया। जिन्हे चेरों ने अपदस्थ किया।
हर्रा टोला बेलसर  शंकरगढ़ 

भगवंतराय चेरो जनजाति का प्रमुख था। 1612 में चैनपुर से भाग कर पलामउ आया और वह पलामउ के रकसेल राजा मान सिंह के साथ इस अभिप्राय से मिल गया कि मौका पाते ही सत्ता स्थापित कर ले। सन् 1613 ईं में जब मानसिंह सरगुजा प्रमुख की पुत्री के साथ अपने पुत्र का विवाह करने गया था तो उसकी अनुपस्थिति में भगवंतराय ने अपने अनुयायियों के साथ विद्रोह कर दिया तथा मानसिंह के परिवार की हत्या कर अपने को पालामउ का प्रथम चेरो राजा घोषित कर दिया। मानसिंह ने अपने राज्य की वापसी हेतु कोई प्रयास नहीं किया लेकिन विरोध स्वरुप  सरगुजा के प्रधान की हत्या कर राज्य को अपने अधीनस्थ कर लिया। यह रकसेल राजवंश की शुरआत थी।
ड़ीपाडीह 
छत्तीसगढ़ फ़्युडेटरी स्टेट्स गजेटियर 1909 से ज्ञात होता है कि सरगुजा अधिपति कभी उदयपुर, जशपुर, कोरिया और चांग भखार के समीपस्थ राज्यों का शासक था। सरगुजा जिले के गजेटियर से प्राप्त जानकारी के अनुसार विक्रम संवत 251 में भोजकुरपुर के एक रकसेल चंद्रवंशी राजपूत राजा विष्णु प्रताप सिंह ने सरगुजा जिले के डीपाडीह ग्राम में प्रवेश किया तथा आस-पास के स्थानों पर आक्रमण किया तत्पश्चात उसने द्रविण प्रधान सामनी सिंह  को पराजित किया। इसके बाद विष्णु प्रताप सिंह ने रामगढ़ में एक किले का निर्माण कर 35 वर्षों तक शासन किया तथा वि सं 286 में उसका पुत्र देवराज उत्तराधिकारी बना। महाराजा रामानुज शरण सिंह देव मूल शासक महाराजा विष्णु  प्रताप सिंह के 114 वंशज थे एवं महाराजा त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव 117 वें वंशज हैं।
रामगढ की गुफा 
डॉ रामकुमार बेहार लिखते हैं कि उदयपुर रियासत का इतिहास सरगुजा रियासत से जुड़ा हुआ है। 1857-58 के संग्राम में उदयपुर के शासकों ने सक्रीय भागीदारी निभाई। 1818 की संधि के दौरान अप्पा साहब भोंसले ने संधि की शर्तों के अनुसार उदयपुर का भाग अंग्रेजों को सौंप दिया। कल्याण सिंह उस समय उदयपुर के राजा थे। 1857-58 के विद्रोह में उदयपुर के राजपरिवार ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह किया। ह्त्या के आरोप में सजा काट रहे तीनो भाई कल्याण सिंह, शिवराज सिंह और धीरज सिंह रांची जेल से छुटकारा पाकर अपनी रियासत में आए और आधिपत्य स्थापित किया। विद्रोही राजा कल्याण सिंह और धीरज सिंह की मृत्यु हुई और विद्रोही राजा शिवराज सिह को रायगढ़ राजा देवनाथ सिंह की सहायता से पकड़ा गया तथा कालापानी की सजा दी गई।1857-58 के काल  में उदयपुर के पूर्व राजा व उसके भाईयों का विद्रोह एतिहासिक महत्व रखता है। छत्तीसगढ़ की अन्य रियासतें भी उनका साथ देती तो छत्तीसगढ़ भी राष्ट्रीय परिदृश्य में चर्चित क्षेत्र होता। अगली कड़ी में सरगुजा रियासत की वर्तमान स्थिति के विषय में चर्चा करेगें। आगे पढ़ें 

(महाराजा त्रिभुनेश्वर शरण सिंह देव के चित्र विष्णु सिंह देव की वाल से साभार)

15 टिप्‍पणियां:

  1. कभी मौका लगा तो रामगढ़ का कि्ला व गुफ़ा जरुर देखेंगे।

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  2. रोचक इतिहास, एक सततता है जो अभी तक जीवन्त है..

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  3. आपके रोचक वर्णन और सुन्दर दृश्य ने सरगुजा से परिचित करा दिया अब इसे अपनी आँखों से देखने की इच्छा है... पता नही कब अवसर मिले लेकिन जायेंगे जरूर...

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  4. सरगुजा रियासत के बारे में जानने की काफी जिज्ञासा थी, शायद इसी पोस्ट के इंतजार में थी। सुंदर पोस्ट

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  5. इतिहास की शानदार और रोचक जानकारी

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  6. 1820 के पूर्व का सरगुजा के इतिहास पर कोई प्रमादिक ग्रन्थ , जानकारी नही मिलती

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  7. 1820 के पूर्व का सरगुजा के इतिहास पर कोई प्रमादिक ग्रन्थ , जानकारी नही मिलती

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  8. Mujhe apne raksel vans ke itihas ki jankari Dene ke liye dhanyavad

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  9. सरगुजा महाराजा टी0एस0बाबा के बाद सरगुजा राज परिवार का हिस्सा कौन है

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