सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

राजिम कुंभ में एक दिन

चित्रोत्पला गंगा महानदी, सोंढूर और पैरी नदी के त्रिवेणी संगम पर माघ पूर्णिमा को प्रतिवर्ष मेला भरता है तथा इस मेले का समापन शिवरात्रि को होता है। भारत में तीन नदियों के संगम स्थल को पवित्र माना जाता है, यहाँ लोकमान्यतानुसार धार्मिक कर्मकांड सम्पन्न कराए जाते हैं। राजिम त्रिवेणी संगम में मेले का आयोजन कब से हो रहा है इसकी कोई ठोस जानकारी नहीं मिलती पर सन 2000 में इसका सरकारीकरण हो गया। फ़िर 2004 में भाजपा की सरकार सत्ता में आने के बाद इसे कुंभ का नाम दे दिया गया। जिससे स्वस्फ़ूर्त पारम्परिक आयोजन सरकारी आयोजन में बदल गया। इसके साथ ही माने हुए साधू संतों का आगमन प्रारंभ हो गया। धार्मिक कथा-प्रवचनों के आयोजनों के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी जन मनोरंजार्थ होने लगा। धीरे-धीरे राजिम मेला कुंभ में परिवर्तित हो गया।
राजिम कुंभ समिति सचिव गिरीश बिस्सा
कुंभ के आयोजन की तैयारियाँ एक माह पूर्व प्रारंभ हो जाती हैं, कुंभ में समन्वय स्थापित करने के लिए शासन के अधिकारियो के साथ स्थानीय जनप्रतिनिधियों को मिलाकर एक आयोजन समिति का निर्माण किया जाता है। कुंभ का संचालन एवं आगतों की आवास, भोजन एवं सुरक्षा की व्यवस्था महत्वपूर्ण होती है। कुंभ में हजारों साधू-संत जुटते हैं जिनकी व्यवस्था करने के लिए समिति वालों को दिन रात एक करना पड़ता है साथ ही विशेष ध्यान रखा जाता है कि कहीं अव्यवस्था न फ़ैले। लोग मेला देखने जाते हैं और घूम फ़िर कर मनोरंजन करके चले आते हैं पर उन्हें पता नहीं रहता कि इस भव्य आयोजन के पार्श्व में दिन-रात मेहनत करने वाले कौन लोग हैं। राजिम कुंभ के सचिव के रुप में गिरीश बिस्सा 10 वर्षों से आयोजन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी संभाल रहे हैं, सहयोग करने के लिए इनके साथ कर्मचारियों का बड़ा अमला है, जिससे कार्यों का निष्पादन होता है।
राजिम कुंभ में उदय भैया
बचपन में देखा था कि मेला प्रारंभ होने के एक सप्ताह पहले से ही बैल गाड़ियों का रेला प्रारंभ हो जाता है। लोग अपना खाना दाना लेकर हफ़्ते या पखवाड़े भर मेले में ठहरने की व्यवस्था करके आते थे। अब वे बैलगाड़ियां कहीं दिखाई नहीं देती, वर्तमान में आवागमन के आधुनिक साधन होने के कारण लोग सुबह मेले में आते और रात तक लौट जाते हैं। मैने मेले का पैदल ही भ्रमण किया। मेले में मनोरंजन से लेकर खाने-पीने की वस्तुओं की दुकानों के साथ खिलौने, दैनिक आवश्यकताओं की वस्तुओं तथा महिलाओं द्वारा खरीदी जाने वाली श्रृंगार सामग्री का विशेष आकर्षण दिखाई दिया। नदी  की रेत में मुरम की अस्थाई सड़क बना कर तत्कालिक नगर बसाया गया है। 
संत नगर
लोमश ॠषि आश्रम में गत वर्ष नागा साधुओं एवं स्थानीय साधुओं के बीच मारपीट और हंगामें की खबर सामने आई थी। इस वर्ष नागाओं को लोमश ॠषि आश्रम में स्थान नहीं दिया गया। सुरक्षा के लिए पर्याप्त पुलिस की व्यवस्था की गई थी। लोमश ॠषि आश्रम से मेले का विशाल दृश्य दिखाई देता है। कुलेश्वर महादेव मंदिर में दर्शनार्थियों की लाईन लगी हुई थी। मंदिर के समीप ही नागलोक की प्रदर्शनी लगाई गई है। इसके साथ ही इस तरह की अन्य पाँच प्रदर्शनियाँ भी लगी हैं, इनको जंगल सफ़ारी, स्वर्ग नर्क इत्यादि नाम दिए गए हैं। 
नाग लोक की झांकी
हम नागलोक की प्रदर्शनी देखने पहुंचे। प्रदर्शनी में लाईट एवं साऊंड के संयोजन से जीवंत प्रभाव उत्पन्न किया गया है, द्वार टिकिट लेने वालों की लाईन लगी हुई थी। प्रवेश द्वार पर चिखली दुर्ग निवासी प्रकाश वैष्णव से मुलाकात होती है, इस प्रदर्शनी के वे मालिक हैं। पूछने पर कहते हैं कि - इस वर्ष मेलें कम ही लोग आए, उम्मीद से कम कमाई हो रही है। प्रदर्शनी बनाने में 1 लाख रुपया लग जाता है, फ़िर कर्मचारियों एवं बिजली का खर्च अलग देना पड़ता है साथ ही ट्रांसपोर्टिंग का खर्च पहले से अधिक हो गया है। ऐसी स्थिति में अगर 3 लाख रुपए से कम आवक हुई तो खा-पीकर सब बराबर हो जाता है।" इस कुंभ में वे 10 वर्षों से लगातार झांकी लगा रहे हैं, पहले एक ही झांकी होने से अच्छी आमदनी हो जाती थी, लेकिन अब झांकियों की संख्या बढने से आमदनी में कमी हो गई।
नाग लोक में नाग कन्याओं का सुवा नृत्य 
झांकियों का विषय धार्मिक रखा जाता है। जिसमें देवी देवताओं की फ़ाईवर की मूर्तियाँ लगाई जाती हैं, जिसे बिजली की मोटरों द्वारा संचालित करके झांकियों में जीवंत प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। इसके बाद हमने जंगल सफ़ारी नामक झांकी का अवलोकन किया। जिसमें जंगल के जानवरों को दिखाया गया है। कहानी में जंगल के जानवर बैठक करके सशरीर स्वर्ग जाना चाहते हैं तथा इसके लिए वे गणेश जी एवं महादेव से विनती करते हैं। इसके पश्चात अनुमति मिलने पर वे स्वर्ग पहुंच कर मेनका, रंभा, उर्वशी नामक अप्सराओं के संग नृत्य करते दिखाई देते हैं। ग्रामीणों के स्वस्थ मनोरंजन का यह उत्तम उपाय है तथा इसे देख कर बच्चे भी रोमांचित होते हैं।
मुफ़्त में तारामंडल दर्शन
कुलेश्वर मंदिर के समीप ही एक स्थान पर लम्बी लाईन लगी हुई थी, देखने पर पता चला कि संस्कृति विभाग की तरफ़ से यहाँ पर मुफ़्त तारामंडल दिखाया जा रहा है। बड़ी संख्या में महिलाएं सौंदर्य प्रसाधन के सामान खरीदती दिखाई दे रही थी। मुख्य मंडप की तरफ़ बढने पर चश्मे की दुकान लगाए सुनील वंशकार से मुलाकात होती है। ये जबलपुर से मेले में दुकानदारी करने आए हैं। पूछने पर बताया कि - इस वर्ष मेले में कम लोग आए हैं, आसाराम बापू का कार्यक्रम होता था तो मेले में उनके शिष्यों की अधिक भीड़ होने से अच्छी कमाई हो जाती थी। उनके जेल जाने की वजह से कार्यक्रम नहीं हो पाया।" आगे कहते हैं कि -" वो अपराधी है कि नहीं यह तो न्यायालय तय करेगा, परन्तु उनके समर्थकों के आगमन से हमारी तो अच्छी कमाई हो जाती थी।"
गोदना गोदवा ले न……
चश्मे वाले समीप ही गोदना की दुकान सजी हुई है, यहाँ भिन्न-भिन्न तरह के गोदने के डिजाईन दिखाई दे रहे थे। इस दुकान के मालिक कलीम हैं। पूछने पर पहले तो अपना नाम लल्लू बताते हैं फ़िर कहते हैं कि "मेरा नाम कलीम है। फ़ाफ़ामऊ से आया हूँ और राजिम कुंभ में सन 2000 से प्रतिवर्ष आ रहा हूँ।" आमदनी के विषय पर पूछने पर कहते हैं कि "अबकि बार आमदनी कुछ कम ही है, ले-देकर दैनिक खर्च निकल रहा है।" गोदना करना इनका पारम्परिक पेशा है, पहले इनके पिता जी करते थे 1991 से अब इन्होने अपना पुस्तैनी धंधा अपना लिया। ये वर्ष भर मेलों में घूम कर रोजी-रोटी का जुगाड़ करते हैं। जिससे बच्चों का लालन पालन हो सके। इनका सारा समय मेलों और यात्राओं में बीत जाता है। दो महीने बस घर में रहते हैं।
मुख्य मंच राजिम कुंभ
मेलों के विषय में पूछने पर ये बताते हैं कि " हमारी यात्रा जेठ के महीने में अभार माता छतरपुर मेले से प्रारंभ होती है, फ़िर मंडौर ललितपुर का मेला करते हैं। सावन में सोनभ्रद शिवद्वार का मेला 1 महीने चलता है, भादो में काशी धाम बनारस चले जाते हैं। कार्तिक में रायपुर बंजारीधाम,  अगहन में बाराबंकी का महादेवा मेला, पूष में गोरखनाथ का मेला गोरखपुर, मकर संक्राति के खिचरी तिहार के बाद छत्तीसगढ़ आ जाते हैं जिसमें राजिम कुंभ, शिवरीनारायण मेला के पश्चात चैत्र नवरात्र में कामाख्याधाम गाजीपुर चले जाते हैं, यह मेला नवरात्र में एक महीने चलता है फ़िर दो महीना आराम करते हैं और फ़िर यही कार्यक्रम शुरु हो जाता है।
खैनी बनाओ और खाओ
गोदना से रक्त जनित बीमारियाँ फ़ैलने के विषय में कहते हैं कि - मैं पूरा ध्यान रखता हूँ कि इसके द्वारा एच आई वी न फ़ैले। गोदना से पहले डेटाल लगाता हूँ, एक गोदना गोदने के बाद मशीन की सुईयां बदल देता हूँ तथा रीगल कम्पनी की सुइयों का ही प्रयोग करता हूँ, इस मशीन से गोदना करने पर खून नहीं निकलता है, स्याही सिर्फ़ त्वचा की पहली परत के नीचे तक ही जाती है। साथ ही गोदना करने के बाद हल्दी लगा दी जाती है। हल्दी सबसे बड़ी एन्टीबायोटिक है। यह हमारा खानदानी पेशा है, इसलिए सारी सावधानी बरती जाती है। इस बातचीत के मध्य एक लड़की गोदना गोदाने के लिए आ जाती है। वह अपने हाथ में सिर्फ़ अंग्रेजी के दो अक्षर "P k" लिखवाती है और पुरा नाम लिखवाने की बजाए संकेत से ही काम चलाती है।
उखरा वाली
राजिम के मेले में "उखरा" बेचने वाले प्रतिवर्ष आते हैं, मेले की यही खई-खजानी है। धान की लाई को गुड़ या गन्ना रस में सान कर उसे मीठा कर दिया जाता है, पहले तो आठ आने में बहुत सारी मिल जाती थी। लेकिन अब इसका छोटा पैकेट 10 रुपए और बड़ा पैकेट 20 रुपए में मिलता है। शकुंतला ने उखरा की दुकान लगा रखी है। कहती है कि - मंहगाई बहुत बढ गई है। इसलिए उखरा का भी दाम बढाना पड़ा। वरना मुद्द्ल भी निकालना कठिन है। उसके बच्चे दुकान के आस पास ही घूम रहे हैं। साथ ही एक ढिमरिन चना बेच रही है। कुल्फ़ी, आईसक्रीम, गन्ना रस, चाट पकौड़ी, मिठाई, खिलौनों इत्यादि की दुकाने सजी हुई है। सभी को मेले से आमदनी की प्रतीक्षा है।
खिलौनों की दुकान
पहले मेले में गिलट के आभुषणों की दुकाने खूब दिखाई देती थी। लेकिन अब दिखाई नहीं दी, लगता है अब इनका चलन कम हो गया है। इनका स्थान आर्टिफ़िसियल ज्वेलरी ने ले लिया है। लोहार के बनाए हुए खेती एवं घरेलू उपरकर्णों की दुकाने भी नदारत हो गई है। सिर्फ़ चौकी बेलना बेचता हुआ एक बढई दिखाई दिया। एक स्थान पर दारु पीकर झगड़ा करता हुआ रामकंद बेचने वाला दिखाई दिया। आस पास के दुकानदारों ने कहा कि इससे वे बहुत परेशान हैं। सुबह से शाम तक पिए रहता है और दुकानदारों से रार करते रहता है।
डोर पर जिन्दगी
अब हम संतों के मंडप की तरफ़ पहुंचे, यहाँ पर एक लड़की रस्सी पर चलकर संतुलन साधने वाला खेल दिखा रखी थी। नटों का यह परम्परागत पेशा है। तरह तरह के करतब दिखा कर जीविकोपार्जन करते हैं। हजारों साल से ये कौतुक दिखाने का पेशा चला आ रहा है। राजे रजवाड़ों के खत्म होने के बाद इन्हें मेले-ठेलों में प्रदर्शन करना पड़ता है, वरना इन नटों को राजाश्रय प्राप्त होता था और राजपरिवार के मनोरंजन के लिए सदैव उपलब्ध रहते थे। छोटी सी लड़की बांस को गले में लटकाए सिर पर कलश रखे रस्सी पर चलकर संतुलन साध रही थी, नीचे बिछे हुए तौलिए पर लोग इच्छानुसार पैसे डाल रहे है जिन्हें उसकी माँ सकेल रही थी।
व्यवस्थाओं में व्यस्थ प्रताप पारख
संतों के कुंभ स्नान करने के लिए नदी की रेत को हटा कर विशाल जल कुंड तैयार किया गया है। इसके प्रवेश द्वार पर मंत्री द्वय के फ़्लेक्स लगे हैं। कुछ स्नान कर रहे थे तो कुछ लोग किनारे बैठ कर खैनी घिस रहे थे। अखाड़ों के संतों महंतो को डोम बना कर दिए गए हैं, जिसके पास जितनी बड़ी फ़ौज है, उसके डोम उतने ही बड़े हैं। संस्कृति विभाग के कर्मचारी इनकी आवश्यकताओं की पूर्ति करने में लगे हुए दिखाई दिए। एक स्थान पर प्रताप पारख से मुलाकात होती हैं। संतों के अस्थाई नगर के बीच कुंभ में आने वाली विशिष्ट लोगों के लिए चायपानी की व्यवस्था की गई है। इसकी जिम्मेदारी शिवनंदन दूबे मुस्तैदी से निभा रहे हैं। मंच पर कार्यक्रम प्रस्तुति की जिम्मेदारी राकेश तिवारी, युगल तिवारी संभाल रहे हैं तथा सतपाल, समीर टल्लू, सुधीरे दुबे, प्रमोद पाण्डे कुंभ की व्यवस्था संभालने में सक्रीय हैं।
शंकराचार्य मंडप
लोमश ॠषि आश्रम के पास ही नागा साधुओं का डेरा लगा हुआ है, भभूत रमाए नंग धंड़ग साधू मेलार्थियों को आकर्षित करते हैं। धूने की अग्नि सिलगाए चिलम से धुंआ उड़ाते दिखाई देते हैं। मै जब इनके टोले में पहुंचा तो एक युवा नागा साधू ने करतब दिखाना शुरु किया। पहले अपने लिंग को एक डंडे पर लपेट लिया फ़िर उस डंडे पर दोनो तरफ़ एक एक साधू को खड़ा कर दिया, लोग दांतों तले अंगुली दबा कर इस कौतुक को देख रहे थे। फ़िर कहने लगा कि - इसे कहते हैं पावर, है कोई जो यह कर सके। इस तरह उसने कई करतब दिखाई और इसके बाद उदय मुझसे कई तरह के सवाल करता और रास्ते भर पैदल चलते हुए मैं उसकी शंकाओं का समाधान करते रहा। इसके पश्चात हम चाय की तलब पूरी करने टेंट में आ गए।
कुलेश्वर महादेव में दर्शनार्थी एवं पुलिस व्यवस्था
चाय पानी के पश्चात दिन ढलने लगा, मौसम भी कुछ नरम बना हुआ था, बदलियों से लग रहा था कि कभी भी बरस सकती हैं। अगर बरसात होती है तो इतने सारे लोगों को सिर छुपाने के लिए जगह तलाशनी पड़ेगी। मुख्य प्रवेश द्वार के समीप गीता प्रेस गोरखपुर वालों का स्टाल लगा है। साथ ही आर्युवेदिक दवाई वाले तथा ज्योतिष भी मेले का लाभ उठा रहे हैं। पुलिस की पैट्रोलिंग करती गाड़ियाँ एवं बैरिकेट के समीप कंट्रोम रुम से सुरक्षा पर नजर गड़ाए अधिकारी दिखाई देते हैं। इस बीच संतों की कलश यात्रा आती दिखाई देती हैं, मैं कैमरे से 2-4 चित्र लेता हूँ, एक परसुधारी संत मुझे फ़ोटो लेते हुए देखकर अपने मंडप में मिलने के लिए कहते हैं, शायद उन्हें फ़ोटुओं की जरुरत होगी। लेकिन मेरे पास इतना समय नहीं था कि उनसे मंडप में मिलने जाऊं।
कुछ माला मुंदरी हो जाए मेला कि निशानी
पूजा की सामग्री बेचने वालों की दुकाने सजी हैं, इसमें कुछ लोग इलाहाबाद, प्रयाग, मालवाचंल के खंडवा निमाड़ क्षेत्र, बनारस इत्यादि से आए हुए हैं। राजिम कुंभ विशेषता यह है कि जिस स्थान पर लगता है वहां तीन जिलों की सीमाएं मिलती हैं, एक तरफ़ लोमश ॠषि आश्रम धमतरी जिले में है तो दूसरी तरफ़ राजीव लोचन मंदिर गरियाबंद जिले में आता है और नयापारा नगर रायपुर जिले में। तीन जिलों के प्रशासन के संयुक्त प्रयास से ही राजिम कुंभ का सफ़ल आयोजन होता है। संस्कृतियों, धर्मों, पंथों एवं मेलानुरागियों का मिलन क्षेत्र अब राजिम कुंभ बन गया है। समन्वित सहयोग एवं प्रयास से ही यह भगीरथ कार्य सम्पन्न होता है।

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शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

अंकलहा परसाद जी का काव्य संग्रह

जब से अक्षर ज्ञान हुआ और हिज्जा करके पढने-लिखने लगे तब से अंकलहा परसाद जी साहित सेवा कर रहे हैं। जब भी मौका मिलता, वे अपनी डायरी निकाल कर दो-चार गीत कविता या किस्सा कहानी सुनाने के लिए सदा तत्पर रहते। खेती-किसानी के चक्कर में अधिक पढ नहीं पाए पर गढ़े अधिक थे। गाँव का आदमी सभी विषयों की समझ अच्चे से रखता है। कोई ऐसे ही ठग-जग नहीं सकता। अंकलहा परसाद जी अब वानप्रस्थ काल में चल रहे हैं और जीवन की जिम्मेवारियों से लगभग मुक्त होने की कगार पर हैं। ससुराल से जो टीन पेटी दहेज में मिली थी उसमें अपनी डायरियाँ हिफ़ाजत से सहेज कर रखी हैं। उनके लिए यह बहुत बड़ी पूंजी है, अगर चोरी हो गई या दीमक पढ गई तो हृदयाघात भी संभव है।
उनके संगी जंहुरिया सब बड़े-बड़े साहितकार हो गए, कई किताबें उनकी छप चुकी थी और अब उनकी गिनती नामी गिरामियों में होती थी। अंकलहा परसाद जी भकला ही रह गए, आदमी जन्म से भकला नहीं होता वरन उसे समय भकला बना देता है। उम्र के इस पड़ाव पर आकर एक दिन उनके ज्येष्ठ पुत्र तिहारु ने कहा - "बाबू जी, कविताओं की इतनी सारी डायरी आपने संभाल कर रखी है, उनकी एकाध किताब ही छपवा लीजिए, कम से कम हमारी आने वाली पीढी तो उससे प्रेरणा लेगी?"
"क्या करना है बेटा छपवा कर, जैसे गाड़ी चल रही है, चलने दो।" अंकलहा परसाद गहरी सांस लेकर बोले
"नहीं बाबूजी! छपवाना ही चाहिए, देखिए कितने लोग अपनी किताब छपवा कर लखपति हो गए, घर बैठे रायल्टी खाते हैं और सिर्फ़ किताब लिखते हैं। हमको भी छपवाना चाहिए, आप भी तो चालिसों साल से लिख रहे हैं।" तिहारु ने जोर देते हुए कहा।
"कौन छापेगा?"
"आप पाण्डुलिपि बनाईए और हम प्रकाशकों को भेजते हैं, जिसे पसंद आएगी वह सम्पर्क करेगा और बात जम गई तो छाप भी देगा।"
अंकलहा परसाद जी ने पाण्डूलिपि बनाई और 3-4 प्रकाशकों को भेज दी। चौपाल में बैठकर रोज दोपहर को डाकिए का इंतजार करते, उसके आने पर अपनी चिट्ठी पत्री की जानकारी लेते। डाकिए दूर से ही कह देता - "आपकी चिट्ठी नहीं आई है बाबूजी।" सुनकर वे उदास कदमों से घर की ओर चल पड़ते। बहू से भोजन लगाने कहते और खाकर वहीं पाटे पर लेट जाते। यही उनकी दिनचर्या हो गई थी। कभी अपनी डायरियाँ निकालकर पढने लग जाते, कभी तिहारु के बच्चों को बाल गीत सुनाकर उनका मन बहलाते। एक बरस बीत जाने पर प्रकाशकों ने कोई जवाब नहीं दिया। बाबूजी को उदास देखकर एक दिन तिहारु ने कहा - "कुछ प्रकाशक मेरे शहर वाले दोस्त की जानकारी में है, उनसे चलकर मिलते हैं। हो सकता है कुछ रास्ता निकल आए।"
अंकलहा परसाद जी को तिहारु की बात जंच गई, अगले दिन धोती कुरता सदरी धारण कर दोनो बाप बेटा शहर पहुंच गए। तिहारु का दोस्त उन्हें एक प्रकाशन में ले गया। वहाँ कम्प्यूटर पर एक शख्स मुड़ गड़ाए बैठा था, कांच का दरवाजा खुलने की आहट सुनकर उसने सिर उठाया और तिहारु के दोस्त से बोला - आईए आईए, कैसे आना हुआ, काफ़ी दिनों बाद दीदार हुए आपके?
"चाचा को अपनी कविताएँ प्रकाशित करवानी है, इसी सिलसिले में आपसे मिलने चले आए।" कुर्सी पर बैठते हुए तिजऊ ने कहा।
"बैठिए, बैठिए आप लोग, हमारा तो धंधा ही प्रकाशन का है। छाप देगें किताब, पाण्डुलिपि लाए हैं?"
"हाँ! लाए हैं, ये लीजिए" अंकलहा परसाद जी ने सुपर फ़ास्फ़ेट खाद की बोरी से बने झोले से पाण्डुलिपि निकाल कर प्रकाशक की टेबल पर रख दी।
प्रकाशक ने उसे उलट पलट कर देखा, दो चार पन्ने खोले और उन पर नजर डाली। तब तक अंकलहा जी सांस रोके उसकी गतिविधि का अवलोकन कर रहे थे, जैसे ईसीजी के बाद रिपोर्ट पढते हुए डॉक्टर की तरफ़ मरीज देखता है। पाण्डुलिपि देखने बाद प्रकाशक ने कहा - "कविताएँ तो अच्छी हैं आपकी। कितनी प्रतियाँ छपवानी है तथा पेपर बैक या जिल्द वाली?"
" जिल्दवाली, कम से कम एक हजार, उससे कम क्या छपवाएगें"
"मालूम है एक हजार में कितना खर्च आएगा, एक हजार प्रति छपवाने में 60,000 रुपए लगेगें।"
"मैने तो सुना था कि प्रकाशक किताब छापते हैं और फ़िर बेचने के बाद रायल्टी के तौर पर लेखक रकम भी देते हैं।" अंकलहा परसाद जी ने गंभीरता से कहा।
"अब आप कौन से निराला या दिनकर हैं, जो आपकी लिखी हुई कविताएं बिक जाएगी और उससे हम कमाई कर लेगें। ये तो आपको अपनी रकम लगा कर छपवानी पड़ेगी। हम आपको 500 प्रति दे देगें और 500 हम रखेगें। अगर कोई बिक गई तो साल में हिसाब करके विक्रय की कुल रकम के 15% का चेक आपको भेज देगें।" प्रकाशक ने फ़ंडा समझाया।
प्रकाशक की बात सुनकर अंकलहा परसाद जी निराश हो गए - " मुझे नहीं मालूम था कि प्रकाशक ऐसा भी करते हैं, मैने तो सुना था कि प्रकाशक अपनी रकम लगा कर छापते हैं और लेखक को रायल्टी देते हैं। यहाँ तो विपरीत हो रहा है, लेखकी रकम से ही छाप कर उसी से प्रकाशक कमाई करने लगे।" तिहारु ने कहा।
"देखिए, तिहारु राम जी, प्रकाशन चलाना कोई मामूली काम नहीं है। कितनी मेहनत करनी पड़ती है हम लोगों को। अभी तक हमारे प्रकाशन से 800 से अधिक किताबे प्रकाशित हो चुकी हैं। अगर सभी किताबों को अपनी रकम लगा कर छापते रहे तो हमारा दीवाला ही निकल जाएगा। वैसे भी वर्तमान में पाठक पुस्तकें खरीद कर कहाँ पड़ता है और जो खरीद कर पढते हैं उनकी संख्या बहुत ही कम है। जब पाठक को पैसे से पुस्तक खरीदनी होगी तो आपकी क्यों खरीदेगा। जिसका मार्केट में नाम चल रहा है उसे खरीदकर पढना चाहेगा। पुस्तक छपवाना तो स्वातं: सुखाय कार्य है। 
"ओह, मतलब लेखक के पल्ले कुछ नहीं पड़ता?"
"पड़ता है न, लेखक को प्रसिद्धी मिलती है, हमारे जैसे नामी प्रकाशन से छपवाने पर लेखक की विश्वसनीयता बनती है, उसकी प्रकाशित किताब उत्कृष्ठता की श्रेणी में आ जाती है, इसलिए अपना पैसा लगा कर छपवाईए, फ़िर हम आपके खर्च से पुस्तक का विमोचन करवा देगें बड़े साहित्यकारों को बुलवा कर, अखबारों में समाचार प्रकाशित होगें, आपकी पुस्तक की समीक्षा छपवानी होगी। लेखक बनना कोई आसान  काम नहीं है दादा और हम तो ऐसे लेखकों तथा कवियों की रचनाएं छापते हैं जो इस दुनिया में ही नहीं है, जो रायल्टी फ़्री हैं और आसानी से बिक जाते हैं। नए लेखकों पर पूंजी लगाने का कौन रिस्क ले?"
प्रकाशक की बात सुनकर अंकलहा परसाद जी ने पाण्डूलिपि अपने झोले के हवाले की और उसके दफ़्तर से बाहर निकल आए -"60 हजार खर्चा कहाँ से पूरा करेगें। मुझे नहीं छपवानी किताब। ये तो तिहारु जबरदस्ती कर के ले आया यहाँ तक।"
"और भी बहुत सारे प्रकाशन हैं चाचा, उन्हें देख लेते हैं। सभी ऐसे ही थोड़ी होगें?" तिजऊ ने कहा। यहां से निकल कर वे दो-चार प्रकाशनों में गए, लेकिन सभी ने 50 हजार के उपर का ही खर्च बता दिया और अपनी रकम लगा कर कोई छापने को तैयार नहीं हुआ। अंकलहा परसाद जी गाँव लौट आए और इन बातों को भूल गए।
दीवाली के बाद फ़सल कटाई शुरु हुई, वरुणदेव की कृपा से इस बार फ़सल अच्छी हो गई। तिहारु को फ़िर पिता जी की पुस्तक छपवाने की जिद चढ गई। एक दिन सांझ को खलिहान में सब बैठे थे तो उसने पिताजी से चर्चा शुरु कर दी - "धान की फ़सल भी अच्छी हो गई, इस साल किताब छपवा लीजिए पिताजी।" तिहारु ने पिताजी को कहा।
"अरे पुस्तक छपवाने में बहुत खर्च है, रहने दे, क्या करेगें छपवा कर।" अंकलहा परसाद जी ने बीड़ी सुलगाते हुए कहा
"अब चाहे कितना भी खर्च हो जाए, किताब तो छपवानी ही है, आप चाहे माने या न माने।" तिहारु ने जिद करते हुए कहा
" डोकरा का दिमाग भी सठिया गया है, जब बेटा कह रहा है छपवाने के लिए तो तुम छपवा  क्यों नहीं लेते।" तिहारु की माँ ने तिहारु की बात में बात मिलाते हुए कहा।
"छपवा ले भई नहीं मानता तो। मैं तो सोच रहा था कि फ़ालतू खर्च करना ठीक नहीं है। रुपया पैसा है, गांठ में रहे तो काम आता ही है।"
अगले दिन तिहारु पाण्डुलिपि लेकर शहर चला गया। उसके एक रिश्तेदार प्रिंटर ने कम पैसे में छापने में सहमति दे दी। भाग दौड़ कर पुस्तक छप गई। तिहारु पुस्तक लेकर घर आ गया। पुस्तक देखते ही अंकलहा परसाद जी की आँखों में चमक आ गई बोले - "मेरा बेटा तो सरवण कुमार है, भगवान सब को ऐसा ही सपूत दे।"
पुस्तक छपने के बाद विमोचन जरुरी हो जाता है, विमोचन होने से गाँव खोर के और शहर के सभी रिश्तेदार संबंधियों एवं इष्ट मित्रों को पता चल जाता है कि वे लेखक हो गए हैं। 
अंकलहा परसाद जी कई लेखकों के पुस्तकों के विमोचन के साक्षी बने थे, उन्हे पता था कि पुस्तक विमोचन के लिए किन चीजों की आवश्यकता पड़ती है। जब तक पुस्तक विमोचन में कोई नामी साहित्यकार नहीं पधारते तब तक उस पुस्तक विमोचन को मान्यता हासिल नहीं होती और न ही लेखक को। कोई ऐसा वक्ता होना चाहिए जो पुस्तक पर ऐसे कसीदे पढे कि लगे उससे बड़ा साहित्यकार इस धरा में पैदा ही नहीं हुआ है। धरा धन्य हो गई ऐसा साहित्यकार पाकर। बीच बीच में दो चार बार उनकी कृति को महान बताते हुए, लेखक को महान कहे। उनके लेखक को कालजयी बताते हुए प्रशंसा के पुल बांध दे। भले ही पुस्तक पढने के बाद गारे का वह पुल धराशाई हो जाए। 
अब पुस्तक विमोचन के लिए नामी गिरामी साहित्यकारों का समय लेते हुए अंकलहा परसाद जी संकलहा परसाद हो गए। जो दिन भर ठाले बैठे मक्क्षिकामर्दन करते रहते थे उन्होने भी अंकलहा परसाद जी को इतनी व्यस्तताएँ बताई कि वे हलकान हो गए। कई साहित्यकारों ने कहा कि फ़लाने को बुलाएगें तो वे नहीं आएगें, किसी ने कुछ और किसी ने कुछ आपत्तियां जताते हुए अपनी मांग भी रख दी। उन्हें अब इतने सारे गिरोह दिखाई देने लगे कि दिमाग ही घूम गया, सोचने लगे कि पुस्तक छपाने से अधिक श्रम का कार्य तो विमोचन करवाना है। तंग आकार उन्होने तय किया कि अपने काव्य संग्रह का विमोचन गांव में ही कराएगें। तारीख तय करके उन्होने गायत्री यज्ञ कराने के लिए गायत्री मंदिर के पुजारी को तय कर लिया। सारे रिश्तेदारों को निमंत्रण दे दिया। जितने चाहें आ जाएं, आधा बोरा चावल अधिक लगेगा और क्या होगा।
नियत दिन को सुबह गायत्री यज्ञ प्रारंभ हो गया। गायत्री के साथ सरस्वती पूजन भी हुआ। पुस्तक का पूजन करने के पश्चात एक तख्त पर अंकलहा परसाद जी सपत्नी विराजे, सभी मेहमानों ने तिलक लगाकर उनका सम्मान किया। तिहारु के ससुर ने शाल और श्री फ़ल भेंट कर समधी का सम्मान किया और उनके काव्य संग्रह का इतना जोरदार बखान किया कि बड़े बड़े साहित्यकार शरमा जाएं। अगर कोई कब्र में सुन लेता तो काव्य संग्रह पढ़ने के लिए कब्र से बाहर निकल आता। प्रसाद ग्रहण करने के पश्चात विमोचन समारोह सम्पन्न हो गया। अब अंकलहा परसाद जी अपने काव्य संग्रह को झोले में धरे हुए घूमते रहते हैं और जो भी उन्हे काव्य संग्रह भेंट करने लायक दिखाई देता है, उसे तत्काल झोले से पुस्तक निकाल कर सप्रेम भेंट करते हैं। 
मुझे भी उन्होने गत वर्ष राजिम मेला में काव्य संग्रह भेंट किया। मैने देखा कि गंवई गांव की खुश्बू से सराबोर कविताओं से काव्य संग्रह गमक रहा था। लोमस ॠषि आश्रम में नागाओं के समीप बैठकर उनसे जब काव्य संग्रह पर चर्चा हुई तो उन्होने आप बीती सुनाई। उनकी आप बीती सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गई। कितना कठिन है आज के जमाने में साहित्यकार बनना। 

(डिस्क्लैमर - इस रचना से किसी जीवित या मृत व्यक्ति का संबंध नहीं है, अगर किसी से साम्यता स्थापित हो जाती है तो वह संयोग माना जाएगा)

शुक्रवार, 14 फ़रवरी 2014

वेलेन्टाईन के लटके झटके

वेलेन्टाईन पखवाड़ा मनाया जा रहा है, प्रेम के व्यावसायिकरण के नाम पर यह एक नई बिमारी हमारे देश में प्रकट हुई है। इसी बिमारी पर हमने कुछ चटखारे लिए हैं……… प्रस्तुत हैं वेलेन्टाईन के लटके झटके

हैप्पी रोज डे………

आओ रोज डे मनाएं, फ़ूलम फ़ूल मचाएँ
मुंह पर बाँध दुपट्टा गोरी फ़ूल मेघ रचाएँ
फ़ूल मेघ रचाएँ उड़ेगें काले घोड़े पे सवार
लाँग ड्राईव पर होगें खूब मजे करेगें यार
कैम्प फ़ायर कर नदी किनारे टैंट लगाएँ
रम की बोतल खोल आओ रोज डे मनाएँ

लव यू………………… प्रपोज डे

रोज डे निकल गया हम बता रहे हैं सोज
लव यू बोल तुझे डोकरी कर रहे परपोज
कर रहे परपोज जवानी में जे कह न पाए
चला चली की बेला में तोहरा रुप सुहाए
करते रहे प्रिय इंतजार समय बदल गया
बीपी चीनी चेक होते रोज डे निकल गया

चाकलेट डे………

नदिया किनारे गोरी तू तो कर ले आकर भेंट
आया लेकर गर्म गर्म डेयरी मिल्क चाकलेट
डेयरी मिल्क चाकलेट मैने ब्लेक में खरीदा
दू घंटा लाईन में लगा तब हुआ बहुत फ़जीता
प्रेम हाट न बिकाय सुन लेय तू अल्हड़ छोरी
सोन मछरिया पकड़ेगें नदिया किनारे गोरी…।

टेडी डे……

सीधी साधी चाल तेरी कैसे बलखावै टेढी रे
लिया गिफ़्ट तेरे लिए आज कहलावै टेडी डे
आज कहलावै टेडी डे लभ यू लभ यू डियर
रख सिरहाने सोएगी तू झबरीला टेडी बियर
कर प्रणय निवेदन स्वीकार बात मान मेरी
इठलाना इतराना छोड़ सीधी साधी चाल तेरी

प्रामिस डे………

मैं वादा करता हूँ तुम्हारे सारे वचन निभाऊंगा
कपड़े लत्ते लाँग ड्राईव फ़िल्में रोज दिखाऊंगा
फ़िल्में रोज दिखाऊंगा संग ले जाऊंगा दिल्ली
चल चल मेरी रुप कुंवर काहे होती तू चिल्ली
अपने दिल से पूछो प्यार तुमसे ज्यादा करता
प्रामिस डे पर प्यार भरा तुमसे मै वादा भरता

हग डे

हग का जीव जंतु मनुष्य से, जन्म का है नाता
बिहनिया संझनिया हगता, जो कुछ वो है खाता
जो कुछ वो है खाता ,हग नित्य क्रिया में शामिल
लोटावन साव दांत निपोरे, हो जावे जब गाफ़िल
अंग्रेजी में अर्थ बदल कर, खो गया प्रेमालिंगन
हग डे हग डे हो गया, प्रेम परिणीति का सिंचन

किस डे

लाईन लगी है भोरे से किस किस को किस दे
किलो लिपिस्टिक खत्म जब मनाया किस डे
जब मनाया किस डे बूढे बुढिया लगे लाईन में
आया सोडा सा उछाल जो मिला दिया वाईन में
मौसम बसंताया जब नयन मिले बांके छोरे से
दीवाली सा प्रसाद बंट रहा लाईन लगी भोरे से

वेलेन्टाईन डे

बड़े बिहिनिया उठकर बीबी ने बेलन ट्राई किया
दू-तीन बेलन जमा के तोहफ़ा बेलनेटाईन दिया
तोहफ़ा बेलनेटाईन दिया भागे प्रेमाधिकारी संत
दू पाटन के बीच में फ़ँसे वेलेन्टाईन पियारे कंत
हुआ पिछवाड़ा लालम दिन कटा भूंक भूंक कर
अइसन बेलनेटाईन मना बड़े बिहिनिया उठकर

तकरार डे

कल ही बेलेनटाईन मना बिखरा प्यार ही प्यार
टेडी बियर के कलर पर जमके हुई जूतम पैजार
जमके हुई जूतम पैजार टेडी बिखरा हो तार तार
चिथड़े उड़ते इधर उधर हमरी जान बचाओ यार
जब आई असलियत सामने मुहब्बत हो गई फ़ना
दिल हो गया पुर्जा पुर्जा कल ही बेलेनटाईन मना

किक डे

बढते-बढते बात-बात इतनी जियादा बढ गई
बिहनिया बिहिनिया कबूतरी अटारी पे चढ गई
अटारी पे चढ गई मोहल्ले में मच गया हल्ला
कल थी जो गुटर गुं आज हुई हल्लम गुल्ला
रार तकरार खत्म न हुई सिर पे चढ आई रात
लात घूंसे किक तक पहुंची बढते बढते बात॥

ब्रेक अप डे

इसकी उसकी नहीं पटी इससे उससे पट जाय
तू नहीं तो और सही इसमें ही राजा राम सहाय
राजा राम सहाय कर लेव अलग अगल चूल्हा
दू दिन की दुल्हन बनी और दू दिन के दुल्हा
कीटाणु पड़ गए प्यार में रात कयामत सी कटी
होय गई ब्रेक अप पार्टी इसकी उसकी नहीं पटी

उपसंहार डे

अब के फ़टफ़टिया त्यौहार में मिली जो हमको सीख
फ़ास्ट फ़ास्ट में ट्रबल खूब दिन में सितारे रहे दिख
दिन में सितारे रहे दिख कहा पप्पा मम्मा का मानो
डूब जाए बीच भंवर में नैया फ़िर तुम अपनी ही जानो
खूब मजा लो आपस में मिल जुल करके ब्यौहार में
नहीं टिकाऊ प्यार व्यार अंग्रेजी फ़टफ़टिया त्यौहार में

© तोप रायपुरी

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

चूहेदानी की सियासत……

चूहा नामक प्राणी सभी उष्णकटिबंधीय देशों में पाया जाता है, मेरे घर के पिछवाड़ा भी उष्णकटिबंधीय क्षेत्र है, चूहा वहाँ भी पाया जाता है। बड़े-बड़े बिल खोद कर इन्होने सांपों के लिए घर बना दिए हैं, जब सांप घुसता है तो खुद भागे फ़िरते हैं। कुछ दिनों से इनकी सेना ने मेरे घर में धावा बोल दिया। इनकी नजर मेरे पुस्तक धन पर लगी हुई है। सारी रात कुतरने की डरावनी आवाजें आती हैं और मैं बिस्तर पर पड़ा हुआ, सोचता रहता हूँ कि आज ये कौन सी किताब से ज्ञानार्जन करने में लगे हुए हैं, उसका पता तो सुबह ही चलेगा। जब इनके द्वारा कुतरे हुए पन्ने खाद बनकर इधर उधर उड़ते फ़िरेगें। दुख: की बात यह हैं कि कुछ नव साहित्यकारों ने अपनी पुस्तकें मुझे टिप्पणी लेखन के लिए भेज रखी हैं, मेरे टिप्पणी लिखने से पहले ही कहीं ये अपनी टिपणी न कर दें। रात भर उंघते हुए गुजर जाती है।

एक लेखक के घर पर पुस्तकों का ही ढेर मिलेगा, कौन सा खलमाड़ी का घर है, जहाँ नोटों का अम्बार मिलेगा और ये कुतर-कुतर उसका स्वाद देखेगें, लेकिन मेरी किताबों को काट कर इन्होने मुझे निर्धन करने की जरुर ठान ली है। पता नहीं गणपति महाराज क्यों नाराज हो गए जो अपनी सेना को पुस्तकें कुतरने के लिए भेज दिया। 

हम तो जैसे तैसे नुकसान सह कर इन्हे कोस रहे थे कि अचानक मालकिन फ़ुंफ़कारते हुए आई - "दिन भर कम्प्यूटर बैठे उंघते रहते हो, पता भी है इधर चूहों ने गदर मचा रखा है। दीवान में घुस कर गद्दे रजाईयों को काट रहे हैं, मेरी नई साड़ी और ब्लॉउज को भी काट डाला, जबकि मैने सिर्फ़ 2 बार ही उसे पहना था। इन चूहों को ठिकाने लगाओ। नहीं तो समझ लेना फ़िर…।"

मैं निरीह प्राणी की तरह मालकिन के मुंह को देखे जा रहा है, एक बेबस आदमी कर भी क्या सकता है। एक अंग्रेजी फ़िल्म देखी बरसों पहले, जिसमें एक छोटी सी चूहिया को पकड़ने के चक्कर में मकान मालिक सारी विद्याएं अपनाता है आखिर में अपने मकान से भी हाथ धो बैठता है। तब भी चूहिया पकड़ में नहीं आती और अंत में उसके सिर पर नाचते रहती है। सबसे बड़ी बात यह है कि कितने चूहे हैं इसका पता नहीं चलता। सबकी शक्ल एक जैसी ही है। तीन चूहों को जैसे-तैसे पकड़ कर घर के बाहर छोड़ कर आया। जैसे ही कमरे में घुसा, वैसा ही एक चूहा और घूमते हुए दिखाई दिया। शक होने लगा कि बाहर फ़ेंका हुआ चूहा मुझसे पहले ही घर में प्रवेश कर गया।

इस महा विपदा से बचने के लिए सभी परिजनों की आवश्यक बैठक आहूत की गई, जिसमें सभी के सलाह मशविरे से चूहा निदान की परियोजना पर विचार विमर्श शुरु हुआ। मैने कहा कि -" बाजार से चूहे मारने वाली दवाई मंगवा ली जाए। जिसे खाने के बाद ये मर जाएगें और मुक्ति मिल जाएगी।" 

मालकिन ने कहा कि -"कहीं भीतर घुस कर मर गए तो बदबू आते रहेगी और पता भी नहीं चलेगा, किस जगह मरे हैं, एक काम करो, चूहे मारने वाला केक ले आओ।"

"तुम मंगवा क्यों नहीं लेती, बच्चे तो दुकान जाते ही हैं"

"मैने भेजा था इन्हें, लेकिन दुकानदार बच्चों को चूहा मार दवाई नहीं देते और न ही चूहामार केक देते हैं।"

"यह भी बड़ी समस्या है, लगता है अब मुझे ही जाना पड़ेगा"

तभी बालक ने सलाह दी - "पापा! एक चूहेदानी ही ले आईए, चिंटु के घर में भी बहुत चूहे थे, उसके पापा चूहेदानी लेकर आए और उसमें टमाटर रखते ही दो चूहे पकड़ में आए।"

बालक की सलाह सभी जम गई, तय हुआ कि चूहेदानी खरीद कर लाई जाए। हमारा मार्केट जाना भी बड़े राजशाही ठाठ-बाट से होता है, कोई ऐरे गैरे थोड़ी हैं जो ऐसे ही उठ कर चले जाएगें। कपड़े अस्तरी किए गए, जूते पालिश होकर आए, काली घोड़ी (हीरो होंडा) को धोया और पोंछा गया। इतनी तैयारी होते देख कर काम वाली महरी से रहा नहीं गया उसने पूछ ही लिया - "कथा पूजा की तैयारी हो रही है क्या मालकिन, जो इतना जोर शोर से तैयारी चल रही है?"

"अरे नहीं! महाराज बाजार जा रहे हैं, चूहेदानी खरीदने के लिए। इसलिए सब तैयारी करनी पड़ रही है।" मालकिन ने शर्ट पर अस्तरी फ़िराते हुए जवाब दिया।

हम तैयार होकर मार्केट पहुंचे, अब ऐसे ही किसी की दुकान में चले जाएं तो हमारी शान के खिलाफ़ हैं। एक बड़ी दुकान में जाकर बैठ गए, दुकानदार ने पान की गिलौरी मंगवाई और हमसे दर्शन शास्त्र के कई सवाल धड़ाधड़ पूछ डाले। हम भी उसके मनमाफ़िक जवाब देते रहे। दो घंटे क्लास चली। आखिर हमने उसके नौकर को रुपए देकर चूहेदानी खरीदने भेजा। उसका नौकर चूहेदानी लेकर आया, एक दो बार हमने उसके द्वार को बंद करने के लिए स्प्रिंग से खिलवाड़ किया तो उसकी अटकनी का टांका निकल गया। अब उसे बदलने के लिए भेजा। हमारा नाम लेने पर दुकानदार ने बदल कर दे दिया। 

अब चूहेदानी घर लेकर पहुंचे तो बालक देखते ही खुश हो गया। तुरत-फ़ुरत टमाटर काटकर चूहेदानी में लटकाया गया और उसे चूहामार्ग पर लगाया गया। आधी रात हो गई देखते हुए, लेकिन चूहा एक भी न फ़ंसा। उसके आस-पास घूम कर चला जाता था। थक हार कर सभी अपने बिस्तर के हवाले हो गए, लेकिन चूहा पकड़ने का रोमांच इन्हे सोने नहीं दे रहा था। रोमांच इतना अधिक था कि जैसे जंगल में शेर पकड़ने के लिए पिंजरा लगाया हो। 

जैसे तैसे सुबह हुई, बालक ने सबसे पहले चूहेदानी को देखा, टमाटर ज्यों का त्यों लटका हुआ था। चूहेदानी का दरवाजा खुला हुआ था। मालकिन कहने लगी कि "अभी तक एक भी चूहा पकड़ में नहीं आया है, चिंटु के यहाँ तो लगाते ही, दो चूहे पकड़ाए थे। यह चूहेदानी ठीक नहीं है। चूहों को पता चल गया है कि यह उन्हे पकड़ने का फ़ंदा है।"

बेटी ने सलाह दी कि " चूहे टमाटर नहीं खाते, देखते नहीं क्या किचन में रोटियों का टुकड़ा उठा कर ले जाते हैं। इनके लिए आलू के भजिए बनाए जाएं और उसे पिंजरे में लगाया जाए, भजिए के लालच में आएगें तो जरुर फ़ँस जाएगें।"

सलाह मालकिन को जम गई, उसने आलू के पकोड़े बनाए और एक पकोड़ा चूहेदानी में लगा दिया। दिन भर व्यतीत होने पर भी एक चूहा नहीं फ़ँसा। रात्रिकालीन सेवा के लिए चूहेदानी का स्थान बदला गया। सुबह होने पर दिखा कि चूहेदानी का दरवाजा खुला हुआ है और पकोड़ा लटके-लटके सूख गया है।

हम चाय पीते हुए कम्प्यूटर में अखबार पढ रहे थे, आते ही मालकिन फ़ट पड़ी, फ़ट पड़ी इसलिए कि एक सुनामी सी आ गई थी, अगर बरसती तो दो-चार फ़ुहारें ही गिरती - "ये कैसी चूहेदानी लेकर आए हो, दो दिन हो गए एक भी चूहा नहीं फ़ँसा। जाओ इसे वापस करके आओ।" 

"बिका हुआ माल वापस नहीं होता, दुकानदार ने कह कर दिया है, चूहा पकड़ाने की कोई गारंटी नहीं । अगर कोई धोखे से फ़ंस जाए तो वह आपके लिए बोनस है।"

"मुझे नहीं मालूम कुछ, आप इसे लौटाकर चूहे मारने का केक लेकर आईए।" मालकिन ने फ़रमान सुना दिया।

"देखो भई, थोड़ा सब्र से काम लो, सब्र का फ़ल मीठा होता है। मानो कि यह चूहेदानी कांग्रेस है और चूहा "आम आदमी पार्टी"। देखा कि नहीं तुमने आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में कितने आन्दोलन किए और कांग्रेस की सरकार के नाक में दम कर दिया। आखिर कांग्रेस ने सब्र से काम लिया, अब देखो चूहा उसकी चूहेदानी में फ़ँसा कैसे फ़ड़फ़ड़ाकर उछलकूद कर रहा है। न सत्ता का भजिया निगलते बन रहा है, न उगलते है। बस इंतजार करते जाओं एक दिन इन चूहों को इसी चूहेदानी में फ़ँसना है। चूहों की अम्मा कब तक खैर मनाएगी… सियासत को समझे करो……