शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2016

छत्तीसगढ़: मातागढ़ तुरतुरिया


सूर्यरथ आकाशचारी था और हम वनभ्रमण कर रहे थे, वन में चारों ओर प्रकृति प्रदत्त सुगंध फ़ैली हुई है, यहाँ सुंगध फ़ैलाने के लिए किसी "फ़ॉग" की जरुरत नहीं है। यह अभयारण्य है, जहाँ पशु पक्षियों को शासकीय अभय प्राप्त है। कोई कहीं भी विचरण कर सकता है। परन्तु अभयारण्य में चलभाष तरंगों को उन्मुक्त विचरण की छूट नहीं है। तरंगें नहीं होने के कारण बार-नवापारा, तुरतुरिया, मोहदा रिसोर्ट कहीं पर भी चलभाष कार्य नहीं करता। आश्रम के ऊपर पहाड़ी पर वनविभाग में एक अठपहला भवन बना रखा है, जो वर्तमान में जानवरों का डेरा है। आश्रम के सामने से वहां जाने के लिए पैड़िया बनाई हुई हैं और इस पर "वैदेही विहार" का शिलापट लगाया हुआ है। ऊपर चढ़ने का मतलब है फ़ालतु में टांगे तुड़वाना। हाँ! अगर किसी को चलभाष पर बात करनी हो तो इस स्थान पर तरंगे मिल जाती हैं और बात हो जाती है। इसके लिए वैदेही विहार तक चढ़ना सार्थक है। यहीं से हमने भी घर पर बात करके सूचनाओं का आदान-प्रदान किया। 

तुरतुरिया में पूष माह की पूर्णिमा को तीन दिवसीय मड़ई (मेला) का आयोजन होता है। साथ ही रविवार होने के कारण सुबह से ही ग्रामीण स्नान-पूजन करने पहुंचे हुए थे। यहाँ स्थानीय ग्रामीणों ने मेला समिति भी बना रखी है, उसी के माध्यम से मेला का संचालन होता है। दुकानदारों के ठीए सुबह से ही जम गए हैं। ग्रामीण अंचल का मेला मड़ई आपसी भेंट मुलाकात का भी केन्द्र होता है। हमारे यहाँ देवऊठनी के बाद से मेलों की शुरुआत हो जाती है। स्थान का महत्व बढ़ने के साथ नाले को "सुरसरी गंगा" नाम दे दिया गया है। इसे पार करने के बाद सामने की पहाड़ी पर माता का मंदिर है और इस स्थान को मातागढ़ कहते हैं, देवी स्थान तक पहुंचने के लिए पैड़ियों का निर्माण कर दिया गया है।

बलौदाबाजार वाले पत्रकार साथी राजेश मिश्रा जी के साथ हम इस स्थान पर पहुंचे। नाले से थोड़ी दूर पर एक झोपड़ी में यज्ञ कुंड बनाया हुआ है और किनारे पर धम्म प्रवर्तन मुद्रा में मुख विहीन बुद्ध विराजमान हैं और कुछ अन्य प्रतिमाएं भी रखी हुई हैं। बुद्ध प्रतिमा के मुख को किसी ने भग्न कर दिया है। इस घर की दीवार पर दो स्थानक प्रतिमाएं भी रखी हुई हैं। अलंकरण की दृष्टि से शिल्प उत्तम है। परिधानों का भी महीनता से अंकन किया गया है। यहाँ से आगे बढ़ने पर पहाड़ी चढने के बाद मैदान है, जहाँ दाहिने तरफ़ भग्न भवन के स्तंभ दिखाई देते हैं तथा इस स्थान पर बड़ी ईंटे भी पड़ी हुई हैं। प्रस्तर स्तंभों के समक्ष किसी ने काली की पतिमा स्थापित कर दी है। पुराविद अरुणकुमार शर्मा के अनुसार यह भग्नावशेष बुद्ध विहार के हैं, परन्तु मुझे किसी शिवालय के भग्न अवशेष लगते हैं।

मातागढ़ मंदिर के समीप पहले बलि दी जाती थी, परन्तु यह बलि प्रक्रिया अब मंदिर के समीप पूर्ण नहीं की जाती। बकरे को मंदिर तक चावल चबवाने के लिए ले जाया जाता है (मान्यता है कि देवी में चढ़ाए हुए चावलों को अगर बकरा चाब या खा लेता है तो देवी बलि स्वीकार कर लेती है) चावल चबवाने के बाद नाले के आस पास ही काटा जाता है। राजेश मिश्रा बताते हैं कि समिति प्रति बकरा 50 रुपए के हिसाब से कर लेती है। उसके बाद ही यहाँ बकरा काटने दिया जाता है। नाले के समीप सैकड़ों वाहन खड़े थे, जिसमें लोग खाना पकाने की सामग्री लेकर आए थे और वहीं चूल्हा बनाकर कुछ लोग भोजन पकाने में लगे हुए थे। सांझ तक मेला भरपूर होने की संभावना थी।

यहाँ से लौटने के बाद हम पुन: आश्रम स्थल पर आ गए, थोड़ी देर विश्राम और चर्चा होते रही। यहां वैष्णव पंथ के महंत रामकिशोर दास निवास करते हैं। महंत जी भोजन के लिए बार बार आग्रह करते रहे, परन्तु हमारा भोजन तो रिसोर्ट में होना तय था। इसलिए विनम्रता से उनके आग्रह को टालते हुए वापस अपने डेरे की ओर चल पड़ा। इस समय 23 किमी का सफ़र सपाटे के साथ निपट गया, वरना आते हुए मार्ग कुछ लम्बा लगा और समय भी अधिक। नए रास्ते पर संभल कर चलना होता है और जब रास्ता देख समझ लिया जाता है सफ़र जल्दी कट जाता है। फ़ूलचुहकी चिड़ियों ने पुन: आने का निमंत्रण दिया, मै भी उन्हें आश्वासन देकर लौट आया। 

1 टिप्पणी:

  1. यह फोन कुछ देर शान्त रहे तो चैन मिले। २३ किमी में तो पर्याप्त व्यायाम हो गया।

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