शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

दक्षिण अफ़्रीका देशों से कलिंग के सम्बंध - कलिंग यात्रा


जो राजा प्रजा वत्सल होता है वही राज्य में लोकप्रिय होता है और प्रजा उसे पिता तुल्य मानती है। उसके एक संकेत पर धन जन न्यौछावर हो जाता है। राज्य की व्यवस्था संचालन के लिए धन एवं सैनिक दोनो की आवश्यकता होती है। अगर राजा की कराधान व्यवस्था प्रजा अनुकूल है तो उसे प्रजा के प्रेम के साथ धन भी सहजता से उपलब्ध होता था। लूट पाट कर प्रजा का खून चूसने वाला राज्य अधिक दिनों तक स्थाई नहीं रहता। वर्तमान में भी यही दिखाई देता है। कोणार्क की भित्तियो पर राजकाज को भी स्थान दिया है। राज सभा की गतिविधियों का चित्रण करते हुए तत्कालीन शासक को अपने दरबारियों से मंत्रणा करते हुए दिखाया गया है। शांतिकाल एवं युद्ध काल की राज सभा स्पष्ट दिखाई देती है।  
युद्ध पूर्व मंत्रणा
प्रतिमा संकेतों से ज्ञात होता है कि राजा नृसिंह देव के शासन काल में उन्हें राज्य रक्षा के लिए युद्ध भी लड़ने पड़े। एक चित्र में दिखाया गया है कि सिंहासनारुढ़ नृप अपने राज सभासदों एवं दरबारियों से मंत्रणा कर रहा है। सभी उसकी आज्ञा का पालन करने को तत्पर दिखाई दे रहे हैं। साथ ही दरबार के बाहर अश्व एवं गज सेना तैयार है कि युद्ध मंत्रणा और रणनीति पर चर्चा सम्पन्न होते ही सेना युद्ध के लिए कूच कर जाएगी। एक अन्य प्रतिमा में अश्वारुढ़ राजा को शीश विहीन दिखाया गया है। इससे ज्ञात होता है कि किसी भीषण युद्ध में राजा ने अभूतपूर्व युद्ध कौशल का परिचय देते हुए शत्रु सेना को आतंकित कर प्राण त्याग दिए, प्राणोसर्ग पर्यंत भी उसका धड़ युद्ध करते रहा। युद्ध में अश्व गतिमान दिखाई दे रहा है। शीश कटने के बाद युद्ध करने की कई किवदंतियाँ समाज में प्रचलित हैं। इसका सीधा अर्थ राजा के द्वारा भीषण युद्ध रचाने से लगाया जाता है।
मंत्रणोपरांत युद्ध के लिए प्रयाण
किसी भी राज्य के विकास के लिए शांति का काल महत्वपूर्ण होता है। शांति काल में राज्य चतुर्दिक उन्नति करता है। प्रजा हितों के लिए शासन नयी योजनाएं बनाता है और उन्हें लागु भी करता है। सड़क, बावड़ी, कुंओं, मंदिरों, सरोवरों एवं भवनों का निर्माण होता है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के द्वारा प्रजा के मनोरंजन की व्यवस्था भी होती है। युद्धकाल न होने से प्रजा पर अतिरिक्त करों का भार भी नहीं लादा जाता। जिसके कारण राज्य में खुशहाली का वातावरण होता है। कला एवं कलाकारों को भी प्रश्रय मिलता है और उन्हें उचित जीविकोपार्जन हेतु मानदेय के साथ सम्मान भी मिलता है। इस चित्र में राजा शांतिकाल में अपने विश्वस्त परिजनों एवं अनुचरों से चर्चा करते दिखाई दे रहे हैं। यह सब शांति काल में ही संभव है।
शीश विहीन योद्धा रण में गतिमान अश्वारुढ़
एक अन्य प्रतिमा से राजा के विषय में एक नई जानकारी मिलती है। यह तो सभी जानते हैं कि शांति काल में राजाओं का प्रमुख मनोरंजन का साधन आखेट होता था और आखेट के लिए वनों में दूर-दूर तक जाकर शिविर लगाए जाते थे। आखेट हेतु राजा समस्त लाव लश्कर के साथ जाता था। इस प्रतिमा चित्र में दिखाया गया है कि राजा हाथी पर हौदे में सवार होकर हाथ में धनुष लेकर आखेट के लिए वन में है और हाथी गतिमान है। उसके सामने कई लोग दिखाई दे रहे हैं जो हाथ उठाकर राजा से कुछ कह रहे हैं या उसका स्वागत कर रहे हैं इसके साथ शिकार हेतु हांका करने की आज्ञा मांग रहे हैं। शिकार के लिए हांका करना महत्वपूर्ण एवं श्रम साध्य कार्य होता था।
शांतिकाल की मंत्रणा, संभवत: मंदिर निर्माण पर विचार विमर्श
इनके साथ एक जिराफ़ भी दिखाई दे रहा है। जाहिर है जिराफ़ भारत में तो पाया नहीं जाता। जिराफ़ दक्षिण अफ़्रीका के वनों में सोमालिया तक पाया जाता है। इससे यह जानकारी मिलती है कि कलिंग का राजनीयिक संबंध दक्षिण अफ़्रीका से था तथा कलिंग के राजा आखेट हेतु अफ़्रीका के वनों तक जाते थे। बीसवीं सदी में सरगुजा महाराज रामानुजशरण सिंह देव द्वारा अफ़्रीका के वनों में शिकार करने का उल्लेख है तथा वे विश्व के तीसरे बड़े शिकारी माने जाते हैं। उन्होने 1100 शेरो का शिकार किया था। यह आंकड़ा उनके नाम से गिनीज बुक में भी दर्ज है। इससे इस धारणा को बल मिलता है कि कलिंग राजा भी आखेट के लिए अफ़्रीका के वनों तक जाते थे। ऐसे राजा को प्रतापी राजा ही कहा जाएगा।
अफ़्रीका के वनों में नृप हाथी एवं जिराफ़
तत्कालीन जनजीवन की झांकी दिखाते हुए कुछ प्रतिमाएं भी बहुत सुंदर दिखाई देते हैं। इस प्रतिमा में एक व्यक्ति ने हाथ में छूरी धारण कर रखी है और दूसरे हाथ में कुत्ते की एक टांग पकड़ कर उल्टा लटका रखा है। शायद शिल्पकार इस चित्र में मनो विनोद प्रदर्शित करना चाहता है। जब राजा गजारुढ़ होकर शेर और जिराफ़ का शिकार कर सकता है तो एक आम आदमी कुत्ते का शिकार क्यों नहीं कर सकता। एक वानर स्तंभ पर चढ़ कर उसके इस कार्य को विस्फ़ारित आंखो से देख रहा है। कुत्ता भी मुंह फ़ाड़ कर कांय कांय कर रहा है आखिर जान उसको भी प्यारी है। एक बात और हो सकती है, हो सकता है उस समय लोग कुत्ते का मांस खाते हों, वैसे उत्त्तर पूर्व में आज भी कुत्ते का मांस बड़े चाव से खाया जाता है। 
स्वान संहार का दृश्य
अन्य प्रतिमा में एक दंपत्ति अपने बच्चे के साथ जीवन यापन के लिए पलायन कर रहा है और थकने पर मार्ग में वृक्ष ने नीचे कुछ पल के लिए ठहर गया है। परम्परागत उड़िया परिवार दिखाई दे रहा है। पुरुष ने भी जूड़ा बना रखा है, कमर पर पोटली धारण कर रखी है, एक हाथ में धारित खड़ग कांधे पर है, दूसरा हाथ पीछे छुपा हुआ है, स्त्री ने सिर पर समान की पेटिका रखी हुई है और कमर पे बच्चे को बैठाकर स्तनपान करवा रही है। सिर पर रखा कुंदे वाला बक्सा वर्तमान में भी प्रचलन में दिखाई देता है। स्त्री के गले में हार और मंगलसूत्र दिखाई दे रहा है। जिसका बड़ा सा पैंडल स्तन मध्य में झूल रहा है। उड़ीसा से आज भी लोग जीवन यापन के लिए अन्य प्रदेशों की ओर पलायन करते हैं, यह पलायन तब से आज तक सतत जारी है। शिल्पकार ने इस दृष्य को इतना अधिक जीवंत बनाया है कि जैसे यह आज ही मेरे समक्ष घट रहा हो। 
जीवन यापन के लिए पलायन करते दंपत्ति
इस तरह कोणार्क भी भित्तियों पर उत्कीर्ण प्रतिमाएं इतिहास की परतें लगातार खोलती हैं अगर आपके पास समय है तो वे तत्काल आपके साथ संवाद करने को तत्पर हैं। बस समझना आपको है कि वे क्या कह रही हैं। भित्तियों पर इतने सारे विषयोन को स्थान दिया गया है कि अनुसंधान करने में ही बरसों लग जाएगें। कोणार्क का शिल्पांकन एक खुली किताब की तरह है, आईए और पढ़ते जाइए, इतिहास के सागर में गोता लगाते जाईए आपको सारे रत्न मिल जाएगें और सबसे कीमती रत्न संतोष रत्न मिलेगा। जिसे प्रत्येक व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। राज नृसिंह देव भी भव्य मंदिर का निर्माण कर युगों युगों तक के लिए अपनी कीर्ति स्थापना कर संतोषानंद पाना चाहता था। आगे पढ़ेगें मंदिर के निर्माण एवं पतन की कहानी। जारी है आगे पढ़ें……॥ 

गुरुवार, 23 अप्रैल 2015

सूर्य मंदिर की मिथुन प्रतिमाएं - कलिंग यात्रा


कलाओं का वर्णन हमारे प्राचीन ग्रंथों में विस्तार से किया गया है। कलाओं की गणना में सबसे अधिक प्रसिद्ध संख्या चौसठ है। शुक्र नीति एंव तंत्र ग्रंथों में कलाओं की संख्या चौसठ ही दी गई है। ललित विस्तार में पुरुषकला के रुप में छियासी नाम गिनाए गए हैं और कामकला के रुप में चौसठ नाम। वात्सायन से लेकर अन्य आचार्यों ने भी कलाओं की संख्या चौसठ ही गिनी है। कला शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ॠग्वेद में ही मिलता है - यथा कलां यथा यथा शफ़म् यथा ॠणं संनयामसि। आचार्य वात्सायन कहते हैं - जिस क्रिया से, जिस कौशल से कामनियाँ प्रसन्न हों, वशीभूत हो जाएं, वही कला है।" नागरिक के लिए वात्सायन चौसंठ कामकलाओं में शिक्षित होने बात कहते हैं। वात्सायन कहते हैं कि - कामकला की शिक्षा प्राप्त करने के बाद चतुर्वण को दान, वीरता, व्यवसाय एवं श्रमादि द्वारा धनार्जन करना चाहिए और इसके उपरांत ही विवाह करना चाहिए। इससे ज्ञात होता है कि कामकला का चित्रण शैक्षणिक दृष्टिकोण से किया जाता था। 
नायिका - शाल भंजिका
कामकला एक ऐसा विषय है जिस पर सार्वजनिक चर्चा करना वर्तमान में असभ्यता माना जाता है। पर गुह्य संभाषण करना हर स्त्री पुरुष चाहता है क्योंकि विषय ही रसदार है। मनुष्य के जीवन से जुड़ा हुआ है। भोजन क्षुधा के अतिरिक्त मनुष्य को संसर्ग क्षुधा ही सताती है। कई वर्षों पूर्व डिस्कवरी चैनल पर महाद्वीपों का डोंगी से सफ़र करने वाले व्यक्ति से सफ़र सम्पन्न होने के उपरांत पत्रकार ने पूछा - आप छ: महीने से एकल डोंगी का समुद्र में सफ़र कर रहे हैं, घर पहुंचने के पश्चात वह पहला काम बताईए जिसे आप प्राथमिकता में प्रथम रख कर करना चाहेंगे। उसने जवाब दिया - घर पहुंचने पर मैं सबसे पहले एकांत वातावरण में अपनी पत्नी के साथ चर्मसुख का आनंद उठाना चाहुंगा। यह घटना याद आने का कारण कोणार्क की भित्तियों में उत्कीर्ण कामकेलि की विभिन्न मुद्राएं हैं, जिन्हें सार्वजनिक रुप से प्रदर्शित किया गया है।
नायिक - शुक सारिका
विदेशी पर्यटक मिथुन प्रतिमाओं को आश्चर्य मिश्रित भावों से देखते हैं कि भारत में यौन शिक्षा प्राचीन काल से ही चली आ रही है और इसे सार्वजनिक तौर पर महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वरना पाश्चात्य देशों में भारत के विषय में सिर्फ़ यही धारणा है कि यह जादू टोने, साधू संतों एवं सांपो का देश है। इससे सीधा अर्थ लगा लिया जाता है असभ्य है और सभ्यता का ठेका तो पाश्चात्य देशों के पास है। वात्सायन कहते हैं पति-पत्नी को धार्मिक और सामाजिक नियमों की शिक्षा  कामसूत्र के द्वारा मिलती है। जो दम्पति कामशास्त्र के मुताबिक अपना जीवन व्यतीत  करते है उनका जीवन यौन-दृष्टि के पूरी तरह सुखी होता है। ऐसे दम्पति अपनी पूरी जिंदगी एक-दूसरे के साथ संतुष्ट रहकर बिताते हैं। कामसूत्र द्वारा ऐसी बहुत सी  विधियां बताई जाती है जो स्त्री और पुरुष को आपस में ऐसे मिला देती है जैसे कि दूध में पानी।
 नायिका-पुत्र वल्लभा
भारतीय दर्शन में उपदेश किया गया है कि मनुष्य को जीवन काल में पुरुषार्थ चतुष्टय को धारण करना चाहिए। धर्म अर्थ काम मोक्ष द्वारा ही जीवन सुखमय और आनंददायक होकर अंतिम मंजिल को प्राप्त करता है। इसमें काम का महत्व धर्माचरण के इतना ही पवित्र रखा गया है। जिस प्रकार आहार त्याग देने या पौष्टिक पदार्थों के न खाने से शरीर सूख कर कांटा हो जाता है, इंद्रियां शिथिल हो जाती हैं, क्षुधा-पिपासा शरीर को सोखने लगती है, उसी प्रकार काम निरोध से भी हानि होती है, अनेक शारीरिक एवं मानसिक व्याधियाँ पकड़ लेती हैं। ऐसी स्थिति में सारांश यह निकलता है कि बलात निर्यंत्रण या अतिशय भोग ये दोनो ही उपाय हानिकर हैं। इनकी उपाय पूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए। वात्सायन कहते हैं कि इन्हें इस प्रकार प्राप्त करें कि एक पुरुषार्थ दूसरे पुरुषार्थ का बाधक न बने।
नायिका मुग्धा
प्राचीनकाल में अभिजात्य नागरजनों एवं साहित रसिकों तथा विलासप्रियों के लिए नायिका रसानुभूति का माध्यम एवं मनोरंजन का कलापूर्ण साधन भी रहा है। भित्ति प्रतिमाओं में शिल्पकारों ने नायिका यथा, गणिका, शुक सारिका, आंजना, शाल भंजिका, रमणिका, अभिसारिका, मुग्धा एवं अन्य को भित्तियों में स्थान दिया है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ नायिकाओं को ही स्थान दिया जाता था, समाज में नायक भी होते थे, भरत ने नायक के चार भेद किए हैं- धीरललित, धीरप्रशान्त, धीरोदात्त, धीरोद्धत। ये भेद नाटक के नायक के हैं। "अग्निपुराण" में इनके अतिरिक्त चार और भेदों का उल्लेख है : अनुकूल, दर्क्षिण, शठ, धृष्ठ। ये भेद स्पष्ट ही शृंगार रस के आलंबन विभाव के हैं। मनोरंजन की दृष्टि से इनका चित्रण भी मंदिरों की भित्तियों पर किए जाने की परम्परा रही है।  
नायक - धीरललित
मंदिरों में उत्कीर्ण मैथुन प्रतिमाओं के द्वारा हमारे पूर्वज कुछ गूढ़ संदेश आने वाली पीढ़ी के लिए संकेत के तौर पर देकर गए हैं। यह भोग विलास का कोरा प्रदर्शन नहीं है। स्त्री-पुरुष संयोग को प्रतिमाओं में प्रदर्शित करते हुए यह भी दर्शाया गया है कि "अङादङात सम्भवसि हृदयादधि जायसे। आत्मा वै पुत्रानामासि सजीव शरद: शतम्॥ (निरुक्त निघंटु कांड 3/1/4) तू मेरे अंग प्रत्यंग से प्राप्त हुआ  है, तू मेरे हृदय से उत्पन्न हुआ है और मेरा ही पुत्र संज्ञक स्वरुप है। ऐसा तू सौ वर्षों तक जीवित रह।" मानव शरीर को अमरावती कहा गया। इसे अमरावती कहने का कारण है कि शरीर के द्वारा नए शरीर की उत्तप्त्ति होती है, इस शरीर द्वारा सतत उत्पन्न होक मानव युगों युगों तक जीवित रहता है। इस दृष्टि से परम्परागत शरीर नष्ट नहीं होता। इसलिए अप्रमत्त होकर इसकी रक्षा करनी चाहिए। यही संसार का अंतिम सत्य है,  जो जहाँ से शुरु होता है वहीं समाप्त भी होता है। जारी है… आगे पढ़ें। 

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

पर्यावरण प्रदूषण एवं प्राचीन चिकित्सा पद्धति - कलिंग यात्रा


चलते-चलते एक-एक पाषाण प्रतिमा के रुकता हूँ और वह मुझे कुछ न कुछ कहती है। जिसे सिर्फ़ मैं सुन सकता हूँ और वह मुझे ही कह सकती है। विक्रमादित्य के सिंहासन की पुतलियों की तरह सभी प्रतिमाएं बोलती हैं। सदियों पुराने राज अपने मुंह से ही खोलती हैं। न विक्रम सुन पा रहा है न बिकाश। इन्हें सुन कर और समझ कर भी क्या करना  है पाषाण की भाषा। पाषाणों की भाषा की इतनी समझ तो नहीं है, क्योंकि मैने किसी इस भाषा का किसी गुरुकुल में अध्ययन नहीं किया है और न ही किसी कुल ॠषि के उनके कुलगोत्र का होने का प्रमाण पत्र पाया है। बस प्रेम है इनसे और प्रकृति कहती है कि प्रेम की भाषा समझने के लिए किसी प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं। 
बोलती पुतलियाँ
एक प्रतिमा के समक्ष ठिठक जाता हूँ, उसने बहुत कुछ राज अपने में संजो रखे हैं, देखते ही बोलने लगती है। प्रतिमा में मैथुन रत पुरुष स्त्री को प्रकट किया गया है। लोग मुंह फ़ाड़े कामसुत्र के आसनों को देख रहे हैं। कुछ नवयुवकों की फ़ौज भी इन्हें देख कर आनंदित है। एक युवक मोबाईल पर किसी से बतिया रहा है - "अरे तुमको आना था हमारे साथ, क्या जोरदार सेक्सी पोज हैं यहाँ। सालों ने सारी ब्लू फ़िल्म ही उतार कर रख दी है मंदिर की दीवार पर। बहुत ही गजब है, उस जमाने के लोग कितने सेक्सी थे। तुम रहते तो और मजा आता।" वर्तमान युवाओं की सोच देख मैं स्तब्ध हूँ, जिस प्रतिमा में इन्हें ब्लू फ़िल्म दिखाई दे रही है, वह प्रतिमा उस काल महत्वपूर्ण राज खोल रही है। 
कोणार्क की मिथुन प्रतिमा
चलो उन्होने जो देखा वो मैने बता दिया और अब मुझसे प्रतिमा ने क्या कहा यह बताता हूँ। प्रतिमा कहती है कि रात्रि काल में मच्छरों एवं कीटों की संख्या बढ़ जाती है। इसलिए रात्रि शयन मच्छरदानी (मसहरी) लगा कर करना पड़ता है। आदमी दिन भर का थका हारा घर लौटता है और चर्मसुख के वक्त यदि मच्छर परेशान हलाकान करें तो आनंद में व्यवधान पैदा हो जाता है। इसलिए मच्छरदानी का सहारा लिया जा रहा है। प्रतिमा में चारपाई पर युगल मिथुन रत हैं और चारपाई पर मच्छरदानी लगी है। मच्छरदानी के उपर से चूहे दौड़ रहे हैं। इससे स्पष्ट हो रहा है कि उस काल में भी प्रदूषण के कारण मच्छर थे और आमजन मच्छरों से हलाकान था। मच्छरों से बचने के लिए मच्छरदानी का उपयोग कर रहा था। साथ ही चूहों से भी बचाव हो रहा था।
रात्रिकाल में मच्छरदानी का प्रयोग
ऐसी बहुत सी मिथुन प्रतिमाएं कोणार्क की भीत्तियों पर उत्कीर्ण की गई हैं। मिथुन प्रतिमाओ के साथ रतिज रोगों के विषय में भी प्रतिमाएं बताती हैं। रतिज रोगों के विषय में चरक ने सहिंता में विस्तार से बताया है और उनकी चिकित्सा विधि का भी वर्णन किया है। चित्र में दिखाई गई प्रतिमा में यह पुरुष लिंग में हुए व्रणो से परेशान है। चिकित्सक ने लिंग में दवा का लेपन कर उसे एक यंत्र से बांध दिया है। जिसे उस व्यक्ति ने हाथ में लटका रखा है। वस्त्र के घर्षण से व्रणों से मवाद निकल चिपक जाता है और असहनीय दर्द का सामना करना पड़ता है। इसलिए चिकित्सक ने उसे वस्त्र से अलग कर दिया है। आधुनिक चिकित्सा में भी मुत्र नली में कैथेटर डाल कर मरीज के हाथ में पकड़ा दिया जाता है। इससे ज्ञात होता है कि इस काल में एस टी डी जैसे रतिज रोग भी थे।
यौनरोग चिकित्सा 
एक अन्य प्रतिमा में खड़ी हुई महिला की योनि को स्वान चाट रहा है। कुछ लोग इसे एनिमल सेक्स कह रहे थे। एनिमल सेक्स में स्वान लिंग से मैथुन दिखाया जाता है, न कि चाटते हुए। इसे देखने के पश्चात मुझे अपना ग्रामीण बचपन याद आता है, जब गांव में चिकित्सक नहीं होते थे और किसी के फ़ोड़े में मवाद भर जाता था तो वह कुत्ते से चटवा लेता था। कुछ दिनो के बाद वह फ़ोड़ा ठीक हो जाता है। इसी तरह स्त्री रतिज रोग में गनोरिया इत्यादि का संक्रमण कष्टदायक होता है। इसकी चिकित्सा स्वान से चटवा कर की जा रही है। एक अन्य चित्र में योनि में धुंआ लगाया जा रहा है। यह भी स्त्री रतिज रोग की एक चिकित्सा है। जड़ी बूटियों की धूनी देने से रोग का शमन होता था। वर्तमान में भी अजवाईन आदि की धुंआ दी जाती है।
दो पत्नियों से दुखी सन्यास की ओर प्रस्तुत अधेड़
यह उत्श्रृंखल समाज के लिए एक संदेश भी है कि अत्यधिक मैथुन से विभिन्न व्याधियों का शिकार होना पड़ता है और उनकी चिकित्सा किस तरह की जाती है, इसको भी प्रतिमाओं में दर्शाया गया है। एक प्रतिमा में घुटे हुए शीष का एक अधेड़ व्यक्ति कांधे पर लाठी में पोटली लटका कर कोपीन धारण किए वन गमन को तत्पर दिखाई दे रहा है और एक स्त्री उसका मार्ग रोक रही है। पीछे खड़ी स्त्री ने भी उसको पकड़ रखा है। इस प्रतिमा में घरेलू समस्या दिखाई दे रही है। दो बीबियों की रार से हलकान होकर पुरुष सन्यास लेकर वन जा रहा है और उसे छोटी और बड़ी दोनो बीबियाँ रोक रही है। तत्कालीन समाज की झांकी कोणार्क की भित्तियों में सुरक्षित है। काल के थपेड़े भी उसे नष्ट नहीं कर पाए और जानकारियाँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को स्थानांतरित हो रही हैं। जारी है आगे पढ़ें……।

मंगलवार, 21 अप्रैल 2015

तेरहवीं सदी में नारी क्रांति : कलिंग यात्रा


अन्य चक्रों में भी पूर्व चक्रों में उत्कीर्ण प्रतिमाओं की पुनरावृत्ति की गई है। कुछ वर्षों पूर्व 20 रुपए के लाल नोट पर एक चक्र को प्रकाशित किया जाता रहा है। मंदिर की भीत्ति में उत्कीर्ण प्रतिमाओं को देखते हैं तो लगता है कि मेला लगा हुआ है, विषय भिन्नता के साथ सामाजिक समरसता का संगम यहाँ दिखाई देता है। यह मंदिर कलिंग स्थापत्य एवं मूर्ति शैली का उत्कृष्ट उदाहरण है। प्रतिमाओं में स्त्री एवं पुरुष का केश विन्यास लगभग एक सा ही दिखाई देता है। अगर स्तन और उन्नत पुष्ट नितंब न हो तो पुरुष प्रतिमा भी स्त्री प्रतिमा जैसी दिखाई देती है। बिकाश को कई बार पुरुष प्रतिमा में स्त्री दिखाई दी। असल में कलिंग क्षेत्र में पुरुष भी बालों का जूड़ा बनाते हैं और इसका प्रत्यक्ष उदाहरण मैने चिल्का की यात्रा में बिकाश को दिखाया। तेरहवीं शताब्दी से लेकर अभी तक ग्रामीण अंचल में स्त्री पुरुषों के केश विन्यास में अधिक बदलाव नहीं आया है।
पुरुष केश विन्यास
कोणार्क, जैसा की शब्द से ही प्रतिध्वनित होता है कि यहाँ कोण की बात हो रही है। चंद्रभागा नदीं यहाँ से लगभग डेढ मील की दूरी पर समुद्र में मिलती है और वहाँ पर एक कोण बनता है। इस कोण के बनने के कारण इस स्थान का नाम कोणार्क प्रचलित होकर कालांतर रुढ़ हो गया और सूर्य मंदिर भी कोणार्क के नाम स्थापित हो गया। हमने देखा है कि तटीय क्षेत्र में निवास करने वाले लोग कम वस्त्र धारण करते हैं या खुले वस्त्र धारण करते हैं। समुद्र किनारे की उमस भरी खारे पानी से व्याप्त आद्र वायू देह पर चिपचिपापन पैदा करती है। पशीने के कारण वस्त्र देह से चिपकने लगते हैं। इसलिए समुद्र तटीय लोग उपरी बदन खुला एवं कमर पर कटि वस्त्र के साथ कांधे पर उत्तरीय धारण करते हैं। प्रतिमाओं में इसका चित्रण बखुबी किया गया है। कोणार्क के गाईड पर्यटकों को कटिवस्त्र के स्थान स्कर्ट बताकर गुमराह करते हैं। 
कटि वस्त्र
प्राचीन काल में चमड़े की जूतियों का अविष्कार हो गया था। परन्तु शिल्पकार देवी देवताओं एवं अन्य प्रतिमाओं को जूते चप्पल धारण किए नहीं प्रदर्शित करते। सभी प्रतिमाओं को नंगे पैर ही दिखाया जाता है। रमण करती नायिका की ऊंचाई बढ़ाने के लिए उसे नायक के पंजो पर खड़ा कर दिया जाता है, जिससे उसकी ऊंचाई बढ़ जाए और सौंदर्य अलंकरण में वृद्धि हो। देव प्रतिमाओं में सिर्फ़ सूर्य को ही पिंडलियों तक का बूट या जूता धारण किए हुए दिखाया जाता है। कापालिकों, साधुओं, यति जतियों के पैर भी नंगे दिखाए जाते हैं। सूर्य के अतिरिक्त किसी अन्य देवता या मनुष्य को चरण पादूका धारण किए हुए चित्रित नहीं किया जाता। वैसे आज भी धार्मिक स्थलों में जूते-चप्पल धारण कर प्रवेश करना वर्जित है। प्राचीन काल में नंगे सिर मंदिरों में प्रवेश नहीं किया जाता था। आज भी ग्रामीण अंचल में ठाकुर देव के समक्ष सिर पर पागा या रुमाल रख कर ही जाने की परम्परा देखी है।
सूर्य द्वारा लांग बूट धारण
एक प्रतिमा में स्त्री को ऊंची एड़ी की खड़ाऊ धारण किए प्रदर्शित किया गया है। जबकि खड़ाऊ वानप्रस्थ या सन्यास धारण किए हुए पुरुष ही धारण करते हैं। सन्यासी एवं गृहस्थ के दोनों एक लिए पृथक पृथक खड़ाऊ का निर्माण होता था। गृहस्थ के लिए काष्ठ पर सामने कपड़े या चमड़े की पट्टी लगा दी जाती थी और सन्यासी के लिए अंगुठे एवं अंगुली के बीच फ़ंसने वाली काष्ठ कील होती थी। इसके निर्माण के पीछे का विज्ञान बताया जाता है कि अंगुठे एवं तर्जनी के मध्य की नस का संबंध मनुष्य की कामेंद्री से होता है। काष्ठ कील वाली खड़ाऊं पहनने से उस नस पर हमेशा दवाब बना रहता है जो कामोत्तेजना को मंद करता है और साधु-सन्यासी में काम विकार का उद्वेग पैदा नहीं होता। 
स्त्री द्वारा ऊंची एड़ी का खड़ाऊ धारण करना
तेरहवीं सदी में स्त्री द्वारा ऊंची एड़ी की खड़ाऊ धारण करना क्रांतिकारी ही माना जाएगा। अभी तक तो पुरुषों द्वारा ही खड़ाऊ धारण की जाती थी। पाश्चात्य युरोप के देशों में भी सोलहवीं सदी तक स्त्रियों द्वारा ऊंची एड़ी के जूते धारण करने की शुरुवात भी नहीं हुई थी। इससे एक बात तो निकल कर सामने आती है कि स्त्रियों को इस सदी तक पुरुषों के समान ही अधिकार प्राप्त थे तथा पुरुष उनके आदेश की अवहेलना नहीं कर सकते थे। राजा लांगुल नृसिंह देव ने अपने खजाने से सूर्य मंदिर निर्माण करने का आदेश स्वमाता से ही पाया था और उसने मंदिर निर्माण पर अमल भी किया। प्रतिमाओं से एक बात और निकल कर सामने आती है कि स्त्रियों परदा नहीं करती थी। किसी भी प्रतिमा में परदा या घुंघट दिखाई नहीं देता। 
राज नृसिंह देव उनकी माता जी
अप्सराओं, गणिकाओं एवं नायिकाओं ने कोई परदा या घूंघट नहीं रखा है। एक प्रतिमा में राजा नृसिंह देव की माता ने सिर पर पल्लू धारण कर रखा है। यह राजकुल की गरिमा का प्रतीक भी है। स्त्रियों को कार्य की स्वतंत्रता थी प्रतिमाओं में कहीं पर उत्श्रृंखलता दिखाई नहीं देती। स्त्री द्वारा ऊंची एड़ी की खड़ाऊ धारण करने के कुछ कारणों पर विचार किया जा सकता है। पहला - उच्च घराने की होने के कारण फ़ैशन परस्ती मानी जा सकती है। दूसरा - कामेंद्री को शिथिल कर सन्यास धारण करने का अभ्यास भी हो सकता है। तीसरा - पुरुष समाज के समक्ष स्त्री अधिकार के लिए चुनौती भी माना जा सकता है। जिससे पुरुष समाज इसे मान्यता दे। स्त्री द्वारा खड़ाऊ धारण करने के कार्य को गंभीरता से लिया जाना चाहिए। यह एक नारी क्रांति का सूत्रपात माना जा सकता है। जारी है आगे पढ़ें……।

सोमवार, 20 अप्रैल 2015

रथचक्र में कालचक्र : कलिंग यात्रा


विशाल रथ के विशाल पहिए, हाँ भई विशाल्र रथ को खींचने के लिए विशाल पहियों की योजना की आवश्यकता थी। अधिष्ठान की ऊंचाई को ध्यान में रख कर पहियों की ऊंचाई भी तय की गई थी। प्रत्येक पहिया तीन मीटर का है अर्थात नौ फ़ुट नौ इंच ऊंचाई होगी। पहिए भी साधारण नहीं है, किसी भी गहने को महीनता से निर्मित करने में एक स्वर्णकार जितना श्रम करता है, उससे अधिक श्रम एवं अलंकरण प्रत्येक पहिए में बिसु (विष्णु) महाराणा के कारीगरों ने किया है। धातु पर कार्य करने अपेक्षा शिलाओं पर कार्य करना अत्यधिक कठिन है। शिलाओं पर जो भी कार्य होता है वह पूर्णता की ओर ही बढ़ता है। एक छेनी गलत चल जाने पर सुधार की गुंजाईश नहीं रहती। फ़िर वह दोष सहस्त्राब्दियों तक के लिए स्थाई हो जाता है।

मैं चक्र का निरीक्षण कर रहा था और बिकाश का ध्यान चक्र के साथ फ़ोटो लेने में था। यह वही स्थान है जहाँ अधिकतम पर्यटक एक चित्र जरुर लेते हैं। बिकाश मेरे सुक्ष्म निरीक्षण में व्यवधान उत्पन्न कर रहा था। कहते हैं "लौंडों की दोस्ती, जी का जंजाल"। बस कुछ ऐसा ही मामला था। उसकी रुचि कोणार्क के सतही दर्शन में थी और मेरी इच्छा गहन अध्ययन करने में। बस अपनी आंखो से देख कर समझने पर विश्वास है। जो देखा उसके विषय में मंतव्य अपनी मंत्रणा के हिसाब से देता हूँ। बिकाश की ईच्छा पूर्ण करनी पड़ी। वर्तमान में एक नई समस्या का सामना भी करना पड़ रहा है। कैमरे से फ़ोटो खींचने के साथ वही दृश्य मोबाईल से भी खींचना पड़ता है। एक ही दृश्य को दो-दो बार कैद करना पड़ता है। डिजिटल युग ने फ़ालतु के काम बढ़ा दिए। 

सूर्य रथ समस्त चक्र (पहियों) की परिकल्पना एक जैसी है। प्रत्येक में 8 आरे है और इन आरों के मध्य इतने ही लघु आरे भी हैं। अगर थोड़ा सा दिमाग लगाए और खोपड़ी खुजाएं तो निर्माणकर्ता ने प्रत्येक पहिए को 24 घंटे का बनाया और इस 24 घंटे को 8 बड़े एवं 8 छोटे आरों में विभक्त किया है। अब बड़े आरे 24 घंटे को आठ भागों में विभक्त करते हैं तो प्रत्येक आरा मध्य के हिस्से तीन घंटे आते हैं। इसी तरह छोटे आरे मध्य के हिस्से नब्बे मिनट आते हैं। इन नब्बे मिनटों को पाठे के 30 लघु गोलकों  में बांटा गया है इस तरह प्रत्येक लघुगोलक के हिस्से तीन मिनट आते हैं और लघु गोलक पर पड़ने वाली छाया को तीन हिस्से में बाटने पर एक मिनट का समय होता है। जो घंटे की प्रथम इकाई है। यह सूर्य घड़ी न्यूनतम इकाई मिनट तक का समय बता सकती है।  इससे तय होता है कि यह एक सूर्य घड़ी है। जो सूर्य की परछांई के हिसाब से समय बताती है। 

सूर्य रथ के इन चक्रों में जीवन स्पंदित होता है, जिस तरह हम वर्तमान के चलचित्र देखते हैं और उसमें जीवन से संबंधित सभी कारक एवं कारण दिखाई देते हैं, उसी तरह इन चक्रों में उत्कीर्ण वृक्ष, वल्लरियाँ, वन चर, जल चर, थलचर, नभचर एवं मानवों के साथ देवताओं को स्थान दिया गया है। प्रतीत होता है स्वर्ग यहीं उतर आया है। प्रथम चक्र में अवतारों को स्थान दिया है। सूर्योदय के समय व्यक्ति की दिनचर्या में ईश्वर स्तुति उपासना प्रमुख कार्य होता है, जो देवताओं के स्मरण के बगैर संभव नहीं है। जिस तरह लौकिक परम्परा में गणपति का प्रथम स्थान है, उसी तरह शिल्पकार भी छेनी और हथौड़ी उठाता है तो सर्वप्रथम स्वमान्य, कुलमान्य ईष्टदेव का स्मरण कर कार्य को प्रारंभ करता है। 

चक्र के प्रत्येक भाग को महीनता से अलंकृत किया गया है, अलंकरण देख कर ऐसा लगता है कि शिल्पकार दत्तचित्त होकर प्रस्तर पर आभुषणों का निर्माण कर रहा हो। चक्र की धूरी पर अलंकृत कील अत्यधिक महत्वपूर्ण है, भले ही इसका निर्माण अलंकरण की दृष्टि से किया है परन्तु इस पर रथ संचालन का समस्त भार है। सूर्य रथ का चालक अरुण रथ हांकने से पहले एक दृष्टि तो अवश्य धूरी की कील पर डालता ही होगा। धूरी पर पद्मांकन किया गया है जो इसके सौंदर्य में वृद्धि कर रही है। चक्र के पार्श्व में गज, नर, वानर, सिंह इत्यादि को उत्कीर्ण किया गया है। जैसे की सम्पूर्ण वनांचल ही अर्क रथ का स्वागत करने चला आया हो। 

अगले चक्र में सांझ का वर्णन दिखाई दे रहा था। सांझ के समय सूर्य अस्ताचल को जाता है और दिन भर के कार्य सम्पादन के पश्चात मनुष्य को आलस घेर लेता है और वह रात की प्रतीक्षा करता है, या फ़िर सांझ ढ़लते ही दिवस भर से नायिका प्रियतम की प्रतीक्षा में उकता कर उबासियाँ और अंगड़ाईयाँ लेते हुए द्वार आहट को सुनने के लिए व्यग्र रहती है। इन भावों का प्रभावोत्पादक ढ़ंग से इस चक्र आठों आरों पर चित्रण किया गया है। किसी चित्र में नायिका आ उत्तरीय हवा से उड़कर उसके पुष्ट सौंदर्य को प्रदर्शित कर रहा है तो कहीं वह चौकी पर बैठी हुई व्यग्रता से प्रतीक्षारत दिखाई देती है।  … जारी है, आगे पढ़ें……।

रविवार, 19 अप्रैल 2015

कोणार्क का अठपहरिया : कलिंग यात्रा


हमारे समक्ष दो-दो सूर्य रथ थे। एक धरा पर समक्ष और दूसरा आकाश से सिर पर तप रहा था। जहाँ पाषाण होते हैं, वहां सर्दी-गर्मी में सहज ही वृद्धि हो जाती है। सूर्य की दो पत्नियाँ हैं, पहली प्रभा और दूसरी छाया। प्रभा तो सूर्य के साथ रथ पर सवार थी और छाया जो शीतलता देती है, वह कहीं निद्रालीन हो गई, क्योंकि सूर्य मंदिर मंदिर में छाया दिखाई नहीं दे रही थी। छाया देवी ही मातृरुप वत्सल हैं, जो सूर्य के कोप से जन की रक्षा करती हैं। सूर्य का हृदय पिता के समान कठोर है तो छाया का हृदय माता भगवती के जैसा स्नेहील और ममत्व भरा। हम चूक गए उनका स्नेह पाने से। खैर दिन ढलने लगेगा तो छाया देवी पुन: सक्रीय हो जाएगी अपना आंचल फ़ैला कर और सूर्य के कोप से कुछ राहत मिलेगी।
नाट मंडप एवं जगमोहन (भोग मंडप)
हमारे द्वारा नाट मंडप की पैड़ियाँ उतरने के बाद समक्ष विशाल जगमोहन दिखाई देता है। कलिंग निर्माण शैली में मंदिरों में मंडप के स्थान पर जगमोहन निर्मित करने की परम्परा है। नाट मंडप एवं जगमोहन के मध्य प्रांगन में अरुण स्तंभ लगा हुआ था। इस स्तंभ पर गरुड़ विराजमान हैं। विक्रम कहता है कि इस अरुण स्तंभ को मराठा शासन के समय एक मराठा साधू उखाड़ कर ले गया और उसे 21 मील दूर पुरी के जगन्नाथ मंदिर के समक्ष स्थापित कर दिया। दरअसल यह मंदिर भग्न हो चुका था और इस स्थान पर घनघोर प्राकृतिक जंगल बन गया तथा यह स्थान चोर डकैतों की शरण भी हो गया। इसलिए इस मंदिर की सामग्री का उपयोग पुरी के जगन्नाथ मंदिर में किया गया।
अरुण स्तंभ पुरी : कहते हैं इसे कोणार्क से लाया गया
हमारे सामने सूर्य विशाल रथ खड़ा है, जिसमें एक तरफ़ तीन एवं दूसरी तरफ़ चार अश्व जुते हैं। अश्वों के अगले पैर हवा में है अर्थात अर्करथ वायू की गति से उड़ता जा रहा है। यह समय चक्र का प्रतीक है, समय भी तीव्र गति से उड़ रहा है। सप्ताश्व सप्ताह के सातों दिनों के प्रतीक हैं। समय चक्र और सूर्य रथ की गति, दोनो समान है। मैं सूर्य मंदिर निर्माता शिल्पकारों की कुशलता पर मुग्ध था। इस विशाल संरचना के निर्माण के लिए उन्होने सटीक योजना बनाई थी। निर्माण कार्य में प्राचीन काल से गोली, गुनिया, लेबल, सूत नामक चार उपकरणों का प्रयोग किया जाता है, जो दिखने में तो साधारण है, पर इनके बिना किसी भी निर्माण की कल्पना नहीं की जा सकती है। भले ही वर्तमान में इंजीनियरिंग कीर्तिमान गढ़ रही हो पर इन साधारण से उपकरणों का प्रयोग आज भी छोटे से लेकर बड़े निर्माण में होता है।
अर्क रथ एवं उसमें जुते अश्व
खड़ी भींत की सीधाई नापने के लिए धागे में धातू की गोली लटका कर भींत की सिधाई नापी जाती है। गुनिया कोण नापने के काम आता है। वास्तु शास्त्र में इस उपकरण का अत्यधिक महत्व है। मयमत्तम कहता है कि किसी भी भवन के कोण 90 अंश के ही होने चाहिए, न्यून या अधिक होने पर वास्तु दोष उत्पन्न हो जाता है। लेबल नामक उपकरण तल को सम (बराबर) करता है तथा सूत या धागा अन्य भिन्न कार्यों में प्रयोग होता है। इससे गुनिए से लेकर गोलाई बनाने के लिए प्रकार का कार्य भी लिया जाता है। खैर इन उपकरणों से आगे बढ़ें तो देखते हैं कि निर्माण छोटी से लेकर बड़े प्रस्तर खंडो का प्रयोग हुआ है। जो लेट्राईट, खंडोलाईट एवं क्लोराईट के हैं। समय की मार से लेट्राईट खंड जल्दी ही तबाह हो जाते हैं। वैसे भी इस इलाके में भवन निर्माण में वर्तमान में भी लेट्राईट के खंडो का प्रयोग होता दिखाई देता है।
समय चक्र (अठप्रहरी)
भोग मंडप (जगमोहन) एवं देऊल (गर्भ गृह) एक ही जगती (अधिष्ठान) पर निर्मित हैं। भूतल से अधिष्ठान तक पहुंचने के लिए 14 पैड़ियों का निर्माण किया गया है, ये जीर्णोद्धार होने के कारण कम ज्यादा भी हो सकती हैं और भोग मंडप के मुख्य द्वार तक पहुंचने के लिए जगती पर 7 पैड़ियों का निर्माण हुआ है। जगती में दोनो ओर बारह-बारह, कुल 24 चक्रों का निर्माण किया गया है। इन चक्रों को हम आभुषण मान सकते हैं। प्रत्येक चक्र स्वयं में बहुत ही मनमोहक अलंकरण है। हम दर्शन कार्य जगती के बाईं तरफ़ से प्रारंभ करते हैं। जगती के नीचे गजथर निर्मित है, जिसमें विभिन्न मुद्राओं में हाथियों का सजीव चित्रण किया गया है। इन हाथियों की संख्या लगभग दो हजार होगी। 
बहुत कुछ खास है कोणार्क में
गजथर के उपर की पंक्ति में प्रतिमाएं निर्मित की गई है, जिनमें देवी-देवता, नर, किन्नर, गंधर्व, अप्सराएं, भिन्न भिन्न भाव भंगिमा युक्त नारी चित्रण मनमोहक है। हम देखें तो सारा संसार ही सूर्य रथ पर विद्यमान है। तत्कालीन समाज की एक झांकी यहाँ उत्कीर्ण है, ऐसा लगता है कि समय का रथ यहीं आकर ठहर गया और लोगों को कहता है कि आओ देखो, जानो हमारे सामाजिक क्रिया कलापों को,  हमारे रहन सहन को और हमारी निर्माण क्षमता के समक्ष नतमस्तक हो जाओ। सूर्यरथ के सप्ताश्व सप्ताह के सातों दिनों का प्रतिनिधित्व करते हैं और 24 चक्र वर्ष के 24 पक्षों का। सूर्य रथ का कैलेंडर प्राचीन भारतीय पंचाग की गणना के हिसाब से चल रहा है। न यहाँ आगस्टस है और न जुलियस सीजर, है तो सिर्फ़ राजा विक्रम और काल चक्र………। जारी है, आगे पढ़ें……

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

नाट मंडप में नृत्य करती अप्सराएं - कलिंग यात्रा


हम चलते-चलते मंदिर के मुख्य द्वार तक पहुंच गए। मुख्य द्वार पर पुरातत्व विभाग के सुरक्षा कर्मी तैनात हैं, जो आने वाले प्रत्येक व्यक्ति की टिकिट की जाँच करते हैं। इस मंदिर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों से 10 रुपए प्रति व्यक्ति शुल्क लिया जाता है। उंचे अधिष्ठान पर मंदिर तीन भागों में विभक्त है। 

पहले नाट मंडप है, जिसके प्रवेश द्वार पर दो विशाल सिंह हाथियों पर आक्रमण करते दिखाई देते हैं। हाथियों से विशाल विकराल सिंहों का निर्माण किया गया है। दोनो हाथियों ने सुंड से एक-एक व्यकित को दबोच रखा है और हाथियों को सिंह ने। 

भूतल से सिंह प्रतिमाओं की उंचाई 9.2 फ़ुट है। ये प्रतिमाएं एक ही पत्थर की बनीं हैं। 28 टन की 8.4 फ़ुट लंबी 4.9 फ़ुट चौड़ी हैं। सिंह अलंकरण से युक्त हैं। नाट मंडप तक पहुंचने के लिए भूतल से 18 पैड़ियों का निर्माण किया गया है। यहाँ से प्रवेश करने पर सामने जगमोहन दिखाई देता है। नाट मंडप मुख्य मंदिर से पृथक अधिष्ठान पर पूर्व दिशा में निर्मित है। 

मंडप को तीन भागों में बांटा गया है। इस मंडप की पश्चिम दिशा में जगमोहन एवं गर्भगृह है। कहते हैं कि इन तीनों भागों से सूर्य की किरणें जगमोहन में प्रदेश कर गर्भ गृह में स्थापित सूर्य की प्रतिमा को आलोकित करती थी। यही प्राचीन शिल्प का चमत्कार है। 

इनको बारह महीनों के क्रम में बांटा गया है और प्रत्येक 4 महीने एक हिस्से से सूर्य की किरणें मंदिर में प्रवेश करती थी। नाट मंडप में वाद्यकों, विद्याधरों, अप्सराओं एवं गंधर्वों का शिल्पांकन किया गया है। स्तंभो एवं भित्तियों पर इन्हें स्थान दिया गया है।

मंडप को सुंदर लता वल्लरियों से सजाया गया है। स्तंभों में सिंह व्याल को प्रमुखता दी गई है। उड़ीसा क्षेत्र में परम्परागत रुप से बजाए जाने वाले वाद्य भी यहाँ दिखाई देते हैं। तत्कालीन संगीत संस्कृति की झलक इस स्थान पर दिखाई देती है। 

नाट मंडप के अधिष्ठान की ऊंचाई लगभग 10 फ़ुट है एवं नाट मंडप की ऊंचाई 128 फ़ुट बताई जाती है। इस मंडप में पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा सरंक्षण का किया कार्य स्पष्ट दिखाई देता है। हम जब नाट मंडप में पहुचे तो पर्यटकों की संख्या अच्छी खासी दिखाई दी। इस स्थान पर उड़ीसा सरकार के पर्यटन एवं संस्कृति विभाग द्वारा सांस्कृतिक उत्सव का आयोजन किया जाता है। आगे पढ़े जारी है……

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

राजा नृसिंह देव का संकल्प : कोणार्क - कलिंग यात्रा

प्रारंभ से पढ़े … कहाँ से आए हो सर? वट वृक्ष की छाया में मेरे संग एक बड़ी शिला पर बैठते हुए विक्रम ने पूछा। मैने कहा - दक्षिण कोसल से। स्वागत है आपका, माता कौशल्या के देश से पधारे हैं आप, कुछ जल ग्रहण कीजिए। आज वातावरण में उमस कुछ अधिक है। विक्रम के माथे पर श्वेद कण झिलमिला रहे थे, जैसे मुक्तालड़ी धारण कर रखी हो, यह सुपारी का असर था, सुपारी खाते ही उसकी गर्म तासीर का अहसास हो जाता है। 
विक्रम और बेताल
विक्रम कहने लगा - आप सामने जो मंदिर देख रहे हैं न, उसमें अभी पूजा नहीं होती। इसे राजा नरसिंह देव ने बनवाया था अपनी माता के आदेश पर। माता की इच्छा पूर्ति करना प्रत्येक पुत्र का कर्तव्य होता है। राजा ने भी इसे पूर्ण करने के लिए सारे देश से कुशल कारीगरों को आमंत्रित किया और उनसे सलाह मशविरा कर मंदिर निर्माण के लिए इस स्थान का चयन किया। इस मंदिर का निर्माण 1200 कारीगरों ने 12 वर्ष में पूर्ण किया और मुझे सत्रह वर्ष हो गए इस स्थान पर सेवा देते हुए।
कोणार्क के सूर्य मंदिर का नाट्य मंडप एवं जगमोहन
इसके साथ ही विक्रम मंदिर से जुड़ी किवदन्तियाँ और मिथक भी सुनाने लगा। किसी स्थान के महिमा मंडन में किंवदन्तियां एवं मिथक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हम कलिंग की उस भूमि पर थे जहाँ पहुंच कर अशोक का हृदय परिवर्तन हो गया था। इतना कत्ले आम हुआ था कि धरा भी रक्त से नहा गई थी। विधवाओं एवं उनके बच्चों का विलाप देख कर अशोक का पाषाण हृदय पिघल गया। यह वह भूमि है जिसमें फ़ौलादों को भी पिघलाने की ताकत है। यह बिना संकल्प शक्ति के नहीं होता। कलिंग की दृढ़ संकल्प शक्ति के प्रमाण के रुप में समक्ष खड़ा हुआ स्मारक देख रहे थे। विकास बाबू फ़ोटो खींचने में लगे थे। 
बिकाश शर्मा कोणार्क परिसर में
कहानी आगे बढ़ रही थी। विक्रम कह रहा था कि पहले इस स्थान पर दल-दल था और इसमें जल भरा हुआ था। मंदिर बनाने के लिए शिल्पकार को पहले इस दल-दल को भरना था। बिसु महाराणा इस निर्माण कार्य का मुख्य शिल्पी था। कहते हैं कि तीन वर्ष तक लगातार इस स्थान को मिट्टी से भरने की कोशिश की गई। मिट्टी बहने के कारण श्रम एवं धन व्यर्थ जा रहा था। राजा एवं मंत्री सभी चिंतित हो गए। राजा ने मंत्री को बुला कर गड्ढे को भरने के लिए अन्य कोई उपाय सोचने कहा। एक दिन मंत्री जंगल के रास्ते जा रहा था, उसे प्यास लगी तो वह रास्ते में स्थित एक भगवती मंदिर में रुक गया। 
कोणार्क सूर्य मंदिर का प्रवेश द्वार
वहाँ एक बुढिया रहती थी। बुढ़िया से उसने खाना और पानी मांगा। बुढिया ने खीर बनाई थी, वह गर्म खीर उसने मंत्री को खाने को दी। मंत्री ने खीर की थाली के बीच में हाथ डाला तो उसकी अंगुलियाँ जल गई। बुढ़िया ने कहा कि मंदिर का गड़ढा भरने में भी तुम लोग यही गलती कर रहे हो। किनारे से खीर खाओगे तो ठंडी हो जाएगी और हाथ भी नहीं जलेगा। इसी तरह इस गड़ढे को किनारे से भरोगे तो गड़ढा भी भर जाएगा और मंदिर भी तय समय सीमा में बन जाएगा।
नाट्य मंडप
बुढ़िया से ज्ञान लेकर मंत्री कोणार्क आया और उसने बुढ़िया के द्वारा बताए उपाय का अनुशरण किया। इससे गडढा भर गया और मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हो गया। इस मंदिर के निर्माण के लिए योजना बद्ध रुप से कार्य हुआ। पत्थर लाए गए और मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हुआ। हम चलते जा रहे थे और विक्रम कहते जा रहा था। 
स्वागत द्वार पर सिंह 
राजतंत्र में निर्णय लेने के सम्पूर्ण अधिकार राजा के हाथ में होते हैं और दंड विधान का पालन भी कड़ाई से किया जाता था। बारह सौ शिल्पी मंदिर निर्माण का कार्य कर रहे थे। राजा लांगुल नरसिंह देव मंदिर को मुर्त रुप लेते देख रहा था। उसने खजाने का मुंह खोल दिया। चाहे कितना भी धन लग जाए लेकिन मंदिर का निर्माण होकर रहेगा। हम मंदिर के नाट्य मंडप के समक्ष पहुंच गए, वहां प्रहरी के रुप में विशाल विकराल सिंह हमारा स्वागत कर रहे थे। जारी है आगे पढ़े………

बुधवार, 8 अप्रैल 2015

शिल्पियों का पराक्रम और कपार फ़ोड़ गर्मी - कलिंग यात्रा

विक्रम, विक्रम दास। हाँ उसने अपना नाम विक्रम ही बताया था। वाह! कितना सुंदर नाम है, विक्रम। लगा कि अर्कसाल में पहुंच कर साक्षात विष्णु ही प्रकट हो गए हैं हमारा मार्ग दर्शन करने के लिए। पान चबाते हुए हाथों से भंगिमा बना कर जब विक्रम मुझसे अपनी बात कह रहे थे तो लग रहा था कि कोई बहुत बड़ा पुराशास्त्री मुझ नासमझ को समझा रहा हो। सच तो यही था, उस स्थान से मैं अपरिचित था, अस्तु नासमझी भी थी। अर्करथ सिर पर पहुंच चुका था, उसकी रश्मियाँ सीधे ही हमला कर कपार फ़ोड़े दे रही थी। श्वेद बिंदू चूह कर आँखों टपकने लगे। नमकीन जल जलन पैदा कर रहा था। रुमाल निकाल कर चेहरे को पोंछा और बोतल से जल निकाल कुछ छींटे मारे, तब विक्रम से पराक्रम से परिचित होने लायक उर्जा आई। विकम, कोणार्क स्मारक का शासकीय रक्षक है और वही अब हमारा गाईड बन गया था। 
विक्रम दास 
कोणार्क परिसर में ही एक विशाल वट वृक्ष है, जिसकी जड़ों ने सैकड़ों नए वट तैयार कर लिए, मूल वृक्ष लगभग गायब ही हो चुका है। इसकी उम्र देख कर लगता था कि यह कोणार्क के निर्माण एवं पतन का साक्षी है। कुछ देर के लिए हम इसकी छाया में बैठ गए और बिकास बाबू कैमरे से धड़ाधड़ चित्र लेने लगे। दोपहर के दो बज रहे थे और यह समय किसी स्थान पर भ्रमण के लिए उपयुक्त नहीं था। उपयुक्त न होने पर भ्रमण तो कर सकते थे, परन्तु प्रकाश संयोजन अनुकूल न होने से फ़ोटोग्राफ़ी के समस्या उत्पन्न हो जाती है। फ़ोटोग्राफ़ी के लिए सुबह एवं शाम का समय ही सर्वथा उपयुक्त होता है। प्रकृति अपनी लय ताल पर चलती है और आदित्य राजा को कौन रका है? कौन थाम सका है उनके अश्वों की लगाम। त्रिभुवन में ऐसा कोई न हुआ फ़िर हम तो क्षुद्र मानव है, जिन्हें जन्म से ही हर उस वस्तु के आगे सिर झुका कर चलना सिखाया है जो उसकी पहुंच के बाहर है। 
भुबनेश्वर स्टेशन 
प्रारंभ से ही विलंब हो गया था। हमारी ट्रेन सुबह साढे सात बजे भुवनेश्वर स्थानक पर पहुच चुकी थी और हमें गेस्ट हाऊस के आरक्षण के विषय में बता दिया गया था, साथ ही संबंधित अधिकारी का मोबाईल नम्बर भी दे दिया गया था। उनसे हमने ट्रेन में सवार होते ही पता पूछ लिया था और निश्चिंत हो गए थे। कलिंग भ्रमण का कार्यक्रम हमारा अन्य कार्यक्रमों की तरह अचानक ही बना था। बिकाश ने साप्ताहिक छुट्टी ले रखी थी और मैं भी कहीं जाने के मुड में था। मैं चाहता था कि 2-3 हजार किलोमीटर का बाईक से ही सफ़र किया जाए। पर बिकाश इसके लिए तैयार नहीं हुआ। तो हमने ट्रेन से ही पुरी जाने की सोची। रायपुर से शाम सवा पाँच बजे दुर्ग - पुरी इंतरसिटी एक्सप्रेस पुरी के लिए प्रस्थान करती है। हमने सोचा कि ट्रेन में ही स्लीपर का आरक्षण मिल जाएगा इसलिए सामान्य टिकिट लेकर टीटी से सम्पर्क किया। पता चला कि स्लीपर में एक भी सीट खाली नहीं है। तो हमें वातानुकूलित बोगी की ओर जाना पड़ा। वहां सीट खाली मिल गई और अतिरिक्त 17 सौ रुपए की चपत भी लग गई।
भुबनेश्वर शहर 
भुवनेश्वर पहुंचने पर हमने 4 दिन बाद का आरक्षण पहले करा लिया। उसके बाद आटो वालों से सम्पर्क कर पता बताया तो कोई सामतापुर, कोई सामतारायपुर कोइ सांतरापुर कहता था। अब इसके ही फ़ेर में हम पड़ गए। मुझे पता चला था कि लिंगराज मंदिर के समीप ही यह गेस्ट हाऊस है। एक बंदा 70 रुपए में वहाँ तक जाने को तैयार हुआ और खुद न जाकर उसने दूसरा आटो वाला हमारे लिए भेज दिया। हमने लिंग राज मंदिर पहुंच कर पता पूछा तो पुलिसवाली ने दूसरी जगह बता दिया। अब आटो वाला कहने लगा कि वहाँ ले जाने का डबल किराया लुंगा। जबकि वह मुस्किल से 2 किलोमीटर ही आया होगा। मुझे ऐसा लगने लगा कि हिन्दीभाषी होने और उड़िया न समझने के कारण लूटना चाहता है। घड़ी का कांटा सरकते जा रहा था और हमें विलंब हो रहा था। पुलिस वाली के बताए स्थान पर भी वह गेस्ट हाऊस नहीं मिला। तो फ़िर उस अधिकारी को फ़ोन लगाया जिससे कल बात हुई तो पता चला कि वह सांतरापुर है। फ़िर हम सांतरापुर गेस्ट हाऊस पहुंच और आटो वाले पंडे का पूजन कर सुबह सुबह 150 की दक्षिणा देनी पड़ी।
भूभनेश्वर में ऑटो की सवारी 
नहाते-धोते नाश्ता करते 11 बज गए, अब हमने तय किया कि पहले कोणार्क चला जाए। हमें बताया गया कि सांतरापुर से थोड़ी दूर कल्पना चौराहे से कोणार्क के लिए बस मिल जाएगी। साढ़े ग्यारह बजे हमें एक ठसाठस भरी हुई बस मिली और उसमें हम चढ़ गए। उड़ीसा में बसों का किराया हमारे प्रदेश की अपेक्षा काफ़ी कम है। लगभग 65 किलोमीटर के सफ़र के लिए हम दोनो से 70 रुपए किराया लिया गया तो आश्चार्य हुआ। पब्लिक ट्रांसपोर्ट इतना सस्ता है, वैसे बंगाल में भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट बहुत सस्ता है। हमारे छत्तीसगढ़ में दुगना और तिगुना किराया है। पब्लिक ट्रांसपोर्ट वालों ने तो लूट मचा रखी है। खैर बिकाश बाबू के अथक प्रयासों के माध्यम से हमें बैठने लिए सीट मिल गई और लगभग डेढ बजे हम कोणार्क पहुंच गए।  कोणार्क के मेडिकल चौक पर बस ने हमें उतार दिया और वहाँ से पैदल-पैदल हम मंदिर तक पहुंच गए। मंदिर में प्रवेश करने के लिए भारतीयों से प्रति वयस्क 10 रुपए शुल्क लिया जाता है। मैने 2 टिकिट खरीद ली और उससे पुरातत्व के आफ़िस का पता पूछा तो एक गार्ड हमें आफ़िस तक पहुंचा आया।
नवग्रह शिला कोणार्क 
कोणार्क के कंजरवेटर आफ़िसर महापात्रा भुवनेश्वर गए हुए थे और हमें मंदिर भ्रमण कराने की जिम्मेदारी विक्रम पर डाल दी गई। यह वही विक्रम है जिसका जिक्र मैने पहले किया है। भूख तो लगने लगी थी पर सोचा कि पहले मंदिर भ्रमण भ्रमण किया जाए। कोणार्क का प्रसिद्ध सूर्य मंदिर। जिसके चित्र ही हम देखते आए थे, भारत में दूर-दूर तक खूब भ्रमण किया परन्तु पड़ोसी राज्य उड़ीसा के इन प्रसिद्ध समारकों तक पहुंच न सका। आज वह समय आ ही गया था। जब सूर्य मंदिर को अपनी आखों से देखुंगा। वट वृक्ष की राह में एक बड़ा ग्रेनाईट का तराशी हुई शिला पड़ी है। जिसकी लम्बाई लगभग बीस फ़ुट होगी एवं चौड़ाई और ऊंचाई 3X3 फ़ुट। इसके विषय में पूछने पर विक्रम ने बताया कि इस शिला में नवग्रह का निर्माण किया गया था। जिसे काट कर जगन्नाथ मंदिर में लगा दिया गया। इस शिला को देखने से ही मंदिर निर्माण करने वाले शिल्पियों के पराक्रम की एक झांकी दिखाई दे गई। जारी है, आगे पढ़ें। 

शनिवार, 4 अप्रैल 2015

शांगरी-ला : भूटान यात्रा - अंतिम किश्त

प्रारम्भ से पढ़ें 
सिलीगुड़ी में सुबह हुई, शहर घूमने का कार्यक्रम बना। सिलीगुड़ी में काफ़ी हिन्दी भाषी लोग भी रहते हैं और यहीं से नार्थ ईस्ट के लिए सभी गाड़ियाँ जाती है। गंगटोक, दार्जलिंग जाने वालों को यहीं आना पड़ता है। गोवाहाटी के लिए भी यहां से बस सेवा है। हमारी गाड़ी रात को न्यूजलपाईगुड़ी से थी। सिलीगुड़ी में चाईना मार्केट है और ऐसी ही एक मार्केट बस स्टैंड में भी है जहाँ वही सामान मिलता है जो चाईना मार्केट में मिलता है। हमने कुछ गर्म शाल खरीदे। नार्थ ईस्ट का डिजाईन कुछ अलग होता है और काफ़ी सुंदर भी दिखता है। इसलिए सोचा कि यादगार के तौर पर ले लिया जाए। क्योंकि भूटान में तो कैमरे के लिए सेल और चार्जर लेने में ही 1800 खर्च हो गए थे। वहां यह समान काफ़ी मंहगा मिला। अगर मुझे वहाँ पर ड्यूरो सेल मिल जाते तो दो ढाई सौ में ही काम चल जाता और 500 का सामान 1800 में नहीं खरीदना पड़ता।
सिलीगुड़ी में डाभ का स्वाद
मार्केट से लौटकर भोजन किया और बाकी साथी बागडोगरा एयरपोर्ट मार्केट चले गए और मैं होटल में ही बैठा रहा। ये अंधेरा होने पर पहुंचे। मुझे 5 घंटे बैठे बैठे गुजारने पड़े। इनके आते ही हम आटो लेकर न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन पहुंच गए। सिलीगुड़ी से न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन लगभग 12 किलोमीटर की दूरी पर है और यही एकमात्र है स्टेशन है जो उत्तर पूर्व को भारत से जोड़ता है। न्यू जलपाईगुड़ी में हमारी ट्रेन लग चुकी थी। मैने खाना नहीं नहीं खाया था। स्टेशन पर ही जल्दी से चावल और सब्जी लेकर खाई और ट्रेन में सवार होते ही ट्रेन अगली मंजिल की ओर चल पड़ी।
न्यू जलपाईगुड़ी स्टेशन
सुबह हम 9 बजे हावड़ा जंक्शन में पहुंचे। यहां रिटायरिंग रुम में रुम के लिए इंतजार करना पड़ा। बिना नहाए धोए दिन की शुरुवात करना ठीक नहीं लगता पर मजबूरी थी। क्या करते, कुछ देर बाद नम्बर आया तो पता चला कि रुम चार्ज 1200 रुपए है। हमें तो सिर्फ़ सामान ही रखना था और फ़्रेश होना था। अब फ़्रेश होने के लिए सार्वजनिक शौचालय का उपयोग करना पड़ा और सामान क्लार्क रुम में रख कर हम हावड़ा स्टेशन की जेट्टी की ओर चल दिए। हमारे साथियों को हावड़ा पुल देखना था और ऐसे स्थान की टिकिट लेनी थी जिसका स्टीमर हावड़ा पुल के नीचे से गुजरता हो। 5-5 रुपए में हमने गोलाघाट की टिकिट ली और हावड़ा ब्रिज की खूब फ़ोटुएं खींची।
लैंडमार्क ऑफ़ कोलकाता हावड़ा ब्रिज
इसके पश्चात कुछ अन्य स्थान देखने के लिए बाबू घाट की ओर चल पड़े। स्टीमर ने हमें बाबू घाट छोड़ा और सड़क पर आकर हम बिछड़ गए। भूटान में ठंड के कारण न ठीक से पानी पीया जा रहा था और न ठीक भोजन कर पाया था। बाबू घाट की पटरी पर स्ट्रीट फ़ुड की दुकाने हैं, जहां मैने देखा कि एक स्थान पर गर्मागर्म चावल, दाल, 3 सब्जी, चटनी सलाद के साथ भोजन दिया जा रहा है। बस मैने वहीं बेंच संभाल ली और पेट भर भोजन किया आत्मा तृप्त हो गई। पैसे देते समय मूल्य पूछा तो होटल वाले ने सिर्फ़ 40 रुपए लिए। इस 40 रुपए के भोजन में वह आनंद आया जो 15 दिनों के फ़ाईव स्टार के ढकोसलों में नहीं आया। इसके बाद बस से मैं हावड़ा आकर साथियों का इंतजार करने लगा। कुछ देर बाद वे भी आ गए और हम अपनी ट्रेन पकड़ने के लिए शालीमार स्टेशन आ गए।
घाटशिला रेल्वे स्टेशन
शालीमार से हमारी ट्रेन सही समय पर चल पड़ी। मैं अपनी बर्थ पर थोड़ी देर के लिए सो गया। हल्ला गुल्ला होने के बाद नींद खुली तो पता चला कि ट्रेन किसी स्टेशन में खड़ी है और यह अब आगे नहीं जाने वाली। मैने स्टेशन मास्टर से पूछा तो पता चला कि आगे राउरकेला पास कहीं पर कोई विधायक रेल की पटरियों पर अपने सर्मथकों के साथ बैठे और रेल रोको आन्दोलन चला रखा है। सवारियों को ट्रेन छोड़ने की सलाह बार बार माईक से दी जा रही थी। एलाऊंस किया जा रहा था कि यह ट्रेन वापस शालीमार जाएगी और जिन्हें वहां जाना है वह इस ट्रेन से जा सकते हैं और जिन्हे नहीं जाना है वे ट्रेन छोड़ दे। हम झारखंड के सिंहभूम जिले के घाटशिला प्रखंड में थे।
बिलासपुर - आखिर छत्तीसगढ़ पहुंच गए
हमारे साथी तय नहीं कर पा रहे थे कि क्या किया जाए। पर मैने ट्रेन छोड़ना तय कर लिया था और अपना सामान लेकर प्लेटफ़ार्म की बेंच पर बैठ गया। वे भी कुछ देर में स्थिति को समझ कर आ गए। घाट शिला में रिश्तेदारों को फ़ोन किया और वे हमें लेने के लिए स्टेशन आ गए। इस तरह नेता जी एवं रेल्वे विभाग की कारस्तानी के कारण हमें जबरदस्ती एक दिन और 2 रात घाटशिला में गुजारनी पड़ी। इसके अलावा कोई रास्ता भी नहीं था। अगले दिन हमने कुर्ला हावड़ा की टिकिट ली और रात को घर पहुंचे। खुबसूरत भूटान की खुबसूरत यात्रा करके लौट आए। मुझे नेपाल से भूटान बहुत ही अच्छा लगा। कभी समय मिला तो कुछ दिन भूटान में और गुजारना चाहुंगा। आखिर इसे "सांगरिला" (स्वर्ग भूमि) जो कहते हैं।