शनिवार, 30 मार्च 2013

चंगोरा भाटा से लौटकर …………


आज शाम चंगोरा भाठा हायर सेकेन्डरी स्कूल द्वारा आयोजित एवं संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग द्वारा  प्रायोजित सेमीनार से थका हारा घर पहुंचा। ऐसा लग रहा था कि दिमाग का दही हो गया। थकान दूर करने चाय का सहारा लेना पड़ा। कप हाथ में लेने के बाद गर्म चाय की उड़ती हुई भाप के साथ सेमीनार की स्मृति भी उमड़ने घुमड़ने  लगी। सैकड़ों सेमीनार में उपस्थिति देने बाद भी मैने ऐसा अव्यवस्थित सेमीनार कहीं नहीं देखा। ऐसा लगा कि जैसे खड़ी फ़सल को पाला मार गया हो। छत्तीसगढ की वाचिक परम्परा वाले सेमीनार में डॉ प्रभा शर्मा ने "छत्तीसगढ़ का इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति" विषय पर संगोष्ठी में शोध आलेख प्रस्तुत करने का आग्रह किया था। मैने शोध आलेख की समरी उन्हे नियत समय पर मेल कर दी थी और पावर पांईट प्रस्तुतिकरण तैयार करके आदतानुसार सही समय पर सांस्कृतिक भवन चंगोरा भाठा 11 बजे पहुंच चुका गया। उस समय आयोजकों के अतिरिक्त मुझे सुरेश साहु ही मिले, जो मेरे जैसे ही समय पर पहुंचे थे।

कार्यक्रम की संयोजिका डॉ प्रभा शर्मा ने स्वागत किया तथा नाश्ते के लिए पूछा। नाश्ता घर से करके आने के कारण मैने मना कर दिया। कार्यक्रम स्थल का सभागृह बड़ा था। ऐसा लग रहा था कि संगोष्ठी की जगह आमसभा का आयोजन है। 50 कुर्सियों पर मैं अकेला टिक गया। थोड़ी देर में स्कूल के बच्चे आ गए। प्रायमरी, मिडिल एवं हाई स्कूल के सभी कुर्सियां  फ़ुल हो गई। अब लगने लगा कि सेमीनार प्रारंभ हो सकता है। मेरे सहिनाव ललित मिश्रा का आगमन हुआ और उनसे "सिरपुर सैलानी की नजर से पुस्तक पर चर्चा हुई। मैने एक प्रति उन्हे समीक्षार्थ भेंट की। अल्पकाल में ही अरुण कुमार शर्मा जी, डॉ प्रभुलाल मिश्र, प्रो विवेक झा, डॉ रमेन्द्र नाथ मिश्र डॉ विष्णु सिंह ठाकुर एवं डॉ के पी वर्मा जैसे प्रख्यात पुराविद एवं इतिहासकार अतिथि एवं विशेष अतिथि के रुप में उपस्थित हो गए। पता चला कि कार्यक्रम के मुख्यातिथि श्री बृजमोहन अग्रवाल अपरान्ह 3 बजे आएगें। कार्यक्रम के प्रारंभ में स्कूल के बच्चों ने सुंदर सांस्कृतिक कार्यक्रम कर छत्तीसगढ़ की संस्कृति की झलक दिखाई।

कार्यक्रम प्रारंभ हुआ, कार्यक्रम का संचालन डॉ प्रभा शर्मा ने किया। उनकी आवाज ही हमें सुनाई नहीं दे रही थी। साऊंड व्यवस्था इतनी खराब थी कि डायस पर बैठे महानुभावों को भी सुनाई नहीं दे रहा था। स्वागत भाषण में अरुण कुमार शर्मा जी ने इसका जिक्र भी किया और कहा कि इस सभागृह में उल्टे घड़े लटका दिए जाएगें तो आवाज की समस्या का निदान हो सकता है। डॉ प्रभुलाल मिश्र एवं डॉ रमेन्द्रनाथ मिश्र, डॉ शिवाकांत बाजपेयी, डॉ के पी वर्मा ने क्या कहा कुछ पल्ले नहीं पड़ा। साथ ही स्कूल के बच्चों की कलरव से भी अत्यधिक व्यवधान उप्तपन्न हो रहा था। टीचर्स उन्हें चुप कराने में लगे थे। बच्चे तो आखिर बच्चे हैं कहाँ चुप रहने वाले थे। ललित मिश्रा की बुलंद आवाज सामने बैठे हम लोगों तक पहुंची। सामने बैठे बच्चों को बाहर भेज दिया गया तब भी वही स्थिति बनी रही। स्थिति को भांपते हुए प्रो विवेकदत्त झा ने बिना माईक के ही अपना अध्यक्षीय भाषण दिया। शायद उन्होने सोचा हो कि जब माईक से बोलने से समझ नहीं आ रहा, तो बिना माईक के ही बोलना ठीक है। कम से कम डायस पर बैठे महानुभावों को तो सुनाई देगा। 

स्वागत भाषण समाप्ति तक ढाई बज चुके थे। भोजन की घोषणा हुई, भोजनोपरांत प्राचार्य मैडम प्रतिभा चंदेल ने कहा कि मंत्री जी आ रहे हैं, अभी फ़ोन आया है 10 मिनट में पहुंचने वाले हैं। सुन कर सभी जन हरकत में आ गए। मैडम कुछ तनाव में दिखी। ये करो और वो करो, लगा कि थोड़ी देर के लिए तूफ़ान आ गया। उन्होने साऊंड वाले को वार्निंग दी कि साऊंड सिस्टम ठीक करो नहीं तो पैसे नहीं मिलेगें। संगोष्ठी में शोध आलेख का पठन शुरु हुआ। सर्व प्रथम मेरा ही नाम पुकारा गया, लेकिन मेरे बगल में वरिष्ठ पुराविद डॉ कामता प्रसाद वर्मा बैठे थे। उनसे ही शुभारंभ हो सोच कर मैने उन्हें भेजा। डॉ कामता प्रसाद वर्मा ने अपना शोध आलेख पावर पांईट के माध्यम से पढा एवं दिखाया। दूसरे नम्बर मैं पढना चाहता था तो बी आर साहु जी बाजी मार ले गए। तीसरे नम्बर पर मैने अपना शोध आलेख "सिरपुर के शिल्पकार" पढा एवं दिखाया इसके पश्चात डॉ वृषोत्तम साहु ने एवं डॉ महेन्द्र कुमार सार्वा ने अपना शोध आलेख पढा। इस दौरान आलेख पठन किसी को सुनाई नहीं दिया एवं एक संगोष्ठी की 4 संगोष्ठियाँ दिखाई दे रही थी। मंचासीन अतिथियों का ध्यान आलेख पढने वाले की तरफ़ नहीं था। जब सुनाई ही नहीं देगा तो वे भी क्या ध्यान देगें। वे आपस की बातों में मशगुल थे। नीचे बच्चों की, अध्यापकों की एवं आमंत्रित अन्य विद्वानों की अलग संगोष्ठी चल रही थी।

प्राचार्य मैडम कह रही थी कि संगोष्ठी का आशय स्कूल के बच्चों के अपने क्षेत्र के इतिहास, पुरातत्व एवं संस्कृति से अवगत कराना है, जिससे वे इनके संरक्षण एवं संवर्धन के प्रति अभी से तैयार हो जाएं। बहुत सुंदर विचार लगे मुझे उनके। कुछ देर में स्थानीय पार्षद ने आकर सूचना दी कि व्यस्त होने के कारण मुख्य अतिथि मंत्री जी कार्यक्रम में नहीं पहुंच सके। सारा राजनैतिक कार्यक्रम धरा का धरा रह गया। मंचासीन अतिथियों को लिफ़ाफ़ों के साथ स्मृति चिन्ह पकड़ाए गए और कार्यक्रम समाप्ति की घोषणा हो गई। मैने आयोजकों से विदा ली। डॉ प्रभा शर्मा शाम की चाय लेने का आग्रह कर रही थी। दो दिनों की संगोष्ठी में कल का सिरपुर भ्रमण भी सम्मिलित है। सांझ होने को थी और मुझे तो 30 किलोमीटर घर लौटना था। चाय के कप से चुस्की लेते हुए सोच रहा था इस संगोष्ठी से भी मुझे बहुत कुछ हासिल हुआ। लेकिन जिस उद्देश्य से संगोष्ठी का आयोजन किया गया था कि बच्चों को कुछ जानकारी मिले, छत्तीसगढ़ के उद्भट विद्वानों को बच्चे सुन नहीं सके। सिर्फ़ देख ही सके। लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी उद्देश्य हासिल नहीं हुआ। ध्यान रखना चाहिए कि जनता की गाढी कमाई का सही इस्तेमाल होना अत्यावश्यक है साथ ही उपस्थित विद्वानों के बहुमुल्य समय का भी ध्यान रखना चाहिए।

सेमीनार एवं संगोष्ठियों के कारण मार्च का महीना अत्यधिक व्यस्तता का रहा। अगले अंक में अन्य संगोष्ठियों की चर्चा करेगें। साथ ही जानने की कोशिश करेगें कि इन संगोष्ठियों से हमने क्या हासिल किया 

14 टिप्‍पणियां:

  1. लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी उद्देश्य हासिल नहीं हुआ। ध्यान रखना चाहिए कि जनता की गाढी कमाई का सही इस्तेमाल होना अत्यावश्यक है साथ ही उपस्थित विद्वानों के बहुमुल्य समय का भी ध्यान रखना चाहिए।
    ये बात तो आपने सही कहीं !!

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  2. संस्‍कृति और पुरातत्‍व विभाग का काम क्‍या ज्‍योतिष पर संगोष्‍ठी आयोजित करने का नहीं होना चाहिए ??
    ज्‍योतिषी रिसर्च भी करे और समाज में इसके प्रचार प्रसार का जिम्‍मा भी उठाए ... क्‍या ये संभव है ??

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  3. सेमीनार एवं संगोष्ठियों का आयोजन महत्वपूर्ण उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया जाता है, उचित व्यवस्था का होना अत्यंत आवश्यक है...

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  4. *संगीता पुरी

    सब संभव है,

    हमारे गुरुजी कहते हैं कि सरकारी धन के लिए "घिसना" पड़ता है।

    खुद की जेब से लगाकर करने में तो कोई समस्या नहीं है :)

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  5. आज नहीं तो कल सही, थोड़ा पैसा और सही।

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  6. @ ललित शर्मा जी .. अपनी अपना इंटरेस्‍ट होता है .. ज्‍योतिष के गत्‍यात्‍मक सिद्धांतों को समझने परखने में मैने भी खुद को घिस दिया .. मेरा कोई व्‍यक्तिगत स्‍वार्थ नहीं कि सरकारी धन के लिए मैं घिसूं ... मैं तो समाज के कल्‍याण के कार्यक्रम की बातें कर रही थी .. भूत पढने वाले विद्वान हैं तो भविष्‍य पढने वाले भी हैं .. उनकी बातें भी सुनी जानी चाहिए ...

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  7. सार्थक लेख | पैसे और समय को आजकल कौन तवज्जो देता है खासकर यदि वह दुसरे का हो तो |

    कभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
    Tamasha-E-Zindagi
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  8. अक्सर इस तरह के कार्यक्रम मिसमेनेजमेंट की वज़ह से एक तमाशा सा बन कर रह जाते हैं।

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  9. सभी जानते हैं कि क्या उपयोग और क्या दुरूपयोग होता है, बढिया विषय, चित्र धुमिल से नजर आरहे हैं जरा चेक करलें.

    रामराम.

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  10. सरकारी पैसे और विद्वानों के अमूल्य समय का दुरुपयोग किस तरह होता है, इसका यह एक बढ़िया उदाहरण है।

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  11. ऐसे कार्यक्रमों में सही मैनेजमेंट की आवश्यकता होती हैं

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