शुक्रवार, 18 दिसंबर 2015

भाजी तेरे कितने रुप : छत्तीसगढ़


छत्तीसगढ के भोजन में "भाजी" (पत्ते की सब्जी) का स्थान महत्वपूर्ण है। जितने प्रकार की भाजी का प्रयोग भोजन में छत्तीसगढ़वासी करते है, संभवत: भारत के अन्य किसी प्रदेश में नहीं होता होगा। घर के पीछे छोटी सी बखरी "बाड़ी" में मौसम के अनुसार भाजियों का उत्पादन हो जाता है। जब कोई साग न हो तो बाड़ी का एक चक्कर लगाने के बाद भोजन के लिए साग उपलब्ध हो जाता है। जिसने भाजी का स्वाद ले लिया हो, वह जीवन भर नहीं भूल सकता। कभी-कभी सोचता हूँ कि छत्तीसगढ की भाजियों का दस्तावेजीकरण होना चाहिए क्योंकि वर्षा ॠतु में स्वत: उगने वाली बहुत सारी भाजियाँ अब लुप्त होते जा रही हैं, जिन्हें बचपन में देखा और खाया था, वो अब दिखाई नहीं देती।

अमारी भाजी का फूल 
छत्तीसगढ़ में बोहार भाजी (लसोड़े के वृक्ष के पत्ते) मुनगा भाजी (सहजन के पत्ते) आदि वृक्ष के पत्तों की भाजी, पोई भाजी, कुम्हड़ा भाजी, कांदा भाजी आदि बेल (नार,लता) के पत्तों की भाजी, लाल भाजी, चौलाई, पालक, भथुआ, चेच भाजी,सरसों, पटवा भाजी, चना भाजी, मेथी भाजी, तिवरा भाजी, जड़ी (खेड़ा - इसमें पौधे का सर्वांग भाजी में उपयोग किया जाता है) भाजी, अमारी भाजी, कुसुम भाजी, मुरई (मूली) भाजी, चरोटा भाजी, प्याज भाजी इत्यादि पौधों के पत्तों की भाजी तथा तिनपनिया, चुनचुनिया, करमत्ता इत्यादि भाजी जल में उत्पन्न होती हैं। यहां पर कुछ ही भाजियों के नाम दिए गए हैं। इसके अतिरिक्त फ़ूलों से भी भाजी बनाई जाती है। ॠतु अनुसार भाजियों का सेवन किया जाता है, किसी-किसी भाजी को पकाने में मही (छाछ) या खट्टे की मुख्य भूमिका होती है। इसे दाल के साथ भी पकाया जाता है।
मूली भाजी 

मैदानी क्षेत्र के अलावा वन क्षेत्र की भाजियों के कई प्रकार पाए जाते हैं। गर्मी के दिनों में पत्तों को सुखाकर इनका प्रयोग बरसात के दिनों में भी किया जाता है।बस्तर से लेकर सरगुजा अंचल तक दैनिक जीवन में उपयोग में आने वाली भाजियों का दस्तावेजीकरण किया जाए तो इनकी संख्या हजार तक तो पहुंच सकती है। इनमें औषधीय तत्वों की प्रचुरता रहती है। इनका औषधिय महत्व भी बहुत अधिक है, ॠतुओं के अनुसार भाजियों का सेवन स्वास्थवर्धक होता है तथा मानव शरीर के स्वस्थ रहने योग्य आवश्यक, प्रोटीन, विटामिन, खनिज, लवण की पूर्ती इनके द्वारा सहज ही हो जाती है। इसके अतिरिक्त वृक्ष या पौधे से प्राप्त होने वाले फ़ल-फ़ूल-कंद से बनने वाले साग भी है।
केऊ  कन्द 
मूली का मौसम होने के कारण वर्तमान में घर-घर में मूली भाजी पकती है। गांव या मोहल्ले में किसी के घर मूली की भाजी पक रही होती है दूर से ही पता चल जाता है। गांव-गांव परिव्राजक की तरह घूम कर बुजूर्गों से भाजियों के विषय में चर्चा करते हुए, स्वाद लेकर, रेसिपी जमा करते हुए इनका दस्तावेजीकरण हो सकता है, जो बड़ा ही श्रम साध्य कार्य है। कोई शोधार्थी इस विषय पर शोध भी कर सकता है जिससे विलुप्त हो रही भाजियां भी सूचिबद्ध हो सकती हैं। भाजियों का राजा बोहार भाजी को माना जा सकता है। क्योंकि जब गर्मी के दिनों में इसका सीजन होता है तो यह सबसे मंहगी (डेढ़ सौ से लेकर दो सौ रुपए किलो तक बिकती है) बिकती है। छत्तीसगढ़ की भाजियों की कथा अनंत है, जिसने इनका स्वाद ले लिया वह जीवन भर नहीं भूल सकता। यही विशेषता है, छत्तीसगढ़ की भाजियों की। बचपन में कहते-सुनते थे, आलू, भांटा, मुरई, बिन पूंछी के चिरई…

गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

छत्तीसगढ़ का शाही साग : जिमीकंद

दीपावली का त्यौहार समीप आते ही छत्तीसगढ़ में लोग बाड़ी-बखरी की भूमि में दबे जिमीकंद की खुदाई शुरु कर देते हैं। किलो दो किलो जिमीकंद तो मिल ही जाता है। वैसे भी वनांचल होने के कारण छत्तीसगढ़ में बहुतायत में पाया जाता है। इसका प्रयोग भोजन में मुख्यत: सब्जी के रुप में तो किया ही जाता है इसके साथ गोवर्धन पूजा के दिन पशुओं को भी खिचड़ी में कोचई के साथ मिलाकर खिलाया जाता है। अन्य कई प्रदेशों में दीवाली के दिन इसकी सब्जी बनाने की परम्परा है, जिसके पीछे मान्यता है कि दीपावली के दिन जिमीकंद की सब्जी खाने से आदमी अगले जन्म में छछुंदर नहीं बनता। इसके औषधीय गुणों के कारण धार्मिक त्यौहार से जोड़ दिया गया है, जिससे व्यक्ति कम से कम वर्ष में एक दो बार इसका सेवन कर ले।


भारत के अन्य प्रदेशों में इसे सूरन, ओल, जिमीकंद इत्यादि नामों से जाना जाता है। गुजरात में तो मुझे सूरनवाला सरनेम भी देखने मिला। देशी जिमीकंद को खाने के बाद खुजली होने के कारण सब्जी बनाने के लिए लम्बी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है। परन्तु अब हाईब्रीड जिमीकंद आ गए हैं जिनके खाने या काटने से खुजली नहीं होती। दीवाली के समय यह बाजार में बड़ी मात्रा में दिखाई देता है। यह खोदकर बाहर निकालने के बाद भी साल भर तक खराब नहीं होता। इसे एकमुश्त खरीद कर घर में रखा जा सकता है और बरसात में भूमि में गाड़ने के बाद दीवाली तक यह बड़ा हो जाता है।

आयुर्वेद में इसे स्वास्थ्यकारक बताया है, एक तरह से यह औषधि का ही काम करती है। कहा जाता है कि ठंड के दिनों में प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम इसका दो बार सेवन करना ही चाहिए, जिससे कफ़ जनित रोगों का शमन होता है और ठंड से होने वाली बीमारियों से बचा जा सकता है। यह कफ़ एवं सांस की समस्या में भी कारगर औषधि के रुप में कार्य करता है। इसमें फाइबर, विटामिन सी, विटामिन बी 6, विटामिन बी1, फोलिक एसिड और नियासिन होता है। साथ ही मिनरल जैसे, पोटैशियम, आयरन, मैगनीशियम, कैल्‍शियम और फॉसफोरस पाया जाता है।

इसमें पाए जाने वाले विटामिन, खनिज आदि औषधि तत्वों के कारण ग्रामीण अंचल में प्रचलन है। इसकी सब्जी दही, टमाटर, ईमली आदि की खटाई के साथ बनाई जाती है, जो इसके खुजलीकारक तत्वों को खत्म कर देती है। विशेषकर दही के साथ बनाई गई सब्जी का आनंद ही कुछ और है। मुझे इसकी सब्जी बहुत ही पसंद है, वैसे भी इसकी सब्जी को शाहीसाग की पदवी मिली हुई है। इसकि सब्जी बनाने के लिए सुबह प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है, तब जाकर रात को सब्जी मिल पाती है। चलिए जिमीकंद की सब्जी बनाकर खाईए और स्वस्थ रहने का आनंद लीजिए…।

बुधवार, 16 दिसंबर 2015

प्राचीन मंदिरों के वास्तु शिल्प में नागांकन

सर्प एवं मनुष्य का संबंध सृष्टि के प्रारंभ से ही रहा है। यह संबंध इतना प्रगाढ एवं प्राचीन है कि धरती को शेषनाग के फ़न पर टिका हुआ बताया गया है। इससे जाहिर होता है कि धरती पर मनुष्य से पहले नागों का उद्भव हुआ। वैसे भी नाग को काल का प्रतीक माना जाता है। जो शिव के गले में हमेशा विराजमान रहता है। कहा गया है - काल गहे कर केश। इसके पीछे मान्यता है कि काल धरती के जीवों का कभी पीछा नहीं छोड़ता और हमेशा उसके गले में बंधा रहता है। इस मृत्यू के प्रतीक को मनुष्य ने हमेशा अपने समक्ष ही रखा और मानव जीवन में भी महत्वपूर्ण स्थान दिया। 
राजा रानी मंदिर के द्वार पर स्थापित नागप्रहरी - भुवनेश्वर उड़ीसा
शासकों के कुल भी नागों से चले, नागवंशी, छिंदक नागवंशी, फ़णीनागवंशी इत्यादि राजकुलों की जानकारी हमें मिलती है। इसके साथ ही हमें मंदिरों के द्वार शाखा एवं भित्तियों पर अधिकतर नाग-नागिन का अंकन मिलता है। वासुकि नाग एवं पद्मा नागिन का पाताल लोक के राजा-रानी के रुप में वर्णन मिलता है। नागों को एक दूसरे से गुंथित या नाग-वल्लरी के रुप में दिखाया जाता जाता है भारतीय शिल्पकला में इन्हें देवों के रुप में प्रधानता से स्थान दिया जाता है। इसके पीछे मान्यता है कि मंदिर के प्रवेश के समय इनके दर्शन करना शुभ एवं सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।
राजीवलोचन मंदिर राजिम छत्तीसगढ़ के मंडप स्तंभ पर अंकित नागपाश

प्रागैतिहासिक शैलचित्र कला में नाग का चित्रण, मोहनजोदड़ो, हड़प्पा से प्राप्त मुद्राओं पर नागों का अंकन हुआ है, जो नागपूजा का प्राचीनतम प्रमाण माना जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि मानव प्राचीन काल से नागपूजा कर रहा है। नाग का भारतीय धर्म एवं कला से घनिष्ठ संबंध रहा है। कहा जाए तो नागपूजा हड़प्पा काल से लेकर वर्तमान काल तक चली आ रही है। इसके पुरातात्विक एवं साहित्य प्रमाण प्रचुरता में मिलते हैं। मंदिरों की द्वार शाखाओं पर नागाकृतियों का उत्कीर्ण किया जाना, विष्णु की शैय्या के रुप में, शिव के गले में, बलराम एवं लक्ष्मण को शेषावतार के रुप में प्रदर्शित किया जाना। 

राजीवलोचन मंदिर राजिम छत्तीसगढ़ के मंडप के द्वार शीर्ष पर शेष शैया
वासुकिनाग का समुद्र मंथन के साथ उल्लेख, वराहावतार का प्रतिमा के साथ नाग का आबद्ध होना, भारतीय संस्कृति में नागपूजा एवं उसके महत्व को प्रदर्शित करता है। जैन परम्परा में भी तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं सुपार्श्वनाथ के साथ पांच फ़न एवं सप्तफ़न के नाग लांछन का प्रयोग किया जाता है, जो जैन संस्कृति में नाग के महत्व को उजागर करते हैं।
छत्तीसगढ़ के प्राचीन नगर सिरपुर से उत्खनन में प्राप्त जैन तीर्थांकर पार्श्वनाथ की प्रतिमा

पूर्व मध्यकाल एवं उत्तरमध्यकाल से लेकर आज तक लगभग प्रत्येक ग्राम में नागदेवताओं की किसी न किसी रुप में पूजा की जाती है। इसकी प्रतिमाएं आज भी गांवों में मिलती है तथा नागपंचमी का त्यौहार तो वर्ष में एक बार मनाया ही जाता है। इस विषधर जीव की जितने मुंह उतनी कहानियां मिलती हैं। शायद मनुष्य ने भयभीत होकर इस काल के प्रतीक की पूजा प्रारंभ की होगी और कई परिवारों में इसे कुलदेवता के रुप में मान्यता मिली हुई है, मनुष्य आज तक इसके महत्व एवं उपस्थिति के साथ बल को नकार नहीं सका है।

मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

पुरातत्व शास्त्र की वर्णमाला :मृदा भाण्ड

भ्यता के विकास के साथ मानव चरणबद्ध रुप से दैनिक कार्य में उपयोग में आनी वाली वस्तुओं का निर्माण करता रहा है। इनमें भाण्ड प्रमुख स्थान रखते हैं। जिन्हें वर्तमान में बरतन कहा जाने लगा है। प्राचीन काल में मानव मिट्टी के बरतनों का उपयोग करता था। किसी भी प्राचीन स्थल से उत्खनन के दौरान लगभग सभी चरणों से मिट्टी के बर्तन प्राप्त होते हैं तथा उत्खनन स्थल पर एक बहुत बड़ा यार्ड इनसे बन जाता है। इस यार्ड में इन्हें वैज्ञानिक अन्वेषण के लिए क्रमानुसार रखा जाता है। छत्तीसगढ़ के डमरु में उत्खनन में अन्य पॉटरी के साथ कृष्ण लोहित मृदा भांड भी प्राप्त हुए। इन्हें देखकर मुझे ताज्जुब हुआ कि एक ही बरतन एक तरफ़ काला और एक तरफ़ लाल दिखाई दे रहा है। वैसे तो इन बरतन को रंग कर यह रुप दिया जा सकता था, परन्तु इन बरतनों को लाल और काला रंग पकाने के दौरान ही दिया गया था। 
मृदाभाण्ड बनाने की तकनीक का निरीक्षण करते हुए लेखक
कुम्हारों के द्वारा वर्तमान में किस तरह के बरतन बनाए एवं पकाए जा रहे हैं यह देखने के लिए हम समीप के गाँव में कुम्हार के भट्टे पर निरीक्षण करने के लिए गए। वहाँ कुम्हार से चर्चा की और उसके भाण्डों को भी देखा। इन भाण्डों में उत्खनन में प्राप्त भाण्डों जैसी स्निग्धता, चमक एवं मजबूती नहीं थी इससे साबित हुआ कि प्राचीन काल में भाण्ड निर्माण की प्रक्रिया वर्तमान से उन्नत थी और निर्माता भी समाज में उच्च स्थान रखता था। तभी तो सिरपुर स्थित तीवरदेव विहार के मुख्यद्वार की शाखा में शिल्पकार ने चाक सहित कुम्हार को स्थान दिया है। यह उनके सामाजिक मह्त्व को बताता है। 
मृदा भाण्ड पकाने की वर्तमान तकनीकि
पिछली शताब्दी में प्राचीन स्थलों का अन्वेषण एवं उत्खनन का लक्ष्य मात्र मुल्यवान एवं कलात्मक सामग्री की खोज करना था। मृदा भांडों एवं उनके टुकड़ों की गणना व्यर्थ समझी जाती थी। प्राय: उत्खननकर्ता इन्हें फ़ेंक देते थे अथवा इतना अनुमान लगाते थे कि उस समय की सभ्यता में लोग किन-किन बर्तनों का उपयोग करते थे, इनसे उस युग का आर्थिक जीवन जोड़ते थे, परन्तु उत्खनन की दृष्टि से इनका कोई महत्व नहीं माना जाता था। 
उत्खनन में पाप्त मृदाभाण्ड के टुकड़े - डमरु जिला बलौदाबाजार छत्तीसगढ़
सर्वप्रथम फ़्लिंडर्स पेट्री ने मिश्र में उत्खनन कार्य करते हुए अनुभव किया कि प्रत्येक काल में विभिन्न प्रकार के कौशल से निर्मित मृदाभांडों का प्रचलन रहता है और परम्परानुराग के कारण शीघ्र ही आमूल परिवर्तन नहीं होता। चर्म एवं काष्ठ की सामग्रियाँ जहां मिट्टी में दबे होने के कारण नष्ट हो जाती हैं, वहीं भांड हजारों वर्षों तक मिट्टी में दबे होने के बाद भी नष्ट नहीं होते। अत: पुरातत्व के अध्ययन में इनका महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता है। पेट्री की इस दृष्टि ने पुरातन सभ्यताओं के अध्ययन में क्रांति ला दी। तब से मृदा पात्रों एवं भाण्डों का अध्ययन पुरातत्व शास्त्र का एक आवश्यक अंग माना जाने लगा।
कुम्हार के आवे पर- डॉ शिवाकांत बाजपेयी, डॉ जितेन्द्र साहू एवं करुणा शंकर शुक्ला
आज मृदाभाण्डों को पुरातत्व शास्त्र की वर्णमाला कहा जाता है। जिस प्रकार किसी वर्णमाला के आधार पर ही उसका साहित्य पढा जाता है, उसी प्रकार मृदा भाण्ड अपने काल की सभ्यता सामने लाते हैं। इनके निर्माण की एक विशिष्ट शैली का प्रचलन एक काल का द्योतक होता है। उनको एक विशिष्ट शैली में निर्मित एवं रंगों में वेष्टित करते हैं। जैसे कभी अंगुठे के प्रयोग से बर्तन बने तो कभी मिट्टी की बत्तियों से बनाए गए तो कभी चाक से बनाए गए। यह विकास अलग-अलग काल को दर्शाता है तथा बरतनों के आवश्यकतानुसार नवीन प्रकार भी दिखाई देते हैं।
पॉटरी यार्ड - तरीघाट उत्खनन जिला दुर्ग छत्तीसगढ़
रंगों के संबंध में हम देखते हैं कि भारत में कभी कृष्ण लोहित मृदा भांड बने तो कभी चित्रित धूसर बने, तो कभी कृष्णमार्जित एवं कृष्णरंजित लोहित मृदाभांड बने। ये सारे न तो एक समय में बने है और न एक ही लोगों द्वारा बनाए गए हैं। अलग-अलग कालों में, भिन्न-भिन्न लोगों द्वारा पृथक रंगों के मृदा भाण्डों का विकास हुआ। इससे स्तरीकरण एवं इन मृदा भाण्डों के साथ प्राप्त सामग्रियों से कालनिर्धारण में सहायता मिलती है। अन्य सामग्रियों एवं अभिलेखों की अनुपलब्धता में उत्खननकर्ता मृदाभाण्डों का अध्ययन कर काल का निर्धारण कर सकता है। इसलिए मृदाभाण्ड काल निर्धारण के लिए मह्त्वपूर्ण रुप से सहायक होते हैं। मृदा भाण्डों का महत्व मानव सभ्यता के साथ सतत बना हुआ है और बना भी रहेगा। 

बुधवार, 2 दिसंबर 2015

इतिहास की खोई हुई कुंजी है शंख लिपि

विचारों को व्यक्त करने का माध्यम वाणी है, यह वाणी विभिन्न भाषाओं के माध्यम से संसार में प्रकट होती है। इन भाषाओं को दीर्घावधि तक स्थाई रुप से सुरक्षित रखने एवं एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का कार्य लिपि करती है।  कहा जाए तो भाषा को जीवंत रखने के लिए हम जिन प्रतीक चिन्हों का प्रयोग करते हैं, उन्हे लिपि कहते हैं। हम गुहा चित्रों, भग्नावशेषों, समाधियो, मंदिरो, मृदाभांडों, मुद्राओं के साथ शिलालेखो, चट्टान लेखों, ताम्रलेखों, भित्ति चित्रों, ताड़पत्रों, भोजपत्रों, कागजो एवं कपड़ों पर अंकित मनुष्य की सतत भाषाई एवं लिपिय  प्रगति देख सकते हैं।  इन सबको तत्कालीन मानव जीवन का साक्षात इतिहास कहा जा सकता है। 
उदयगिरि मध्यप्रदेश 

सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ साथ भाषा एवं लेखनकला का विकास भी होता रहा। प्रारंभ में लिखने के साधन गुफाओं की दीवारें, र्इंट, पत्थर, मृद्पात्र एवं शिलापट्ट आदि थे। देश, काल एवं परिस्थिति अनुसार ये साधन बदलते गये और लिपि एवं भाषा परिस्कृत होती गई।विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा एवं लिपि प्रथम साधन है। लिपि के अभाव में अनेक भाषाएँ उत्पन्न होकर नष्ट हो गई । आज उनका नामो निशान तक नहीं रहा। लिपियाँ भी समाप्त हो गई, वे भी इससे अछूती नहीं रही। ललितविस्तर आदि प्राचीन ग्रंथों में तत्कालीन प्रचलित लगभग चौंसठ लिपियों का नामोल्लेख मिलता है, लेकिन आज उसमें में अधिकांश लिपियाँ अथवा उनमें लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है।
शंख लिपि उदयगिरि 

कुछ प्राचीन लिपियाँ आज भी एक अनसुलझी पहेली बनी हुई हैं। उनमें लिखित अभिलेख आज तक नहीं पढ़े जा सके हैं। आज हम देखते हैं कि भारत में बहुधा प्राचीन स्थालों, पर्वतों एवं गुफाओं में टंकित ‘शंख लिपि’ के सुन्दर अभिलेख प्राप्त होते हैं इनको भी आज तक नहीं पढ़ा जा सका है। इस लिपि के अक्षरों की आकृति शंख के आकार की है। प्रत्येक अक्षर इस प्रकार लिखा गया है कि उससे शंखाकृति उभरकर सामने दिखाई पड़ती है। इसलिए इसे शंखलिपि कहा जाने लगा।
शंखलिपि सरगुजा सीता लेखनी पहाड़ 

जब भी मैं प्राचीन स्थलों पर शंख लिपि को देखता हूं तो मन जिज्ञासा से भर उठता है, कि प्राचीन काल का मनुष्य इस लेख के माध्यम से आने वाले पीढी को क्या सूचना एवं संदेश देना चाहता था। परन्तु लिपि की जानकारी की अभाव में यह रहस्य स्थाई हो गया है। विद्वान गवेषक इन लेखों को पढने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अभी तक योग्य सफलता नहीं मिल सकी है। आज भी विविध सिक्कों, मृद्पात्रों एवं मुहरों पर लिखित ऐसी कई लिपियाँ और भाषाएँ हमारे संग्रहालयों में विद्यमान हैं जो एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है। समय को प्रतीक्षा है इन पहेलियों के सुलझने की। जब इनमें कैद इतिहास बाहर निकल कर सामने आएगा और नई जानकारियाँ मिलेगी।

रविवार, 29 नवंबर 2015

चिल्का झील: प्रकृति का अनुपम उपहार - कलिंग यात्रा

सुबह जल्दी उठकर तैयार हो गए, आज हमें प्रसिद्ध चिल्का झील भ्रमण के लिए जाना था। यहाँ जाने के लिए बी एन होटल पुरी के समीप लक्जरी बसें उपलब्ध होती हैं, यह बस सेवा सप्ताह में चार उपलब्ध है। जिसकी टिकिट हमने रात को ही बुकिंग सेंटर से ले ली थी। पुरी से चिल्का का सातपाड़ा मीरजापुर क्षेत्र लगभग साठ किमी होगा। हम होटल से रिक्शा लेकर बस तक पहुंच गए। टिकिट में सीट नम्बर न होने के कारण कन्डेक्टर अपनी मर्जी अनुसार सवारी बैठा रहा था। बड़े ग्रुप को पहले सीट दे रहा था। हमारी रायपुर के लिए शाम 5 बजे ट्रेन होने के कारण हमें पहली बस से ही जाना और लौटना था। इसलिए हमने सीटों के नाम पर समझौता कर लिया। जहां उसने जगह दी, वहाँ बैठ गए। साढे सात बजे सुरेश पण्डा बस सर्विस चिल्का के लिए चल पड़ी। 
जल भरावन यंत्र से जल भरते हुए बिकाश बाबू
पुरी शहर से बाहर निकलते ही धान के खेत जहां तक नजर जाती वहां तक दिखाई दे रहे थे। हम खिड़की से प्रकृति का आनंद लेने लगे। तटीय क्षेत्र में मीलों तक खेत ही खेत दिखाई दे रहे थे। फ़सल पक कर ऐसे चमक रही थी मानों खेतों में सोना उग आया हो। आधा पौन घंटा चलने के बाद बस रुकी। यहां पर एक मंदिर है, जिसके दर्शन एवं जलपान के लिए बस रोकी जाती है। हमने सबसे पहले तो बड़ा जलेबी का नाश्ता किया, फ़िर मंदिर की तरफ़ चले। इस स्थान का नाम ब्रह्मापुर है। नारियल के गगनचुंबी पेड़ आसमान को छू रहे थे। एक स्थान पर घर के सामने मैने एक प्रतिमा देखी तो रुकना पड़ा। प्रतिमा के सिर पर गमला रखा था। देखते ही समझ आ गया कि तुलसी माला  है। इस क्षेत्र में तुलसी की प्रतिमा के सिर पर गमला रख कर तुलसी का पौधा लगाने की परम्परा मुझे लगभग सभी घरों में दिखाई दी।
मेरे देश की धरती, सोना उगले, उगले हीरे मोती
यहां से बस आगे चली तो थोड़ी देर बाद खेतों की जगह दलदली जमीन ने ले ली। दसियों किमी तक पानी भरी दलदली जमीन दिखाई दे रही थी। परन्तु मेरे जैसे व्यक्ति की घुमक्कड़ी के लिए यह आदर्श क्षेत्र दिखाई दिया क्योंकि यहाँ तरह-तरह की चिड़िया दिखाई दी। परबस होने के कारण मैं इनकी फ़ोटो भी नहीं ले सकता था। वरना आराम से फ़ोटो खींचते चलते। सरकारी आंकड़ों के हिसाब यहां सर्दियों में एक लाख से अधिक प्रवासी जल पक्षी एवं तटीय पक्षी आते हैं। यहां नलबाण पक्षी अभ्यारण्य भी है, जहाँ 158 प्रजाति के पक्षी पाए जाते हैं। इन पक्षियों के कारण इस इलाके का सौंदर्य देखते ही बनता है। चिल्का झील में महानदी की भार्गवी, दया, कुसुमी, सालिया, कुशभद्रा जैसी धाराएं भी समाहित होती हैं। इससे इसमें मीठे जल का संगम होता है। 
नारियल पानी खींचन प्रतियोगिता
नदियों एवं समुद्र के मिश्रित जल में ऐसे कई गुण हैं जो यहां के जलीय पौधों व जंतुओं के लिए लाभप्रद होते हैं। इसलिए यहां 95 प्रकार के प्रवासी पक्षी आते हैं, जो हजारों मील दूर साइबेरिया, बेकाल, मनचूरिया आदि से आकर यहां डेरा डालते हैं। बतख, नन्हें स्टिनर, सेंडरलिंग, क्रेन, गोल्डन प्लोवर, फ्लेमिंगो, स्टोर्क गल्स, सैड पाइपर्स और ग्रे पेलिकन यहां पाए जाने वाले प्रमुख पक्षी हैं। अक्टूबर-नवंबर में पक्षियों का आना शुरू होता है और दिसंबर-जनवरी में तो जगह-जगह पक्षियों के झुंड ऐसे दिखते हैं, जैसे उनकी अलग-अलग कॉलोनियां बसी हों। बैठा हुआ सोच रहा था कि कभी बाईक से सफ़र किया जाए तभी इसका भरपूर आनंद लिया जा सकता है। तभी मुझे पेंटेट स्टार्क का एक झुंड दिखाई दिया। इस तरह पक्षी देखते हुए सात पाड़ा के मीरजापुर पहुंच गए।
सातपाड़ा जेट्टी से नाव की ओर
यहां भोजन के लिए दो चार होटल हैं तथा बस वालों अपने-अपने होटल सेट कर रखे हैं। हमारे कंडेक्टर ने एक होटल में ले जा कर बस खड़ी की और सभी सवारियों को कहा कि - आप पहले खाने का आर्डर दे दें, अन्यथा आपको यहां खाना नहीं मिलेगा। जितने आर्डर दिए जाते हैं उतना ही खाना बनता है। कोई होटल वाला खाना बना कर नहीं रखता। उसका इतना कहना था कि लोग खाने का आर्डर देने लगे। मैने और बिकाश ने मीनू देखा तो पता चला कि दो आदमियों का खाना ही दो हजार का हो जाएगा और पेट भी नहीं भरेगा। हमने आर्डर नहीं दिया। ऐसा तो हो ही सकता कि खाना एक ही जगह मिले। चलो ढूंढ लेगें। कोई समस्या नहीं है। खाने का आर्डर देने के बाद हम जेट्टी की ओर चल पड़े।
जेट्टी से चिल्का झील का नजारा
जेट्टी के द्वार पर कई आदमी बहुत सारी टोपियां लेकर बैठे थे, जिन्हे 10-10 रुपए में किराए पर दे रहे थे। मैने ध्यान नहीं दिया। यहां चिल्का झील में प्रति बोट किराया 1200 से 1400 रुपए है जिसमें लगभग 16 किमी का सफ़र कराते हैं। सभी बोट डीजल इंजन से चलती हैं। हमारी बस वाली सवारियों ने शेयरिंग बोट ली, हम 14 लोग थे, प्रत्येक के हिस्से 125 रुपए आए। बोट में सवारी भर कर चालक ने नाव खोल दी। चिल्का झील में नाव का सफ़र करने का फ़ायदा यह है कि इसके उथले होने के कारण समुद्र जैसा भय नहीं लगता है। अगर जल में कूदेगे तो भी कमर तक ही पानी आएगा। इसकी अधिकतम गहराई तीन मीटर मानी गई है। थोड़ी दूर बोट चलने के बाद धूप का चमका लगने लगा। तब टोपी की याद आई, अगर एक हैट ले लेते तो इस धूप से बचा जा सकता था। पर अब तो सफ़र पर निकल चुके थे।
सीप में मोती, मोती में सीप
चिल्का झील का मजा यह है कि यहां कम पैसे लम्बी बोट राईडिंग हो जाती है। मैने किनारे पर बैठे पक्षियों की फ़ोटो लेने की कोशिश की, परन्तु बोट की स्पीड एवं हिलने के कारण चित्र लेना संभव नहीं हो रहा था।  थोड़ी देर चलने के उसने एक टापू पर बोट लगा दी। वहां पर दो लोग टोकरी लिए बैठे थे, एक ने लाल केकड़े दिखाई और दूसरा सीप वाले मोती बेच रहा था। जिसकी कीमत डेढ सौ रुपए बता रहा था। सीप फ़ोड़ने से उसमें से मोती निकलने की बात कह रहा था। उसने तीन सीप फ़ोड़े तब कहीं एक में से छोटा सा मोती निकला। आखिर में वह 20 रुपए में सीप देने को तैयार हो गया। पर मुझे तो हकीकत मालूम थी। हम कहां फ़ंसने वाले थे। बोट वाला वहां टाईम खराब कर रहा था। उसे डांट कर बोट आगे बढवाई।
यहाँ आकर जमीं आसमान एक हो जाते हैं
बोट फ़िर पानी में चलने लगी, लगभग एक घंटा चलने के बाद वह क्षेत्र आ गया जहां डाल्फ़िन दिखाई देती है। यहां बहुत सारी बोट मंडरा रही थी। तभी डाल्फ़िन ने गोता लगाया। लोग कैमरा साध रहे थे, पर वह तो जूम करने का भी समय नहीं दे रही थी। आखिर मैने इसका तोड़ निकाला और 4 स्नैप लिए। आखिरकार डाल्फ़िन मेरे कैमरे में कैद हो गई थी और लोग उसे ढूंढ रहे थे। चिल्का झील का सौंदर्य अपूर्व है, अद्भूत है, यहाँ मन रम जाता है आकर। इसकी सुंदरता इतनी मनमोहक है कि उड़ीसा के एक कवि को आजादी के आन्दोलन में गिरफ़्तार कर लिया गया तो उन्होने कहा "मुझे थोड़ी देर चिल्‍का के चित्रपट को निहार लेने दो, फिर तो अंधेरी कोठरी में रहना ही है।" यह अतिश्योक्ति नहीं है, सच में इसका सौंदर्य ही अद्भुत है। जो आकर्षित करता है।
सिर्फ़ मेरे ही कैमरे में कैद हुई डाल्फ़िन
डाल्फ़िन दर्शन के बाद भूख लगने लगी थी, हमने लौटने का कार्यक्रम बना लिया। सहयात्रियों की सहमती से चालक को लौटने का आदेश दिया। उसने नाव घुमा ली और हम वापस सातपाड़ा की ओर चल पड़े। रास्ते में एक स्थान पर रेतीला टापू आता हैं, यहा स्नैक्स की दुकाने लगी हैं। प्रत्येक नाव वाला यहाँ कुछ देर के लिए नाव किनारे लगाता है, यहीं पर नदियों की यह सम्मिलित धारा समुद्र में मिलती है। जो इस टापू से दिखाई देती है। मैन्ग्रोव की झाड़ियां के बीच लोग शंका दूर करने निकल पड़े, उन्हें फ़िर सकेला गया और हम वापस जेट्टी पर आ गए। चिल्का में नाव का यह सफ़र आनंददायक रहा। अगर खाने की सामग्री, पीने लिए पानी और हैट साथ रख लेते तो आनंद कई गुना बढ जाता।
सस्ता होटल 
रेस्टोरेंट में लोग खाने के लिए चल दिए, हमको भी भूख लग रही थी। हमने खाने ढूंढना शुरु किया। थोड़ा आगे चलने पर एक स्थान पर थाली वाले खाने का होटल मिल ही गया। उसने थाली 60 रुपए की बताई, हमने थोड़ा मोल भाव किया तो 50 पर आ गया। बढिया गर्मागर्म दाल, चावल, सब्जी, अचार, सलाद के साथ उसने खाना परोस दिया। दूबारा मांगने पर भात सब्जी इत्यादि भी दी। सौ रुपए में हमारा पेट भर गया। वहां हजार में नहीं भरने वाला था। होटल वाले को धन्यवाद देकर हम बस में आकर बैठ गए। वापसी का सफ़र जल्दी ही बीत गया।
सेल्फ़ी ले ले रे - रेत के टापू पर
एक सप्ताह की पुरी यात्रा से बहुत कुछ सीखने एवं देखने मिला। पर एक सप्ताह में कलिंग प्रदेश को देखने एवं समझने के लिए कम हैं, फ़िर कभी समय मिला तो तटीय क्षेत्र से अलग अन्य किसी क्षेत्र में कलिंग भ्रमण करना है, वैसे तो कलिंग हमारा सहोदर प्रदेश है, छत्तीसगढ़ के नक्शे में आधा प्रदेश उड़ीसा की सीमा से लगता है तथा अंग्रेजों के शासन काल में सम्बलपुर से छत्तीसगढ़ पर शासन किया जाता था।
चल खुसरो घर आपने
अंग्रेजों ने सम्बलपुर पुर को कमिश्नरी बना कर कमांडिंग ऑफ़िसर बैठाया हुआ था। 1800 ई में यहाँ मेजर ई रफ़सेज कमांडिग ऑफ़िसर था। बस चल रही थी और हम यात्रा के आनंद में डुबे था। बस वाले पुरी पहुंच कर ट्रेन के टाईम से आधे घंटे पहले ही स्टेशन के पास पहुंचा दिया और हम साप्ताहिक यात्रा सम्पन्न करके घर की ओर चल पड़े। 

शनिवार, 28 नवंबर 2015

नवकलेवर पूजन एवं दारु खोजन उत्सव - कलिंग यात्रा

मंदिर के बाहर निकलते ही भगवा कपड़ों में वाद्य यंत्र धारण किए गाते बजाते भक्त दिखाई दिए, इनके साथ ही मंदिर के मुख्य पुजारी एवं उनके सहयोग नवीन वस्त्र धारण कर मंदिर परिसर की ओर जुलूस की शक्ल में बढ रहे थे। पूछने पर पता चला कि आज नवकलेवर का उत्सव है,  संयोगवश हम भी इस त्यौहार के साक्षी बन गए। नवकलेवर भगवान की काष्ठ प्रतिमाएं बदलने के उत्सव को कहते हैं। जिस वर्ष हिन्दू पंचांग के अनुसार दो आषाढ होते हैं उस वर्ष भगवान की पुरानी प्रतिमाएं बदल कर स्थापित की जाती हैं।

दारू खोज मुहूर्त के लिए जाते हुए दैतापति
इन प्रतिमाओं को बदलने का भी बड़ा कठिन विधि विधान है। हमारे पण्डा जी पुर्णचंद महापात्र ने बताया कि प्रतिमाओं के लिए ऐसे  ही किसी वृक्ष को काटकर नहीं बना दी जाती। इसके लिए विशेष प्रकार की"दारु" (नीम की लकड़ी) का चयन किया जाता है। यह चयन प्राचीन परम्पराओं के अनुसार ही होता है। इस काम में कई पंडित या दैतापति लगते हैं। शास्त्रों के अनुसार, पेड़ के लिए सबसे पहले मुख्य पंडित को सपना आता है, उसके बाद दसियों पंडित उस पेड़ की तलाश में निकलते हैं। प्रतिमा निर्माण के लिए वृक्ष पुराना हो, नदी या तालाब के किनारे हो, शंख, चक्र, गदा, पद्म के चिन्ह हों, पेड़ का कोई हिस्सा टूटा न हो, उसमें कोई कील नहीं ठोकी गई हो, किसी पशु का पंजा न लगा हो तथा पेड़ पर कोई घोंसला न हो। 
कृष्णा किर्तन करते हुए भगत
मुख्य दैतापति को सपना आने के बाद वह वृक्ष के स्थान की ओर संकेत करता है। फ़िर 10 पुजारियों का दल चारों दिशाओं में उस स्थान एवं वृक्ष की खोज करते हैं। इस खोज की समयावधि 45 दिन निश्चित है, इस अवधि में ही "दारु" की खोज अवश्य ही होनी चाहिए। पेड़ को काटने के पहले सारे पंडित दो दिन तक अन्न जल नहीं लेते एवं शास्त्रों के बताए मंगल चिन्ह एवं शर्तें पूर्ण होने पर उस वृक्ष को पूजा करके विधि विधान से प्रतिमाओं के लिए काटा जाता है। यह प्रक्रिया गोपनीय रुप से आधी रात को सम्पन्न की जाती है। उसके पश्चात लकड़ी की प्रतिमाएं बनाई जाती है और स्थापित की जाती है। 
हरे राम हरे कृष्ण, कृष्ण हरे हरे
पण्डा जी ने बताया कि - नव कलेवर का समय 12 या 19 वर्षों में एक बार आता है। हिंदू धर्म की पौराणिक मान्यताओं में चारों धामों को एक युग का प्रतीक माना जाता है। इसी प्रकार कलियुग का पवित्र धाम जगन्नाथपुरी माना गया है। यह भारत के पूर्व में उड़ीसा राज्य में स्थित है, जिसका पुरातन नाम पुरुषोत्तम पुरी, नीलांचल, शंख और श्रीक्षेत्र भी है। उड़ीसा या उत्कल क्षेत्र के प्रमुख देव भगवान जगन्नाथ हैं। ऐसी धार्मिक मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा राधा और श्रीकृष्ण का युगल स्वरूप है। श्रीकृष्ण, भगवान जगन्नाथ के ही अंश स्वरूप हैं। इसलिए भगवान जगन्नाथ को ही पूर्ण ईश्वर माना गया है।
दैतापति दल लवाजमा के साथ मंदिर की ओर
वैसे तो रथयात्रा प्रतिवर्ष आषाढ़ शुक्ल द्वितीया से आरंभ होती है। परन्तु इस वर्ष नवकलेवर होने के कारण अधिक आकर्षण रहेगा।  यह यात्रा मुख्य मंदिर से शुरू होकर 2 किलोमीटर दूर स्थित गुंडिचा मंदिर पर समाप्त होती है।जहां भगवान जगन्नाथ सात दिन तक विश्राम करते हैं और आषाढ़ शुक्ल दशमी के दिन फिर से वापसी यात्रा होती है, जो मुख्य मंदिर पहुंचती है। यह बहुड़ा यात्रा कहलाती है। जगन्नाथ रथयात्रा एक महोत्सव और पर्व के रूप में पूरे देश में मनाया जाता है। धार्मिक मान्यता है कि इस रथयात्रा के मात्र रथ के शिखर दर्शन से ही व्यक्ति जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है। स्कन्दपुराण में वर्णन है कि आषाढ़ मास में पुरी तीर्थ में स्नान करने से सभी तीर्थों के दर्शन का पुण्य फल प्राप्त होता है और भक्त को शिवलोक की प्राप्ति होती है।
दम लगा कर है जोर
रथयात्रा के लिए भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा- तीनों के रथ नारियल की लकड़ी से बनाए जाते हैं। ये लकड़ी वजन  में भी अन्य लकडिय़ों की तुलना में हल्की होती है और इसे आसानी से खींचा जा सकता है। भगवान जगन्नाथ के रथ का रंग लाल और पीला होता है और यह अन्य रथों से आकार में बड़ा भी होता है। यह रथ यात्रा में बलभद्र और सुभद्रा के रथ के पीछे होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ के कई नाम हैं जैसे- गरुड़ध्वज, कपिध्वज, नंदीघोष आदि। इस रथ के घोड़ों का नाम शंख, बलाहक, श्वेत एवं हरिदाश्व है, जिनका रंग सफेद होता है। इस रथ के सारथी का नाम दारुक है। 
रथयात्रा मार्ग से आता हुआ दल
भगवान जगन्नाथ के रथ पर हनुमानजी और नरसिंह भगवान का प्रतीक होता है। इसके अलावा भगवान जगन्नाथ के रथ पर सुदर्शन स्तंभ भी होता है। यह स्तंभ रथ की रक्षा का प्रतीक माना जाता है। इस रथ के रक्षक भगवान विष्णु के वाहन पक्षीराज गरुड़ हैं। रथ की ध्वजा यानि झंडा त्रिलोक्यवाहिनी कहलाता है। रथ को जिस रस्सी से खींचा जाता है, वह शंखचूड़ नाम से जानी जाती है। इसके 16 पहिए होते हैं व ऊंचाई साढ़े 13 मीटर तक होती है। इसमें लगभग 1100 मीटर कपड़ा रथ को ढंकने के लिए उपयोग में लाया जाता है।
उत्सव में सम्मिलित 
बलरामजी के रथ का नाम तालध्वज है। इनके रथ पर महादेवजी का प्रतीक होता है। रथ के रक्षक वासुदेव और सारथी मताली होते हैं। रथ के ध्वज को उनानी कहते हैं। त्रिब्रा, घोरा, दीर्घशर्मा व स्वर्णनावा इसके अश्व हैं। यह 13.2 मीटर ऊंचा 14 पहियों का होता है, जो लाल, हरे रंग के कपड़े व लकड़ी के 763 टुकड़ों से बना होता है। सुभद्रा के रथ का नाम देवदलन है। सुभद्राजी के रथ पर देवी दुर्गा का प्रतीक मढ़ा जाता है। रथ की रक्षक जयदुर्गा व सारथी अर्जुन होते हैं। रथ का ध्वज नदंबिक कहलाता है। रोचिक, मोचिक, जिता व अपराजिता इसके अश्व होते हैं। इसे खींचने वाली रस्सी को स्वर्णचुड़ा कहते हैं। 12.9 मीटर ऊंचे 12 पहिए के इस रथ में लाल, काले कपड़े के साथ लकड़ी के 593 टुकड़ों का इस्तेमाल होता है।
बिकाश बाबू की मौज
भगवान जगन्नाथ, बलराम व सुभद्रा के रथों पर जो घोड़ों की कृतियां मढ़ी जाती हैं, उसमें भी अंतर होता है। भगवान जगन्नाथ के रथ पर मढ़े घोड़ों का रंग सफेद, सुभद्राजी के रथ पर कॉफी कलर का, जबकि बलरामजी के रथ पर मढ़े गए घोड़ों का रंग नीला होता है। रथयात्रा में तीनों रथों के शिखरों के रंग भी अलग-अलग होते हैं। बलरामजी के रथ का शिखर लाल-पीला, सुभद्राजी के रथ का शिखर लाल और ग्रे रंग का, जबकि भगवान जगन्नाथ के रथ के शिखर का रंग लाल और हरा होता है। पण्डा जी की बातें हमने मोबाईल फ़ोन में सुरक्षित कर ली।
लाईव टेलीकास्ट
जब इस महत्वपूर्ण पर्व पर हम पुरी में उपस्थित थे तो सोचा कि उसकी फ़ोटोग्राफ़ी भी अच्छे से होनी चाहिए। मीडिया वालों का लाईव प्रसारण चल रहा था। हम कोई तीन चार मंजिल का भवन ढूंढ रहे थे जिसकी छत से चित्र लिए जा सकें। तभी एक भवन की छत पर छतरी लगाई कुछ कैमरामेन दिखाई दिए तो हम वहीं पहुंच गए और उस भवन से लगातार कुछ अच्छे चित्र लिए। छत पर काफ़ी समय व्यतीत किया। उसके बाद नीचे आकर वाद्यको समेंत सभी के खूब चित्र लिए। बिकास बाबू ने वाद्यों की धुन पर खूब नृत्य किया और थोड़ा बहुत मजा हमने भी लिया। इस तरह हमारी हमने भगवान जगन्नाथ के दर्शन लाभ प्राप्त किए।

रिक्शे पर सवार राजा और राणा
सूर्य देवता अस्ताचल की ओर जा रहे थे, हम मंदिर से निकल कर रिक्शे में सवार होकर समुद्र तट पर पहुंच गए। शाम की समय यहां की रौनक ही अलग होती है। पुरी होटल से चलते हुए स्वर्गद्वार के आगे तक हमने पैदल भ्रमण किया। फ़िर चना चबेना लेकर समुद्र के किनारे एक स्थान पर आसन जमा कर बैठ गए। ठंडी हवा में आंखे बंद कर समुद्र की गर्जना सुनने का अलौकिक आनंद आया। यह आनंद गुंगे के गुड़ जैसा है। छेना मिठाई बेचने वाला भी वहीं आ गया। बिकास बाबू ने सभी प्रकार की मिठाईयों का आनंद लिया क्योंकि जब हम समुद्र की गर्जना सुनने का आनंद ले रहे हैं तो वे मिष्टी आनंदाधिकारी है। दस बजे तक हमने समुद्र के किनारे वक्त गुजार दिया। उसके बाद एक होटल से भोजन कर अगली सुबह चिल्का झील भ्रमण की तैयारी करते हुए झपक लिए। जारी है, आगे पढें।

शुक्रवार, 27 नवंबर 2015

जगन्नाथ मंदिर का शिल्प एवं इतिहास - कलिंग यात्रा

उड़ीसा राज्य के तटवर्ती क्षेत्र में स्थित जगन्नाथ मंदिर हिन्दुओं का प्राचीन एवं प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। हिन्दूओं की धार्मिक आस्था एवं कामना रहती है जीवन में एक बार भगवान जगन्नाथ के दर्शन अवश्य करें क्योंकि इसे चार धामों में से एक माना जाता है। वैष्णव परम्परा का यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार कृष्ण को समर्पित है। यहाँ की वार्षिक रथयात्रा विश्व प्रसिद्ध है। इस मंदिर में तीन मुख्य देवता भगवान जगन्नाथ, उनकी बहन सुभद्रा एवं भाई बलभ्रद की पूजा होती है। जगन्नाथ के धार्मिक महत्व के विषय में जन-जन जानता है। फ़िर भी मैं संक्षेप में उल्लेख करना चाहुंगा।
सुभाष चौक पुरी
इस मंदिर का निर्माण कलिंग राजा अनंतवर्मन गंगदेव ने कराया था। मंदिर का जगमोहन एवं विमान भाग इनके शासन काल (1078-11148 ई) में निर्मित हुआ था। फ़िर सन 1147 में राजा अनंग भीम देव ने इस मंदिर को वर्तमान रुप दिया था। इसका ताम्रपत्रों में उल्लेख बताया जाता है। मंदिर में जगन्नाथ अर्चना सन १५५८ तक होती रही। इस वर्ष काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला किया और मूर्तियां तथा मंदिर के भाग ध्वंस किए और पूजा बंद करा दी तथा विग्रहो को चिलिका झील मे स्थित एक द्वीप मे गुप्त रखा गया। बाद में, रामचंद्र देब के खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित करने पर, मंदिर और इसकी मूर्तियों की पुनर्स्थापना हुई।
मंदिर का विहंगम दृश्य
कलिंग शैली में निर्मित इस मंदिर को हम देखे तो वर्तमान में भी काला पहाड़ द्वारा किए गए विध्वंस के चिन्ह दिखाई देते हैं। मुख्य मंदिर के आमलक एवं जगमोहन की छत को उसके द्वारा तोड़ दिया गया प्रतीत होता है। प्रस्तर निर्मित इस मंदिर के विशाल आमलक एवं जगमोहन की छत का पुनर्निर्माण हुआ है। जो प्रस्तर निर्मित न होकर चूना सुर्खी से बना हुआ है अलग ही दिखाई देता है। राजा ने जगन्नाथ मंदिर का भव्य निर्माण कराया था। इसकी भित्तियों पर अप्सराएं, वादक, भारसाधक, व्यालों के साथ मिथुन मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं। इसकी भव्यता देखते ही बनती है।
चलो चले मुसाफ़िर
मंदिर का विस्तार वृहत क्षेत्र में है, जो लगभग चार लाख वर्ग फ़ुट में विस्तारित है और चारदिवारी से घिरा हुआ कलिंग स्थापत्यकला एवं शिल्प का उदाहरण है तथा यह भारत के भव्यतम स्मारक स्थलों में से एक है। मुख्य मंदिर वक्ररेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर विष्णु का श्री सुदर्शन चक्र (आठ आरों का चक्र) मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर का मुख्य ढांचा एक 214 फ़ुट (65 मी) ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है। इसके भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की प्रतिमाएं स्थापित हैं। 
सिंह द्वार पर स्थापित गरुड़ स्तंभ
मंदिर का मुख्य भाग विशाल है। मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिकारूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेरी हुई छोटी पहाड़ियों एवं टीलों के समुह सदृश दिखाई देता है। मुख्य भवन एक बीस फ़ुट (6.1 मी) ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। एक भव्य सोलह किनारों वाला एकाश्म स्तंभ, मुख्य द्वार के ठीक सामने स्थित है। इसका द्वार दो सिंहों द्वारा रक्षित हैं।
ध्वज एवं चक्र
मंदिर के शिखर पर स्थित चक्र, सुदर्शन चक्र का प्रतीक है और लाल ध्वज भगवान जगन्नाथ का प्रतीक माना जाता है। इस मंदिर से अनेक किंवदन्तियां एवं लोककथाएं जुड़ी हुई हैं। एक कथा के अनुसार भगवान जगन्नाथ की इंद्रनील या नीलमणि से निर्मित मूल मूर्ति, एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी। यह इतनी चकचौंध करने वाली थी, कि धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपाना चाहा। मालवा नरेश इंद्रद्युम्न को स्वप्न में यही मूति दिखाई दी थी। तब उसने कड़ी तपस्या की और तब भगवान विष्णु ने उसे बताया कि वह पुरी के समुद्र तट पर जाये और उसे एक दारु (लकड़ी) का लठ्ठा मिलेगा। उसी लकड़ी से वह मूर्ति का निर्माण कराये। राजा ने ऐसा ही किया और उसे लकड़ी का लठ्ठा मिल भी गया।

रथयात्रा मार्ग
उसके बाद राजा विश्वकर्मा बढ़ई कारीगर समक्ष मूर्ति बनवाने के लिए उपस्थित हुए। विश्वकर्मा जी ने यह शर्त रखी, कि वे एक माह में मूर्ति तैयार कर देंगे, परन्तु तब तक वह एक कमरे में बंद रहेंगे और राजा या कोई भी उस कमरे के अंदर नहीं आये। जब कई दिनों तक कोई भी आवाज नहीं आई, तो उत्सुकता वश राजा ने कमरे में झांका और वह वृद्ध कारीगर द्वार खोलकर बाहर आ गया और राजा से कहा कि मूर्तियां अभी अपूर्ण हैं, उनके हाथ अभी नहीं बने थे। राजा के अफसोस करने पर मूर्तिकार ने बताया कि यह सब दैववश हुआ है और यह मूर्तियां ऐसे ही स्थापित होकर पूजी जायेंगीं। तब वही तीनों जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा की मूर्तियां मंदिर में स्थापित की गयीं।
भोग प्रसाद रिक्शा
महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह भगवान जगन्नाथ को मानते थे, उन्होने इस मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था। कहते हैं कि उन्होंने अपने अंतिम दिनों में यह वसीयत भी की थी कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, इस मंदिर को दान कर दिया जाए। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक ब्रिटिशों ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता।
मंदिर मुख्य प्रवेश द्वार
जगन्नाथ मंदिर की एक खास बात है कि इसमें हिन्दूओं के अतिरित्क अन्य धर्मावलम्बियों का प्रवेश वर्जित है। मुख्यद्वार पर ही इस आशय की चेतावनी लिखी हुई है। भारतीय सिक्ख, जैन एवं बौद्धों के लिए प्रवेश की छूट है, परन्तु उन्हें अपनी भारतीय पहचान दिखानी होती है। मंदिर ने धीरे-धीरे गैर-भारतीय मूल के लेकिन हिन्दू लोगों का मंदिर क्षेत्र में प्रवेश स्वीकार करना आरम्भ किया है। अन्यथा बाली द्वीप के लोगों को भी प्रवेश नहीं दिया जाता था। पूछने पर पण्डा जी ने बताया कि अन्य लोगों को भगवान स्वयं रथयात्रा के दिन मंदिर से बाहर आकर दर्शन देते हैं, इस दिन कोई भी भगवान के दर्शन कर सकता है। यह  रथ यात्रा आषाढ शुक्ल पक्ष की द्वितीया को होती है, जो तिथियों के अनुसार जून या जुलाई में होती है। जारी है… आगे पढें।

गुरुवार, 26 नवंबर 2015

जगन्नाथ दर्शन - कलिंग यात्रा

आज हमें भगवान जगन्नाथ का प्रसाद ग्रहण करना था। यहाँ प्रतिदिन भगवान को छप्पन भोग लगते हैं और वही प्रसाद के रुप में अन्न सत्र में कुछ दक्षिणा देने के बाद प्राप्त हो जाता है। कहते हैं "जगन्नाथ का भात, जगत पसारे हाथ।" हम होटल से पैदल ही मंदिर तक चल पड़े। थोड़ी देर चलने के बाद एक गली से जगन्नाथ मंदिर के शीर्ष पर स्थापित चक्र एवं ध्वज दिखाई देने लगा। जगन्नाथ मंदिर के पंडे जगत प्रसिद्ध हैं, मंदिर के सामने आते ही एक पण्डा महाराज हमारे सामने आ गए। बिकाश बाबू ने ही उनसे बात की और वे हमें दर्शन कराने के लिए तैयार हो गए। मंदिर के बाहर ही मोबाईल एवं चप्पल जूता स्टैण्ड बना  हुआ है, नगद देकर भी वे रखवाली करते हैं और नि:शुल्क भी है। हमने मोबाईल एवं सैंडिल जमा करवाए और पंडा महाराज हमें मंदिर के भीतर ले गए।
मंदिर के सामने की गली 
आज नवकलेवर उत्सव का प्रारंभ था। इसलिए मंदिर में अपार भीड़ थी। पण्डा जी हमें बाईं तरफ़ वाले द्वार से भीतर ले गए। वहां पुलिस की चौकस व्यवस्था थी। मंदिर का पट खुलने में अभी देर थी। जैसे ही पट खुला भीड़ पेलते ढपेलते भीतर जाने को उद्धत हो गई। हम भी भीड़ के साथ पहुंचे। सामने भगवान जगन्नाथ के साथ सुभद्रा एवं बदभद्र दिखाई दिए। धक्का मुक्की  में दर्शन हो गए। मुफ़्त दर्शनों के साथ यहाँ वी आई पी दर्शन की सुविधा है। जो 300 रुपए प्रति टिकिट में कराई जाती है। टिकिट दर्शनार्थियों को न देकर पण्डों को दी जाती है और वे उसकी मनमानी कीमत भी वसूलते हैं, इससे उनकी अतिरिक्त कमाई हो जाती है। हम तो मुफ़्त के दर्शनार्थी थी इसलिए दूर से ही दर्शन करके तृप्त हो गए।
पंडा पूरणचंद्र महापात्रा 
द्वार से बाहर निकलने पर सामने ही ब्रह्मा गादी है, जहाँ पण्डा जी लोग विश्रामासन में दिखाई देते हैं। ब्रम्हागादी से हम मंदिर के परिक्रमापथ की ओर चल पड़े। यहाँ पर छोटे छोटे अन्य देवों के मंदिर भी हैं। हमारे पण्डा पुरणचंद्र महापात्र जी हमें प्रसाद वाली जगह पर ले गए जहाँ सूखा प्रसाद ढाई सौ रुपए से लेकर हजारों रुपए तक मिलता है। हमने घर ले जाने के लिए न्यूनतम ढाई सौ रुपए का प्रसाद लिया। यहीं दान के चंदे की रसीदी काटी जाती हैं। यहां से आगे बढने पर अन्न सत्र प्रारंभ होता है। जहां पत्तल और मिट्टी के कुल्हड़ों में भोजन प्रसाद दिया जाता है। भगवान को भोग लगने के बाद यहीं पर पण्डा लोग प्रसाद का वितरण मय दक्षिणा अपने कोटे के हिसाब से करते हैं।
भगवन जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र 
जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है. यह रसोई विश्व की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है. इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद तैयार होता है जिसके लिए लगभग 500 रसोइए और उनके 300 सहयोगी काम करते हैं. ऐसी मान्यता है कि इस रसोई में जो भी भोग बनाया जाता है, उसका निर्माण माता लक्ष्मी की देखरेख में ही होता है. भोग निर्माण के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता है.यहां बनाया जाने वाला हर पकवान हिंदू धर्म पुस्तकों के दिशा-निर्देशों के अनुसार ही बनाया जाता है। भोग पूर्णत: शाकाहारी होता है। भोग में किसी भी रूप में प्याज व लहसुन का भी प्रयोग नहीं किया जाता। भोग निर्माण के लिए मिट्टी के बर्तनों का उपयोग किया जाता है।
मंदिर द्वार पर दर्शनार्थी 
रसोई के पास ही दो कुएं हैं जिन्हें गंगा व यमुना कहा जाता है। केवल इनसे निकले पानी से ही भोग का निर्माण किया जाता है। इस रसोई में 56 प्रकार के भोगों का निर्माण किया जाता है। रसोई में पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी यह व्यर्थ नहीं जाएगी, चाहे कुछ हजार लोगों से 20 लाख लोगों को खिला सकते हैं। कहते हैं कि मंदिर में भोग पकाने के लिए 7 मिट्टी के बर्तन एक दूसरे पर रखे जाते हैं और लकड़ी पर पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में सबसे ऊपर रखे बर्तन की भोग सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकते जाती  है। परन्तु इस प्रक्रिया को किसी को दिखाया नहीं जाता।
मंदिर की ध्वजा एवं चक्र 
जगन्नाथ मंदिर के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतया प्रसाद ही कहा जाता है। भगवान जगन्नाथ के प्रसाद को महाप्रसाद का स्वरूप महाप्रभु वल्लभाचार्य जी के द्वारा मिला। कहते हैं कि महाप्रभु वल्लभाचार्य की निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए उनके एकादशी व्रत के दिन पुरी पहुँचने पर मंदिर में ही किसी ने उन्हें प्रसाद दे दिया। महाप्रभु ने प्रसाद हाथ में लेकर स्तवन करते हुए दिन के बाद रात्रि भी बिता दी। अगले दिन द्वादशी को स्तवन की समाप्ति पर उस प्रसाद को ग्रहण किया और उस प्रसाद को महाप्रसाद का गौरव प्राप्त हुआ। इसी महाप्रसाद से छत्तीसगढ़ अंचल में स्थाई मित्रता का संकल्प लेकर "महाप्रसाद" बदा जाता है। फ़िर आजीवन दोनो एक दूसरे का नाम न लेकर महाप्रसाद से ही संबोधित करते हैं।
महाप्रसाद जगन्नाथ मंदिर पुरी
अन्न सत्र में पहुंचने पर देखा कि यहाँ सब्जी बाजार जैसे प्रसाद का बाजार लगा हुआ है, पण्डा जी ने एक कुल्हड़ चावल और दालमा दिलाया। यही भगवान का श्रेष्ठ प्रसाद माना जाता है। भोजन करने के लिए प्रस्तर निर्मित बड़ी छतरी बनी हुई है। यहीं बैठकर हमने पत्तलों में प्रसाद ग्रहण किया। भूख भी जोर की लगी थी और मंदिर में प्रसाद ग्रहण करने की इच्छा ने स्वाद को बढा दिया। प्रसाद ग्रहण करने के बाद हमसे प्रसाद की दक्षिणा के 120 रुपए लिए। वहीं पर जल ग्रहण करने के लिए नल की व्यवस्था भी है। नल से जल पीकर भोजनोपरांत आत्मा तृप्त हो गई। पण्डा जी हमारे साथ फ़ंस कर छटपटा रहे थे, क्योंकि हम ठहरे घुमक्कड़ के साथ पुरातत्व निरीक्षक, इसलिए उन्हें हमारे साथ अधिक समय लग रहा था। हमें छोड़ कर वे और भी जजमान देखना चाहते थे। बिकाश बाबू ने उन्हें दक्षिणा देकर विदा किया और हम मंदिर परिसर के बाहर आ गए। जारी है … आगे पढें। 

नोट - मंदिर परिसर में किसी भी तरह की फ़ोटो लेना वर्जित है, इसलिए सारे चित्र बाहर से ही लिए गए हैं।