सोमवार, 28 सितंबर 2015

राजा रानी मंदिर का मनमोहक शिल्प : कलिंग यात्रा

भुवनेश्वर की सुबह चमकीली थी और हमारी तासीर उनींदी। पुरातत्व विभाग के सर्वेक्षण क्वाटर हमारी शरणस्थली बना हुआ था। रात नींद तो बहुत देर बाद आई। सुबह उठने पर तय किया गया कि आज का दिन भुवनेश्वर के भ्रमण को अर्पित किया जाए। वैसे देखें तो भुवनेश्वर मंदिरों की नगरी कहा जा सकता है। वैसे भी इसे पूर्व का काशी भी कहा जाता है। इसके साथ यह भी जानना चाहिए कि यह एक प्रसिद्ध बौद्ध स्‍थल भी रहा है। 
राजा रानी मंदिर भुवनेश्वर
प्राचीन काल में 1000 वर्षों तक बौद्ध धर्म यहां फलता-फूलता रहा है। इसी तरह सातवीं शताब्‍दी में यहां प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों का निर्माण हुआ था। इस प्रकार भुवनेश्‍वर वर्तमान में एक बहुसांस्‍कृतिक शहर है। तीसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व यहीं प्रसिद्ध कलिंग युद्ध हुआ था। इसी युद्ध के परिणामस्‍वरुप अशोक एक लड़ाकू योद्धा से प्रसिद्ध बौद्ध अनुयायी के रुप में परिणत हो गया था। अशोक जीवन में इस युद्ध में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया।
मुख्य द्वार अलंकरण
किंवदन्ति है कि किसी समय भुवनेश्वर में सात हजार मंदिर थे, जिनका निर्माण सात सौ वर्षों में हुआ था। परन्तु अब छ: सौ  मंदिरों के बचे होने की सूचना है। यहां से सौ किमी की दूरी पर उत्खनन से तीन बौद्ध विहार, रत्नगिरि, उदयगिरि, ललितगिरि भी प्राप्त हुए हैं। इससे पता चलता है कि यहाँ 13 वीं सदी तक बौद्ध धर्म मुख्य रुप से प्रचलित था। बौद्ध धर्म की तरह यहाँ जैन धर्म के भी अवशेष मिलते हैं। जैनों के लिए भी यह स्थान काफी महत्‍वपूर्ण है। 
पाशुपत सम्प्रदाय के तपस्वी
प्रथम शताब्‍दी में यहां चेदी वंश का एक प्रसिद्ध जैन राजा खारवेल' हुए थे। राजधानी से छ: किमी की दूरी पर उदयगिरि खंडगिरि की गुफ़ाओं का निर्माण जैन राजा खारवेल ने करवाया था। यह गुफ़ाएं आज भी बहुत अच्छी अवस्था में हैं। यहाँ श्रावकों एवं श्रमणियों के रहने एवं उपासना करने के लिए इसका विकास हुआ था। इस तरह माना जा सकता है कि भुवनेश्वर अपने प्राचीन वैभवकाल में "कास्मोपोलेटिन सिटी" की तरह व्यवस्थित था। 
पुत्र वल्लभा
भुवनेश्वर भ्रमण हमने राजा रानी मंदिर से प्रारंभ किया। विशाल प्रारंण में स्थिति इस मंदिर को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा संरक्षित किया गया है और बगीचा भी बहुत शानदार बनाया गया है। यह बगीचा इतना सुंदर है कि शहर की भीड़ भाड़ वाली जगहों से बचकर नव प्रेमीजन प्रेमालाप संवाद हेतु इस स्थान की शरण लेना उचित समझते हैं। वृक्षों की छांव तले प्रेमिका की गोद में सिर रख कर सोना किसे नहीं भाएगा। मंदिर प्रांगण में पहुंचते ही हमें पहले यही दृश्य दिखाई दिया। कई जोड़े दुनिया की आँखों में धूल झोंक रहे थे या शतुरमुर्ग की तरह अपना सिर धूल में गड़ाए हुए थे। मन: स्थिति दोनो तरह की हो सकती है। खैर समय चक्र के अनुसार बदलाव संभव है और परिलक्षित भी हो रहा है। वैसे भी इस मंदिर को "प्रेम मंदिर" भी कहा जाता है।
शुक सारिका
लिंग राज मंदिर  एवं राजा रानी मंदिर के बीच एक सरोवर है, जहाँ लोग धार्मिक कर्मकांड सम्पन्न करने के लिए आते  हैं। राजा रानी मंदिर जैसा कि नाम से विदित होता है मैने सोचा था किसी राजा रानी की स्मृति में निर्मित होगा, परन्तु इसकी कथा कुछ अलग ही है। लौह द्वार से हमने परिसर में प्रवेश किया। दूर से ही रेड सेंड स्टोन से निर्मित भव्य मंदिर अपनी ओर आकर्षित कर रहा था। बिकाश बाबू चित्र लेने लगे और हमने एक बार परिक्रमा करके मंदिर के शिल्प का निरीक्षण किया। मंदिर की भित्तियों में बहुतायत में सुंदर अलंकरणो के साथ बहुत सारी प्रतिमाएं है। जिनमें से कुछ के चित्र मैने लिए।
दिक्पाल यमराज
पंचरथ शैली के इस मंदिर का निर्माण 11 वीं सदी में सोमवंशी राजाओं ने किया था। मंदिर के मुख्य द्वार स्तंभों पर अर्धमानवाकृति में नाग-नागिन विराजमान हैं। द्वार शिला पर मध्य में लकुलिश एवं  प्रस्तरपाद पर नौग्रह अंकित हैं। द्वार पे दोनो तरफ़ तीन सिंह एवं उनके नीचे हाथी दिखाए गए हैं। यही संरचना कोणार्क के सूर्य मंदिर में भी दिखाई देती है। उड़ीसा के मंदिरों में द्वार पर मुझे नवग्रह लगाने की परम्परा दिखाई दी। मंदिर का निर्माण दो हिस्सों में पहला जगमोहन एवं दूसरा (विमान) गर्भगृह। गर्भगृह की ऊंचाई लगभग साठ फ़ुट होगी। अधिष्ठान की थरों पर कोई नक्काशी नहीं है। गर्भगृह की भित्तियों पर सुंदर प्रतिमा अलंकरण हैं और चारों दिशाओं में विशाल आमलक को थामें हुए भारवाहक दिखाई देते हैं। मंदिर के गर्भगृह में कोई प्रतिमा नहीं है परन्तु द्वार शिला एवं भित्तियों पर अंकित लकुलीश इसके शिवालय होने का स्पष्ट संकेत देता है।    
आत्म मुग्धा
मंदिर के शिल्प एवं भित्तियों के प्रतिमा अलंकरण किसी खजाने से कम नहीं है। गर्भगृह की भित्तियों में शिव, नटराज, पार्वती के विवाह के दृश्यों के अंकन के कृशकाय तपस्वी का अंकन भी दिखाई देता है। शाल भंजिका, मुग्धा, पुत्र वल्लभा, शुकसारिका आदि अप्सराओं के साथ शार्दूल का भी अंकन किया गया है। भित्तियों पर मैथुन की भिन्न भिन्न मुद्राओं में प्रतिमाओं का अंकन भी बहुतायत में है। कंदूक क्रीड़ा करती एवं शौचालय को जाती स्त्री का भी अंकन किया गया है। यहां की प्रतिमाओं की वेशभूषा, केश सज्जा एवं आभूषणों पर उड़ीसा का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। एक प्रतिमा में स्त्री को एक हाथ में पायल लिए दिखाया गया है। यमराज, नटराज, शिव, पार्वती एवं दिक्पाल इत्यादि का शिल्पांकन किया गया है। 
पायल उतारती हुई अप्सरा
अन्य सजावटी प्रतिमाओं में व्याल, गज इत्यादि के साथ पत्र पुष्प एवं वृक्षों का भी अंकन नयनाभिराम है। लावण्यमयी नायिकाओं का पुष्ट यौवन प्रदर्शन दर्शकों का मन मोह लेता है। मैथुन शिल्पांकन की दृष्टि से यह इसकी प्रतिमाएं खजुराहो के मंदिरों से कम करके नहीं आंकी जा सकती। राजा रानी मंदिर के शिल्प का दर्शन करना बहुत ही अच्छा अनुभव था। शिल्प शास्त्रों में वर्णित अप्सराओं का शिल्पांकन कुशलता के साथ किया गया है। कोणार्क के मंदिर साथ तो बिसु महाराणा का नाम जुड़ा हुआ है, परन्तु इस मंदिर के शिल्पी का नाम कहीं पता नहीं चलता। राजा रानी मंदिर के दर्शन के पश्चात हम आगे चल पड़े। जारी है आगे पढे……

रविवार, 27 सितंबर 2015

सैर कर गाफ़िल जहां कि जिन्दगानी फ़िर कहाँ ……

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 27 सितम्बर 1980 से विश्व पर्यटन दिवस मनाने की शुरुआत की थी। इस दिन 1970 में विश्व पर्यटन संगठन का संविधान स्वीकार किया गया था। इसके पश्चात संयुक्त राष्ट्र महासभा प्रतिवर्ष विश्व पर्यटन दिवस की विषय वस्तु तय करती है। विश्व पर्यटन दिवस मनाने का उद्देश्य पर्यटन एवं उसके सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं आर्थिक मूल्यों के प्रति विश्व समुदाय को जागरुक करना है साथ इसका मुख्य उद्देश्य पर्यटन को बढावा देना और पर्यटन के द्वारा अपने देश की आय को बढाना है। पिछले दो दशकों में पर्यटन के प्रति लोग जागरुक होते दिखाई दे रहे हैं और पर्यटन के लिए देश दुनिया की सैर भी करने लगे हैं। एक तरह से देखा जाए तो पर्यटन धनी लोगों का ही शौक रहा है, परन्तु वर्तमान में मध्यम वर्गीय लोग एवं परिवार भी पर्यटन के प्रति आकर्षित हुए हैं।

मनोरंजन एवं फ़ुरसत के क्षणों का आनंद उठाने से की गई यात्रा को पर्यटन कहा जाता है तथा पर्यटक उन्हें कहा गया है जो मनोरंजन के लिए यात्राएं करते हैं और कहीं स्थाई रुप से निवास नहीं बनाते एवं इस यात्रा के दौरान कहीं कमाई का पेशा नहीं करते। फ़कत जेब में धन राशि लेकर आते हैं और आनंद एवं मनोरंजन के लिए खर्च करते हैं। वर्तमान में विश्व में कई ऐसे देश हैं जिनकी अर्थ व्यवस्था सिर्फ़ पर्यटन पर ही निर्भर है। मलेशिया, फ़िलिपिंस, सिंगापुर, मयामी इत्यादि स्थान पर्यटकों के भरोसे ही आबाद हैं। वर्तमान में पर्यटन एक बड़े उद्योग के रुप में उभर कर सामने आया है। यही एक मात्र ऐसा व्यवसाय है जहाँ एक रुपए लगाने पर सौ गुनी आमदनी होती है। 

संयुक्त राष्ट्र संघ को पर्यटन दिवस के साथ वर्ष में किसी एक दिन को घुमक्कड़ दिवस भी धोषित करना चाहिए। मैं ठहरा विशुद्ध घुमक्कड़ जो देश दर्शन कर ज्ञानार्जन करने के लिए यात्राएं करता है। मेरा मानना है कि सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टिकोण से यात्राएँ महत्वपूर्ण हैं, प्रत्येक यात्री अपनी यात्रा से कुछ न कुछ शिक्षा अवश्य ग्रहण करता है तथा अपने अनुभवों को समाज तक पहुंचाता है। सभी यात्री अपने विवेकानुसार यात्राओं से ज्ञान पाते हैं। जो जितना अधिक संवेदनशील होगा वो उतना अधिक ज्ञान पाता है। भ्रमण शब्द में भ्रम भी समाविष्ट है। मैंने यह पाया है एक जिज्ञासु व्यक्ति द्वारा भ्रमण करने से भ्रम दूर होता है और उसकी सोच का दायरा विस्तृत होता है। सोच-समझ विकसित होने पर परिपक्वता आती है। किताबी ज्ञान के अतिरिक्त यात्राएँ ज्ञान प्राप्ति का सरल एवं सहज साधन हैं।

जिज्ञासु यात्री जब यात्रा पर चलता है तो बहुत सारी सुनी हुई बातें, देखी हुई चीजें एवं स्थानों के विषय में जानकारी एकत्र करता है। जिससे अनुभव पाकर जीवन को सहज बनाने के प्रति अग्रसर होता है। यात्राएँ तो सभी करते हैं पर यात्राओं को संजोने के लिए दृष्टि की आवश्यकता होती है। हम किसी स्थान के विषय में किताबों में लिखी हुई बातों से अधिक उस स्थान पर स्वयं जाकर देखने से अधिक समझ पाते हैं। अगर चीनी यात्री व्हेनसांग का यात्रा वृत्तांत नहीं होता तो हमें अपने इतिहास के विषय में बहुत सारी जानकारी नहीं मिलती। उसने यात्राओं के दौरान देखे-सीखे को अपने यात्रा लेख के माध्यम से संजोया। शताब्दियों उपरांत आज भी उसका लाभ विश्व को मिल रहा है।

एक सैलानी हूँ मैं, मन से तन से कर्म से और स्वभाव से भी। कहा जाए तो "अहर्निश यात्रामहे" की सुक्ति चरितार्थ होती है। तीर्थाटन करने बजाए मुझे देशाटन करना पसंद है। भारत भूमि पर ऐतिहासिक गौरव के चिन्ह पग-पग पर मिलने के साथ ही अद्भुत अकल्पनीय प्राकृतिक सुंदरता के दर्शन होते हैं। इस देश में 12 महीनों के दौरान हमें सारे मौसम मिल जाते हैं तो 12 कोस पर भाषा के साथ सांस्कृतिक बदलाव भी दिखाई देने लगता है। मैं अपने आप को पर्यटक की जगह घुमक्कड़ मानता हूँ, जिसे यायावर कहा जाता है। कभी भी, कहीं भी, किसी भी वक्त, किसी भी मौसम में बस घुमक्कड़ी हो जाए। जीवन भी चलने का ही नाम है, अगर ठहर गए तो कहते हैं कि जीवन यात्रा सम्पन्न हो गयी। जिसकी जीवन यात्रा सम्पन्न हो गई, उसकी यात्रा पर पूर्ण विराम लग जाता है। इसलिए जब तक शरीर में प्राण हैं तब तक इस संसार को देखो। ईश्वर की बनाई इस अनुपम दुनिया को जानो, मेरा यही मानना है।

वर्तमान में घुमक्कड़ी के स्थान पर पर्यटन को अत्यधिक बढावा मिल रहा है। क्योंकि इससे नगद आमदनी होती है। इस अत्यधिक आमदनी को देखते हुए पर्यटन उद्योग में बहुराष्ट्रीय कम्पनियां भी कूद पड़ी है। उनके पांच सितारा होटल बड़े पर्यटन स्थलों पर दिखाई देते हैं। पर्यटन का सीधा-सीधा अर्थ है कि जेब में पैसा होना चाहिए फ़िर आनंद करने लिए सारे सुख उपलब्ध होते हैं। वर्तमान में पर्यटन का यही स्वरुप सामने आया है। जो अपराधों को भी जन्म दे रहा है। विश्व में कई पर्यटन स्थल सिर्फ़ खाने-पीने जुए सट्टे एवं वेश्यवृत्ति के लिए बदनाम हैं। इससे सांस्कृतिक प्रदूषण भी फ़ैल रहा है। जहाँ धन आएगा वहाँ ये सब विकृतियाँ भी स्वत: पैदा हो जाती है। पर्यटन के साथ इस प्रदूषण के नियंत्रण करने का भी यत्न करना आवश्यक हो गया है। इसलिए सर्वश्रेष्ठ घुमक्क्डी को ही मानना चाहिए। 

शनिवार, 26 सितंबर 2015

पूर्व की काशी भुवनेश्वर और छेना गाजा - कलिंग यात्रा

कोणार्क से बस द्वारा हम भुवनेश्वर के लिए चल पड़े। यहां से भुवनेश्वर की दूरी लगभग 64 किमी है। मिनी बस में हमें बैठने के लिए पीछे की सीट मिल गई। कोणार्क से चलकर बस गोप बस स्टैंण्ड पर रुकी और यहाँ दैनिक यात्रियों का इंतजार करके आधे घंटे बाद आगे बढ़ी। आगे चलकर निमपाड़ा कस्बे में रुकी और यहां से सवारी लेकर फ़िर आगे बढ़ी। रास्ते में दया और भार्गवी नामक दो नदियाँ मिलती हैं। ये नदियाँ महानदी की ही धाराएं हैं जो यहां अलग नाम से जानी जाती है। सिहावा पर्वत से निकल कर महानदी लगभग आठ सौ किमी का लम्बा सफ़र तय कर यहाँ पर आकर समुद्र में मिलती है। कटक से पहले नाराजमार्थापुर के पास आकर यह दो भागों में बंटती है, एक धारा महानदी ही रहती है और दूसरी धारा कथाजोदी नदी कहलाती है। यही कथाजोदी नदी आगे चलकर दो धाराओं में बंटकर दया एवं भार्गवी नदी कहलाती है। 

सांझ ढले हम अपने ठिकाने के पास सांतरापुर पहुंचते हैं। अब यहां पहुंच कर खाने का इंतजाम करना था। पहले गेस्ट हाऊस में जाकर थोड़ी थकान मिटाई और फ़िर भोजन की तलाश में निकल पड़े। भुवनेश्वर में दोनो तरह का अच्छा भोजन मिल जाता है। अब खाना आदमी की पसंद के हिसाब से होता है। सीफ़ुड भी अच्छा मिलता है, पर शाकाहारी के नाम दालमा भात पहले पसंद किया जाता है। हमको भी एक अच्छा ठिकाना मिल गया। जहाँ उड़ीसा के सभी पकवान मिलते थे। छेने की मिठाईयों की भरमार थी। भोजन के रुप में दालमा भात हाजिर था। बंगाल और उड़ीसा का खाना लगभग एक जैसा ही है। निरामिष भोजन में प्याज एवं लहसुन नहीं होता। हम शाकाहारी खाने में लहसुन एवं प्याज का इस्तेमाल कर लेते हैं पर यहां शुद्ध शाकाहारी भोजन ही मिलता है। दालमा में दालचीनी की खुश्बू और हल्का सा मिठास उसे अच्छा फ़्लेवर देता है।

पहले हल्का सा स्नेक लेने के बाद हमने भोजन किया। दालमा के साथ भात खाकर आनंद आ गया। दालमा का भोज भगवान जगन्नाथ जो लगता है और यहां दालमा भात महाप्रसाद के रुप में मिलता है। हमने महाप्रसाद ग्रहण करने शुरुवात यहीं से कर दी थी। बिकाश मिष्ठान के मजे ले रहा था और हमको भी आग्रह कर रहा था। जानते बुझते हुए कि हमें मिष्ठान वर्जित करार दिया गया है। छेना गाजा, छेना पोड़ा यहां की विशिष्ट मिठाई है। अभी कुछ दिनों पहले रसगुल्ले के अविष्कार को लेकर बंगाल एवं उड़ीसा के बीच विवाद की स्थिति बन गई है। दोनो ही राज्य इसे अपनी मिठाई एवं अविष्कार मानते हैं पर रसगुल्ले को लेकर उड़ीसा का पलड़ा भारी दिखाई देता है। भगवान जगन्नाथ के छप्पन भोग में इसे प्रथम स्थान प्राप्त है। खैर अपना विवाद ये दोनो निपटेंगे। हम काहे अपना दिमाग लगाएं। 

भोजन के पश्चात थोड़ा बाजार का भी चक्कर लगाया जाए। हम सड़क मार्ग से चौराहे तक होकर आए। भोजन भी ठिकाने लग गया और थोड़ी बहुत जगह छेना गाजा के लिए बन गई। बिकाश बाबू को छेने की मिठाईयाँ इतनी पसंद है कि दिन भर उसके ही पीछे लगे रहे। हमने भी छेना गाजा का स्वाद लिया। कलाकंद को छोड़कर छेने की सभी मिठाईयाँ मुझे एक जैसी ही लगती है। सिर्फ़ उनका आकार एवं रंग बदल जाता है। मिठास तो चाशनी का ही रहता है। क्योंकि सभी को बनाने का तरीका एक जैसा ही है। रात होने लगी थी और हमारे गेस्ट हाऊस के चौकीदारों को तकलीफ़ न हो इसलिए हम समय पर गेस्ट हाऊस पहुंच गए। आगे का कार्यक्रम यह बना कि सुबह भुवनेश्वर के मन्दिरों का भ्रमण किया जाएगा। क्योंकि भुवनेश्वर वर्तमान राजधानी के साथ पूर्व की काशी भी कहलाती है। कहते हैं कि ग्यारहरवी के शताब्दी के बाद यहाँ लगभग सात हजार मंदिर थे। जिसमें से सात सौ मंदिर तो अभी भी विद्यमान हैं……॥ जारी है… आगे पढ़ें। 

शुक्रवार, 25 सितंबर 2015

चंद्रभागा के तट पर सांब की अर्क उपासना - कलिंग यात्रा

प्रारंभ से पढ़े…
मारे पास समय कम था और हमें भुवनेश्वर भी पहुंचना था। सूर्य मंदिर की हम एक परिक्रमा पूर्ण कर चुके थे। मेरे द्वारा मंदिर  निरीक्षण की मंदगति को देख कर बिकाश थक चुका था। इसक अहसास भी मुझे था। सूर्यमंदिर की जगती के अतिरिक्त भित्तियों में काम प्रधान प्रतिमाएं जड़ी हुई हैं। आकार में छोटी और बड़ी दोनो तरह की हैं। मैं सभी प्रतिमाओं के चित्र ले रहा था। मंडप का द्वार काले ग्रेनाईट से बहुत ही सुंदर बना है। लता, पुष्प वल्लरियों के साथ अन्य मानवीय चित्र भी अद्भुत हैं। मंडप का द्वार बंद कर दिया गया है। ब्रिटिश पुराविद फ़र्ग्यूसन ने जब 1837 में इस स्थान का भ्रमण किया था तो उस समय मुख्य मंदिर का एक कोना बचा हुआ था, जो अब नहीं है। मंडप के द्वार पर काले ग्रेनाईट के पत्थर पर अंग्रेजी में बंगाल के लेफ़्टिनेंट गर्वनर का आदेश लिखा हुआ है कि इस सुंदर संचरना के भीतरी भाग को बंद कर दिया गया है। आदेश की तारीख 1903 लिखी हुई है। इस मंडप के भीतरी भाग में रेत भर कर द्वार बंद कर दिया गया है।  
बंगाल के लेफ़्टिनेंट गर्वनर का आदेश 
अब जर्जर हुए इस मंडप को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण एक बार फ़िर खोलने जा रहा है। इसकी मरम्मत का कार्य शुरु हो गया है। मुख्य मंडप से पत्थर गिरने के कारण इसे बंद कर दिया गया था। 2008 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने इसे खोलने पर विचार करना शुरु किया। पुराविदों के तकनीकी अध्ययन में पता चला कि मुख्य मंडप में भरी गई रेत खिसककर नीचे आ गई है। इसी तरह आठ सौ साल पुराने इस मंदिर की दीवारों के दरारों में भरा गया मसाला भी निकल चुका है और दीवारें खोखली हो गई हैं। मंदिर का गर्भ गृह पहले ही गिर चुका है। वास्तुकार प्रतिमा बोस व इटली के पुरातत्वविद प्रोफेसर कोरोसी से रिपोर्ट तैयार कराई, जिसमें बताया कि मंदिर को संरक्षित कर गिरने से बचाया जा सकता है। संरक्षण कार्य के पश्चात इसे खोला जा सकता है।
सूर्यमंदिर परिसर का हाट
मैं जब चित्र खींच रहा था। तब शार्दूल की छांह में विक्रम भी ऊंघ रहा था। मैने जल्दी जल्दी चित्र खींचने का काम सम्पन्न किया और हम स्मारक से बाहर आ गए। स्मारक के रास्ते में हैंडलूम के सामान की दुकाने लगी हुई हैं, जैसे सभी प्रसिद्ध स्थलों पर होती है। यात्री इनसे कुछ सामान स्मृति के लिए खरीदकर ले जाते हैं। हमने कुछ नहीं खरीदा। अब हमें चंद्रभागा के तट पर जाना था। चंद्रभागा तट की दूरी यहाँ से लगभग 3 किलोमीटर है। बिकाश बाबू दही बड़ा का स्वाद लेने लगे और हमने पान बनवाया। उड़ीसा के पान में चूने की मात्रा थोड़ी अधिक होती है इसलिए चूना लगाने में थोड़ी कंजूसी बरतने के लिए पान वाले को कहना चाहिए, अन्यथा मुंह का भीतरी भाग भोजन करने लायक नहीं रहेगा। बाकी बनारस, इलाहाबाद, छत्तीसगढ़ में चूना एवं कत्था की मात्रा पान में संतुलित रहती है। पान खाकर हमने विकम का धन्यवाद करते हुए उससे विदा ली और 60 रुपए में आटो किराया करके चंद्रभागा तट की ओर चल पड़े।
चन्द्रभागा के तट पर बीजू बाबू
ुचंद्रभागा तट पर समुद्र दूर से ही दिखाई देने लगता है। तट पर सामने बीजू बाबू की विशाल प्रतिमा समुद्र की ओर संकेत करते हुए स्थापित की गई है। प्रतिमा देख कर ऐसा लगता है कि जैसे बीजू बाबू स्वयं ही चंद्रभागा तट का रास्ता बता रहे हों। आजादी के बाद के उड़ीसा में बीजू बाबू का महत्वपूर्ण स्थान है और यहाँ की जनता उन्हें खूब चाहती थी। इसी चाहत का फ़ायदा उठा कर नोबिन बाबू इतने बरसों से राज कर रहे हैं। जबकि उन्हें उड़िया भाषा भी बोलनी नहीं आती। उन्होने मुख्यमंत्री रहते हुए सिर्फ़ बीजू बाबू के पुतले ही प्रत्येक गाँव में लगाए हैं, यही उड़ीसा के विकास में एक महत्वपूर्ण काम हुआ है। लोग पुतलों को देख कर ही वोट दे देते हैं। उन्हे लिए यही अच्छे दिन हैं। बाकी तो जो है सो हैइए है। 
लहरों के साथ थोड़ी मस्ती हो जाए
समुद्र तट पर जलकिलोल करते बहुत सारे नर-नारी, युवा वृद्ध एवं नव विवाहित जोड़े भी दिखाई दिए। आज कल तो हर आदमी के हाथ में कैमरा है। बस खटा खट फ़ोटो खींचने का ही काम हो रहा था। कोई लहरों के साथ फ़ोटो खिंचवा रहा था कोई नई नवेली दुल्हिन के साथ। हम लोग भी कुछ देर समुद्र का आनंद लेते रहे। बड़ी लहरे आती और दूर तक सागर का विस्तार कर भिगो देती। बिकास बाबू फ़ोटू खींच रहे थे और मैं सोच रहा था कि यह वही स्थान है जहाँ आकर अर्क उपासना करने से साम्ब का कोढ दूर हुआ। लोगों को तो यह मालूम ही नहीं है कि यह स्थान पौराणिक दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण है। पर्यटकों को भी इतिहास से अधिक मतलब नहीं रहता। उन्हें तो सिर्फ़ घूमने फ़िरने और खाने पीने से मतलब होता है और यही पर्यटन भी है।
बिकास बाबू चंद्राभागा के जल का आचमन करते हुए
कृष्ण के जांबवती से जन्मे पुत्र सांब अत्यन्त सुंदर थे। कृष्ण की स्त्रियाँ जहाँ स्नान किया करती थीं, वहाँ से नारद जी निकले। उन्होंने देखा कि वहाँ स्त्रियाँ सांब के साथ प्रेमचेष्टा कर रही है। यह देखकर नारद श्रीकृष्ण को वहाँ लिवा लाए। कृष्ण ने जब यह देखा तब उन्होंन उसे कोढ़ी हो जाने का शाप दे दिया। जब सांब ने अपने को इस संबंध में निर्दोष बताया तब कृष्ण ने उन्हें मैत्रये बन (मित्रवन) जाकर अर्क उपासना करने को कहा। यहाँ अर्क शब्द के कई अर्थ होते हैं। अर्क का अर्थ सूर्य, मदार एवं वनस्पति से तैयार औषधि भी होता है। श्राप के अनुसार सांब ने यहाँ रहकर अर्क (मदार) के अर्क (औषधि) का लेपन कर अर्क उपासना ( सूर्य रश्मि स्नान) बारह वर्षों तक किया। इस कठिन चिकित्सा से उसका कोढ ठीक हो गया। 
मछुवारों की बस्ती 
पुराणानुसार सांब की आराधना से प्रसन्न होकर सूर्य ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया। दूसरे दिन जब वे चंद्रभागा नदी में स्नान करने गए तो उन्हें नदी में कमल पत्र पर सूर्य की एक मूर्ति दिखाई पड़ी। उस मूर्ति को लाकर सांब ने यथाविधि स्थापना की और उसकी पूजा के लिये अठारह शाकद्वीपी ब्राह्मणों को बुलाकर वहाँ बसाया। पुराणों में इस सूर्य मूर्ति का उल्लेख कोणार्क अथवा कोणादित्य के नाम से किया गया है। कहते है कि रथ सप्तमी को सांब ने चंद्रभागा नदी में स्नानकर उक्त मूर्ति प्राप्त की थी। आज भी उस तिथि को वहाँ लोग स्नान और सूर्य की पूजा करने आते हैं और मेला जैसा वातावरण यहाँ दिखाई देता है। एक तरह से चंद्रभागा तट श्रद्धा के कारण पुण्य क्षेत्र माना गया है।
टाईटनिक की उड़ान - चल छैंया छैंया
इस तट से थोड़ा आगे चलकर मछुवारों की बस्ती है, जहाँ रंगबिरंगी सैकड़ों नावें रखी है। एक तरह से मान कर चलें तो यह नावों का अड्डा है। मछुवारे मछली मार कर आने के बाद उसे यहीं सुखाते है और उसे बाजार तक पहुंचाते हैं। हम इस बस्ती की ओर आ गए। कुछ मछुवारे अपने जालों की मरम्मत कर रहे थे और कुछ मदपान कर मस्त थे। यहां के वातावरण में मछली की गंध समाई हुई थी। हमने कुछ चित्र यहां पर लिए। सांझ हो रही थी और अर्करथ अस्ताचल की ओर चल पड़ा था। आसमान में लालिमा छाई हुई थी। हमें भी भुवनेश्वर पहुंचना था। शाम के 7 बजे अंतिम बस भुवनेश्वर की ओर जाती है। सार्वजनिक वाहन से यात्रा करने के लिए व्यक्ति को उसी के समय के हिसाब से चलना पड़ता है। हम बस अड्डे की ओर आ गए और थोड़ी देर में हमें भुवनेश्वर के बस मिल गई।  जारी है आगे पढ़ें……

गुरुवार, 24 सितंबर 2015

सूर्य मंदिर कोणार्क के विध्वंस की कथाएं - कलिंग यात्रा

प्रारंभ से पढ़े…… जब इतिहास के पन्नों पर समय की गर्द जमा हो जाती है तो सत्यता भी प्रभावित होती है। तब बहुत सारी किंवदन्तियाँ, मिथक, कहानियां एवं गल्प कथाएं उसका स्थान लेकर सत्य को ढक कर भ्रमित कर देती हैं। यही स्थिति कोणार्क की भी है। इसके विध्वंस के पार्श्व में कई तरह के मिथक एवं लोकमान्यताएं प्रचलित हैं। इनके बीच सत्यान्वेषण करना कठिन एवं दूरुह कार्य है। लिखित अभिलेख एवं प्रमाण मिलने पर सत्यता सामने आ जाती है, परन्तु प्रमाण न होने के कारण सिर्फ़ कयास ही लगाए जा सकते हैं या जनश्रुतियों एवं लोकमान्यताओं पर ही आधारित रहना होता है।

चुम्बक पत्थर - विध्वंस के पीछे जनश्रुति है कि सूर्य मंदिर के शिखर पर एक चुम्बक पत्थर लगा था, इसके प्रभाव से समुद्र से गुजरने वाले सागरपोत इस ओर खींचे चले आते थे जिससे उन्हें भारी क्षति होती थी और उनके दिशा निरुपण यंत्र चुम्बक के प्रभाव में आने के कारण भ्रमित हो जाते थे। जिससे दिशा भ्रम हो जाता था। इसलिए मुस्लिम नाविक इसे निकाल ले गए। केन्द्रीय शिला के स्थान पर यह चुम्बक प्रयुक्त होता था, इसे निकालने के कारण मंदिर की भित्तियों का संतुलन बिगड़ गया और दीवारे गिर पड़ी। इस घटना कोई आधार नहीं मिलता न कोई लिखित अभिलेख। सबसे पहले प्रश्च यह उठता है कि शिखर की टनों वजनी शिला को आवेशित कर चुम्बक किस तरह बनाया गया होगा? आठ सौ वर्षों पूर्व इतने बड़े चुम्बक बनाने का उदाहरण कहीं नहीं मिलता। इससे प्रतीत होता है कि चुम्बकीय पत्थर की कहानी कपोल कल्पित है।

वास्तु दोष - कई वास्तु शास्त्री मानते हैं कि मंदिर निर्माण परिकल्पना में वास्तु दोष था। यह भवन वास्तु के नियमों के विपरीत तैयार हुआ था। वास्तु शास्त्री तर्क देते हैं कि - मंदिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व, दिशा, एवं आग्नेय एवं ईशान कोण खंडित हो गए। पूर्व से देखने पर पता लगता है, कि ईशान एवं आग्नेय कोणों को काटकर यह वायव्य एवं नैऋर्त्य कोणों की ओर बढ़ गया है। प्रधान मंदिर के पूर्वी द्वार के सामने नृत्यशाला है, जिससे पूर्वी द्वार अवरोधित होने के कारण अनुपयोगी सिद्ध होता है। नैऋर्त्य कोण में छायादेवी के मंदिर की नींव प्रधानालय से अपेक्षाकृत नीची है। उससे नैऋर्त्य भाग में मायादेवी का मंदिर और नीचा है। आग्नेय क्षेत्र में विशाल कुआं स्थित है। दक्षिण एवं पूर्व दिशाओं में विशाल द्वार हैं, जिस कारण मंदिर का वैभव एवं ख्याति क्षीण हो गई हैं। मै मानता हूं कि सूर्यमंदिर के पतन में कोई वास्तु दोष कार्य नहीं कर रहा था। यह मानव के दिमाग की उपज मात्र है। बिसु महाराणा उत्तम दर्जे का वास्तुकार था, उसके कार्य पर संदेश नहीं किया जा सकता।

राजा की अकाल मृत्यू - यह कई इतिहासकारों का मत है, कि कोणार्क मंदिर के निर्माणकर्ता, राजा लांगूल नृसिंहदेव की अकाल मृत्यु के कारण, मंदिर का निर्माण कार्य खटाई में पड़ गया। इसके परिणामस्वरूप, अधूरा ढांचा ध्वस्त हो गया। लेकिन इस मत को एतिहासिक आंकड़ों का समर्थन नहीं मिलता है। पुरी के मदल पंजी के आंकड़ों के अनुसार और कुछ १२७८ ई. के ताम्रपत्रों से पता चला, कि राजा लांगूल नृसिंहदेव ने १२८२ तक शासन किया। कई इतिहासकार, इस मत के भी हैं, कि कोणार्क मंदिर का निर्माण १२५३ से १२६० ई. के बीच हुआ था। अतएव मंदिर के अपूर्ण निर्माण का इसके ध्वस्त होने का कारण होना तर्कसंगत नहीं है। ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से यह दावा भी खारिज हो जाता है।

शिल्पकार की मृत्यू - जन श्रुति है कि इस मंदिर में कभी पूजा नहीं हुई, एक दंतकथा प्रचलित है कि संपूर्ण प्रकार के निर्माण हो जाने पर शिखर के निर्माण की एक समस्या उठ खड़ी हुई। कोई भी स्थपति उसे पूरा कर न सका तब मुख्य स्थपति के धर्मपाद नामक 12 वर्षीय पुत्र ने यह साहसपूर्ण कार्य कर दिखाया। उसके बाद उसने यह सोचकर कि उसके इस कार्य से सारे स्थपतियों की अपकीर्ति होगी और राजा उनसे नाराज हो जाएगा, उसने उस शिखर से कूदकर आत्महत्या कर ली। इस मौत के पश्चात इस मंदिर में न प्राण प्रतिष्ठा हुई और न कोई पूजा हो सकी। इसलिए देख रेख के अभाव में मंदिर ढहते गया।

एक कथा के अनुसार, गंग वंश के राजा नृसिंह देव प्रथम ने अपने वंश का वर्चस्व सिद्ध करने हेतु, राजसी घोषणा से मंदिर निर्माण का आदेश दिया। बारह सौ वास्तुकारों और कारीगरों की सेना ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा और ऊर्जा से परिपूर्ण कला से बारह वर्षों की अथक मेहनत से इसका निर्माण किया। राजा ने पहले ही अपने राज्य के बारह वर्षों की कर-प्राप्ति के बराबर धन व्यय कर दिया था। लेकिन निर्माण की पूर्णता कहीं दिखायी नहीं दे रही थी। तब राजा ने एक निश्चित तिथि तक कार्य पूर्ण करने का कड़ा आदेश दिया। 

बिसु महाराणा के पर्यवेक्षण में, इस वास्तुकारों की टीम ने पहले ही अपना पूरा कौशल लगा रखा था। तब बिसु महाराणा का बारह वर्षीय पुत्र, धर्म पाद आगे आया। उसने तब तक के निर्माण का गहन निरीक्षण किया, हालांकि उसे मंदिर निर्माण का व्यवहारिक ज्ञान नहीं था, परन्तु उसने मंदिर स्थापत्य के शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन किया हुआ था। उसने मंदिर के अंतिम केन्द्रीय शिला को लगाने की समस्या सुझाव का प्रस्ताव दिया। उसने यह करके सबको आश्चर्य में डाल दिया। लेकिन इसके तुरन्त बाद ही इस विलक्षण प्रतिभावान का शव सागर तट पर मिला। कहते हैं, कि धर्मपाद ने अपनी जाति के हितार्थ अपनी जान तक दे दी। सूर्य मंदिर से हम चंद्रभागा के तट की ओर चल पड़े ………   आगे पढ़े जारी है………

बुधवार, 23 सितंबर 2015

काला पहाड़: सूर्य मंदिर विध्वंस का मुख्य किरदार - कलिंग यात्रा

काला पहाड़ - मंदिर के विध्वंस के कारण के रुप में एक कहानी काला पहाड़ की भी सुनाई देती है। काला पहाड़ मुस्लिम आक्रांता था और उसने मंदिर पर आक्रमण करके इसकी कुंजी शिला को निकाल दिया जिसके कारण मंदिर ढह गया। इतिहास बताता है कि भारत में विदेशी आक्रमणकारियों ने लूटपाट की दृष्टि से बहुत हमले किए और लूट कर चले गए। परन्तु मुगलों ने आने के बाद जाने का नाम नहीं लिया। वे शासन करने लिए अपना लश्कर बढ़ाने लगे। लूट पाट एवं नरसंहार करते हुए उनका लश्कर काश्मीर की तरफ़ बढ़ा तो कौतुहल वश कई युवा छुप कर लश्कर देखने आए जहाँ फ़ौज डेरा डाल कर आराम कर रही थी। लड़कों के सामने एक सिपाही आ गया तो उन्होने से सिपाही से पूछा कि बहुत अच्छी महक आ रही है, क्या पक रहा है? सिपाही ने कहा कि अब तुम हिन्दू नहीं रहे क्योंकि पक रहे गौमांस को तुमने पसंद कर लिया।

यह बात आग की तरह फैली और जब वह लड़का गाँव पंहुचा तब पंचायत हुई । और पंचायत ने उसे अलग कर दिया । क्योकि उसने गाय के मांस की तारीफ की । क्षमा याचना का भी असर नही हुआ पंडितो ने भी उसे धर्म से अलग किया । हर धर्म अधिकारी से गुहार यहाँ तक बनारस तक से उस युवक को निराशा मिली । वह युवक क्रोधित हुआ और उसने अपमान का बदला लेने के लिए हिंदू धर्म को छोड़ कर मुस्लिम धर्म अपनाया । और बदला लेने के लिए हिन्दुओं का संहार किया । किद्व्नती है उसने अस्सी किलो जनेऊ काटे और वह काला पहाड़ के नाम से जाना गया ।  

आगे चल कर इस काला पहाड़ नामक आक्रांता ने मंदिर तोड़ने प्रारंभ कर दिए। 1568 ई. में उसने उड़ीसा पर चढ़ाई की और वहाँ के राजा को पराजित किया तथा बाद में पुरी के जगन्नाथ मन्दिर को लूटा। इसके बाद उसने राजा नर नारायण के भाई चिला राय की कोच सेना को हराया। आसाम में वह तेजपुर तक चढ़ गया और गौहाटी के निकट कामाख्या मन्दिर को नष्ट कर दिया। 1583 ई. में वह राजमहल के निकट नौसैनिक लड़ाई में बादशाह अकबर की फ़ौजों से हार गया और मारा गया। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के मदन पंजी बताते हैं, कि कालापहाड़ ने उड़ीसा पर हमला किया। कोणार्क मंदिर सहित उसने अधिकांश हिन्दू मंदिरों की प्रतिमाएं भी ध्वस्त की। हालांकि कोणार्क मंदिर की २०-२५ फीट मोटी दीवारों को तोड़ना असम्भव था, उसने किसी प्रकार से दधिनौति (मेहराब की शिला) को हिलाने का प्रयोजन कर लिया, जो कि इस मंदिर के गिरने का कारण बना। दधिनौति के हटने के कारण ही मंदिर धीरे-धीरे गिरने लगा और मंदिर की छत से भारी पत्थर गिरने से छत भी ध्वस्त हो गयी। 

इसके बाद १५६८ में उड़ीसा मुस्लिम नियंत्रण में आ गया। तब भी हिन्दू मंदिरों को तोड़ने के निरंतर प्रयास होते रहे। इस समय पुरी के जगन्नाथ मंदिर के पंडों ने भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति को श्रीमंदिर से हटाकर किसी गुप्त स्थान पर छुपा दिया। इसी प्रकार, कोणार्क के सूर्य मंदिर के पंडों ने प्रधान देवता की मूर्ति को हटा कर, वर्षों तक रेत में दबा कर छिपाये रखा। बाद में, यह मूर्ति पुरी भेज दी गयी और वहां जगन्नाथ मंदिर के प्रांगण में स्थित, इंद्र के मंदिर में रख दी गयी। अन्य लोगों के अनुसार, यहां की पूजा मूर्तियां अभी भी खोजी जानी बाकी हैं। लेकिन कई लोगों का कहना है, कि सूर्य देव की मूर्ति, जो नई दिल्ली के राष्ट्रीय संग्रहालय में रखी है, वही कोणार्क की प्रधान पूज्य मूर्ति है।

फिर भी कोणार्क में, सूर्य वंदना मंदिर से मूर्ति के हटने के बाद से बंद हो गयी। इस कारण कोणार्क में तीर्थयात्रियों का आना जाना बंद हो गया। कोणार्क का पत्तन (बंदरगाह) भी डाकुओं के हमले के कारण, बंद हो गया। कोणार्क सूर्य वंदना के समान ही वाणिज्यिक गतिविधियों हेतु भी एक कीर्तिवान नगर था, परन्तु इन गतिविधियों के बन्द हो जाने के कारण, यह एकदम निर्वासित हो चला और वर्षों तक एक गहन जंगल से ढंक गया। सन १६२६ में, खुर्दा के राजा, नृसिंह देव, सुपुत्र श्री पुरुषोत्तम देव, सूर्यदेव की मूर्ति को दो अन्य सूर्य और चन्द्र की मूर्तियों सहित पुरी ले गये। अब वे पुरी के मंदिर के प्रांगण में मिलती हैं। पुरी के मदल पंजी के इतिहास से ज्ञात होता है, कि सन १०२८ में, राजा नॄसिंहदेव ने कोणार्क के सभी मंदिरों के नाप-जोख का आदेश दिया था। मापन के समय, सूर्य मंदिर अपनी आमलक शिला तक अस्तित्व में था, यानि कि लगभग २०० फीट ऊंचा। 

कालापहाड़ ने केवल उसका कलश, बल्कि पद्म-ध्वजा, कमल-किरीट और ऊपरी भाग भी ध्वंस किये थे। पहले बताये अनुसार, मुखशाला के सामने, एक बड़ा प्रस्तर खण्ड – नवग्रह पाट, होता था। खुर्दा के तत्कालीन राजा ने वह खण्ड हटवा दिया, साथ ही कोणार्क से कई शिल्प कृत पाषाण भी ले गया। और पुरी के मंदिर के निर्माण में उनका प्रयोग किया था। मराठा काल में, पुरी के मंदिर की चहारदीवारी के निर्माण में कोणार्क के पत्थर प्रयोग किये गये थे। यह भी बताया जाता है, कि नट मंदिर के सभी भाग, सबसे लम्बे काल तक, अपनी मूल अवस्था में रहे हैं। और इन्हें मराठा काल में जान बूझ कर अनुपयोगी भाग समझ कर तोड़ा गया। सन १७७९ में एक मराठा साधू ने कोणार्क के अरुण स्तंभ को हटा कर पुरी के सिंहद्वार के सामने स्थापित करवा दिया। अठ्ठारहवीं शताब्दी के अन्त तक, कोणार्क ने अपना, सारा वैभव खो दिया और एक जंगल में बदल गया। इसके साथ ही मंदिर का क्षेत्र भी जंगल बन गया, जहां जंगली जानवर और डाकुओं के अड्डे थे। यहां स्थानीय लोग भी दिन के प्रकाश तक में जाने से डरते थे। इस तरह सूर्य मंदिर के विध्वंस की कथाएं सामने आती हैं।  जारी है, आगे पढ़े …