शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

नद्य: रक्षति रक्षित:, नद्य हन्ति हन्त:


मानव सभ्यता का विकास नदियों के किनारे हुआ। नदियों को मानव ने जीवनोपयोगी साधन जुटाने के साथ आवागमन का माध्यम बनाया। नीलनदी घाटी की सभ्यता, सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर अद्यतन मानव जीवन नदियों पर ही आधारित है। परिवहन का माध्यम नदियाँ नहीं रही परन्तु कृषि कार्य एवं मानव निस्तारी के लिए जल नदियों से ही प्राप्त होता है। हमारी संस्कृति में नदियों को माँ का स्थान दिया गया है। जननी अपनी संतान की भली भांति देखभाल करके उसका पोषण करती है उसी तरह नदियाँ भी मानव का पोषण करती हैं।

ऐसा कोई भी प्राचीन शास्त्र नहीं है जिसमें नदियों की महत्ता को स्वीकार नहीं किया गया हो। शास्त्रों ने नदियों का सदैव गुणगान किया है। हमारे भारत में कई बड़ी नदियाँ है जो हिमालय से निकल कर हजारों किलोमीटर का सफ़र तय करते हुए समुद्र तक पहुंचती हैं। हमारे जीवन में नदियों का स्थान महत्वपूर्ण होने के कारण समस्त तीर्थ नदियों के किनारे पर ही विकसित हुए।
पद्म पुराण माता एवं गंगा को समान स्थान देते हुए कहता है - सर्वतीर्थमयी गंगा तथा माता  न संशय: ( गंगा एवं माता सर्वमयी मानी गई है, इसमें कोई संदेह नहीं है। नदियों का महिमा गान करते हुए शास्त्र कहते हैं कि सरस्वती का जल तीन सप्ताह तक स्नान करने से, यमुना का जल एक सप्ताह तक गोता लगाने से और गंगा जी का जल स्पर्श करने मात्र से ही पवित्र करता है, किंतु नर्मदा का जल दर्शन मात्र से ही पवित्र कर देता है।

पद्म पुराण में गंगा की महिमा का बखान करते हुए महादेव जी कहते हैं - गंगा गंगेति यो ब्रुयाद योजनानां शतैरपि। मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति। (गंगा के नाम श्रवण मात्र से तत्काल पापों का नाश हो जाता है।  मनुष्य सैकड़ों योजन दूर से भी गंगा-गंगा शब्द का उच्चारण करता है तो वह सब पापों से मुक्त होकर अंत में विष्णु लोक को जाता है। देव लोक में उच्च स्थान को  प्राप्त तारणहारी गंगा आज अस्तित्व के संकट से जूझ रही है।

गंगा प्रदुषित होने के कारण उसमें जीव मात्र का प्राण हरण करने वाले तत्वों की मात्रा बढ़ गई है। जिससे जलचरों के साथ मानव भी संकट में है। जबकि पुरखो ने पूर्व में ही चेतावनी देते हुए गंगा के समीप शौच, गंगा जी में आचमन (कुल्ला करना) बाल झाड़ना, निर्माल्य झाड़ना, मैल छुड़ाना, शरीर मलना, हँसी मजाक करना, दान लेना, रतिक्रिया करना, दूसरे तीर्थ के प्रति अनुराग, दूसरे तीर्थ का महिमागान, जल पीटना और तैरना आदि चौदह कर्म वर्जित कर रखे हैं।

आधुनिकता के युग में पुरखों की चेतावनियों को मनुष्य ने विस्मृत कर दिया। जिसके परिणाम स्वरुप गंगा एवं अन्य नदियों का जा पावन जल प्रदुषित हो रहा है। कई नदियाँ विलुप्ति के कगार पर हैं। कई नदियाँ मर चुकी हैं और कई नदियाँ शनै: शनै: मृत्यू की ओर बढ़ रही हैं। नद: रक्षति रक्षित:, नद्य हन्ति हन्त:। अर्थात नदी की रक्षा होगी तो वह भी रक्षा करेगी। नदी का जल स्वच्छ होगा और वह सतत प्रवाहित होगी तो प्राणदायिनी बनकर प्रकृति के समस्त चराचर जीवों का पोषण एवं पालन करेगी। अगर नदी मर गई तो चराचर जगत भी मृत्यू को प्राप्त हो जाएगा और संसार में मानव सभ्यता नष्ट हो जाएगी। 

भारत की सभी नदियाँ कमोबेस प्रदूषण का शिकार हैं, कल कारखानों के अवशिष्ट से लेकर शहरों की गंदगी एवं मल-मूत्र बेखटके नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है। इससे नदियाँ मर रही हैं, नदियों में जल नहीं होने के कारण आस-पास का भूजल भी धरातल से रसातल में जा रहा है। छत्तीसगढ़ में महानदी में वर्षा ॠतु में ही जल दिखाई देता है, शिवनाथ, खारुन, इंद्रावती इत्यादि नदियाँ भी प्रदूषित हो रही हैं। बिलासपुर स्थित अरपा नदी तो मर ही चुकी है। भारत की अन्य नदियों का भी यही हाल है। इन नदियों के संरक्षण के साथ जल का शुद्धिकरण एवं भूजल को भी रिचार्ज करना आवश्यक हो गया है।

नदियों के संरक्षण से मानव सभ्यता का संरक्षण होगा। इसके लिए सरकार के साथ आम नागरिकों एवं मीडिया को भी पहल करनी होगी। नदियों को प्रदूषण से बचाने के लिए सरकार को भी अपनी भूमिका तय करनी होगी। मीडिया द्वारा जन जागरण कालांतर में अवश्य ही मानव के विचारों में परिवर्तन लाकर उन्हें नदियों के प्रदूषण के प्रति जागरुक बनाएगा। इस जन जागरण अभियान में मीडिया की भूमिका भी महत्वपूर्ण है। आज मीडिया को इस विषय पर मंथन करना चाहिए। जब प्रिंट मीडिया स्पेस की कमी से जूझ रहा है तब न्यू मीडिया को कारगर जिम्मेदारी निभानी होगी। तभी इस भगीरथ कार्य में सफ़लता मिल सकती है। आओ हम सब संकल्प लें और एकजुट होकर नदियों को बचाएँ।

सोमवार, 18 अगस्त 2014

सरगुजा के व्याध : कुकूर असन घुमबो त खाबो साहेब

'हमर कोनो सुनई नईए, कोन ल गोहार पारबो, आत्मा नई माढ़य त दिन भर गली-गली कुकूर असन घुमबो त खाबो साहेब, नई त लांघन रहेला परही। अइसन जिनगी बना दे हे भगवान हमर।' (हमारी कोई सुनवाई नहीं है, किसको आवाज लगाएगें, आत्मा नहीं मानती तो दिन भर गली-गली कुत्ते की तरह घूमेंगें तो खाने को मिलेगा, नहीं तो भूखा ही रहना पड़ेगा, ऐसी जिन्दगी बना दी है भगवान ने हमारी) मेरे एक सवाल का उत्तर देते हुए रामप्रताप की आँखों में सदियों का दर्द झलकने लगा था। रामप्रताप व्याध जाति के लोगों का मुखिया है। जब मैं इनके मोहल्ले में पहुंचा तो वह कांधे पर खंदेरु लटकाए फ़ांदा खेलकर सांझ को घर लौटा था। उसकी झोली खाली थी, आज दिन भर की मेहनत के बाद भी उसे पेट भरने के लिए कुछ भी शिकार नहीं मिला था।
बेलदगी के शिकारी पारा में पत्रकार त्रिपुरारी पान्डे के साथ
लखनपुर (जिला सरगुजा) से 6 किलोमीटर की दूरी पर बेलदगी ग्राम के शिकारी पारा में कीचड़ से लथपथ कच्ची पगडंडी पर चलकर हम पहुंचे। सरकारी जमीन पर बसे इस पारा में लगभग 60 छानी (छत) हैं जिसमें व्याधा जाति के परम्परागत शिकारी परिवार निवास करते हैं। हमारे पहुंचते ही  बच्चे, बूढ़े, जवान, महिलाएँ सारा मोहल्ला एकत्रित हो गया। उन्हें लगा कि कोई सरकारी आदमी उनके लिए खुशखबरी लेकर आया है। हमारे बैठने के लिए कुर्सियों की व्यवस्था की और सभी लोग हमें घेर कर  बैठ गए। उनके फ़टे-मैले कपड़ों के बीच गरीबी एवं दरिद्रता झांक कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही थी।
व्याधा (शिकारी) परिवार
कोलाहल के बीचे शिवकुमार कहता है "हमारा खानदानी काम फ़ांदा खेलकर शिकार करना एवं जड़ी बूटी बेचना है। पुरुष जड़ी-बूटी बेचने  एवं फ़ांदा खेलने जाते हैं तथा महिलाएँ भीख मांगने के लिए।" इस तरह इनकी गृहस्थी चलती है। प्रत्येक घर में चिड़िया आदि पकड़ने के लिए फ़ांदे हैं। कहने पर शिवकुमार फ़ांदे मंगवाता है "फ़ांदा 2 तरह का होता है। पहला मंगरी एवं दूसरा खंदेरु। मंगरी फ़ांदा बांस की खपच्चियों को अंडाकार शक्ल देकर उसमें जाल एवं दरवाजा लगा कर बनाया जाता है तथा खंदेरु फ़ांदा भी बांस का ही बनता है, यह जिग-जैग शक्ल आयताकार होता है, इसे लम्बाई में फ़ैला कर चिड़िया फ़ंसाई जाती है।अब चिड़िया पकड़ना भी जुर्म हो गया है। इसलिए हमारा यह परम्परागत धंधा भी ख़त्म हो गया. खाने के लाले पड़े रहते हैं।
चिड़िया फ़ांसने का मंगरी फ़ंदा और आड़ में शिकारी
घुमंतु होने का खामियाजा इस जाति को भुगतना पड़ रहा है। रामप्रताप कहता है "20-25 साल पहले हम लोग अम्बिकापुर राजा की लुचकी स्थित बाड़ी में अपना डेरा डाले थे। उसके बाद बेलदगी आ गए। सारी जिन्दगी पेड़ के नीचे खुंदरा बांध कर रहने में गुजर गई। फ़िर इस स्थान पर अनुप राजवाड़े से बसा दिया तो डेरा स्थायी हो गया। अब हम लोग यहाँ झोंपड़ी बना कर रहते हैं, सरकारी सुविधा के नाम पर कुछ लोगों का राशन कार्ड बना है और घरों के लिए एक बत्ती कनेक्शन भी। कुछ लोगों को रोजगार गारंटी कार्ड भी मिला है। जाति एवं निवास प्रमाण पत्र बनाने के लिए 50 साल का जमीन रिकार्ड होना चाहिए। हम लोग सदा घुमंतु रहे हैं, इसलिए जाति प्रमाण पत्र एवं निवास प्रमाण पत्र की अहर्ताएँ पूर्ण नहीं करते। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए। सरकारी योजनाओं का लाभ लेने के लिए जाति एवं निवास प्रमाण पत्र अनिवार्य है।"
शिवकुमार अपनी बात कहता हूआ
इनके कबीले की भाषा मेवाड़ी बोली से मिलती जुलती है। धमना बाई कहती है "बड़े बूढे बताते हैं कि हमारे पुरखे उज्जैन से यहाँ आए थे। उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर कोरगल शिकारी द्वारा निर्मित पैदामी शिकारी देवी नौकोड़ का मंदिर है, मैने उस मंदिर के दर्शन किए हैं। हम जब आपस में बात करते हैं तो कबीले की बोली का प्रयोग करते हैं और बाहर जाते हैं तो छत्तीसगढ़ी, सरगुजिया तथा हिन्दी भाषा में बात करते हैं। मैं माला-मुंदरी के साथ जड़ी बूटी बेचने का काम करती हूँ। मेरे पास भंवरी फ़ल एवं रीठा की 2 तरह की माला है। भंवरी फ़ल की माला पहनने से चक्कर आने की बीमारी खत्म हो जाती है तथा रीठा की माला बच्चों को टोना-टोटका एवं नजर से बचाने के लिए पहनाते हैं। हम एक माला 20-30 रुपए में बेचते हैं।" प्रमाण के तौर पर धमना बाई अपने घर से माला लाकर दिखाती है।
उपर भंवरी माला तथा नीचे रीठा माला
इस कबीले में शिक्षा का प्रकाश फ़ैलने लगा है, जब से ये स्थायी रुप से बसेरा करने लगे हैं। इनके कबीले का सबसे अधिक पढा-लिखा  नौजवान उमरसाय है, जो लखनपुर के बालक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में 11 वीं कक्षा की पढाई जीव विज्ञान की पढाई कर रहा है तथा 10 वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा उसने 57 प्रतिशत अंको से उत्तीर्ण की है। 8 वीं की पढाई कर रहा रुपेश मूक बधिर है। वह स्थानीय पाठशाला में ही पढ़ता है। शिक्षक द्वारा ब्लेक बोर्ड में लिखने पर वह समझता है और लिखता है। विडम्बना है कि इस कबीले में 5 लोग मूक बधिर हैं। रामप्रताप के 4 बेटे कुल्पा 30 वर्ष, जानु 27 वर्ष, आनु 20 वर्ष एवं रुपेश 16 वर्ष मूक बधिर हैं। किसी व्यक्ति की चारों संतान मूक बधिर हो जाएं तो उसके परिवार पर क्या गुजरती होगी ये तो वह स्वयं ही जान सकता है। वर्तमान में इस कबीले के 4 बच्चे पढाई कर रहे हैं, परन्तु निवास एवं जाति प्रमाण पत्र में अभाव में इनको आरक्षण की कोई सुविधा नहीं मिलने वाली।
व्याध जाति के लोगों के आवास
अंग्रेजों ने इस घुमंतु जनजाति को जरायम पेशा श्रेणी में सूचीबद्ध कर रखा था। जिसे आजादी के बाद भारत सरकार ने विमुक्त जनजाति घोषित किया। लखनपुर के वरिष्ठ पत्रकार त्रिपुरारी पाण्डे कहते हैं "भरण पोषण के लिए उपलब्धता निश्चित न होने एवं गरीबी होने के बावजूद भी ये चोरी-चकारी नहीं करते। भले ही भीख मांग कर, हाथ पैर जोड़ कर गुजारा कर लेते हैं। न ही आपसी लड़ाई झगड़े की रिपोर्ट थाने में होती है। शराब आदि पीकर विवाद होने पर ये अपने कबीले में ही उसकी सुनवाई कर निपटारा करते हैं तथा कबीले द्वारा निर्धारित सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत जो भी कुछ दंड निर्धारित होता है वह दिया जाता है ताकि भविष्य में फ़िर कोई गलती न करे।"
शिकारी पारा का चौक
आजादी की हम 68 वीं वर्षगांठ मना चुके हैं, परन्तु इन घुमंतु जातियों तक उसका उजाला नहीं पहुंचा है। शासन इनके लिए शिक्षा, आवास, रोजगार जैसी मूलभूत सुविधाएँ भी नहीं जुटा पाई है। जहाँ एक तरफ़ मलाईदार लोग आरक्षण की सुविधा लिए गलत आंकड़े देकर लाभ उठाने की जुगत में रहते हैं वहीं दूसरी ओर वास्तविक हकदारों की आवाज सरकार के कानों तक नहीं पहुंची है।
सरकार चाहती तो इनके हुनर का लाभ उठा सकती थी। भले ही शैक्षणिक दृष्टि से अनपढ़ है तो क्या हुआ, पर अपने परम्परागत कार्य में कुशल हैं, इन्हें जड़ी-बूटियों, पक्षियों, जंगली वनस्पतियों की जातियों की वृहद जानकारी है, जो इन्होंने अपने पूर्वजों से पाई है। उसके संरक्षण एवं संवर्धन में इनका सहयोग लिया जा सकता है। जंगल में वन संरक्षी के रुप में इनकी नियुक्ति हो सकती थी जिससे वन संरक्षण कार्य किया जा सकता है। 
उर्दू शायर मुजफ़्फ़र रजमी की पंक्तियाँ प्रासंगिक हो रही हैं " लम्हों ने खता की थी और सदियों ने सजा पाई।" परन्तु इस व्याधा जाति ने ऐसी कोई खता भी नहीं की है जिसकी सजा पीढी-दर-पीढी भीख मांग कर पा रहे हैं। चलते-चलते शिवकुमार करुण पुकार सुनाई देती है "साहब! हमारे लिए जो भी मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था कर देगा, उसकी पूजा हम अपने पारम्परिक देवताओं के साथ जीवन भर करेगें।" न जाने कब सरकार इनकी सुध लेगी और बनजारों को दर-दर भटकने के अभिशाप से मुक्ति से मिलेगी।

मंगलवार, 22 जुलाई 2014

आत्मकथा कहना, खांडे की धार पर चलना....

त्मकथा कहना "खांडे की धार" पर चलना है। सच है आत्मकथा लिखना किसी "बिगबैंग" से कम नहीं है।अगर विस्फ़ोट कन्ट्रोल्ड हो तो गॉड पार्टिकल मिल जाता है और विस्फ़ोट अनकंट्रोल्ड हो तो समाज के समक्ष जीवन भर का बना हुआ प्रभामंडल छिन्न-भिन्न हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य के जीवन के दो पहलू होते हैं, पहला वह जिसे प्रकाश में लाना चाहता है और दूसरा वह जिससे प्रकाश में न लाकर प्रकाश में रहना चाहता है। बिरला ही कोई आत्मकथा लिखने का साहस कर पाता है और उसके साथ न्याय भी। "कहाँ शुरु, कहाँ खत्म" का नायक एक संयुक्त परिवार हिस्सा है, संयुक्त परिवार के फ़ायदे भी है तो नुकसान भी। आत्मकथा लेखन के दुस्साहस को रेखांकित करते हुए नायक कहता है कि -" आत्मकथा नंगे हाथों से 440 वोल्ट का करंट छूने जैसा खतरनाक कार्य है।" लोग बड़े-बड़े लेखकों, विचारकों, नेताओं, अभिनेताओं की आत्मकथा पढ़ते हैं। उन्होने कभी सोचा भी नहीं होगा कि किसी आम आदमी की आत्मकथा भी हो सकती है। इस आत्मकथा का नायक लॉ ग्रेजुएट होने के बाद भी स्वयं को पेशे से हलवाई कहता है। क्योंकि उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद भी उसे पुस्तैनी पेशे को ही अपनाना पड़ा। वह कुछ प्रश्न भी छोड़ता है जिसके उत्तर कहीं पर खुद देता है, कहीँ पर जिज्ञासा प्रकट करता है। 

    आत्मकथा के प्रारंभ में वह कहता है - " किसने भेजा मुझे इस नक्षत्र में … नहीं मालूम!" यहाँ से कथा आगे बढ़ाते हुए वह स्वयं से प्रश्न करता है- "तीन दंडाधिकारियों के तले मेरा बचपन अक्सर सिसकता रहता था, 'इस दुनिया में क्यों आया मैं?" इसका उत्तर आगे चलकर आत्मकथा में ही मिलता है - "समय ने पासा फ़ेंका और मैं उसका मोहरा था।" कथा का नायक फ़िल्मों का बेहद शौकीन है, कथानक कि माँग के अनुसार फ़िल्मों का भी वर्णन करता है। आज भी बच्चों के द्वारा फ़िल्में देखने को माँ-बाप अच्छा नहीं मानते, उनका मानना है कि फ़िल्मों से बच्चे बिगड़ते हैं। परन्तु कथा का नायक फ़िल्मों को अपनी जीवन-यात्रा में महत्वपूर्ण स्थान देते हुए कहता है - "मेरा मानना है कि मेरा व्यक्तित्व गढ़ने में  जितना हाथ परिवार का रहा होगा, उतना उन फ़िल्मों का भी था, जिन्हें मैने अपने अल्हड़पन में देखा था। उन फ़िल्मों ने मुझे प्रारंभिक तौर पर समझाया कि मुझे कैसा होना चाहिए और वैसा कैसे बनना चाहिए?"

    कथा का नायक जीवन यात्रा का साक्षी भी और कर्ता भी। वह साक्षी बनकर दुनिया को देखता है कि उसमें क्या घट रहा है, क्या परिवर्तन हो रहा है तथा दुनिया की एक इकाई होने के नाते कर्म भी करता है, सिर्फ़ साक्षी ही नहीं रहता। आजादी के 125 दिनों के बाद दुनिया में आकर वह होश संभालने के बाद वह समाज का एक अटूट हिस्सा रहा है। 1962 के चीन युद्द पर टिप्पणी करते हुए कहता है - "सदियों से रक्षा करने वाला हिमालय आधुनिक विज्ञान की आयुध तकनीक के समक्ष नतमस्तक होकर लहुलुहान हो गया। उस घटना से पूरा देश दहल गया, 'पंचशील के सिद्धांत भसक गए।" पाकिस्तान के साथ पैंसठ साला बैर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए वह गंभीर बात कहता है - "मैं शिशु से वृद्ध हो गया, दोनो राष्ट्र अभी तक वयस्क नहीं हुए?" दोनों देशों के हुक्मरानों को एक आम आदमी से सीख लेनी चाहिए। 

    1975 का आपातकाल वास्तव में भारत के इतिहास का काला अध्याय है। जिसे पलट कर देखने में अब उनको भी शर्म आती होगी, जो इसका हिस्सा रहे हैं। इस पर बेबाक टिप्प्णी उन दिनों की भयावहता को दर्शाती है - "सम्पूर्ण भारत एक बड़ी जेल में तब्दील हो गया, कुछ देशद्रोही (?) सीखचों के भीतर थे, शेष खुली जेल में।" आगे टिप्पणी है - "आपातकाल में एक खास बात उभरी, जिसने देश के राजनैतिक प्रशासन को नया मोड़ दे दिया। उन इक्कीस महीनों में नौकरशाह अपनी शक्ति पहचान गए, इसलिए उन्होने अपनी भूमिका बदल ली, वे 'जन सेवक' से 'जन अधिकारी' में शिफ़्ट हो गए। परिणामत: जन प्रतिनिधि कमजोर पड़ गए और जनतंत्र की मूल भावना क्षीण होते गई।"

    आत्मकथा का नायक कहीं से भी कृपण नहीं है और अंतर्मुखी भी नहीं - "बहिर्मुखी लोग अन्तर्मुखियों के मुकाबले अधिक पारदर्शी होते हैं, उनका जीवन खुली किताब की तरह होता है, जैसे चिता- उनका जीवन, चिता पर बिछी लकड़ियाँ- उनके जीवन की घटनाएँ और उठती हुई लपटें- उनके जीवन का खुलापन। वह शब्दों के माध्यम से तारीफ़ भी भरपूर करता है तो व्यवस्था को लानत-मलानत देने में भी कसर नहीं छोड़ता। दोनो पहलु प्रबल प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं। महाविद्यालय के दिनों की सहपाठिका के प्रति वह कृतज्ञता अर्पित करते हुए कहता है - " माय एंजिल सफ़िया, तुम जहाँ कहीं हो … मेरा सलाम कबूल करो, तुम्हें लम्बी उम्र मिले।"

    आत्मकथा का नायक पाठक को स्वयं के जीवन में झाँकने का अधिकार देता है। जीवन के वह ऐसे पहलु खोलता है जिसमें रहस्य, रोमांच, करुणा, यंत्रणा, प्रेम, शृंगार, यथार्थ तथा एक जिज्ञासा भी है। यह सत्यता है कि जीवन में उसे कल का पता नहीं रहता, क्या घटने वाला है। इसी जीजिविषा से जुझते हुए एक जीवन बीत जाता है। एक मंजे हुए लेखक की भांति प्रवाहमय शब्दों में अपनी बातें कहते हुए चलता है। यही प्रवाह आत्मकथा रोचक बनाता है। अगर इस आत्मकथा पर धारावाहिक बनाया जाए तो यह दशक का सबसे अधिक मनोरंजक, प्रेरणादायक, ज्ञानवर्धक एवं लोकप्रिय पारिवारिक धारावाहिक हो सकता है।

    "कहाँ शुरु, कहाँ खत्म" आत्मकथा के नायक बिलासपुर निवासी श्री द्वारिका प्रसाद अग्रवाल दुनिया को अपनी खुली आँखों से देखते हुए जीवन का सफ़र तय कर रहे हैं। वर्तमान कानूनों पर वे कहते हैं - "अब नए कानून और भी घातक हो गए हैं, जैसे - आपकी बहू रुष्ट हो जाए तो सम्पूर्ण परिवार  जेल में या अनुसूचित जाति का कोई व्यक्ति आपसे नाराज हो जाए तो आप जेल में। अब, ये तो हद हो गई, किसी लड़की को आपने घूरकर देख लिया या देखकर मुस्कुरा दिए और वह कहीं खफ़ा हो  गई तो भी जेल! बाप रे …… भारत में रहना अब कितना 'रिस्की' हो गया है।" आत्मकथा का लेखक किसी की लेखन शैली का मोहताज नहीं है, न ही इस पर किसी की छाप और छाया है, उसकी अपनी ही शैली है, लेखन की बुनावट का इंद्रधनुषी सम्मोहन पाठक को बांधे रखता है। कथा के 66 साल के नायक ने आत्मकथा के माध्यम से अपने जीवन के तैंतीस वर्षों के अनुभव खोल कर समाज के सामने रख दिए, यही अनुभव इसे पठनीय बनाते हैं। क्या खोया? क्या पाया … मूल्यांकन पाठकों को करना है।

लेखक- द्वारिका प्रसाद अग्रवाल
प्रकाशक - डायमंड पॉकेट बुक्स (प्रा) लि
X-30 ओखला, इंडस्ट्रियल एरिया, फ़ेज -2
नई दिल्ली- फ़ोन - 011-40712100
मूल्य - 125/- रुपए

मंगलवार, 8 जुलाई 2014

टप्पा रामपुर महरी जमीदारी में एक दिन

पृथ्वी पर सुरम्य सरगुजा अंचल निर्मित कर प्रकृति ने मानव को अनुपम उपहार दिया है यहाँ कोयल की कूक से लेकर इन्द्र के एरावत की चिंघाड़ आज भी सुनाई देती है। अपने मनभावन आवास सरगुजा के सघन वनों में हाथी आज भी स्वच्छंद विचरण करते हैं। मेहनतकश सरल एवं सहज निवासियों की धरती सरगुजा रियासत के अंतर्गत टप्पा रामपुर महरी जमीदारी थी, जिसका मुख्यालय गढ़ लखनपुर नामक स्थान था। रियासतें खत्म हो गई पर उनके अवशेष और रियासतकालीन परम्पराएं आज भी कायम हैं। गढ़ लखनपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 111 पर 23अंश 00’46.93” उत्तरी अक्षांश एवं 83अंश03’94.32” पूर्वी देशांश पर स्थित है। 
लखनपुर पैलेस
रामपुर के 170 एवं महरी 80 गाँव मिलाकर कुल 250 गाँव लखनपुर जमींदारी द्वारा शासित होते थे। संयोग से इस जमीदारी में जयपुर, जोधपुर, उदयपुर नामक गाँव भी हैं जो राजस्थान की रियासतों की याद दिलाते हैं। रामगढ़ की शोध यात्रा के दौरान मेरा गढ़ लखनपुर जाना हुआ। कभी रामगढ़ भी लखनपुर जमीदारी का एक हिस्सा था। हम राष्ट्रीय राजमार्ग से बांए तरफ़ पैलेस मार्ग पर चलकर गढ़ लखनपुर पहुंचते हैं। सुबह की गुनगुनी धूप में वर्तमान अर्कसेल राजवंश के जमींदार लाल बहादुर अजीत सिंह बगीचे में कुर्सी डाले बैठे थे ( इन्हे स्थानीय लोग लाल जी बाबा के नाम से संबोधित करते हैं) । आस-पास के गांवों से 8-10 ग्रामीण उनके समक्ष अपनी समस्या लेकर आए हुए थे। वे उनकी समस्या सुनकर समाधान के लिए अपने ज्येष्ठ पुत्र कुमार अमित सिंह देव को आवश्यक निर्देश दे रहे थे। इससे जाहिर है कि आज भी वे अपनी रियाया के दु:ख दर्द को बांटते हैं और हर संभव सहायता करते हैं।
पुराने कारागार के खंडहर - स्टेट लखनपुर
उनसे अभिवादन के बाद मैं समीप में रखी हुई कुर्सी पर बैठ जाता हूँ और उनसे चर्चा प्रारंभ होती है। उन्होने कहा - "मैं आपके लेख पढता रहता हूँ, अच्छा लिखते हैं आप।" तभी मुझे याद आता है कि " सिरपुर एक सैलानी की नजर से" मेरी नई पुस्तक मेरे बैग मे हैं, वह पुस्तक उन्हें भेंट करता हूँ। उनका पुस्तकीय प्रेम मुझे बहुत भाता है। वे लगभग सभी साहित्यकारों की पुस्तकें पढते हैं, पुस्तकों से उन्हें बहुत लगाव है। कुछ देर बाद इसका मूल कारण भी समझ आ गया, उन्होने कहा - "मेरी उच्चशिक्षा सन् 1965 से 70 तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई।" सहस्त्राब्दियों से बनारस साहित्य और संस्कृति की राजधानी रहा है, ऐसे महत्वपूर्ण शिक्षा के केन्द्र में शिक्षा ग्रहण करने से अवश्य ही साहित्य के प्रति रुझान हो जाता है।
वर्तमान राजा लाल बहादुर अजीत सिंह देव- बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के स्नात्कोत्तर उपाधि प्राप्त
चाय की चुस्कियों के साथ चर्चा चलते रहती है। लखनपुर के विषय में एक कहावत है कि "लखनपुर के लाख तरिया"। इस कहावत में लखनपुर में लाख तालाब होने की बात कही जाती है। लाल जी बाबा कहते हैं - लाख तालाब तो नहीं है परन्तु हमारे पूर्वजों ने अकाल के समय जनता को काम देने और जल संसाधन विकसित करने की दृष्टि से यहां कई तालाब खुदवाए थे। जिससे उन्हें अकाल से राहत मिले।" तालाब के विषय में एक जनश्रुति भी सुनाई देती है कि बनारस के राजा लाखन सिंह के कोई पुत्र नहीं था। उन्होने पुत्र प्राप्ति हेतु संकल्प किया कि प्रतिदिन एक तालाब खुदवा कर जल ग्रहण करेगें। इस तरह उन्होने लखनपुर क्षेत्र में 360 तालाब खुदवाए थे।
लाल बहादुर अमरेश प्रताप सिंह देव
टप्पा रामपुर महरी जमींदारी गढ़ लखनपुर के विषय में स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार त्रिपुरारी पाण्डे कहते है - "टप्पा रामपुर महरी जमींदारी का 600 वर्षों का इतिहास मिलता है। सरगुजा महाराजा अमर सिंह देव ने अपने अनुज विशेश्वर बखश सिंह देव को यह जमींदारी दी, ये सरगुजा राज के खरपोशदार थे। उन्होने यहां पैलेस एवं कुलदेवी कात्यायनी के मंदिर का निर्माण कराया था। परम्परा अनुसार ज्येष्ठ पुत्र को ही गद्दी दी जाती है। इसी परम्परा में क्रमश महेश्वरी प्रसाद, रामप्रताप सिंह, हरप्रसाद सिंह अवधेन्द्र प्रसाद सिंह ने गद्दी संभाली। इसके पश्चात अमरेश प्रसाद सिंह देव ने कुछ दिनों तक गद्दी संभाली फ़िर स्टेट का विलय भारत संघ में हो गया। अमरेश प्रसाद सिंह देव के पश्चात लाल बहादुर अजीत सिंह देव वर्तमान में राजपरिवार के मुखिया का दायित्व निर्वहन कर रहे हैं।"
लाल बहादुर अवधेन्द्र प्रताप सिंह देव
पूर्ववर्ती राजाओं ने यहां शासन करते हुए अपने पूर्वजों की आज्ञानुसार महामाया मंदिर का जीर्णोद्धार, ठाकुर बाड़ी, शिवालय के निर्माण के साथ ही महेशपुर, देवगढ़ के मंदिरों की देख-रेख एवं पूजा अर्चना इनके सहयोग से अनवरत जारी है। लाल जी बाबा के ज्येष्ठ पुत्र तथा गढ़ लखनपुर के आठवीं पीढी के कुमार अमित सिंह देव मिलनसार व्यक्तित्व के धनी एवं स्थानीय राजनीति में सक्रीय है। वे पूर्व में नगरपंचायत के निर्दलीय पार्षद एवं वर्तमान में जनपद सदस्य हैं। ग्रामीण क्षेत्र में इनके सदव्यवहार की चर्चा होती है। 
स्टेट लखनपुर की आठवीं पीढी कुमार अमित सिंह देव
टप्पा रामपुर महरी के जमींदार को द्वितीय श्रेणी मजिस्ट्रेट के रुप में प्रजा को न्याय देने एवं अपराधियों को दंड देने का अधिकार था। इन्हें 4-5 माह की सजा देने का अधिकार सरगुजा रियासत के महाराजा की ओर से प्रदत्त था। और कैदी यहां पैलेस के बगल में बनी जेल में रखे जाते थे। बड़े संगीन अपराधी सरगुजा के बड़े जज की अदालत में भेजे जाते थे। पूरे क्षेत्र में कोरवा-पंडो आदिवासी राजा द्वारा प्रदत्त सुरक्षा कर्मियों की वर्दी पहनकर पहरेदारी करते थे। राजा न्यायप्रिय थे और चोर-बदमाशों की कोड़ों से पिटाई की जाती थी, जिससे डरकर यहां अपराध नहीं होते थे।

चाय की चुस्कियों के साथ चर्चा सम्पन्न होती है, लाल जी बाबा मुझे पुन: पधारने के लिए कहते हैं। मैं उनसे आगे की यात्रा के लिए आज्ञा लेता हूँ और चल पड़ता हूँ रामगढ़ की ओर……। 

शनिवार, 5 जुलाई 2014

कब आएगें बीएसएनएल के अच्छे दिन?

केन्द्र सरकार का उपक्रम भारत संचार निगम लिमिटेड, अनलिमिटेड समस्याओं से जुझ रहा है। कहने को तो इसके पास बहुत बड़ा अमला है। ग्राहक सेवाओं के नाम पर विभिन्न स्कीमें लांच की जाती हैं। परन्तु ग्राहकों को सर्विस देने के नाम पर शुन्य है। वातानुकूलित आफ़िसों में बैठे अधिकारी ग्राहकों की सुनने के लिए खाली नहीं है। इनके पास एक्सचेंजों में पुराने एवं खराब हो चुके उपकरणों को बदलने के लिए सामान भी नहीं है।

विभाग में ऐसे सामान एवं उपरकरणों की खरीदी की गई है जिनकी कोई उपयोगिता नहीं है। इन्हें थोक के भाव में खरीद लिया गया है। परन्तु जिन उपकरणों की आवश्यकता एक्सचेजों में हमेशा होती है, उन्हें खरीदने के लिए धन नहीं है। बीएसएनएल के लगभग एक्सचेंजों में बैटरियाँ खराब हो गई हैं। जैसे ही लाईट बंद होती है, मोबाईल, डब्लू एल एल इत्यादि सेवाएँ तत्काल ठप्प हो जाती हैं। बैटरियों में 10 मिनट का भी बैकअप नहीं है। ऐसे स्थिति में बीएसएनएल को बैटरियाँ बदलनी चाहिए परन्तु कंडम बैटरियों का ही दोहन हो रहा है। 

विभाग में नए कर्मचारियों की भर्ती एक अरसे से बंद है, जो कुछ मैदानी अमला जो बचा है अकर्मण्य हो चुका है। उसे कोई लेना देना नहीं है। ऐसी स्थिति में बीएसएनएल के अधिकतर मोबाईल नम्बर पोर्टेबिलिटी की सुविधा के तहत अन्य कम्पनीयों में स्थानांतरित हो चुके हैं। विद्युत व्यवस्था फ़ेल होने पर सर्विस हमेशा ही बंद हो जाती है। निजी कम्पनियों ने अपने टॉवर चलाने के लिए जनरेटर की व्यवस्था कर रखी है और निर्बाध सेवा दे रहे हैं। 

बीएसएनएल भारत सरकार के लिए सफ़ेद हाथी साबित हो रहा है। अगर हम देखे तो अन्य कम्पनियों की अपेक्षा इसकी सेवाओं में 80% गिरावट आई है। ग्राहकों का विश्वास टूटते जा रहा है और वे इससे विमुख होते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में सरकार को बीएसएनएल की सेवाओं की दशा सुधारनी होती। सरकारी उपक्रम होने के कारण इसे अन्य कम्पनियों से अधिक अच्छी सेवा देनी चाहिए। अन्यथा एक दिन ऐसा भी आएगा कि यह उपक्रम दीवालिया होने की कगार पर पहुंच जाएगा और इसे किसी निजी कम्पनी को बेच दिया जाएगा।   

गुरुवार, 3 जुलाई 2014

बस्तर की माटी से जुड़ा कवि: डॉ राजाराम त्रिपाठी

भाषा की अन्य विधाओं की तरह कविता भी जगत को समझने का एक शक्तिशाली उपक्रम हैं, गद्य की अपेक्षा काव्य एवं उसमें निहीत तत्वों को साधारण मनुष्य भी सरलता एवं सहजता से समझ जाता है। क्योंकि कविताओं में रसाधिक्य होता है एवं भाव प्रधान होती हैं। कहीं पर कविता हास्य बोध उत्पन्न करती है तो कहीं पर सौंदर्य रसास्वादन करती नजर आती है। तो कहीं पर आक्रोश के साथ जोश भी प्रकट करती है। कविता मनुष्य के मन मस्तिष्क में चल रही उथल-पुथल और उसके भावों को समक्ष प्रकट करती है। कविता के माध्यम से चराचर में व्यक्ति अपने मनोभावों को प्रसारित करता है। कम शब्दों में अधिक बात कहने की क्षमता कविता ही प्रदान करती है। इसका अपना अनुशासन भी है।

मेरे समक्ष कोण्डागाँव निवासी डॉ.राजाराम त्रिपाठी का काव्य संग्रह "मैं बस्तर बोल रहा हूँ" है। बस्तर में जन्मे डॉ.राजाराम त्रिपाठी इस काव्य संग्रह के माध्यम से बस्तर की व्यथा कथा को समक्ष लेकर आते हैं। संग्रह में 27 कविताएं संकलित हैं। इस काव्य संग्रह की प्रतिनिधि कविता का शीर्षक ही काव्य संग्रह का शीर्षक है। प्रथम कविता हैं  - "हाँ मैं बस्तर बोल रहा हूँ/ अपने जलते जख्मों की कुछ परतें खोल रहा हूँ।" यह दो पंक्तियाँ चावल के उबले एक दाने के सामान बस्तर के यथार्थ से रुबरु कराने में सक्षम हैं। शोषण से उपजे हालातों पर आगे कहते हैं कि "बारुदों से भरी हैं सड़कें,  हरियाली, लाली में बदली, खारे हो चले सारे झरने।" श्रम का फ़ल तो मीठा होता है, फ़िर झरने खारे क्यों हो चले? बारुद की मचाई तबाही से इतने अधिक लोगों ने प्राण गंवा दिए कि मानवता के अश्रुजल से झरने भी खारे हो गए। कवि इन खारे झरनों में मिश्री की डली डाल कर पुन: मिठास लाना चाहता है।

बंदूकों की उगती फ़सल से ने बस्तर का सुख चैन छीन लिया कोयलें भी खामोश हो गई धमाकों के बीच। वर्तमान व्यवस्था पर व्यंग्य करते हुए अगली कविता कहती है " कुपोषण से देश मर रहा, सेठ बेचारा चूर्ण खाए, लँगोटी, रोटी को तरसे, सूट-बूट तंदूरी खाए।" यह व्यंग्य मिश्रित आक्रोश वर्तमान हालातों को सामने ला रहा है। बारुदे के धमाकों ने गांवों को कब्रिस्तान बना दिया। पर लोग अभी भी शोषण से बाज नहीं आ रहे। बारुद के धमाकों एवं सत्ता की गोलियों के बीच जीवन बचाना कठिन है। इस संग्रह में कवि सौंदर्य या इश्क मिजाजी की कविताएँ नहीं कहता। कवि भावुक होकर कहता है कि "कविता मेरे लिए, मात्र दु:खों की अभिव्यक्ति है/ कविता अगर बांसूरी की तान है/ तो मेरे लिए दिल के छेदों से निकली पुकार है।"

सरकारी आबंडरों से हलाकान सोमारु समाज का वह पात्र है जो हर गांव में पाया जाता है। सारी योजनाएं सोमारु को ध्यान में रख कर बनाई जाती हैं। पर योजना आने पर मसालों की गंध मुखिया के घर से उड़ती हुई सोमारु तक पहुंचती है। कविता "सोमारु की सुबह" का एक अंश हैं -"मुखिया के यहाँ से उठती है, मसालों की सुगंध! सोमारु फ़िर परेशान है। शाम  देर तक पिछवाड़े, लड़ते हैं कुत्ते झूठी पत्तलों पर।" कवि संकेतों के माध्यम यथार्थ बयान कर देता है कि शासकीय योजनाओं का क्या हश्र हो रहा है।

संग्रह की प्रत्येक कविता में बस्तर ही समाया हुआ है। कवि, इस कालखंड को अपने काव्य के माध्यम से समय की किताब के पन्नों में दर्ज कर रहा है। बस्तर की नक्सल समस्या से प्रत्येक बस्तरिहा निजात पाना चाहता है, साथ ही प्रश्न भी करता है "फ़ैसला लेना होगा अब, ये चलेगा कब तक, बस्तर की छाती पर मूँग दलोगे कब तक? फ़िर कवि पूछता है "मुझे मेरा बस्तर कब लौटा रहे हो? वापस ले लो अपनी नियामतें, उठा ले जाओ चाहे, अपनी सड़कें, खम्भे, दुकानें। उठा ले जाओ चाहे, बिना सांकल के बालिका श्रम, बिना डाक्टर के अस्पताल, बिना गुरुजी के स्कूल, बंद कर दो चाहे भीख की रसद, ये सस्ता चावल, चना, नमक की नौटकीं।" मेरा बस्तर मुझे लौटा दो।

"बस्तर के सप्तसुर" कविता में बस्तर के साहित्य शिल्पी लाला जगदलपुरी को श्रद्धांजलि अर्पित है। काव्य संग्रह की अन्य कविताएँ भी पाठक के मन पर अपना गहरा असर छोड़ती हुई प्रतीत होती हैं। डॉ राजाराम त्रिपाठी कवि के रुप में शब्द जाल नहीं बुनते पर उनकी नई कविताएं सहज एवं सपाट रुप से बस्तर के दर्द, दुख, व्यथा को मुखर करने में सक्षम है। जब कविता में भाव प्रधान होता है तो शिल्प गौण हो जाता है। डॉ त्रिपाठी विशुद्ध अपनी शैली में शब्द बिंब गढते हैं और कविताएँ चित्र रुप में चलचित्र सी दृश्यांकन प्रस्तुत करती प्रतीत होती हैं। अवश्य ही आगे चलकर बस्तर का यह कवि अपनी कविताओं के माध्यम से साहित्य फ़लक पर दैदिप्यमान होने की उर्जा रखता है।

प्रकाशक: छत्तीसगढ़ साहित्य परिषद (कोण्डागाँव) बस्तर
रचनाकार : डॉ राजाराम त्रिपाठी
मूल्य: 80/- रुपए
पृष्ठ: 52
पता: 151 हर्बल स्टेट, डी, एन के, कोण्डागाँव - बस्तर (छ ग)

बुधवार, 2 जुलाई 2014

मानस को प्रभावित करती कविता वर्मा की कहानियाँ

साहित्य काल का संवाहक होता है, वह समय की अच्छाईयों, सामाजिक विद्रुपताओं एवं परिस्थितिजन्य तथ्यों को समाज के समक्ष लेकर आता हैं। इसका प्रभाव क्षेत्र व्यापक होता है। साहित्य के एक प्रभावी माध्यम के रुप में कहानियों का चलन आदिकाल से है, पुराण जैसे ग्रंथ भी कथानकों के माध्यम से समाज को शिक्षित करते हैं और पंचतंत्र जैसी कहानियाँ मानव का निर्माण करती हैं। कभी-कभी तो कोई कहानी मनुष्य के जीवन के इतनी अधिक प्रेरक हो जाती है कि उसकी जीवन यात्रा में ही आमूल-चूल परिवर्तन कर देती है। साहित्य की स्वस्थता से उत्तम समाज का निर्माण भी होता है। भारत में व्यक्ति की  जीवन यात्रा दादी-नानी की कहानी से होती है। बच्चे को होश संभालते ही कहानियों से लगाव हो जाता है और कहानियों के प्रेरक कथानकों के माध्यम से उसे जीवन पथ मिल जाता है। प्राचिन राजा-रानियों की कहानियाँ से पृथक वर्तमान में नई कहानियाँ भी साहित्य में अपना मुकाम हासिल कर रही हैं। 
कहानियाँ समाज का दर्पण होती हैं, कहानीकार समाज से विषय उठाता है और वृहद दायरे में समाज को ही सौंप देता है चिंतन करने के लिए। कविता वर्मा की कहानियाँ भी वर्तमान समाज के भीतर चल रही हलचल को पाठक के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। "परछाईयों के उजाले" कहानी संग्रह में 12 कहानियों को स्थान दिया गया है, जिसमें ये कहानियाँ प्रमुखता से नारी जिजिविषा एवं उसकी जीवटता को सामने लाती हैं। कहानी संग्रह में "जीवट" कहानी की मुख्य पात्र फ़ुलवा की जीवटता से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। जब वह कहती है " अगर मैं उसे छ: महीने खिला सकती हूं, तो अपने बच्चों को क्यों नहीं। मुझे किसी के सहारे की क्या जरुरत है, औरत हूँ तो क्या?" स्त्री अब समाज में कमजोर नहीं रही, अगर ठान ले तो अपने जीवन का निर्णय स्वयं कर सकती है उसे किसी आसरे या सहारे की आवश्यकता नहीं।
गणित जैसे विषय की सिद्धहस्त कविता वर्मा सहज ही प्रवाहमय शब्दों के साथ कहानियों के माध्यम से अपना प्रभाव छोड़ती हैं। इनकी कहानियों में गणित भी दिखाई देता है। जब "जीवट" कहानी की पात्र फ़ुलवा ट्रक ड्रायवर को छोड़ कर जाती है, पहले गुणा भाग कर सारा हिसाब निकाल लेती है और जो उसे शेष दिखाई देता है उसमें ही उसे जीवन की चमक दिखाई देती है। हानि को लाभ में बदलने के लिए वह अपना निर्णय ले लेती है। "परछाइयों के उजाले" कहानी की पात्र सुमित्रा भी कुछ ऐसा ही जोड़-घटाना लगाती नजर आती है।
कविता वर्मा की कहानी "निश्चय" स्वार्थ, षड़यंत्र, शोषण एवं प्रतिकार दिखाई देता हैं। मंगला की पति से क्या खटपट हुई कि फ़ायदा मालकिन ने उठा लिया और पति-पत्नी के बीच स्वयं स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए दरार डालकर मिलने नहीं दिया। यह कहानी स्त्री का स्त्री के द्वारा भावनात्मक शोषण का पक्ष उजागर करती है। " मंगला की आंखों में अंधेरा छा गया। इतना बड़ा धोखा, जिस प्यार और हमदर्दी की वह दिन रात-सराहना करती थी, उसके पीछे इतना छल?" यही संसार की वास्तविकता है, इससे जाहिर अकारण हमदर्दी स्वार्थ की नींव पर टिकी होती है और कहीं न कहीं शोषण की एक नई कहानी गढती रहती है।
शब्दों की बुनावट में कसावट एवं कथा की प्रस्तुति से नहीं लगता कि कविता वर्मा का यह प्रथम कहानी संग्रह है। इसमें वे एक मंजी हुई कहानीकार के रुप में समक्ष आती हैं। इस कहानी संग्रह में "सगा सौतेला" "पुकार" "लकीर" "आवरण" एक खाली पन अपना सा" "दलित ग्रंथी" "डर" "पहचान" कसौटी पर खरी उतरती हैं। 
कहानी संग्रह की प्रतिनिधि कहानी "परछाइयों के उजाले" अंतिम में प्यार का अनूठा अहसास छोड़ जाती है। एक निस्छल प्रेम जो सामाजिक बंधनों एवं वर्जनाओं के बीच भी अपनी जगह बना लेता है। जीवन के उतरार्ध का यह प्रेम सागर की गहराईयों में उतर जाता है। कहानी कहती है " नारी मन को किसी मजबूत भावनात्मक सहारे की जरुरत होती है और ये जरुरत उम्र के हर पड़ाव की जरुरत है। स्त्री, पुरुष की विशाल बाहों में खो कर अपनी चिंताएँ, जिम्मेदारियाँ, अकेलापन भूल कर सिमट जाती है।" नारी का संबंल होता है उसका प्रिय पुरुष, चाहे वह किसी भी रुप में हो।
जीवन यात्रा की उतराईयों में भी प्रेम समाज से डरता है, समाज के समक्ष मुखर होने से डरता है। मन की लहरें समाज के बंधनों के उतुंग पर्वतों को लांघना चाहती हैं पर कहीं न कहीं वर्जनाओं की बाड़ आगे आ जाती है। सुमित्रा कहती है  "इस उम्र में जब प्यार में दैहिक आकर्षण का कोई स्थान नहीं है। मानसिक संतुष्टि पाने पर भी समाज का डर है।" जीवन की इस अवस्था को भी मनुष्य को लांघना पड़ता है, यहाँ से आगे बढना पड़ता है, पर प्रेम वह संजीवनी है जो सूखे हुए वृक्ष में भी जीवन का संचार कर उसे हरा भरा कर देता है। "परछाईयों के उजाले" कहानी संग्रह पठनीय है।

कहानी संग्रह : परछाईयों के उजाले
लेखिका : कविता वर्मा (इंदौर)
प्रकाशक: मानव संस्कृति प्रकाशन
12- ए, संगम नगर, सन्मति चिकित्सालय के पास इंदौर मप्र
दूरभाष:0731-4245373
पृष्ठ: 142
मूल्य : 150/- रुपए

रविवार, 22 जून 2014

यात्री सुविधाओं पर भी ध्यान दीजिए मंत्री जी

रेल का किराया एकाएक बढा दिया गया, जिससे आम यात्री की जेब पर अचानक बोझ बढ़ गया। मंहगाई वैसे ही कमर तोड़ रही है। अच्छे दिनों की आशा ने मोदी सरकार को आशा से अधिक सीटें देकर संसद में बहुमत प्रदान किया और दिल्ली में सरकार बनवा दी। सरकार बनने के एक महीने के भीतर गैस, पैट्रोल, डीजल, एवं रेलभाड़े के बढने की सुगबुगाहट सुनाई देने लगी थी। पिछली सरकार ने भी इन चीजों के दाम बढाने में कोई कमी नहीं रखी। इनके दाम बढने का सीधा असर अन्य आवश्यक वस्तुओं पर भी पड़ता है। परिवहन दर में वृद्धि होने पर खाद्यान्न एवं आवश्यक वस्तुओं के दाम भी बढ जाते है।
मोदी सरकार ने कुछ दिनों पूर्व अप्रिय फ़ैसले लेने की बात कही थी। जो जनता को पसंद नही आएंगे, उसकी शुरुआत रेल का किराया बढने से हो गई। रेल का किराया 14 प्रतिशत से अधिक बढा दिया गया और माल भाड़े में भी वृद्धि की गई। सरकार का कहना है कि खजाना खाली हो गया है और उसे भरने के लिए कड़े कदम उठाने होगें। साथ ही भाजपा के प्रवक्ता बचकानी दलील दे रहे हैं कि यह फ़ैसला पिछली सरकार का है। अगर पिछली सरकार का फ़ैसला है तो ऐसी कौन सी बाध्यता है कि जो इसे लागु किया जाए। सरकार फ़ैसला बदल भी सकती है। 
यह तो भारत की जनता है, कितना जुल्म कर लो, दो चार दिनों में रो-पीट कर चुप हो जाएगी। संसद में विपक्ष बचा नहीं जो हो हल्ला मचाएगा। कांग्रेस अपने कर्मो से कोमा में चली गई है। ऐसी स्थिति में मनचाहे निर्णय लिए जा सकते हैं। रेल का किराया बढाने के पीछे यह भी तर्क दिया जा रहा है कि रेल यात्रियों के लिए सुविधाओं का विस्तार होगा। अगर कभी मुंबई हावड़ा या अहमदाबाद हावड़ा ट्रेन की सामान्य बोगी में सफ़र करके देखें। नानी याद आ जाएगी। पैर रखने की जगह नहीं रहती और गंतव्य स्थान से ही गाड़ी फ़ुल हो जाती है। 
किराया बढाने के साथ यात्री सुविधा बढाने वाली बात थोड़ी राहत दे सकती है। परन्तु भारतीय रेल के यात्रियों की असुविधाओं को ध्यान में रख कर यात्री सुविधाएँ विकसित की जानी चाहिए। प्रथमत: तो तत्काल के नाम पर घोटाला बंद किया जाना चाहिए। तत्काल कोटा बना कर यात्रियों की जेब पर डाका डाला जा रहा है और इस कोटे में भी वेटिंग टिकिट दी जाती है, जो नान रिफ़ंडेबल होती है। अगर कोई यात्री मजबूरी में तत्काल की वेटिंग टिकिट ले लेता है और कन्फ़र्म नहीं होती तो उसके पैसे भी रेल्वे हजम कर जाती है। पहले तत्काल का अर्थ था कि गाड़ी चलने से पहले जो टिकिट रद्द कराई जाती थी उन्हें करंट टिकिट की खिड़की से बेच दिया जाता था। अभी तो ट्रेन में आधी सीटों को तत्काल कोटे में डाल दिया गया है। जिससे ट्रेन चलने के समय तक सामान्य कोटे के वेटिंग टिकिट धारी की टिकिट कन्फ़र्म नहीं हो पाती।
इसके साथ ही यात्रियों के जानमाल की पूरी सुरक्षा होनी चाहिए। नीतिश कुमार के रेलमंत्री बनने से पहले यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी जीआरपी की थी। उसे आर पी एफ़ को दे दिया गया। पहले आर पी एफ़ का काम सिर्फ़ रेल्वे की संपत्ति की रक्षा करना था। अब दोनों सुरक्षा बलों में तालमेल के अभाव के कारण ट्रेन में चोरी डकैती एवं अन्य आपराधिक घटनाएँ होती हैं। आम आदमी कार्यवाही के इंतजार में दोनो सुरक्षा बलों के अहम का शिकार होकर पेंडुलम की तरह इधर-उधर लटकता रहता है। यात्री की सुरक्षा की जिम्मेदारी किसी एक बल को दी जानी चाहिए।
स्लीपर में जगह न मिलने पर सामान्य कोच में लम्बी दूरी के यात्री को यात्रा करनी पड़ती है, इससे स्थानीय सवारियों को तकलीफ़ होती है। दैनिक यात्रा करने वाले भी परेशान रहते हैं। इसलिए सामान्य कोच में व्यवस्था करनी चाहिए कि सीटों से अधिक टिकिट न बेची जाएं। जिससे यात्री भेड़ बकरी की तरह यात्रा करने से बच पाएगा तथा दुर्घटनाओं में कमी आएगी। चलती हुई ट्रेन पकड़ने के चक्कर में अत्यधिक दुर्घटनाएँ होती हैं। रेल्वे की खान-पान सेवा भी माशा अल्ला है। अगर कोई यात्री पेंट्रीकार में घुस कर खाना बनते हुए देख ले तो जीवन में पैंट्री का खाना नहीं खाएगा। खाने की गुणवत्ता के साथ पैंट्रीकार का स्तर भी सुधरना चाहिए।
पेयजल की समस्या सभी स्टेशनों पर प्राय: दिखाई देती है। इससे यात्रियों को विभिन्न कम्पनियों के पेयजल की बोतल मंहगे में खरीद कर पीनी पड़ती है। इस वर्ष ट्रेनों में लोकल ब्रांड की पानी की बोतलें भी 20 रुपए प्रति बोतल बिकती हुई दिखाई दी। 20 रुपए में तो आधा लीटर दूध आ जाता है। आज रेलयात्री को दूध की कीमत पर पानी खरीदना पड़ रहा है। इसलिए सभी मुख्य स्टेशनों पर शुद्ध पेयजल की व्यवस्था होनी चाहिए। जिससे यात्रा के दौरान जलजनित बीमारियों से बचा जा सके। साथ वेंडरों द्वारा अधिक मूल्य पर खाद्य सामग्री बेचे जाने पर भी लगाम लगनी चाहिए। इसके लिए रेल्वे के वाणिज्य विभाग की जवाबदेही तय की जानी चाही। 
यात्रा के दौरान बड़ी अजीब स्थिति हो जाती है जब आप भोजन कर रहे हों और कोई आपसे भोजन मांग ले। यात्रा के दौरान व्यक्ति सीमित भोजन लेकर ही चलता है। भिखारियों के द्वारा रुपया पैसा मांगना यात्री को शर्मिंदा करता है। साथ ही हिजड़ों ने पूरे भारत में रेल के प्रमुख स्टेशनों में अपने अड्डे बना रखे हैं जो यात्रियों की बेईज्जती करके उनसे पैसे वसूल करते हैं। कुछ दिनों पूर्व हिजड़ों द्वारा किसी यात्री को ट्रेन से बाहर धकेलने की भी खबर समाचार पत्रों में आई थी। परिवार के साथ सफ़र कर रहा व्यक्ति इनकी हिंसा का शिकार कब हो जाए इसका पता नहीं चलता। ये टीटी और सुरक्षा बलों की नाक के नीचे जबरिया वसूली करते हैं। ट्रेन का ऐसा कोई भी यात्री नहीं होगा जिसका पाला इनसे नहीं पड़ा होगा। भिखारियों एवं हिजड़ों को ट्रेनों में कड़ाई से प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।
रेल्वे ने बहुत सारे कार्य ठेके पर दे दिए हैं, जिनमें से ट्रेनों में पानी भरना भी एक है। कई बार ट्रेनों की बोगियों में पानी नहीं भरा जाता और ट्रेन गंतव्य स्थान से रवाना कर दी जाती है। इनकी बदमाशी को यात्री सफ़र के दौरान भुगतते हैं हजार बार शिकायत दर्ज कराने पर भी ट्रेनों में पानी नहीं भरा जाता। यही हाल बोगियों की साफ़ सफ़ाई का भी है। कुछ ट्रेनों में ही सफ़ाई कर्मी दिखाई देते हैं बाकी भगवान भरोसे चल रही हैं। वातानुकूलित बोगियों के यात्रियों को दिए जाने वाले चादर और कंबलों की सफ़ाई नहीं रहती। उन्हें गंदे ही थमा दिए जाते हैं। स्थिति यह हो गई है कि भारतीय रेल समस्याओं एवं असुविधाओं का पिटारा हो गयी है। परिवार लेकर यात्रा में निकला हुआ व्यक्ति किस-किस के साथ पंगा लेगा। इसमें चुप रह कर यात्रा पूरी करने में ही अपनी भलाई समझता है।
दो महीने पहले टिकिट आरक्षण करवाने पर यात्री को उसके जमा के बदले ब्याज के रुप में टिकिट में छूट दी जानी चाहिए। दो महीने तक रेल्वे विभाग उसके पैसों का उपयोग करता है। एक बार ट्रेन चलने के बाद यह टीटीयों के हवाले हो जाती है, जो चाहे करें इनकी मर्जी। क्रमवार प्रतीक्षा सूचि के यात्रियों को सीट नहीं देते, जो इन्हें भेंट चढा देता है उस की सीट कन्फ़र्म कर दी जाती है। ट्रेन में टीटीयों की मनमानी बंद होनी चाहिए। 
यदि ट्रेन का किराया बढाया जा रहा है तो सरकार यात्रियों सुविधाओं की विस्तार की ओर ध्यान देना चाहिए। अगर यात्री सुविधाओं को विस्तार दिया जाएगा और यात्री सकुशलता की गारंटी होगी तो बढा हुआ किराया भी तकलीफ़देह नहीं है। भारत एक  विकासशील देश हैं जहां 50 प्रतिशत जनता आज भी दो वक्त की रोटी के लिए कमरतोड़ मेहनत करती है, जब उनकी जेब पर अत्यधिक भार डाला जा रहा है तो उन्हें बढे हुए किराए के साथ सुविधाएं भी मिलनी चाहिए, तभी अच्छे दिन आएगें।

बुधवार, 18 जून 2014

आवश्यकता है पढ़ाई के साथ बचपन बचाने की

स्कूल खुल गए है और नवीन सत्र प्रारंभ हो गया। स्कूल प्रारंभ होते ही विद्यार्थी पर मानसिक दबाव प्रारंभ हो जाता है। अच्छे रिजल्ट और प्रतिशत पाने का दबाव उस पर हमेंशा बना रहता है। इस दबाव के परिणाम स्वरुप वह अवसाद का भी शिकार हो जाता है। मेरे मित्र की लड़की के साथ भी यही हुआ। उसके बाद उसे 5 साल सामान्य होने में लगे। लेकिन जब हम लोग पढते थे तब ऐसा कुछ नहीं था, बिंदास मस्ती करते और जब मस्ती से समय बचता तो पढ भी लेते। जब पांचवी पास होकर बड़े स्कूल (मिडिल स्कूल, उसे सब बड़ा स्कूल कहते थे) पहुंचे तो गजब ही हो गया। हम जिस स्कूल में भर्ती हुए वहां सिर्फ़ कस्बे के बच्चे ही पढते थे। जो गांव की दृष्टि में तो शहर था। बड़े स्कूल में आस-पास के लगभग 20 गांव के बच्चे  10 किलोमीटर की दूरी से पढने आते थे। मैने दिखा कि वहां तो बच्चे क्या बड़े-बड़े लड़के भी पढने आए हैं। जिनके दाढी मुंछ आ गई है और हम सब पि्द्दी से थे। बड़ा ही अजीब लगा कि इतने बड़े-बड़े लड़के भी छठवीं क्लास में पढेगें? इतने बड़े तो हमारे गुरुजी थे जो हमें प्रायमरी में पढाते थे। हम होगें 10-11 साल के, वे लड़के थे 15-16 साल के, अजीब ही लगता रहा कु्छ महीनों तक। फ़िर कुछ दिनों बाद सब सामान्य सा लगने लगा।

जब हम आठवीं क्लास में पहुंचे तो पता चला कि उनमें बहुतों की शादी हो गयी है। यह और भी गजब था, अब तक हमें पता चल गया था कि शादी होती है तो बहु भी आती है:)।  जब हम 10 वीं में पहुंचे तो एक-एक, दो-दो बच्चों के बापों के साथ बैठकर पढ़े। इतने सीनियर लोगों के साथ एक साथ बैठकर पढना भी गर्व की बात है। सांसारिक ज्ञान सीधा ही ट्रांसफ़र हो जाता था। हमारे साथ जो लड़कियाँ पढती थी उनकी तो पांचवी-छटवीं में ही शादी हो गयी थी। अब तो वे दादी-नानी बन चुकी हैं जबकि कोई ज्यादा दिनों की सी बात नहीं लगती। उस समय मैट्रिक पास होने वाला लड़का गबरु जवान हो जाता था। आज कर मैट्रिक पास लड़के पिद्दी से नजर आते हैं। इतनी बड़ी क्लास पास करने वाले को बड़ा तो होना ही चाहिए यह मान्यता उस वक्त थी। मैट्रिक पास करते-करते 20-22 साल के हो ही जाते थे। उन्हे पढैया नाम से जाना जाता था, घर में उनके लिए अलग ही वातावरण होता था कि पढैया को कोइ भी घरे्लू काम मत बताओ। उसकी पढाई में व्यवधान उत्पन्न हो जाएगा। इसलिए उसे घरेलू कार्यों से अलग ही रखा जाता था। 

इस तरह दबाव मुक्त वातावरण में विद्यार्थी का मानसिक विकास के साथ-साथ शारीरिक विकास भी निर्बाध गति से होता था। इन 25-30 वर्षों में कितना परिवर्तन आ गया है। आज 15 साल का बच्चा मैट्रिक पास कर लेता है और उसके दिमाग में आगे भविष्य की योजनाएं चलते रहती हैं जिससे लगता है कि बाल सुलभ उछल-कूद, हंसी-ठिठोली जैसे उसके जीवन से गायब ही हो गई है। एक अलग ही तरह का माहौल हो गया है, जैसे कोई गर्दभ रेस की तैयारी हो रही है। विद्यार्थी दबाव के वातावरण में जी रहा है। जिसका प्रभाव उसके शारीरिक विकास पर पड़ रहा है। अगर वह इस दौड़ में शामिल न हो तो भी मुस्किल है औरों से पीछे रह जाएगा। कैसी विडम्बना है यह?

अगर हम आंकड़े उठाकर देखे तो हाल के 8 वर्षों में विद्यार्थियों में आत्महत्या के मामले बढे हैं। अपनी पढाई और रिजल्ट को लेकर इतना मानसिक दबाव उन्हे झेलना पड़ता है कि कई तो इसे सहन ही नहीं कर पाते। बोर्ड परीक्षा के परिणाम आने से पहले ही आत्म हत्या कर लेते हैं, कई परिणामों के बाद। वर्तमान में विद्यार्थियों में एक भय परिक्षा परिणामों के प्रतिशत को लेकर भी होता है, अगर कम प्रतिशत मिले तो अच्छे स्कूल कालेजों में प्रवे्श नहीं मिलेगा। पहले ऐसा नहीं था, प्रतिशत कम हो या ज्यादा जो पढना चाहता है उसे प्रवेश मिल ही जाता था और सभी पढाई कर लेते थे। भले ही उन्हे कामर्स, इंजिनियरिंग, मेड़िकल में प्रवेश नहीं मिलता था, लेकिन मास्टर छड़ी राम बी.ए., एम. ए., एल. एल. बी. तो हो ही जाते थे। डिग्रियों की एक तख्ती उनके घर के सामने टंग ही जाती थी। विवाह के लिए अच्छे रिश्ते मिल ही जाते थे।

उस समय पालक सिर्फ़ यह चाहता था कि उसका पाल्य परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाए। उसे परिणाम के प्रतिशत से कोई मतलब नहीं था। अगर कोई बच्चा अच्छे नम्बर ले आता था तो उसकी मेहनत होती थी। पालक सिर्फ़ उत्तीर्ण होने का समाचार सुनकर खुश हो जाते थे। अब परिस्थितियां बदल गई है। पालकों को मालूम है कि उनका बच्चा पास तो हो जाएगा लेकिन वे उसके डिवीजन को लेकर चिंतित रहते हैं। उनके कुल अंकों के प्रतिशत को लेकर चिंतित होते हैं। बस यहीं पर बचपन खो जाता है और जीवन भर नहीं मिलता। फ़िर कभी नहीं मिलता । आवश्यकता है आज बचपन को बचाने की। चाहे बच्चे के नम्बर और प्रतिशत कम हो जाएं लेकिन ध्यान रहे उनका शारीरिक और मानसिक विकास बाधित न हो पाए। वे मानसिक रुग्णता के शिकार न हो पाएं, इसलिए आवश्यकता है बचपन बचाने की। हमें प्रयास करना चाहिए कि पढाई के बोझ से विद्यार्थी का बचपन प्रभावित न हो।

सोमवार, 9 जून 2014

निर्माणाधीन जैन मंदिर अमरकंटक : अद्भुत कारीगरी


ल्याण आश्रम से उत्तर की तरफ़ ऊपर देखने पर जैन मंदिर दिखाई देता है। इस मंदिर का निर्माण विगत कई वर्षों से हो रहा है। गत वर्ष भी मैं यहाँ आया था, उस समय मंदिर का कार्य प्रगति पर था। राजस्थान के कारीगरों की छेनी हथौड़ियाँ बज रही थी। छेनी हथौड़ियों की आवाजें मुझे मंदिर तक खींच ले गई। पहले नर्मदा कुंड के सामने से ही यहाँ पहुंचने का रास्ता था। अब इस रास्ते को खूंटे लगा कर बंद कर दिया गया है। हमें मंदिर तक पहुंचने के लिए उससे थोड़ा आगे चलकर विश्राम गृह का एक लम्बा चक्कर काटते हुए जाना पड़ा। सूर्यदेव ने हीटर का वाल्यूम थोड़ा और बढा दिया था। मंदिर निर्माण स्थल पर अब कई खिलौनों की दुकाने एवं होटल खुल चुके हैं। इससे जाहिर होता है कि मंदिर देखने बड़ी संख्या में पर्यटक निरंतर पहुंच रहे हैं।  
निर्माणाधीन जैन मंदिर एवं विशाल क्रेन
मंदिर के समक्ष वृक्ष के नीचे गाड़ी खड़ी कर दी, सामने मंदिर का विशाल गुम्बद दिखाई दे रहा था। कलचुरियों के बाद यदि किसी मंदिर का निर्माण हो रहा है तो यही तीर्थंकर आदिनाथ मंदिर है। धौलपुर के गुलाबी पाषाणों की कटाई-छटाई की आवाजें दूर तक आ रही थी। निर्माण योजना के अनुसार मंदिर ऊँचाई 151 फ़ुट,  चौड़ाई 125 फ़ुट तथा लम्बाई 490 फ़ुट है। इसके निर्माण में 25-30 टन वजन के पाषाणो का भी प्रयोग किया गया है। जब मंदिर निर्माण की योजना बनी थी तब इसकी लागत लगभग 60 करोड़ रुपए आँकी गई थी। बढ़ती हुई मंहगाई को देखते हुए लगता है कि यह लागत बढकर 1 अरब रुपए तक पहुंच जाएगी। 
द्वीस्तरीय मंडप एवं गर्भ गृह
गर्भगृह में भगवान आदिनाथ विराजित हैं, इसके साथ परम्परानुसार अष्टमंगल चिन्ह उत्कीर्ण किए गए हैं। प्रतिमा का आभामंडल विशाल है, दाँए-बाँए चंवरधारिणी तथा इनके ऊपर मंगल कलश स्थापित है। द्वार शाखाओं एवं सिरदल पर कमल पुष्पांकन है। मंदिर में प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की 24 टन भारी अष्टधातु की प्रतिमा विराजित है। इसे आचार्य श्री विद्यासागरजी ने 6 नवम्बर 2006 को विधि-विधान से स्थापति किया। अष्टधातू से निर्मित यह प्रतिमा 28 टन के  अष्टधातू निर्मित कमल पुष्प पर विराजित है। प्रतिमा के वक्ष स्थल पर जैन प्रतिमा लांछन श्री वत्स बना हुआ है। बल्ब की रोशनी में धातू प्रतिमा प्रभाव उत्पन्न कर रही थी।
भगवान आदिनाथ
कारीगर छेनी हथौड़ी लिए प्रस्तर स्तंभों को अलंकृत कर रहे थे। शिल्पांकन की दृष्टि से धौलपुर का पत्थर उत्तम प्रतीत होता दिखाई देता है। छेनी की मार से पत्थर से से "चट" उखड़ती दिखाई नहीं दे रही थी। जिस तरह सागौन की लकड़ी को खरोंच कर प्रतिमाएं बना दी जाती हैं वैसा ही कुछ प्रतीत हो रहा था। पर यह पत्थर लकड़ी के इतना नरम नहीं है।  प्रस्तर पर अलंकरण करना श्रम साध्य कार्य है। मंदिर के वितान में सुंदर कमलाकृति का निर्मित की गई है। जिसकी पंखुड़ियाँ अलग दिखाई देते है। छत का निर्माण देखकर तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि प्रत्थरों को गढ़कर स्थापित करने के दौरान कम्प्यूटर की गणना भी चूक जाएगी पर शिल्पकारों की गणना नहीं चूकने वाली।
अलंकृत भव्य वितान
मंदिर निर्माण में एक बड़ी क्रेन सहायक बनी है। बिना क्रेन के निर्माण संभव नहीं था। प्राचीन काल में माल परिवहन के साधन नहीं होने के कारण मंदिर निर्माण सामग्री जहाँ समीप में उपलब्ध होती है, वहीं मंदिरों का निर्माण कराया जाता था। जिसका उदाहरण हमें कर्ण मंदिर में देखने मिलता है। कल्पना करें कि हजार दो हजार साल बाद जब कोई नई सभ्यता होगी वह इन मंदिरों की विशालता को देखकर आश्चर्य चकित रह जाएगी तथा मंदिर में प्रयुक्त पत्थरों की खदान ढूंढना चाहेगी तो प्रमाण के लिए उन्हें धौलपुर की प्रस्तर खानों की भी खोज करनी होगी। वर्तमान में परिवहन की सुविधा होने के कारण सुदूर से भी कारीगर एवं निर्माण सामग्री मंगाई जा सकती है।
शिल्पकार और छेनी हथौड़ी
प्राचीन काल से निर्माणादि कार्यों में हिन्दू धर्म के मानने वाले शिल्पियों का बोलबाला था तथा इनका ही एकाधिकार था। कालांतर में शिल्पियों के वंशजों ने कार्य की कठिनाई एवं कम आमदनी को देखते हुए जीवन यापन के लिए अन्य व्यवसाय अपना लिए। शिल्पियों की कमी होने के कारण मुख्य शिल्पियों ने मुसलमान लड़कों को यह कार्य सिखाना प्रारंभ कर दिया। जिसके कारण अब मंदिर निर्माण में मुसलमान कारीगर दिखाई देने लगे। इस मंदिर का निर्माण शिल्प शास्त्रों के दिशा निर्देशानुसार राजस्थान के नागौर जिले से आए हुए मुसलमान शिल्पी कर रहे है। शिल्पांकन में अब पहले जैसी कठिनाईयाँ नहीं रह गई। पत्थर काटने से लेकर बेल-बूटे बनाने तक का कार्य मशीनों से होता है। सिर्फ़ अंतिम रुप प्रदान करने के लिए मानव श्रम का उपयोग होता है।

भव्य निर्माण को अचंभित होकर देखती देवी
पत्थरों को जोड़ने के लिए सूर्खी चूना एवं गुड़ इत्यादि के प्राचीन मिश्रण का ही उपयोग हो रहा है। मंदिर में सीमेंट का कहीं उपयोग नहीं किया जा रहा। सीमेंट भले ही 53/56 ग्रेड की हो पर कुछ वर्षों के उपरांत अपनी पकड़ छोड़ देती है। सूर्खी, चून, गुड़, उड़द, बेल (बिल्व) गोंद इत्यादि के मिश्रण से बनाए गए मसाले का जोड़ हजारों वर्षों तक अपनी पकड़ नहीं छोड़ते। तभी प्राचीन संरचनाएँ एवं भवनों को आज भी हम देख पा रहे हैं। एक बार का वाकया याद आता है जब एक सभा के दौरान तत्कालीन पीडब्लूडी मंत्री प्राचीन भवनों की तारीफ़ करते हुए भावनाओं के उद्वेग में मानव निर्मित महापाषाणकालीन संरचना "स्टोनहेंज" तक पहुंच गए। तब एक दिलजले ने पूछ लिया कि " वर्तमान में जिन भवनों का निर्माण आपका विभाग करता है उनके 20 वर्षों तक के स्थायित्व की गारंटी लेते हैं क्या? इतना सुनने के बाद मंत्री जी को बगलें झांकना पड़ा।
गर्भ गृह के सामने वाला मंडप, अद्भुत कारीगरी की मिशाल
मंदिर में प्रतिमाओं का अभाव और पुष्प वल्लरियों, लघुघंटिकाओं, बेल-बूटों का अंकन सर्वत्र दिखाई देता है। इसका कारण समझ नहीं आया। बस गर्भगृह में मुख्य देव की प्रतिमा ही विराजमान  है। इनके अनुषांगी तीर्थकंर परिचारक तथा अन्य मान्य देवी देवताओं का अलंकरण मंदिर को और भी भव्यवता प्रदान करता। स्तंभों में प्रतिमाओं का स्थान रिक्त दिखाई देता है। भीतर द्वार के दांई ओर एक प्रतिमा का निर्माण दिखाई देता है परन्तु बांई ओर का स्थान खाली है। देखने के बाद प्रतीत हुआ कि इन पर प्रतिमाओं का अंकन बाद में किया जाएगा। पर इतना तो जाहिर है कि इस मंदिर जैसे भव्य संरचना निर्मित होना इस सदी के गौरव की बात है। ………  इति श्री रेवा खंडे स्थित अमरकंटक अचानकमार यात्रा सम्पन्नम्। 

रविवार, 8 जून 2014

अमरकंटक : कर्ण मंदिर

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धूप का कहर बढ चुका था, 10 बजे ही सूरज आग के गोले बरसाने लगा था। बाबा, बिरला और बाक्साईट का असर अमरकंटक के मौसम पर भी दिखाई देने लगा है। गर्मी के मौसम में अमरकंटक सूरज की मार से अप्रभावित रहता था। अंधाधूंध वनों की कटाई, बाक्साईट की खुदाई और बाबाओं की जमाई ने यहाँ गर्मी बढा दी। 
जरा देख लिया जाए स्नैप : प्राण चड्डा जी
फ़िर भी शाम का मौसम ठीक ही रहता है। रात को पंखा चलने पर कंबल सुहाता है। अमरकंटक के पर्यावरण को हो रही हानि यही पर ठहर जानी चाहिए। अन्यथा यह स्थान भी गर्मी के मौसम में भ्रमण करने के लायक नहीं रहेगा। मेरे बाहर आते तक चड्डा जी कुंड के समीप वृक्ष के नीचे बैठ कर विश्राम कर रहे थे, मैं भी धूप से बचने के लिए थोड़ी विश्राम करने लगा।
नर्मदा नदी का विहंगम दृश्य
चर्चा के दौरान चड्डा जी कहने लगे - पहले सभी तीर्थ यात्री नर्मदा कुंड में ही स्नान करते थे। वहाँ स्नान बंद करने के बाद बाहर बने हुए इस कुंड में स्नान करते हैं। जब कुंड की धार पतली होने लगी तो नर्मदा उद्गम पर संकट मंडराने लगा। इस संकट से वाकिफ़ होने पर कोटा विधानसभा के विधायक एवं पूर्व विधानसभा अध्यक्ष छत्तीसगढ़ स्व: डॉ राजेन्द्र प्रसाद शुक्ला ने 20 वर्ष पूर्व यहाँ पर एक कार्यक्रम करवाया, जिसमें अजय (राहुल) सिंह भी उपस्थित हुए। मुद्दे पर गंभीरता से विचार विमर्श होने पर स्नान के लिए पृथक कुंड एवं अन्य घाट बनाने का निर्णय लिया, यह कार्य वर्तमान में फ़लीभूत दिखाई देते हैं तथा नर्मदा कुंड को नवजीवन मिल गया।
पंच मठ 
हमारा अगला पड़ाव था कर्ण मंदिर समूह। यह मंदिर समूह तीन स्तरों पर है। परिसर में प्रवेश करते ही पंच मठ दिखाई देता है। इसकी शैली बंगाल एवं असम में बनने वाले मठ मंदिरों जैसी है। इससे प्रतीत होता है कि यह स्थान कभी वाममार्गियों का भी साधना केन्द्र रहा है। इस तरह के मठों में अघोर एकांत साधनाएँ होती थी। पंच मठ के दाएँ तरफ़ कर्ण मंदिर एवं शिव मंदिर हैं। शिवमंदिर में श्वेतलिंग है तथा इससे समीप वाले मंदिर में कोई प्रतिमा नहीं है। 
जोहिला मंदिर
इन मंदिरों के सामने ही जोहिला मंदिर एवं पातालेश्वर शिवालय है। इसके समीप पुष्करी भी निर्मित है।, इन मंदिरों से आगे बढने पर उन्नत शिखर युक्त तीन मंदिरों का समूह है जिनका निर्माण ऊंचे अधिष्ठान पर हुआ है। यहाँ भी कोई प्रतिमा नहीं है तथा द्वार पर ताला लगा हुआ है। इन मंदिरों का निर्माण बाक्साईट मिश्रित लेट्राईट से हुआ है। 
विष्णु मंदिर
पातालेश्वर मंदिर, शिव मंदिर पंचरथ नागर शैली में निर्मित हैं। इनका मंडप पिरामिड आकार का बना हुआ है। पातालेश्वर मंदिर एवं कर्ण मंदिर समूह का निर्माण कल्चुरी नरेश कर्णदेव ने कराया। यह एक प्रतापी शासक हुए,जिन्हें ‘इण्डियन नेपोलियन‘ कहा गया है। उनका साम्राज्य भारत के वृहद क्षेत्र में फैला हुआ था। 
पातालेश्वर
सम्राट के रूप में दूसरी बार उनका राज्याभिषेक होने पर उनका कल्चुरी संवत प्रारंभ हुआ। कहा जाता है कि शताधिक राजा उनके शासनांतर्गत थे। इनका काल 1041 से 1073 ईस्वीं माना गया है। वैसे इस स्थान का इतिहास आठवीं सदी ईस्वीं तक जाता है। मान्यता है कि नर्मदा नदी का स्थान निश्चित करने के लिए सूर्य कुंड का निर्माण आदि शंकराचार्य ने करवाया था।
शिव मंदिर
नर्मदा कुंड के पीछे की तरफ़ बर्फ़ानी बाबा का आश्रम है तथा कर्ण मंदिर समूह के उपर की तरफ़ गायत्री मंदिर निर्मित किया गया है। बाकी अन्य दर्शनीय स्थल भी हैं, जिन्हे वाहन द्वारा देखना ही संभव है। कपिलधारा नर्मदा नदी का पहला झरना है। जो लगभग 100 फ़ुट उपर से गिरता है, वर्तमान में निर्माण के कारण यह सूख गया है। एक पतली सी धारा गिरते हुए दिखाई देती है। जैसे लगता है कि इससे सिर्फ़ पानी का एक गिलास भरा जा सकता है। 
कर्ण मंदिर
कपिलधारा डिंडोरी जिले के करंजिया जनपद के अंतर्गत है। इसके आगे दुधधारा है। जहां उपर से गिरता हुआ पानी दूध जैसे शुभ्र दिखाई देता है। इसके साथ ही विगत 10 वर्षों से तीर्थंकर आदिनाथ मंदिर का भी निर्माण हो रहा है। यह विशाल एवं भव्य जैन मंदिर लगभग 1 अरब रुपए की लागत से बन रहा है। ……  आगे पढें