गुरुवार, 2 अप्रैल 2015

बुद्धा टॉप - भूटान यात्रा -7

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दिन अभी ढलने में कुछ घंटे बाकी थे। हमारी सांझ की सैर भूटान के राष्ट्रीय संग्रहालय से प्रारंभ होने वाली थी। थिम्पू चू के किनारे चलते हुए हमारी बस घाटी के दूसरी तरफ़ स्थित एक पहाड़ी की ओर चल पड़ी। थिम्पू चू का पानी एक दम साफ़ था। यह नदी यहाँ पर उथली है और इसके दोनो तरफ़ ही नगर बसा हुआ है। पहाड़ी पर संग्रहालय बना हुआ है। इसमें प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति 25 रुपए है। संग्रहालय के कर्मचारी जल्दी कर रहे थे क्योंकि 5 बजे संग्रहालय बंद होने का समय है। सभी ने शुल्क देकर टिकिट ली और संग्रहालय में प्रवेश किया। संग्रहालय में कुछ खास तो दिखाई नहीं दिया। परन्तु भूटानी संस्कृति एवं उसके कुछ योद्धाओं के विषय में जानकारी अवश्य मिली। इसके पश्चात हम बाजार की ओर चल पड़े।

राष्ट्रीय संग्रहालय थिम्पू भूटान
भूटान का बाजार भारतीय एवं चीनी सामानों से अंटा पड़ा है, भारतीय सामान कोलकाता के रास्ते यहाँ तक पहुंचता है और चीनी सामान नेपाल होते हुए सिलीगुड़ी के रास्ते भूटान के बाजारों तक आता है। गर्म कपड़े यहाँ पर अच्छे मिलते हैं, खासकर चमड़े एवं रैग्जिन की जैकेटें काफ़ी उम्दा है, लेकिन इनका मूल्य भी आम आदमी की पहुंच के बाहर है। जूते भी कई रंगों के मिलते हैं, विशेषकर महिलाओं एवं बच्चों के। हिमालय क्षेत्र का देश होने के कारण यहाँ पैरों को गर्म रखने के लिए जूते अनिवार्यत: पहने जाते हैं। थिम्पू का यह बाजार मुझे मंहगा लगा। इस बाजार में वस्तुओं के मूल्य पर्यटक स्थलों की तरह ही कुछ अधिक हैं। यहाँ की अधिकतर दुकानदार महिलाएं ही हैं।
पारो का बाजार
दो-तीन घंटे बाजार की सैर करके जब हम बस के समीप पहुंचे तो कई सदस्य बस तक नहीं पहुंचे थे। बाजार में ही घूम रहे थे। एक घंटे से अधिक खड़े होने के कारण ड्रायवर को 50 रुपए पार्किंग चार्ज देना पड़ा। इसलिए इनके विलंब को लेकर वह बड़बड़ाने लगा और सबसे 100 रुपए इकट्ठे करके देने को कहने लगा। कल भी उसने ही पार्किंग चार्ज दिया था। मेरी हल्की फ़ुल्की उससे बहस भी हो गई। किसी तरह सबके लौट आने पर हम रिजोर्ट में लौट आए। जो भूटान का सिम हमने खरीदा वह किसी काम नहीं आ रहा था। फ़ोन कभी लगता था कभी नहीं। लौट कर आने के बाद उसके बैलेंस के 200 रुपए मैने घर बात करके खत्म कर दिए।
संग्रहालय में भूटानी सिपाही
रात सबको भोजन के वक्त बता दिया गया था कि उन्हें सुबह जल्दी तैयार होकर पारो के लिए चलना है और इसी रास्ते में पड़ने वाले कुछ स्थानों की सैर कराई जाएगी। बस इसे ही ध्यान में रख कर हम सुबह जल्दी उठ गए।  सभी ने तैयार होकर अपने सामान बस में लाद दिए और बस पारो के लिए चल पड़ी। हमारी बस सबसे पहले भूटान के चिड़ियाघर पहुंची। यहाँ पर कुछ पैदल चलना पड़ता है। लगभग आधा किलोमीटर पैदल चलने के पश्चात तारों की फ़ेंसिग से घिरा एक बाड़ा दिखाई दिया जिसमें भूटान का राष्ट्रीय पशु "टाकिन" रखा गया था। इसका पीछे का आधा हिस्सा गाय जैसा एवं सिर बकरे के जैसा है। ऐसा लगता है किसी ने गाय और बकरे को जोड़ दिया हो।
बस के यात्री
ऐसा जानवर मैं पहली बार देख रहा था। इसके विषय किंवदन्ती है कि सन् 1455 के आसपास एक चमत्कारी लामा जी को एक दिन गाय और बकरी की हड्डियां बिखरी पड़ी मिली। उन्हें चमत्कार दिखाने को कहा गया। लामा ने बिखरी हड्डियों को जोड़कर उन पर प्राण का संचार किया तो वह टाकिन बन कर जंगल में भाग गया। ये टाकिन उसी के वंशज बताए जाते हैं। इस लामा के चमत्कार की कई कहानियां बताई जाती हैं। इस प्रकार उत्तरी भूटान के जंगलों में टाकिन पाया जाता है तथा इसके नाम पर ही भूटान की रेड वाईन का नामकरण किया गया है। इसके मैने कई फ़ोटो लिए और हम वापस बस में लौट आए। 
भूटान का राष्ट्रीय पशु - टॉकिन
इसके बाद हमारी बस शहर में ही बने एक मंदिर चंगघा ल्हाखंग में पहुची। इसे लोग हनुमान मंदिर भी कह रहे थे। यहाँ लोग अपने बच्चों के स्वास्थ्य की कामना करते हुए लामा से आशीर्वाद दिलाने आते हैं। इसके बाद हम वांगचुग मेमोरियल पहुचे। यहाँ पर हमें हिन्दी भाषी श्री लंका में शिक्षित भूटानी गाईड कुमार मिला। उसने बताया कि इस स्मारक को तीसरे राजा ड्रूक ग्यालपो किंग जिग्मे दोरजी वांगचुक की याद में उसकी माता रानी फ़ुंत्शो चोदेन वांगचुक ने 1974 में बनवाया था यह स्मारक बहुत ही सुंदर है। इसमें भूटानी संस्कृति की झलक दिखाई देने के साथ अपने राजा के प्रति अथाह सम्मान भी दिखाई देता है। इस अवधि में मुझे भूटान में एक भी भिखारी नहीं दिखाई। नहीं कोई पैसे लिए हाथ फ़ैलाते दिखा। 
पुण्यार्थी - शुभदा पाण्डे, कुसुम वर्मा, डॉ नित्यानंद पाण्डे, रविन्द्र प्रभात, कृष्णकुमार यादव, मनोज पाण्डे
इस मंदिर से हम लोग बुद्धा टॉप की सैर पर चले। इस पहाड़ की चोटी पर चीन सरकार के सहयोग से भूमि स्पर्श मुद्रा में बुद्ध (शाक्य मुनि) की 169 फुट (51.5 मीटर) ऊंची प्रतिमा विशाल कांस्य प्रतिमा स्थापित की गई है। अवश्य ही कुछ वर्षों के बाद यह स्थान भूटान टुरिज्म का एक लैंड मार्क बनकर तैयार होगा तथा भूटान को पहचान दिलाएगा। बुद्ध की कांस्य प्रतिमा यहाँ पर आकाश से होड़ लगाती दिखाई देती है। इसके समक्ष बहुत बड़ा मैदान है जिसमें टाईल्स बिछाने का काम चल रहा था। यात्री दल ने यादगार के लिए यहाँ पर कई चित्र खींचे एवं खिंचवाए। इस स्थान पर अगर बगीचा बना दिया जाता और उसमें कुछ फ़ूल एवं फ़ल के वृक्ष लगा दिए जाते तो यह स्थान काफ़ी मनोरम हो जाएगा। अब यहाँ से हमारा अंतिम पड़ावा पारो था। जहाँ हमें एक रात व्यतीत करनी थी।
भूटान यात्रा दल बुद्धा टॉप में
बुद्धा टॉप से हम चल पड़े पारो की ओर, अभी तक का सफ़र सुनीता दो लाईनर कविताओं के साथ कट गए। कृष्णकुमार यादव जी एवं कुसुम वर्मा जी इसमे पूर्ण रुपेण सहभागी बनी थी। पप्पू अवस्थी जी खड़े खड़े इसे रिकार्ड कर रहे थे। उन्हें रिकार्डिंग में आनंद आ रहा था और मुझे सुनीता की कविताओं में तीसरी लाइन जोड़ने का मजा आ रहा था। इस तरह सफ़र मजे से कट रहा था। लम्बे सफ़र की यही मौज है कि बोलते बतियाते कट जाता है और यदि कवि, लेखक या गायक कलाकारों का संग हो तो तख्ते लंदन तक का सफ़र बस में कट जाएगा। अब एक यात्रा ऐसे ही मित्रों के साथ शिप में अंडमान की करनी है जहाँ सारे रास्ते भर कविताएं बरसती रहेगीं। जारी है, आगे पढ़ें 

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