मंगलवार, 9 फ़रवरी 2016

खारुन ट्रैकिंग का साथी: बन्नु सिंह उकै

खारुन ट्रेकिंग के दौरान अनुभव अविस्मर्णीय रहे। खैर स्वास्थगत कारणों से सफ़र अधूरा रहा। परन्तु हमसफ़र एक से एक लोग मिले। रात मंदिर में सुतके गुजरी थी। सुबह हमारा साथी बना अनजान घुमक्कड़ "बन्नु राम उकै"। बीबी-बच्चे, खेती-किसानी सब हैं, पर घुमक्कड़ परिव्राजक का जीवन व्यतीत कर रहा है। भोजन बनाने के लिए जर्मन के दो बर्तन, एक लाल रिफ़िल का पेन और फ़ुल स्केप पेपर के साथ थैली में तम्बाखू पुड़िया एवं चूना की डिब्बी के साथ एक चिलम उसकी कुल सम्पत्ति। जिसे पन्नी में हमेशा साथ रखता है। 
बन्नु सिंह उकै
सुबह चाय की दरकार थी तो बन्नु राम ने नदी के किनारे चूल्हा बना कर जला लिए एवं गुड़ की लाल चाय पिलाई। चाय पीकर तबियत तर हो गई। लगा कि "बिगबॉस" का "लक्जरी आयटम" मिल गया। मेरे संभलते तक बन्नु राम नदी में नहाकर "राहेर" (अरहर) दाल चढा चुका था। मेरे हाथ मुंह धोते एवं आंवला की "मुखारी" घिसते तक उसका भोजन तैयार हो रहा था। पहले उसने बालों में तेल लगाया और नदी जल में देख कर उन्हें संवारा। फ़िर लहसुन, टमाटर और मर्चा का तड़का लगा कर दाल फ़्राई की। जिस सलीके उसने भोजन तैयार किया उसे देख कर लगा कि खाने का शौकीन आदमी है। 
नदी के तीरे तीर
जंगल होने के कारण सुबह अच्छी ठंड थी। जेब से बाहर हाथ निकालते ही ठिठुरन महसूस होती थी। आज मुझे नदी के सहारे-सहारे, किनारे-किनारे के साथ चलना था। रास्ता पथरीला एवं ऊबड़-खाबड़ था। बन्नु राम भोजन करके तैयार हो गया और हम जंगल में प्रवेश कर गए। रास्ते में बन्नु राम एक कुशल वक्ता की तरह कथा कहता है, परन्तु कथा में उसके निर्मल हृदय से निर्मल वाणी बाहर आती है। जंगल से पांच किमी की दूरी पर आधुनिक संसाधनों से दुकाने अंटी पड़ी हैं, पर वह स्वयं में मगन है। जंगल से अधिक सम्पन्न और सौंदर्यपूर्ण उसे कोई दूसरा दिखाई नहीं देता। शायद इसे ही "द्वितीयोSस्ति" कहा गया है। 
कुकुर कोटना में अंगाकर रोटी और पाताल चटनी का भोजन
बन्नु सिंह कहता है - हजारों करोड़ों के घोटाले करने वालों को भी वहीं जाना है, जहाँ मुझे जाना है। दोनो के लिए जगह एक सी ही है, वहाँ किसी की सिफ़ारिश नहीं चलती और न ही पैरवी करने के लिए कोई वकील होता और न ही कोई रसूखदार जमानतदार। जानते हो! "मुझसे अधिक धनी कोई नहीं है, ये पत्थर देखो। एक-एक पत्थर कितना मंहगा है। ये पेड़ देखो, जिसे दीमक खा रही है, यह कितना मूल्यवान है। जंगल वाले ही सारा जंगल काट कर ले गए। अब तो जलाऊ के लायक भी लकड़ी नहीं दिखाई देती। फ़ालतू का काड़ी-कचरा उगा हुआ है। अगर इन पत्थरों को ही गाड़ी मोटर में भर के बाहर ले जाए तो लाखो-कड़ोरों रुपए के हैं। उधर देखो, पेड़ों पर चारों तरफ़ नोट ही नोट लटके हैं। एक-एक पत्ता सौ-सौ का नोट है। अब बताओं आप, मुझसे अमीर कौन है? ये सारा जंगल मेरा है और मैं इसका मालिक हूँ। मेरे ही धन को लोग चोरा कर ले जा रहे हैं।" 
साथीयों के साथ निरीक्षण
मैं बन्नु राम की बात सुनकर उससे सहमत होता हूँ तो वह मुझे मुक्त कंठ से एक रेलो गीत सुनाता है। जो जंगल में गूंजता है और मैं उसे रिकार्ड करता हूँ… "साय रेलो रे रेलो रे रेलो, नदी नादर निहिर निहिर ताघर ता, ओSS रोहुर झुहुर झुहुर बाजेर तिहिर तोर। गांवे रे गांवे रे घुमेर बाबू कहे नादर तोर। ओSS नादर लोहर लोहर लोघर तोर।" बन्नु राम के गीत मुझे जंगल के साथ जोड़ रहे थे। वनवासी के गीतों ने मेरे अंतरमन को वन के साथ एकाकार कर दिया था और कदम उबड़-खाबड़ पत्थरों पर पड़ते हुए सावधान थे। सफ़र चल रहा है बलखाती इठलाती कुंवारी नदी के साथ। जिसमें हम सफ़र बन्नु जैसा यायावर भी है। आज दिन भर टीवी पर नौंटकी देखकर बन्नु सिंह मुझे तुम्हारी याद आ रही है, मिलते हैं जल्द ही।

3 टिप्‍पणियां:

  1. प्रणाम महराज,
    मेरे लिए दो लफ्ज़ -खुशकिस्मत हूँ जो आपका ब्लॉग पढ़ रहा हूँ |कहते है जब इंसान की मृत्यु का वक्त आता है ,तो ज़िन्दगी भर की यादें उसके दिमाग में चलचित्र की तरह चलती है ,पर उसके लिए यादों का होना जरुरी है ,सामान्य ज़िन्दगी तो हर कोई जी रहा है |
    आपकी यात्राओ में न जाने कितने लोग मिले और गए होंगे पर जान कर अच्छा लगा की आपको वे याद आते है |

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  2. यह तो कटु सत्य है की जाना सबको वही है पर लोगो की सोच है जब जायेंगे तब देखेंगे अभी तो जी ले जिंदगी।

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