शुक्रवार, 21 मार्च 2014

बासोड़ा: पर्यावरण जागरुकता का पर्व

शीतला माता
किसी भी राज्य की पहचान उसकी भाषा, वेषभूषा एवं संस्कृति होती है। संस्कृति लोकपर्वों में दिखाई देती है। लोकपर्व संस्कृति का एक आयाम हैं। लोकपर्वों में अंतर्निहीत तत्व होते हैं, जिनके कारण लोकपर्व मनाए जाते हैं। संस्कृति की धारा अविरल बहती है परन्तु इसके पार्श्व में मनुष्य की दिमागी हलचल होती है। जो उसे उत्सवों की ओर अग्रसर करती है। लोकपर्वों में प्रमुख तत्व लोक होता है। विश्व में जहाँ भी मानवों की बस्ती है, उनके द्वारा मनाए जाते है। निर्धारित तिथि को बिना किसी शासकीय आदेश के सभी लोग सामुहिक रुप से इन पर्वों को मनाते हैं। मनुष्य रोजगार के उद्देश्य से भूगोल में किसी भी स्थान पर चला जाए, उसके साथ उसकी संस्कृति एवं लोकपर्व भी स्वत: चले आते हैं। इन पर्वों के माध्यम से वह अपनी संस्कृति से जुड़ा रहता है।

होली के बाद बसंत की चलाचली की वेला होती है और ग्रीष्म का प्रारंभ होता है। ॠतु परिवर्तन होने के कारण यह व्याधि के कीटाणुओं के संक्रमण का समय भी होता है। इस अवधि में चेचक का प्रकोप अधिक होता है, जिसे भारत में हम "माता" के नाम से जानते हैं। वर्तमान में यही समय विद्यार्थियों की परीक्षाओं का भी होता है, बड़ी संख्या में विद्यार्थी अपने अध्ययन काल में इस संक्रमण से प्रभावित होते हैं। छोटी माता, बड़ी माता, सेंदरी माता इत्यादि नामों से इस व्याधि को जाना जाता है। इस व्याधि से बचने के लिए स्वचछता एवं आरोग्य की देवी शीतला माता की उपासना की जाती है। 

मान्यता है कि जब माता उग्र हो जाती है तो इसका प्रकोप होता है तथा शीतला माता की उग्रता को शांत करने के लिए शीतला विग्रह पर जल चढाने की परम्परा है। जिससे सप्ताह भर की अवधि में माता का प्रकोप शांत हो जाता है। वर्तमान चिकित्सा विज्ञान ने काफ़ी प्रगति की है, परन्तु चेचक होने पर मरीज को आज भी अस्पताल नहीं ले जाया जाता। उसे हवा पानी से बचा कर रखा जाता है तथा शीतला माता में नित्य सुबह शाम जल चढा कर उसके प्रकोप को शांत किया जाता है। मान्यता है कि डॉक्टरी इलाज कराने पर माता का प्रकोप और बढ जाता है और वह क्रोधित हो जाती है जिससे मरीज की व्याधि बढ जाती है।

शीतला माता नीम के वृक्ष के नीचे स्थापित होती है, स्कंध पुराण में इन्हें गर्दभ वाहिनी दिखाया गया है, ये हाथों में कलश, सूप, मार्जनी (झाडू) तथा नीम के पत्ते धारण करती हैं। इन्हें चेचक आदि कई रोगों की देवी बताया गया है। इनका प्रतीकात्मक महत्व है। चेचक का रोगी व्यग्रता में वस्त्र उतार देता है। सूप से रोगी को हवा की जाती है, झाडू से चेचक के फोड़े फट जाते हैं। नीम के पत्ते फोडों को सड़ने नहीं देते। रोगी को ठंडा जल प्रिय होता है अत: कलश का महत्व है। मान्यता है कि गर्दभ की लीद के लेपन से चेचक के दाग मिट जाते हैं। 

शीतला-मंदिरों में प्राय: माता शीतला को गर्दभ पर ही आसीन दिखाया गया है शीतला माता के संग ज्वरासुर - ज्वर का दैत्य, ओलै चंडी बीबी - हैजे की देवी, चौंसठ रोग, घेंटुकर्ण- त्वचा-रोग के देवता एवं रक्तवती - रक्त संक्रमण की देवी होते हैं। इनके कलश में दाल के दानों के रूप में विषाणु या शीतल स्वास्थ्यवर्धक एवं रोगाणु नाशक जल होता है। मान्यता अनुसार पूजा करने से शीतला देवी प्रसन्‍न होती हैं और पूजक के कुल में दाहज्वर, पीतज्वर, विस्फोटक, दुर्गन्धयुक्त फोडे, नेत्रों के समस्त रोग, शीतलाकी फुंसियों के चिन्ह तथा शीतलाजनित दोष दूर हो जाते हैं

माता के प्रकोप से बचने के लिए होली के बाद "बासोड़ा" मनाया जाता है, जो मुख्यत: राजस्थान एवँ हरियाणा का लोकपर्व है। इसे होली के बाद शीतलाष्टमी तक के सप्ताह में मनाया जाता है। माता के मुख्यत: सप्ताह में सोमवार एवँ शुक्रवार 2 दिन माने जाते हैं। होली अगर सोमवार को होती है तो शुक्रवार को यह पर्व मना लिया जाता है, अगर होली शुक्रवार के बाद होती है तो सोमवार को यह पर्व मनाते हैं। कई स्थानों पर शीतला सप्तमी एवं अष्टमी को भी यह पर्व मनाया जाता है। 

इस दिन महिलाएं भोर में नए वस्त्र धारण कर कथा करती हैं तथा रात में बनाए गए व्यंजनों का भोग माता को लगाती हैं। ठंडा प्रसाद अर्पित कर मान्यतानुसार भोर में ही उसकी पूजा की जाती है। इस दिन राबड़ी, बाजरा की रोटी, मीठा भात, गुलगुला और अन्य पकवानो के साथ दही, मूंग की दाल, बाजरा की मोई, पात की आँख, बड़कुल्ला की जेल, भीगा हुआ मोठ-बाजरी इत्यादि के साथ कलश  में माता को जल चढाया जाता है। शीतला माता का भजन गाया जाता है। साथ ही कच्चे सूत के धागे की मेखला (करधन) बना कर बच्चों बड़ों को पहनाई जाती है। मटकी की पूजा की जाती है, इस दिन से ठंडा पानी पीना प्रारंभ हो जाता है। पूजा किया हुआ जल सभी आँखों में लगाते हैं। जिससे शीतलता के संग आखों की ज्योति सदा बनी रहे।

बासेड़ा मनाने के पीछे एक लोककथा भी प्रचलित है। एक गाँव में एक बुढिया रहती थी, जो बासेड़ा के दिन शीतला माई की पूजा करती एवं ठंडा भोजन खाती थी। गाँव में अन्य कोई भी शीतला माता की पूजा नहीं करता था, एक बार गाँव में आग लग गई, पूरा गाँव जल गया लेकिन उस बुढिया की झोंपड़ी नहीं जली। जब गाँव वालों ने उसकी झोपड़ी न जलने का कारण पूछा तो उसने बताया कि वह शीतला माता की पूजा करती और ठंडा खाती है, इसलिए उसकी झोपड़ी नहीं जली। तब से सारे गाँव में डौंडी पिटवा दी गई कि बासेड़ा के दिन सभी को ठंडी रोटी खानी है और शीतला माता को धोक देनी है। इस घटना के बाद यह परम्परा लोकपर्व में परिवर्तित हो गई। 

बिहार, उत्तर प्रदेश में इसे बसियोरा के रुप में मनाया जाता है, गुजरात तथा अन्य प्रातों में शीतला अष्टमी को पूजा उपरांत ठंडा भोजन करने की परम्परा है। सिंध प्रांत के लोग भी इसे थदड़ी त्यौहार के रुप में मनाते हैं। इस दिन शीतला माता की पूजा करने की परंपरा है। परिवार की सुख शान्ति तथा बच्चों को संक्रामक रोगों से बचाने के लिए माता शीतला की पूजा-अर्चना की जाती है। बासी पकवान खाने की परम्परा का निर्वाह करने के लिए महिलाएँ  धदड़ी मनाती हैं। महिलाएँ प्रात: उठकर शीतला माता की पूजा कर तरह तरह के व्यंजनों का भोग लगाती हैं। विभिन्न पकवानों में मिठी मानी, खटो्भात, खोराक, पकवान, नान खटाई, सतपुड़ा, चौथा, टिक्की प्रमुख रुप से बनाने की परम्परा है।

शीतला माता स्वच्छता की अधिष्ठात्री देवी हैं, अगर हम अपने आस पास को साफ़ सुथरा रखेगें तो रोगों के कीटाणू व्यक्ति के सम्पर्क में आकर उसे रोगी नहीं बनाएगें। ज्यादातर बीमारियां खराब खाना खाने से होती हैं। रसोईघर की स्वच्छता बहुत जरूरी है। शीतला मां के हाथ में जल से भरा कलश होना, हमें जल को प्रदूषण से मुक्त रखने के लिए जागरूक बनाता है। आज स्वच्छ पानी का मिलना दुर्लभ हो गया है, क्योंकि हमने अपनी नदियों, सरोवरों और जलाशयों को इतना प्रदूषित कर दिया है कि इनका पानी पीना तो क्या, उससे आचमन तक करने में पीछे हट जाते हैं। जल को कलश में सुरक्षित रखकर माता शीतला हमें जल-संरक्षण के लिए सचेत कर रही हैं। संसार के सबसे उपेक्षित पशु गधे की सवारी करके माता शीतला हमें पशु-पक्षियों की सुरक्षा के प्रति संकल्प लेने का आवाहन कर रही है। पर्यावरण को संतुलित बनाए रखने में पशु-पक्षियों की भी अहम भूमिका है। यह पर्व पर्यावरण के प्रति जागरूकता का पर्व है। इस तरह माना जाए तो बासेड़ा पर्यावरण से जुड़ा हुआ पर्व है। 

बुधवार, 19 मार्च 2014

होली के बहाने कुछ तेरी मेरी ……

होली आई और गुजर गई …… होली कब हो ली पता ही न चला। सोचते रहे कि होली पर एक पोस्ट बनती है। विगत 5 वर्षों से होली पर ब्लॉग जगत के मित्रों की मौज लेने पोस्ट लिखते रहे। परन्तु इस वर्ष वह उत्साह मन में नहीं आया कि कोई पोस्ट का अवतरण हो जाए। ब्लॉग जगत भी गत वर्षों की अपेक्षा ठंडा ही रहा। कुछ ब्लॉग अपडेट ही मिलते रहे, जिसमें देशनामा की चमक कुछ अधिक दिखाई दी। ब्लॉग अडडा पे ठिया गाड़ने के बाद खुशदीप भाई के अपडेट निरंतर आ रहे हैं। बाकी के दैनिक यात्री साप्ताहिक, पाक्षिक या मासिक पोस्ट अपडेट पर उतर आए हैं। वर्तमान दशा को देख कर लगता है कि ब्लॉग की यही गति जारी रहेगी। कोई बहुत बड़ा उफ़ान या तूफ़ान अब आने से रहा। लगता है कि जैसे कोई बालक यूवावस्था को उलांघ कर सीधे ही वृद्धावस्था में पहुंच गया हो।

पार्श्वालोकन किया जाए तो लगता है कि हमने भी कुछ अधिक खास नहीं किया। सिर्फ़ दो पुस्तकें ही इस अवधि की उपलब्धि रही। पढना कम हो गया पर लेखन निरंतर जारी है। ब्लॉग पोस्टों की दिन दहाड़े डकैती भी एक बड़ी समस्या बन कर सामने आ रही है। कई अखबारों में मेरी पोस्टें अन्य किसी नाम से प्रकाशित दिखाई दीं तो कहीं किसी अन्य की पोस्ट पर मेरे द्वारा खींचे गए चित्र चिपके दिखाई दिए। बौद्धिक सम्पदा पर डकैती एक गंभीर मामला है। इसलिए कुछ महीनों से मैने ब्लॉग पर पोस्ट डालना कम कर दिया। आज ही सुनीता शर्मा (शानू) के दोहों की डकैती की खबर फ़ेसबुक पर मिली। सुनीता शर्मा ने बोफ़ार्स तोप का मुहाना खोल रखा था और कह रही थी कि "जब तक लेखनी की सम्पादिका माफ़ी नहीं मांगेगी तब तक यह मुद्दा जारी रहेगा।" चोरी के बाद सीनाजोरी किसी को पसंद नहीं और पसंद भी नहीं होनी चाहिए।

मुझसे भी एक गलती हुई, मैने भी कई मोर्चे खोल दिए। तीन किताबों पर एक साथ काम शुरु कर दिया। इससे समस्या यह पैदा हो गई कि समय अधिक लग रहा है। एक किताब का काम 80% होने के बाद भी कई महीनों से लटका पड़ा है और अभी उसकी तरफ़ देखने की इच्छा नहीं हो रही। मुझे ग्राऊंड रिपोर्ट करने में अधिक मजा आता है। पहले किसी स्थान का निरीक्षण-परीक्षण करो तथा उसके बाद लिखो। इससे मुझे आत्मिक संतुष्टि मिलती है और सूरज का ताप मेरी उर्जा में वृद्धि करता है। सौर उर्जा से जैविक बैटरी चार्ज हो जाती है। एक स्थान पर अधिक दिन नहीं टिकने की प्रवृत्ति चलने को मजबूर करती है। एक सप्ताह कहीं टिक गए तो लगता है कहीं और चला जाए। चलते चलते कहाँ तक चले जाएगें इसका पता नहीं।

पिछले साल 2 अक्टूबर से बाईक द्वारा गंगासागर से द्वारका तक जाने का कार्यक्रम लगभग पूर्णता की ओर था। इस यात्रा पर जाने के लिए सैकड़ों मित्र एक झटके में ही तैयार हो गए थे। अधिक लोगों को ले जा कर मैं अपने गले की फ़ांसी तो बनाना नहीं चाहता था। इसलिए सिर्फ़ 5 लोगों को सलेक्ट किया गया। जैसे ही तारीख समीप आई बाईक से ही रपटने के कारण हाथ फ़ैक्चर हो गया और मामला ठंडे बस्ते में चला गया। उसके बाद इस यात्रा सुयोग बन ही नहीं पा रहा है। अब गर्मियों में आम चुनाव ताल ठोकने लग गया। सब चुनावों में व्यस्त हैं और हमारी बाईक यात्रा धरी की धरी रह गई। उम्मीद तो है कि किसी दिन धरी हुई बाईक चल पड़ेगी। हम फ़िर एक नई यात्रा पर चल पड़ेगें।

यात्रा ठंडी पड़ी तो व्यंग्य संग्रह के प्रकाशन में लग गए। काफ़ी मेहनत के बाद व्यंग्य संग्रह प्रकाश में आ गया। जबकि इससे पूर्व मैं रामगढ़ की गाथा लिखना शुरु कर चुका था। रामगढ़ की गाथा से पहले व्यंग्य संग्रह प्रकाशित हो गया। प्रकाशन के बाद मेरी इच्छा थी कि इसका विमोचन साहित्य से जुड़े साथियों के बीच हो और दो-चार घंटे इस पर चर्चा हो। परन्तु कुछ मित्रों ने चक्रव्यूह में ऐसा फ़ांसा कि अगर अभिमन्यू होता तो गति को प्राप्त हो जाता। तब कहीं जाकर मुझे ज्ञात हुआ कि पुस्तक प्रकाशन से महत्वपूर्ण कार्य उसके विमोचन का होता है। जिसके पास मधुरस का छत्ता है वह स्थापित लेखक बन सकता है। उसे विमोचनकर्ताओं, लेखकों एवं समीक्षकों की कोई कमी नहीं।

होली बीत गई, होलियारों के फ़ाग कम ही सुनाई दिए। पहले कई जगहों से नगाड़ों की धमक सुनाई देती थी। इस वर्ष सुबह से ही सड़कें सूनी हो गई थी। कुछ मतवाले जरुर मध्य मार्ग में चित्त पड़े थे। वाहन विश्राम पर होने के कारण कोई खतरा भी नहीं था। रामदेव एन्ड कम्पनी के गुलाल ने अच्छा मार्केट पकड़ा। पर गुलाल भी खुश्बूदार और उत्तम क्वालिटी का था। लगाते ही ठंडक का अहसास होता था। अब जिसका नेटवर्क बन गया है वह मिट्टी भी बेचेगा तो बिक जाएगी। वातावरण में उष्णता बढ रही है। दो दिनों से दोपहर के वक्त पंखा चलाने के बाद भी पसीने आने लगे हैं। ऐसे में मरुप्रदेश के दौरे का कार्यक्रम बन रहा है देखते हैं गर्मी कितनी सहन होती है। ………… सभी मित्रों को होली की शुभकामनाएँ।

गुरुवार, 13 मार्च 2014

खाटू नगरी वाले श्याम बाबा

"हारे का सहारा है, बाबा खाटू श्याम हमारा है" का नारा लगाते हुए भक्त मुझे रेवाड़ी खैरथल मार्ग पर ग्राम सुबा सेहड़ी के समीप मिले। जीप पर डीजे लगा कर नर-नारियाँ हाथों में निशान (झंडा) लेकर नाचते-कूदते खाटू श्याम जी होली उत्सव मनाने जा रहे थे। खाटू श्याम जी के भक्तों की पूरी दुनिया में कोई कमी नहीं है। श्रद्धालू भक्त इन्हें सेठो का सेठ मानते हैं और भजनों द्वारा खाटू श्याम बाबा की सेवा करते हैं। राजस्थान हरियाणा में निवास करने वाले अधिकतम लोगों के कुल देवता के रुप में इनकी मान्यता है। जात-जड़ूले के साथ विशेष अवसरों पर श्याम बाबा के दर्शन करके आशीर्वाद लिया जाता है। कहा जाता है कि यहाँ से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता। व्यक्ति की मनवांछित इच्छाएँ पूर्ण हो जाती है।
श्री खाटू श्याम बाबा
राजस्थान के सीकर की दांताराम गढ़ तहसील के अंतर्गत खाटू ग्राम पंचायत में खाटू वाले श्याम विराजते हैं। ग्लोब पर खाटू श्याम मंदिर 27021'48.31" N, 75024'07.17" E पर स्थित है। परिवारिक मान्यताओं का व्यक्ति के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है इसलिए सपरिवार खाटू श्याम दर्शन करने मैं कई बार इस स्थान पर आ चुका हूँ। वर्तमान में खाटू में श्याम जी का लख्खी मेला चल रहा है। दूरस्थ प्रदेशों से लाखों यात्री बाबा के दर्शन करने आ रहे हैं। जिनमें पैदल यात्रियों की संख्या अधिक है। यह तीर्थ राजस्थान का प्रसिद्ध तीर्थ माना जाता है। वैसे तो प्रतिदिन श्रद्धालू बाबा के दर्शन करने आते हैं परन्तु माह की एकादशी को इनके दर्शन का महत्व माना गया है। प्रतिवर्ष यहाँ पर फ़ाल्गुन मास की एकादशी को विशाल मेले का आयोजन होता है। इसमें भक्त बाबा के साथ होली खेलते हैं।
श्याम बाबा की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे। वे महान पान्डव भीम के पुत्र घटोतकच्छ और नाग कन्या मौरवी के पुत्र है। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान यौद्धा थे। उन्होने युद्ध कला अपनी माँ से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अभेध्य बाण प्राप्त किये और तीन बाणधारी का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनो लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे। महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुयी। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब माँ को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने लीले घोडे, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभुमि की और अग्रसर हुये।
सर्वव्यापी कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिये उसे रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उडाई कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापिस तरकस में ही आयेगा। यिद तीनो बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनो लोकों में हाहाकार मच जायेगा। इस पर कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस पीपल के पेड के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनो खडे थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड के पत्तो की ओर चलाया। 
हरसोली के समीप पदयात्री
तीर ने क्षण भर में पेड के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होनें अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिये वर्ना ये आपके पैर को चोट पहुंचा देगा। कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस और से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराये कि वह युद्ध में जिस और से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की और अग्रसर हो। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है, और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।
ब्राह्मण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा. कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की द्डता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।
उन्होनें बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिये एक वीर्यवीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यक्ता होती है, उन्होनें बर्बरीक को युद्ध में सबसे वीर की उपाधि से अलंकृत किया, अतैव उनका शीश दान में मांगा. बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होनें अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभुमि के समीप ही एक पहाडी पर सुशोभित किया गया, जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।
खाटू श्याम मुख्य मंडप
युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी खींचाव-तनाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है अतैव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि कृष्ण ही युद्ध मे विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभुमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली दुर्गा कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।
कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि कलियुग में हारे हुये का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है। उनका शीश खाटू में दफ़नाया गया। एक बार एक गाय उस स्थान पर आकर अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वतः ही बहा रही थी, बाद में खुदायी के बाद वह शीश प्रगट हुआ, जिसे कुछ दिनों के लिये एक ब्राह्मण को सुपुर्द कर दिय गया। एक बार खाटू के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिये और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिये प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। 
मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कंवर द्वारा बनाया गया था. मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० ई० में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया. मंदिर इस समय अपने वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिष्ठापित किया गया था. मूर्ति विग्रह दूर्लभ पाषाण से निर्मित है। वर्तमान में मंदिर का संचालन श्याम मदिर कमेटी ट्रस्ट करता है जिसके अध्यक्ष रुप सिंह चौहान के वंशज. मोहन सिंह (दास) चौहान, मंत्री प्रताप सिंह चौहान एवं खजांची श्याम सिंह चौहान हैं। 
इस वर्ष मंदिर कमेंटी एवं प्रशासन की तरफ़ से आने वाले श्रद्धालुओं की सुविधा के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गई हैं। जिसमें प्रसाद वितरण, मेला मार्गदर्शिका का प्रकाशन, आवा गमन, सफ़ाई, रोशनी, संचार, अग्नि शमन, चिकित्सा, क्लोज सर्किट कैमरे, जल, भोजन, अस्थाई शौचालय, डेकोरेशन, पार्किंग, रथ यात्रा की व्यवस्था की गई है। रींगस से 16 किलोमीटर तक सभी भक्तों को दर्शन करने के लिए पैदल चलना पड़ता है। इनके लिए 6 पंक्तियों में चलने की व्यवस्था की गई है। खाटू श्याम मंदिर में पाँच दिनों के लिए पाँच लाख लीटर दूध एवं ग्यारह हजार किलो संतरों की व्यवस्था की गई है। जिन्हे भक्तों को प्रसाद के रुप में वितरित किया जाएगा।
निशानधारी श्रद्धालु पदयात्रा मार्ग में
एकादशी को निकलने वाली रथयात्रा के लिए रथ बनाने का कार्य 93 वर्षीय खुदाबख्श करते हैं। ये 63 वर्षों से बाबा का रथ सजा रहे हैं। हिन्दू भक्तों के साथ मुसलमान भक्त भी भजन गा कर बाबा की सेवा कर रहे हैं। प्रसिद्ध गीतकार लियाकत अली खान 1990 से बाबा के भजन गा रहे हैं। एकादशी पर बाबा के श्रृंगार के लिए 61 तरह के 167 किलो फ़ूलों का इंतजाम किया गया है। कलकता से आए हुए 50 कारीगर बाबा जो सजाने के लिए 24 घंटे मुस्तैद हैं। ये 24 घंटों में 17 घंटे सजावट के कार्य में संलग्न रहते हैं। फ़ूलों के साथ सजावट में ड्राय फ़्रुट के साथ अन्य फ़लों का भी प्रयोग होता है।
बाबा का दर्शन करने के लिए भक्तों को 33 किलोमीटर का सफ़र तय करना होता है, जिसमें रींगस से खाटू के 16 किलोमीटर एवं खाटू ग्राम में बनाए गए जिक जैक 17 किलोमीटर तय करके ही भक्तों को बाबा के दर्शन होते हैं । मंदिर कमेंटी द्वारा ऐसी व्यवस्था की गई है कि एक मिनट में 250 भक्त बाबा के दर्शन करते हैं। इस तरह दर्शन में 7-8 घंटे का समय लग जाता है। दर्शनार्थियों के लिए इन घटों में पेयजल एक बड़ी समस्या होती है। इसके लिए पानी के 20 लाख पाऊचों एवं 7 ट्रक पानी की बोतलों के साथ 8 स्थानों पर 3-3 हजार लीटर की टंकियों के साथ 20 पेयजल के टैंकरों की व्यवस्था की गई है। इन बीस लाख भक्तों को 4 हजार पुलिस कर्मी, 2 हजार स्काऊट एवं 5 हजार स्वयं सेवक संभालते हैं।
बुधवार को ग्यारस के दिन लगभग 10 लाख भक्तों द्वारा बाबा के दर्शन किए गए। छप्प्न भोग के साथ विशेष आरती का आयोजन किया गया। लाखों के भीड़ होने के बाद भी भक्तों के उत्साह में कोई भी कमी नहीं आती। पैरों में छाले पड़ने का दर्द बिसरा कर बाबा का जयकारा लगाते हुए भक्त दर्शनों के पश्चाता सारी पीड़ाएं भूल जाते हैं तथा दर्शनोपरांत खुशी-खुशी घर लौटते हैं। यह खाटू श्याम बाबा का चमत्कार ही है जो लाखों भक्तों को व्यवस्थित करते हैं और सभी की दुख पीड़ाएं हरते हैं। लाखों भक्तों की उमड़ती हुई भीड़ को देख कर लगता है कि इस दुनिया में ईश्वर का अस्तित्व भी है। विशाल जन समुद्र की आस्था आज भी ईश्वर के अस्तित्व पर टिकी हुई है। वरना लोग ईश्वर के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े करते हैं। यह देखो और जानो वाली बात है…… सुनी सुनाई पर क्या विश्वास करना।

बुधवार, 12 मार्च 2014

नगाड़ों का सफ़र

संतागमन के साथ प्रकृति खिल उठती है, खेतों में रबी की फ़सल के बीच खड़े टेसू के वृक्ष फ़ूलों से लद जाते हैं, मानों प्रकृति धानी परिधान पहन कर टेसू के वन फ़ूलों से अपना श्रृंगार कर वसंत का स्वागत कर रही हो। टेसू के फ़ूलों से प्रकृति अपना श्रृंगार कर पूर्ण यौवन पर होती है तथा वातावरण में फ़ूलों की महक गमकते रहती है। पतझड़ का मौसम होने के कारण पहाड़ों पर टेसू के फ़ूल ऐसे दिखाई देते हैं जानो पहाड़ में आग लग गई हो। विरही नायिका के हृदय को भी अग्निदग्ध करने में यह ॠतू कोई कसर बाकी नहीं रखती। इसी समय होली का त्यौहार आता है और दूर कहीं नगाड़ों के बजने की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। साथ ही होली के फ़ाग गीत वातावरण को मादक बनाने में सहायक होते हैं।
टेसू (शुक चंचु) के फ़ूल
"अयोध्या में राम खेलैं होरी, जहाँ बाजे नगाड़ा दस जोड़ी" फ़ाग गीत के साथ नगाड़ों की धमक सांझ होते ही चहूं ओर सुनाई देती है। होली के त्यौहार का स्वरुप बदलते जा रहा है लेकिन गावों में परम्पराएं कायम हैं। नगाड़ा प्राचीन वाद्य है, जिसे दुदूम्भि, धौरा, भेरी, नक्कारा, नगाड़ा, नगारा, दमदमा इत्यादि नामों से भारत में जाना जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल में विशेषकर नगाड़ा या नंगाड़ा कहा जाता है। संस्कृत की डम धातू का अर्थ ध्वनि होता है। इसलिए इसे दमदमा भी कहा जाता है। इसका अर्थ लगातार या मुसलसल होता है। 
कोकड़ा
शनिचरी बाजार में मेरी मुलाकात नगाड़ों की दुकान सजाए मन्नु लाल हठीले से होती है, नगाड़े बनाने एवं बेचने में इनकी उत्मार्ध बुधकुंवर भी हाथ बटाती दिखाई देती है। मन्नु लाल मिट्टी की हांडियों पर चमड़ा कसते हैं और बुधकुंवर चमड़े को विभिन्न रंगों से सजाती है। इनकी दुकान में 80 रुपए से लेकर 1200 रुपए तक के नगाड़े की जोड़ियाँ विक्रय के लिए रखी हुई हैं। पूछने पर बताते हैं कि इनका पैतृक घर डोंगरगढ में है। गत 20 वर्षों से ये नगाड़ा बनाने एवं बेचने का काम करते हैं। होली के अवसर पर विशेषकर नगाड़ों की बिक्री होती है। बाकी दिनों में जूता चप्पल बेचने का काम करते हैं।
मन्नु लाल हठीले एवं बुधकुंवर
छत्तीसगढ़ अंचल में नगाड़े बनाने का काम विशेषत: चमड़े का व्यवसाय करने वाली मोची, मेहर और गाड़ा जातियाँ करती हैं। फ़ूलकुंवर कहती है कि पहले शादी के अवसर पर दफ़ड़ा एवं निशान बाजा बहुत बिकता था, परन्तु धुमाल बाजा आने के कारण इनकी बिक्री कम हो गई। दफ़ड़ा निशान बजाने वाले भी अब कम ही हैं। होली के बाद नगाड़ों की बिक्री पर विराम लग जाता है, महीनें में कोई एकाध जोड़ी नगाड़ा बिक्री होता है, वह भी कबूलना एवं बदना वाले लोग देवता-धामी मंदिर आदि में चढाने के लिए ले जाते हैं। कबुलना नगाड़े इन नगाड़ों से बड़े बनते हैं। 
नगाड़ों पर कलमकारी
नगाड़ा बनाने के लिए मिट्टी की हाँडी के साथ चमड़े का उपयोग होता है। मन्नु लाल बताते हैं कि नगाड़े की जोड़ी में दो सुर होते हैं, जिसे "गद" और "ठिन" कहते हैं। इसका निर्माण बैल या गाय के चमड़े से होता है। पशु के शीर्ष भाग का चमड़ा पतला होता है जिससे "ठिन" एवं पार्श्व भाग का चमड़ा मोटा होता है इससे "गद" नगाड़ा बनाया जाता है। हाँडी पर चमड़ा मढने के लिए भैंसे के चमड़े की रस्सियों उपयोग में लाई जाती हैं। तभी नगाड़ों से "गद" एवं "ठिन" की ध्वनि निकलती है। छोटा नगाड़ा बनाने के लिए बकरा-बकरी और अन्य जानवरों का चमड़ा उपयोग में लाया जाता है। इसे बजाने के लिए दो डंडियों का इस्तेमाल होता है जिन्हें स्थानीय बोली में "बठेना" कहा जाता है। नगाड़े की वास्तविक ध्वनि का आनंद गाय-बैल के चमड़े से मढे नगाड़े में ही आता है। 
नगाड़े बजा कर "गद" एवं "ठिन" ध्वनि का परिक्षण
मन्नुलाल कहते हैं कि होली के समय नगाड़े बेचकर 10 -15 हजार रुपए बचा लेते हैं। मंह्गाई बहुत बढ गई है, कच्चे माल का मूल्य भी आसमान छू रहा है। पहले एक ट्रक माल लेकर आते थे, वर्तमान में एक मेटाडोर ही नगाड़े लेकर आए हैं, किराया भी बहुत बढ गया। साथ ही रमन सरकार की तारीफ़ करते हुए कहते हैं कि राशन कार्ड में चावल, गेहूं, नमक, चना इत्यादि मिलने से गुजर-बसर अच्छे से चल रहा है। वरना जीवन भी बहुत कठिनाईयों से चलता था। इसी बीच फ़ूलकुंवर कहती है कि उनका स्मार्ट कार्ड नहीं बना है, आधार कार्ड बन गया है। इतना कहकर वह चूल्हे पर भोजन बनाने की तैयारी करने लगती है। 
नगाड़े संवारती बुध कुंवर
इतिहास से ज्ञात होता है कि नगाड़ा प्राचीन संदेश प्रणाली का महत्वपूर्ण यंत्र माना जाता है। इसके माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश शीघ्र ही पहुंचाया जाता था एवं नगाड़ा का प्रयोग सूचना देने में किया जाता था। जब किसी सरकारी आदेश को जनता तक प्रसारित करना होता था तो नगाड़ा बजाकर संदेश सुनाया जाता था। युद्ध काल में सेना के प्रस्थान के समय नगाड़े बजाए जाते थे, मुगलों के दरबार में फ़ैसले नगाड़ा बजा कर सुनाए जाते थे तथा किसी की जायदाद कुर्की करने की सूचना देने का कार्य भी नगाड़ा बजा कर किया जाता था।
पतझड़ का मौसम खड़ुवा के जंगल में
वर्तमान में नगाड़ा मंदिरों में आरती के समय बजाया जाता है या फ़िर होली के अवसर पर बजाया जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल में सामूहिक होलिका दहन स्थल पर फ़ाग गीतों के साथ इसका उपयोग किया जाता है। नगाड़ा बजता है तो गायक का उत्साहवर्धन होता है और सुर ताल बैठने पर फ़ाग गीत रात के सन्नाटे को चीरते हुए दूर तक सुनाई देते हैं। नगाड़ों की ध्वनि के साथ वसंत का रंग सारे वातावरण पर छा जाता है। होली समीप है और नगाड़ों की ध्वनि मन को मोह रही है। आस पास बजते नगाड़े का होली का स्वागत कर रहे हैं …… डम डम डम डम डमक डम डम…………

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शनिवार, 1 मार्च 2014

छत्तीसगढ़ का मधुबन धाम

त्तीसगढ़ अंचल में फ़सल कटाई और मिंजाई के उपरांत मेलों का दौर शुरु हो जाता है। साल भर की हाड़ तोड़ मेहनत के पश्चात किसान मेलों एवं उत्सवों के मनोरंजन द्वारा आने वाले फ़सली मौसम के लिए उर्जा संचित करता है। छत्तीसगढ़ में महानदी के तीर राजिम एवं शिवरीनारायण जैसे बड़े मेले भरते हैं तो इन मेलों के सम्पन्न होने पर अन्य स्थानों पर छोटे मेले भी भरते हैं, जहाँ ग्रामीण आवश्यकता की सामग्री बिसाने के साथ-साथ खाई-खजानी, देवता-धामी दर्शन, पर्व स्नान, कथा एवं प्रवचन श्रवण के साथ मेलों में सगा सबंधियों एवं इष्ट मित्रों से मुलाकात भी करते है तथा सामाजिक बैठकों के द्वारा सामाजिक समस्याओं का समाधान करने का प्रयास होता है। इस तरह मेला संस्कृति का संवाहक बन जाता है और पीढी दर पीढी सतत रहता है।
मधुबन धाम का गुगल मैप
कुछ स्थानों पर मेले स्वत: भरते हैं तो कुछ स्थानों पर ग्रामीणों के प्रयास से लघु रुप में प्रारंभ होकर विशालता ग्रहण कर लेते हैं। ऐसा ही एक स्थान छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले स्थित कुरुद तहसील अंतर्गत रांकाडीह ग्राम हैं। यहाँ 35 वर्षों से मधुबन धाम मेला फ़ाल्गुन शुक्ल पक्ष की तृतीया से एकादशी तक भरता है। मधुबन धाम रायपुर व्हाया नवापारा राजिम 61 किलोमीटर एवं रायपुर से व्हाया कुरुद मेघा होते हुए 69 किलोमीटर तथा ग्लोब पर  20040’4986” उत्तर एवं 81049’4262” पूर्व पर स्थित है।
मधुबन धाम का रास्ता और नाला
मधुबन लगभग 20 हेक्टेयर भूमि पर फ़ैला हुआ है। इस स्थान पर महुआ के वृक्षों की भरमार होने के कारण मधुक वन से मधुबन नाम रुढ हुआ होगा। यह स्थान महानदी एवं पैरी सोंढूर के संगम स्थल राजिम से पहले नदियों के मध्य में स्थित है। राजिम कुंभ स्थल से हम नयापारा से भेंड्री, बड़ी करेली होते हुए मधुबन धाम पहुंचे। यहाँ पर छत्तीसगढ़ शासन द्वारा मेले के दौरान संतों के निवास के लिए संत निवास नामक विश्राम गृह बनाया हुआ है। आस पास के क्षेत्र में चूना से चिन्ह लगाए होने अर्थ निकला कि मेले की तैयारियाँ प्रारंभ हो गई हैं।
बोधन सिंह साहू खैरझिटी वाले
विश्राम गृह का अवलोकन करने के पश्चात मेरी मुलाकात खैरझिटी निवासी 82 वर्षीय बोधन सिंह साहू से होती है। राम-राम जोहार के पश्चात उन्हें कुर्सी देने पर वे कहते हैं - 35 वर्षों से मैं मधुबन क्षेत्र में कुर्सी तख्त इत्यादि पर नहीं बैठता। भूमि पर ही बैठता हूँ और नंगे पैर ही चलता हूँ। ईश्वरीय कृपा से आज तक मेरे पैर में एक कांटा भी नहीं गड़ा है।" वे ईंट की मुंडेर पर बैठ जाते हैं और हमारी चर्चा शुरु हो जाती है। मेला जिस जमीन पर भरता है वह जमीन रांकाडीह गाँव की है। मेरे पूछने पर वो कहते हैं कि इस गाँव में कोई भी डीही नहीं है। जिसके कारण इस गांव का नाम रांकाडीह पड़ा हो।
संत निवास मधुबन धाम
मेले के विषय में मेरे पूछने पर कहते हैं कि - " मेरा गांव खैरझिटी नाले के उस पार है। हमारे गांव में गृहस्थ संत चरणदास महंत रहते थे। वे तपस्वी एवं योगी थे। उनके मन आया कि मधुबन में मंदिर स्थापना होनी चाहिए, रांकाडीह के जमीदार से भूमि मांगने पर उसने इंकार कर दिया। इसके पश्चात वे घर लौट आए। एक दिन उनकी पत्नी ने चावल धो कर सुखाया था और गाय आकर खाने लगी। महंत ने गाय को नहीं भगाया और उसे चावल खाते हुए देखते रहे। यह दृश्य देखकर उनकी पत्नी आग बबूल होकर बोली - आगि लगे तोर भक्ति मा। तो महंत ने कहा कि - मोर भक्ति मा आगि झन लगा। मैं हं काली रात 12 बजे अपन धाम म चल दुहूँ। (मेरी भक्ति में आग मत लगा, मैं कल रात 12 बजे अपने धाम को चला जाऊंगा। अगले दिन रात 12 बजे बाद महंत ने बैठे हुए प्राणोत्सर्ग कर दिया। बात आई गई हो गई।
मधुबन धाम के मधुक वृक्ष
बोधन सिंह आगे कहते हैं कि - पहले यह घना जंगल था तथा जंगल इतना घना था कि पेड़ों के बीच से 2 बैल एक साथ नहीं निकल सकते थे। महंत के जाने के बाद यहां पर कुछ लोगों को बहुत बड़ा लाल मुंह का वानर दिखाई दिया। वह मनुष्यों जैसे दो पैरों पर खड़ा दिखाई देता था। देखने वालों ने पहले उसे रामलीला की पोशाकधारी कोई वानर समझा, लेकिन वह असली का वानर था। उसके बाद हम सब गांव वालों ने इस घटना पर चर्चा की। खैरझिटी गाँव में अयोध्या से बृजमोहन दास संत पधारे। उन्होने यहाँ यज्ञ करने की इच्छा प्रकट की। हम सबने जाकर रांकाडीह के गौंटिया से यज्ञ में सहयोग करने का निवेदन किया तो उन्होने पूर्व की तरह नकार दिया। लेकिन हम सब ने जिद करके यहाँ यज्ञ करवाया जो 9 दिनों तक चला। तब से प्रति वर्ष यहाँ यज्ञ के साथ मेले का आयोजन हो रहा है।
मधुबन धाम के विभिन्न समाजों के मंदिर
रांकाडीह निवासी शत्रुघ्न साहू बताते हैं कि "इस मेले में 11 ग्रामों खैरझिटी, अरौद, गिरौद, कमरौद, सांकरा, भोथीडीह, रांकाडीह, चारभाटा, कुंडेल, मोतिनपुर, बेलौदी के निवासी हिस्स लेते हैं। मेला स्थल पर विभिन्न समाजों के संगठनों ने निजी मंदिर एवं धर्मशाला बनाई हैं। साहू समाज का कर्मा मंदिर, देशहा सेन समाज का गणेश मंदिर, निषाद समाज का राम जानकी मंदिर, आदिवासी गोंड़ समाज का दुर्गा मंदिर, निर्मलकर धोबी समाज का शिव मंदिर, झेरिया यादव समाज का राधाकृष्ण मंदिर, कोसरिया यादव समाज का राधाकृष्ण मंदिर, लोहार समाज का विश्वकर्मा मंदिर,  कंड़रा समाज का रामदरबार मंदिर, मोची समाज का रैदास मंदिर, कबीर समाज का कबीर मंदिर, गायत्री परिवार का गायत्री मंदिर, कंवर समाज का रामजानकी मंदिर, मधुबन धाम समिति द्वारा संचालित उमा महेश्वर एवं हनुमान मंदिर, लक्ष्मीनारायण साहू बेलौदी द्वारा निर्मित रामजानकी मंदिर, स्व: मस्त राम साहू द्वारा निर्मित हनुमान मंदिर स्थापित हैं।"
सरोवर में विराजे हैं भगवान कृष्ण
मधुबन में मेला आयोजन के लिए मधुबन धाम समिति का निर्माण हुआ है, यही समिति विभिन्न उत्सवों का आयोजन करती है। फ़ाल्गुन मेला के साथ यहां पर चैत नवरात्रि एवं क्वांर नवरात्रि का नौ दिवसीय पर्व धूमधाम से मनाया जाता है तथा दीवाली के पश्चात प्रदेश स्तरीय सांस्कृति मातर उत्सव मनाया जाता है, जिसकी रौनक मेले जैसी ही होती है। चर्चा आगे बढने पर बोधन सिंह बताते हैं कि - मधुबन की मान्यता पांडव कालीन है, पाँच पांडव में से सहदेव राजा ग्राम कुंडेल में विराजते हैं और उनकी रानी सहदेई ग्राम बेलौदी में विराजित हैं, यहाँ से कुछ दूर पर महुआ के 7 पेड़ हैं , जिन्हें पचपेड़ी कहते हैं। इन पेड़ों को राजा रानी के विवाह अवसर पर आए हुए बजनिया (बाजा वाले) कहते हैं तथा मधुबन के सारे महुआ के वृक्षों को उनका बाराती माना जाता है।
हनुमान मंदिर एवं यज्ञ शाला
ऐसी मान्यता भी है कि भगवान राम लंका विजय के लिए इसी मार्ग से होकर गए थे। इस स्थान को राम वन गमन मार्ग में महत्वपूर्ण माना जाता है। मेला क्षेत्र के विकास के लिए वर्तमान पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री अजय चंद्राकर ने अपने पूर्व विधायक काल विशेष सहयोग किया है। तभी इस स्थान पर शासकीय राशि से संत निवास का निर्माण संभव हुआ। मधुबन के समीप ही नाले पर साप्ताहिक बाजार भरता है। सड़क के एक तरफ़ शाक भाजी और दूसरी मछली की दुकान सजती है। होटल वाले ने बताया कि मेला के दिनों में यहां पर मांस, मछरी, अंडा, मदिरा आदि का विक्रय एवं सेवन कठोरता के साथ वर्जित रहता है। यह नियम समस्त ग्रामवासियों ने बनाया है। यदि कोई इस स्थान पर इनका सेवन करता है तो उसे बजरंग बली के कोप का भाजन बनना पड़ता और विक्रय करने वाले को पुलिस पकड़ लेती है।
शत्रुघ्न साहू मधुबन धाम समिति पदाधिकारी
आस पास से सभी ग्राम साहू बाहुल्य हैं, गावों की कुल आबादी में 75% तेली जाति की हिस्सेदारी है। हम मंदिरों के चित्र लेते हैं, बाजार क्षेत्र में मेले में दुकान लगाने के लिए आबंटन होने से काफ़ी शोर गुल हो रहा था। हनुमान मंदिर एवं यज्ञ शाला के चित्र लेने के पश्चात हम तालाब में स्थित कालिया मर्दन करते हुए श्रीकृष्ण की प्रतिमा का चित्र लेते पहुंचते हैं, तभी वहाँ पर गायों का झुंड आ जाता है, इससे हमारी फ़ोटोग्राफ़ी में चार चाँद लग जाते हैं, कृष्ण प्रतिमा के पार्श्व में गायें चरती हुई दिखाई देती हैं। कृष्ण का गायों के साथ जन्म जन्म का संबंध है। इसलिए गायें भी अपनी भूमिका निभाने चली आती हैं। तालाब में पचरी बनाने का कार्य जारी है। मेले को देखते हुए तैयारियाँ युद्ध स्तर पर हो रही हैं। आगामी फ़ाल्गुन शुक्ल की तृतीया (3 मार्च) से एकादशी (11 मार्च) तक मेला सतत चलेगा। हम मधुबन की सैर करके वापस राजिम कुंभ होते हुए घर लौट आए। 

(डिस्क्लैमर - सभी चित्र एवं लेखन सामग्री लेखक की निजी संपत्ति हैं, इनका बिना अनुमति उपयोग करना कापीराईट के अधीन अपराध माना जाएगा।)