बुधवार, 23 मार्च 2016

बैंगलोर के मड फ़ोर्ट के निर्माण की कहानी -7

यात्रा की थकान काफ़ी हो गई थी, एक दिन आराम करने के बाद अगले दिन बैंगलोर भ्रमण का कार्यक्रम बनाया गया। बैंगलोर  काफ़ी बड़ा है और भीड़ भरी सड़कों पर ही सारा समय निकल जाता है। पर्यटन करने के लिए वैसे बैंगलोर  में बहुत कुछ है, परन्तु पर्यटन अपनी रुचि के हिसाब से होता है। प्राचीन स्मारकों को देखने की रुचि होने के कारण हमने सर्च किया तो बंगलोर में तीन स्थान दिखाई दिए, पहला बैंगलोर  फ़ोर्ट, दूसरा बैंगलोर पैलेस, तीसरा टीपू सुल्तान का समर पैलेस, इसके बाद श्री रंगपट्टनम में टीपू सुल्तान का जन्म स्थल। इसके बाद गुगल मैसूर की जानकारियां देने लगता है।

हमने बैंगलोर शहर के अन्य स्मारक देखना ही तय किया। सुबह साढे नौ बजे नाश्ता करके हम बैंगलोर  दर्शन के लिए चल पड़े। एक डेढ घंटे चक्कर काटते हुए बैंगलोर फ़ोर्ट तक पहुंचे, उसके बगल में विक्टोरिया अस्पताल भी है। परन्तु वहाँ पार्किंग का स्थान नहीं होने के कारण आगे बढ़ गए। एक गोल चक्कर लगाने के बाद भी कोई पार्किंग का स्थान दिखाई नहीं दिया। लगातार चलते हुए अब माथा भी खराब होने लगा था। भीड़ एवं ट्रैफ़िक इतना अधिक रहता है कि मत पूछो। इससे एक सबक मिला कि अपनी गाड़ी के बजाए अगर कैब कर लेते तो सभी स्थान आराम से देखे भी जा सकते हैं और कोई समस्या भी नहीं रहती।
मड़ फ़ोर्ट बैंगलोर का मुख्य द्वार
किले के नाम पर वर्तमान में सिर्फ़ एक द्वार ही दिखाई देता है, जिसे दिल्ली गेट कहते हैं, जिन्होने राजस्थान एवं स्थानों के बड़े दुर्ग देखे हैं, उन्हें इस दुर्ग के नाम पर सिर्फ़ निराशा ही हाथ लगेगी। क्योंकि यह दुर्ग नष्ट हो चुका है और इसकी 95 प्रतिशत जमीन पर कब्जा होकर अन्य इमारते खड़ी हो गई हैं। वास्तव में यह मृदा भित्ति दुर्ग था, जिसे मड फ़ोर्ट कहते हैं। मड फ़ोर्ट बनाने के लिए उपयुक्त स्थान का चयन कर उसके चारों तरफ़ सुरक्षा गोलाकर खाईयाँ खोद दी जाती हैं। इसके निर्माण पत्थरों का प्रयोग नहीं होता। यह तात्कालिक तौर पर सुरक्षा उपलब्ध करता थै। छत्तीसगढ़ में इस तरह के दुर्गों की संख्या 48 तक पहुंच गई है।

इस किले का निर्माण 1537 में बैंगलोर शहर बसाने वाले केम्पे गौड़ा ने किया था। यह विजयनगर राज्य का जमीदार एवं बैंगलोर शहर का संस्थापक था। उसके बाद 1761 में हैदर अली ने इसमें निर्माण कार्य किया और इसे पत्थरों से निर्मित कर सुरक्षित किया। अंग्रेजों की सेना ने 21 मार्च 1791 को लार्ड कार्नवालिस के नेतृत्व में मैसूर के तीसरे युद्ध के दौरान इस किले की घेराबंदी कर अपने कब्जे में ले लिया। किसी जमाने में यह किला टीपू सुल्तान की नाक कहा जाता था आज इसका थोड़े से अवशेष और दिल्ली दरवाजा ही बाकी है। यहां पर अंगेजों ने अपनी विजय का जिक्र एक संगमरमर की पट्टिका में किया है।
मड फ़ोर्ट का प्लान
किले के लिए स्थान चयन एवं निर्माण के लिए कई किवंदन्तियाँ हैं। केम्पे गौड़ा एक बार शिकार के लिए जंगल में गया, शिकार करते हुए वह पश्चिम दिशा की ओर शिव समुद्र (हेसाराघट्टा) गाँव तक चला गया। यहां के शांत वातावरण को देख कर उसने इस स्थान को राजधानी बनाने के लिए उपयुत्क समझा। उसने यहां पर छावनी, जलाशय, मंदिर एवं व्यवसायियों के लिए बाजार की कल्पना की और इस स्थान पर राजधानी बनाने के निर्णय को स्थाई कर दिया। इस स्थान का एक केन्द्र बना कर उसने चारों दिशाओं में सजाए हुए सफ़ेद बैलों से जुताई कर राजधानी बनाने का कार्य प्रारंभ कर दिया।

इसके बाद मिट्टी के किले के लिए खाईयों का निर्माण किया गया और इसके नौ द्वार बनए गए। कहते हैं दक्षिण द्वार का जब निर्माण हो रहा था तब किसी विघ्न होने के कारण कार्य जल्दी सम्पन्न नहीं हो रहा था। किसी ने कहा कि यह मानव बलि मांगता है। अब बलि कौन दे और किसकी दे। तब केम्पे गौड़ा की भाभी लक्ष्म्मा ने रात्रि के समय तलवार से अपनी गर्दन काट कर बलि चढा दी। इसके बाद किले का निर्माण बिना किसी दुर्घटना से शीघ्रता से पूर्ण कर लिया गया। इसके बाद कोरमंगला में लक्ष्म्मा के नाम के एक मंदिर का निर्माण किया गया। अब इस मृदा भित्ति दुर्ग को बैंगलोर फ़ोर्ट कहा जाता है।
बैंगलोर फ़ोर्ट का गणेश मंदिर
इस किले में गणेश जी का एक मंदिर है। इसके साथ बैंगलोर का इतिहास जुड़ा हुआ है, परन्तु हमने अपने इतिहास को संजो कर रखना नहीं सीखा। यह किला अतिक्रमण की चपेट में आकर अपना वास्तविक स्वरुप खो चुका है। यह वही स्थान है जहां बीजापुर के सेनापति रुस्तमें जमां की तीस हजार फ़ौज को केम्पे गौड़ा की फ़ौज ने धूल चटाई थी। इतिहास की बातें तो इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं और धूल का किला धूल धुसरित हो गया। यहाँ से हम बैंगलोर पैलेस के लिए चल पड़े। जीपीएस वाली बाई को उसका पता बताया गया और हम आगे बढ गए। जारी है… आगे पढें।

सोमवार, 21 मार्च 2016

ब्लॉगर भोज सह ब्लॉगर मिलन: दक्षिण यात्रा - 6

बैंगलोर में हिन्दी ब्लॉगर बिरादरी भी रहती है, यह तो हम वर्षों से जानते थे और यहाँ पहुंचने के पूर्व भी ब्लॉगर मिलन का कार्यक्रम बन गया था। सोचा यह था कि एक दिन सभी किसी नियत स्थान पर एकत्रित हो जाएं तो सभी से मिलन हो सकता है। परन्तु हमारे प्रवास के दिनों में रविवार सम्मिलित नहीं था। रविवार तक तो हमें घर पहुंचना था। मंगलवार का रात्रि भोजन का निमंत्रण भाई आशीष श्रीवास्तव द्वारा मिला। हम रात्रि साढे आठ बजे के आस पास उनके घर पर पहुंच गए। घर पर उनके अलावा उनकी माता जी, श्रीमती जी एवं पुत्री गार्गी, कुल मिलाकर चार की नफ़री है।
पाबला जी, ललित जी, पीडी जी, आशीष जी एवं गार्गी जी :)
घर पहुंचने पर चाय पानी के संवाद चर्चा प्रारंभ हुई, ब्लॉग एगीगेटर नारद से लेकर चिट्ठा जगत, ब्लॉग वाणी इत्यादि की चर्चा के साथ हमारी वाणी एवं ब्लॉग सेती एग्रीगेटर का भी जिक्र हुआ। परन्तु ब्लॉगिंग का जो आनंद 2011 तक था वह इन एगीगेटरों के माध्यम से लौट कर नहीं आया। चिट्ठा जगत में उस समय 30 हजार ब्लॉग दर्ज थे। ब्लॉग वाणी सफ़ल एग्रीगेटर था, जल्दी खुल जाता था और फ़ीड भी एक बटन दबाने पर दिखाई देने लगती थी। मेरे डेस्कटॉप पर हमेशा खुला रहता था। जब भी समय मिला सरसरी तौर पर एक निगाह डाल लेता था। पर अब उस जैसा मजा नहीं, मैने कई वर्षों से किसी एग्रीगेटर की ओर झांक कर देखा ही नहीं।
आशीष श्रीवास्तव जी का छत्तीसगढ़ से नाता है, साथ पड़ोस के गोंदिया शहर के निकट के गाँव के निवासी भी हैं। वर्डप्रेस पर इनका ब्लॉग विज्ञान विश्व काफ़ी प्रसिद्ध है, इसके साथ ब्लॉग स्पॉट पर भी इनके कई ब्लॉग हैं। हमारे से सीनियर ब्लॉगर हैं, प्रारंभिक दिनों में इन्होनें हिन्दी ब्लॉगिंग को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चर्चा के बीच ये बार-बार किसी को फ़ोन लगा रहे थे। थोड़ी देर बाद द्वार उन्मुक्त हुआ और ब्लॉगर प्रशांत प्रियदर्शी सपत्नी प्रकट हुए। यह मेरे लिए बोनस जैसा था, उम्मीद से दुगना। प्राचीन ब्लॉगर प्रशांत प्रियदर्शी को निक नेम "पीडी" के नाम से जानते हैं। पीडी जी का ब्लॉग "मेरी छोटी सी दुनिया" है, इस पर दो बज्जिया बैराग बढिया पोस्ट चेपे हैं।
बातचीत करते खाना भी लग गया, खूब बातें हुई। नए पुराने ब्लॉगरों के जिक्र के साथ। जब ब्लॉगर साथ बैठेगें तो चर्चा होगी ही न। पाबला जी गार्गी की फ़ोटो लेते रहे। गार्गी ने लिखाई कर सारे घर की दीवारें रंग डाली हैं, मेरा बेटा उदय भी यही करता था, पर उसकी इन हरकतों में उसकी मां सतत निगाह रखती थी। थोड़े दिनों में उसकी यह आदत छूट गई। बच्चों के लिए दीवाल एक श्याम पट का काम करती है। जो चाहे मांड लो, जैसे चाहे पेंसिल घुमा लो। हमारे समय में तो चाक पेंसिल मिलती थी, जिसका लिखा कपड़े की एक रगड़ से साफ़ हो जाता था। आज की पेसिंलों का लिखा मिटाने के लिए फ़िर से दीवालें पोतनी पड़ती है।
भोजन के वक्त वजन कम करने की बात छिड़ गई। पाबला जी का वजन काफ़ी कम हो गया है और आशीष श्रीवास्तव जी ने भी अपना वजन भोजन पर नियंत्रण करके कम कर लिया। 2005 के आस पास हमारा भी वजन 103 किलो था, पर शक्कर अधिक होने के कारण धीरे धीरे कम होते होते 75 किली रह गया। वो तो भला हो डॉक्टर सत्यजीत साहू का जिन्होने इस पर ध्यान दिया, वरना हम तो घिसते घिसते आज 25 किलो के रह जाते। सारे कपड़े ढीले हो गए, नए कपड़े लेने पड़े। जब वजन बढने लगा तो फ़िर नए कपड़े आए। आज वजन ठीक है, 90-95 के बीच कांटा झूलते रहता है। वैसे भी एक उम्र में आकर डाईट पर नियंत्रण करना आवश्यक है। खासकर कुर्सी पर बैठकर काम करने वालों के लिए।
राष्ट्रपति पुरस्कृत ज्योतिषी संगीता पुरी जी से कभी मजाक कह दिया करता हूँ कि ग्रहों के संकट निवारण के लिए "ब्लॉगर भोज" के लिए अपने क्लाईंटों को कहा करें, जिससे उनके संकट का निवारण शीघ्रता से हो जाएगा और समस्याओं का समाधान भी। यथा 5-11-21-51 ब्लॉगर श्रद्धानुसार जिमाने में कोई हर्ज नहीं है। वर्तमान में ब्लॉगर ही संकट मोचन बनकर सामने आए हैं। विभिन्न विषयों पर लिखे जा रहे ब्लॉगों के कारण ही गुगल पर जानकारियाँ उपलब्ध हो पाई हैं और इसमें ब्लॉगरों के योगदान को किसी काल में भी नकारा नहीं जा सकता। नेट पर हिन्दी ब्लॉगरों की ही देन है।
ब्लॉगरों की बैठकी तो ऐसी होती है, जैसे बहुत दिनों के बाद कोई घर छुट्टी आता है और सारी रात परिजनों से बातचीत में कट जाती है, सुबह पौ फ़टते पता चलता है कि बातचीत में ही रात गुजर गई। यहाँ भी रात बढने लगी तो चर्चाओं पर विराम देकर हमने आशीष जी से विदा ली। उत्तम ब्लॉगर भोजन से हृदय आनंदित हो गया था और अब एक लम्बी नींद की आवश्यकता महसूस हो रही थी। सभी नीचे छोड़ने आए और हम अपने ठिकाने होटल लौट आए। इस तरह एक छोटी सी ब्लॉगर बैठकी हो गई। आशीष जी का घर हमारे होटल से नजदीक ही था। जल्दी ही जीपीएस वाली बाई ने हमें होटल तक पहुंचा दिया और कहा " आपकी मंजिल आ गई है।" जारी है, आगे पढें…

रविवार, 20 मार्च 2016

मुकेश के गानों के साथ तैरती सड़क : दक्षिण यात्रा -5

गोलकुंडा दर्शन करते हुए ग्यारह बज चुके थे, शहर से बाहर आते  हुए साढे ग्यारह बज गए। अब हमारी स्मार्ट कार बंगलोर के लिए हाईवे पर दौड़ रही थी। हमारी मंजिल यहाँ से 587 किमी थी और जीपीएस वाली बाई बता रही थी कि जिस गति से हम चल रहे हैं, लगातार उसी गति से चलते रहे तो  साढे आठ घंटे चलेगें तो मंजिल तक पहुंच जाएगें। हैदराबाद से बंगलोर तक टोल रोड़ है, इसलिए इस मार्ग पर गाड़ियां भी तेज गति से चलती हैं। तेज गति से चलने पर लोकल बाईक वाले सवार बाधा बनते हैं। डिवाईडर के ऊपर से कब कौन कूदकर आपकी गाड़ी के सामने आ जाए इसका पता नहीं चलता। मुझे सारे रास्ते भर इसी का भय लगा रहा। जब भी कोई रोड़ कट दिखाई देता मैं पहले से ही पाबला जी को गति धीमी करने के लिए आगाह करता। रोड़कट पार होने पर फ़िर ये वही गति पकड़ लेते, मेरा सारा सफ़र गति नियंत्रण में ही निकल गया।
चौराहों पर स्थापित होने के लिए तैयार पुतले
हमारा देश पुतलों का देश है, पुतले ही शासन करते हैं, पुतले ही प्रतिष्ठा दिलाते हैं, पुतले ही दंगा कराते हैं, अगर कहा जाए तो सारी व्यवस्था पुतलों के अधीन हो गई है। हर गली चौराहे पर कोई न कोई पुतले खड़े दिखाई दे जाते हैं। रास्ते में चलते हुए एक स्थान पर बहुत सारे कांक्रीट के पुतले खड़े हुए दिखाई दिए। इतने सारे पुतले मैने एक साथ कभी नहीं देखे थे, जिज्ञासावश गाड़ी रोकी गई, फ़ोटो लेने की इच्छा भी पूरी करनी थी। इन पुतलों में बाबा साहेब के पुतले अधिक थे। पुतले भी आठ फ़ुट से दस फ़ुट ऊंचाई तक के थे। मैने पुतले बनाने वाले से चर्चा की। उसने बताया की बाबा साहेब के पुतलों की सबसे अधिक बिक्री होती है, उसके बाद नम्बर आता है, महात्मा फ़ूले का। इंदिरागांधी, नेहरु, गांधी जी, राजीव गांधी एवं अन्य नेताओं के भी पुतले बना कर रखने पड़ते हैं, अगर मांग आ जाए तो तुरंत सप्लाई की जा सके। एक पुतले की कीमत पचास हजार से एक लाख तक बताई। 

हाईवे
हम फ़ोटो लेने में मगन थे और हाईवे पुलिस आकर पाबला जी को तीन बार टोक चुकी थी, हाईवे पर गाड़ी नहीं खड़ी की जा सकती है। गाड़ी खड़ी करके आराम करने के लिए भी निर्धारित स्थान हैं, जहाँ आप घंटो गाड़ी खड़ी कर आराम कर सकते हैं। गाड़ी के हार्न की आवाज सुनकर दो चार फ़ोटो और लेकर मैं गाड़ी में पहुंच गया। गाड़ी चलने पर पाबला जी ने सारा किस्सा बताया। अब एक घंटा दबा के गाड़ी चलाई जाए तो सौ किमी का सफ़र तय हो जाएगा। चलते वक्त मेरी निंगाहें सड़क पर चौकस रहती थी, अब एक सौ बीस-तीस की गति में तो चौकस रहना ही पड़ता है। तब भी कहीं न कहीं स्पीड ब्रेकर पर चूक हो ही जाती और गाड़ी उछल जाती। खैर जैसे भी चल रहे थे, मतलब चल रहे थे। इस दौरान वार्तालाप भी कम ही होता था। मुकेश के गानों के सहारे दोनों की मौज हो रही थी।
होटल का नाम नहीं पता, खुद ही पढ़ लो
थोड़ी देर बाद भूख लगने लगी और हम कोई अच्छा ढाबा या होटल देखने लगे भोजन के लिए। कई स्थान तो ऐसे मिलते थे जहाँ कतार से ढाबे और होटल दिखाई देते थे, कभी सैकड़ों किमी चलने पर एक दो ढाबे दिखते थे। आज आंध्रा का परम्परागत भोजन करने का मन था। एक होटल में तेलगु में लिखा हुआ दिखा और साईन बोर्ड पर थाली की फ़ोटो छपी थी। समझ आ गया कि यहाँ खाना मिल जाएगा। गाड़ी रोकने पर होटल वाले ने बताया कि खाना मिल जाएगा। खाने में चपाती, चावल, दाल, रसम, सांभर, दही, चटनी, भाजी, पापड़ और अचार भी था। उसने खाली थाली लाकर रख दी और अलग से बर्तन में चावल के साथ सारी दाल सब्जी भी। जितनी आवश्यकता है उतना लो। मांगने का कोई झमेला नहीं, अपना हाथ जगन्नाथ। खाना स्वादिष्ट था, मजा आ गया। उदर के साथ आत्मा भी तृप्त हो गई।
स्पेटपनी पर शैव तिलक
भोजन करके हम अपने अगले पड़ाव की ओर चल पड़े। आज शिवरात्रि का दिन था, मंदिरों में उत्सव चल रहे थे। पूजा के साथ भंडारे का आयोजन भी हो रहा था। दक्षिण भारत में शैव सम्प्रदाय के मानने वाले अधिक है, एक समय था कि दक्षिण एवं उत्तर भारत शैव एवं वैष्णव सम्प्रदाय के बीच बंटा हुआ था तथा अत्यधिक झगड़े में इनमें ही आपस में होते थे। सदैव एक दूसरे को नीचा दिखाने को तत्पर रहते थे। आद्य शंकराचार्य के हस्तक्षेप से समय में बदलाव आया, वैष्णव दक्षिण पहुंचे और शैव उत्तर की ओर, दोनो पूजित होने लगे। सम्प्रादायिक भेद भाव इस कदर खत्म हुआ कि "हरिहर" की संघाट प्रतिमाएं बनने लगी। तिरुपति बाला जी और पद्मनाभ स्वामी मंदिर वैष्णव सम्प्रदाय के हैं तो उत्तर भारत में कई ज्योतिर्लिंग हैं। यह साम्प्रदायिक समरसता अभी तक कायम है। 
पथकर नाका
हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों की पहचान तिलक छापे एवं वेषभूषा से होती है। शैव आड़े तिलक लगाते हैं तो वैष्णव खड़े। कोई गोल तिलक लगाता है तो कोई सारा माथा ही रंग लेता है। कोई चंदन का तिलक लगाता है तो कोई रोली, हल्दी का। सभी अपनी पहचान आज भी कायम रखे हुए हैं। शायद यह जीवन की पहली शिवरात्रि होगी जब मैं कहीं यात्रा पर रहा हूँ। बाकी तो अन्य त्यौहारों पर यात्रा पर जाना होता रहा है, सिर्फ़ रक्षा बंधन, दीवाली और होली, ये तीन त्यौहार हमेशा घर पर ही मनते हैं। मुकेश के गानों के साथ सफ़र सपाटे से कटते जा रहा था। अनंतपुर के आगे चलने पर रास्ते में बहुत सारे पवन पंखे लगे दिखाई दिए, पहाड़ियों पर लगाकर इनसे बिजली उत्पन्न की जाती है तथा एक ग्रिड से जोड़कर इसका वितरण किया जाता है। यह पवन उर्जा का सदूपयोग दिखाई देता है।
उर्जा उत्पादन का साधन पवन पंखे
जिस हाईवे पर हम चल रहे थे, उसे बनाने के लिए काफ़ी श्रम लगा होगा। हाईवे बनाने के लिए पहाड़ों को भी काटना पड़ा तो कहीं सड़क को पचास फ़ुट ऊपर तक उठाना भी पड़ा, इस तरह यह हाईवे बनकर तैयार हुआ। हर 50-60 किमी में एक टोल नाका आ ही जाता था। जिस पर सड़क बनाने वाली कम्पनियाँ खर्च की गई राशि वसूल कर रही थी। चलते चलते वह समय आ ही गया जब बंगलोर की हद में हम पहुंच गए। रात हो गई थी और अब थकान इतनी बढ गई थी कि लग रहा था, कब होटल में पहुंचे और बिस्तर के हवाले हो जाएं। बंगलोर पचास किमी पहले से शुरु हो जाता है। रात को गति वैसे भी कम हो जाती है। 
रात का ट्रैफ़िक बंगलोर
भारी ट्रैफ़िक के बीच हम इलेक्ट्रानिक सिटी की तरफ़ जा रहे थे, रास्ते में एक फ़्लाई ओव्हर ऐसा आया कि गाड़ी चल रही थी और वह खत्म होने का नाम ही नही ले रहा था। लग रहा था कि यह हमें सीधे आकाश की ओर लेकर जा रहा है। जब फ़्लाई ओव्हर खत्म हुआ तब सांस में सांस आई। पता चला कि यह नौ किमी लम्बा है। एक गोल चक्कर के बाद जीपीएस वाली बाई ने दिखाया कि हम मंजिल के करीब पहुंच गए हैं, दो तीन मोड़ों से गुजरने बाद बोली " आपकी मंजिल आ गई है"। रात साढे नौ बज रहे थे। हम अपनी मंजिल पर पहुंच गए थे। होटल चेक इन किया और रुम में पहुंचते ही पड़ गए बिस्तरों पर, अगली सुबह के इंतजार में। जारी है आगे पढ़ें…।  

शनिवार, 19 मार्च 2016

रानी तारामती का कुतुबशाही प्रेम: दक्षिण यात्रा-4

बारहदरी से थोड़ी दूर पर देवी का प्राचीन मंदिर है, इसके द्वार पर महाकाली मंदिर लिखा हुआ है। इसका नाम मदन्ना मंदिर है। अब्दुलहसन तानाशाह के एक मंत्री के नाम पर इसका नामकरण किया गया है। यहां महाकाली ग्रेनाईट की बड़ी चट्टानों के बीच विराजित हैं, जिन्हें अब पत्थरों की दीवार से घेर कर मंडप बनाकर उसमें लोहे का द्वार लगा दिया गया है। इस प्राचीन दुर्ग को वारंगल के हिन्दू राजाओं ने बनवाया था, देवगिरी के यादव तथा वारंगल के काकातीय नरेशों के अधिकार में रहा था। इन राज्यवंशों के शासन के चिन्ह तथा कई खंडित अभिलेख दुर्ग की दीवारों तथा द्वारों पर अंकित मिलते हैं। अवश्य ही देवी का यह मंदिर हिन्दू राजाओं ने स्थापित किया होगा। जिसे कालांतर में मुस्लिम शासकों ने किसी अज्ञात भयवश नहीं ढहाया होगा।
किले के शीर्ष पर मस्जिद के पीछे स्थित मद्नन्ना का महाकाली मंदिर 
आगे चलकर जब हम मस्जिद के पीछे से नीचे उतरते हैं तो यहाँ रामदास का कोठा है। इसे अम्बर खाना कहा जाता है। इसका निर्माण 1642 में अब्दुल्ला कुतुबशाह ने करवाया था। नजदीक ही किले की अंदरूनी दीवार है जो पूर्णतः अजेय है। इस दीवार का निर्माण बेहद बुद्धिमत्ता से पत्थरों से किया गया है एवं पत्थरों की दरारों को गच्चों से भरा गया है। यह एक मजबूत आयताकार भवन है, इसके अंदर जाने का एक कृत्रिम द्वार है। वास्तव में इसका निर्माण भंडारगृह के लिए किया गया था किंतु अबुल हसन कुतुबशाह (1672–1687) के दौरान इसे कारागार में बदल दिया गया। भद्राचल रामदास शाही खजाने के खजांची थे। कहा जाता है कि जब शाही खजाने के दुरूपयोग का आरोप लगा था तब उन्हें इसी कैदखने में बंद किया गया था। किलवट यानी शाही निजी कक्ष। यह छोटा किंतु किले के वास्तुशिल्प का सबसे खूबसूरत हिस्सा है।
महाकाली मंदिर के समक्ष मस्जिद
इतिहास की ओर चलते हैं तो ज्ञात होता है कि किले के साथ कई ऐतिहासिक कथाएं जुड़ी हैं। राजा प्रताप रूद्रदेव काकतीय राजवंश के राजा थे। उनके राज्यकाल के समय, सन् 1143 ई. में  एक गड़ेरिए ने इस पहाड़ी पर किला बनाने सुझाव दिया। उसके सुझाव पर, यह किला पहाड़ी पर बनाया गया।  गोल्ला का अर्थ गड़रिया और  पहाडी को कोण्डा कहते है। इसीलिये इसका नाम 'गोल्लकोण्डा' रखा गया। सन् 1663 में इसी वंश के राजा कृष्णदेवराय ने एक संधि के अनुसार 'गोलकोण्डा' किले को बहमनी वंश के राजा मोहम्मद शाह को दे दिया। बहमनी राजाओं की राजधानी गुलबर्गा तथा बीदर में थी। राज्य में, उनकी पकड़ भी अच्छी न थी।
अंबरखाना
उनके पांच सुबेदार बहमनी राज्य की अस्थिरता के कारण मौके का लाभ उठा कर स्वतंत्र हो गये। इसके एक सूबेदार कुली कुतुबशाह नें 1518 में गोलकोण्डा में मे अपनी सल्तनत कुतुबशाही  स्थापित की। 1518 से 1617 तक कुतुबशाही वंश के सात राजाओं ने गोलकोण्डा पर राज किया। पहले तीन राजाओं ने गोलकोंडा किला का पुन: निर्माण राजमहल और  पक्की इमारतें बनावायी। 1587 में चौथे राजा मोहम्मद कुली कुतुबशाह ने अपनी प्रिय पत्नी भागमती के नाम से भाग्यनगर नामक शहर बसाया। इसे अब हैदाराबाद कहा जाता है। 1687 तक हैदराबाद इन राजाओं की राजधानी थी। 1656 में औरंगजेब ने गोलकोण्डा और हैदराबाद पर हमला किया। सुलतान अब्दुल्ला शाह की हार हुई सुलतान अब्दुल्ला की ओर से गुजारिश करने पर दोनों में संधि हुई। जिसकी एक शर्त पूरी करने के लिए सुल्तान की बेटी की शादी औरंगजेब के बेटे मोहम्मद सुल्तान से की गयी।
किले का वाईड एंगल व्यू
कुतुबशाही का अब्दुल हसन तानाशाह 1687 में सातवां राजा था। उस समय औरंगजेब ने दूसरी बार गोलकोण्डा पर हमला किया। आठ महिनों तक औरंगजेब गोलकोंडा जीतने में सफलता नहीं मिली। लेकिन कुतुबशाही सेना का नायक अब्दुल्ला खान पन्नी बागी हो गया। उसने रात के समय किले का दरवाजा खोल दिया। अब्दुल हसन तानाशाह बंदी बनाया गया। चौदह साल बाद जेल में उसका देहांत हुआ। इस प्रकार कुतुबशाही का अंत हुआ और गोलकोण्डा पर मुगलों का शासन आरंभ हुआ। कुतुबशाही समाप्त होने के उपरांत मुगल साम्राज्य की ओर से कई सूबेदार हैदराबाद में रखे गये। लेकिन 1737 ईस्वी में मोहम्मद शाह के समय मुगलों की राजनीतिक स्थिति कमजोर हो गई। इसका फायदा उठाते हुए  निज़ाम-उल-मुल्क आसिफ जाह-1 स्वतंत्र बन गया और स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया। इस वंश के सात राजाओं में, आखरी राजा ने नवाब मीस उस्मान अली खान ने 1947 तक हैदराबाद पर राज्य किया।
किले का दीवान-ए-आम और उसकी ओर जाती पैड़ियाँ
समय-समय शासकों ने इसमें अपनी सुविधानुसार निर्माण किया, तब कहीं जाकर आज यह किला विशाल स्वरुप लिए खड़ा है।यहाँ के महलों तथा मस्जिदों के खंडहर अपने प्राचीन गौरव गरिमा की कहानी सुनाते हैं। दुर्ग से लगभग आधा मील उत्तर कुतबशाही राजाओं के ग्रेनाइट पत्थर के मकबरे हैं जो टूटी फूटी अवस्था में अब भी विद्यमान हैं। फतेह मैदान से पोटला बुर्ज जाने के रास्ते में एक कटोरा घर है। चूने और पत्थरों से निर्मित यह घर अब खाली पड़ा है। किंतु कुतुबशाही के स्वर्णिम काल में यह इत्र से भरा रहता था जो अंतःपुर की महिलाओं के लिए होता था। असलाहखाना यानी शस्त्रागार, एक आडम्बरहीन, किंतु किले की एक प्रभावशाली इमारत है। यह तीन तलों में बना है। तारामती मस्जिद कुतुबशाही शासनकाल के वास्तुशिल्प का बेहतरीन नमूना है। यह हिंदू और मुगल शैली का मिला–जुला नमूना है। इसके अतिरिक्त दो मीटर चौड़ाई का एक स्थान है, जहाँ बारह छोटे–छोटे मेहराब बने हैं।
रानी तारामती महल एवं मस्जिद
गोलकुंडा किला के अवशेषों में कुतुबशाही साम्राज्य के कई शासकों के शासनकाल के दौरान बने विभिन्न महल तत्कालीन वास्तुकला के सबसे खूबसूरत नमूनों में से हैं। इनमें से कुछ महल पाँच से छह तलों तक के हैं। इनमें जनाना कोठरी, आमोद–प्रमोद के बगीचे, झरने आदि प्रमुख हैं। ऐसे सभी निर्माणों में चमकीले संगमरमर पत्थरों की कारीगरी, फूलों और पत्तियों की नक्काशी और चमकीले बेसाल्ट पत्थरों के परत का इस्तेमाल किया गया है। यह सारी कारीगरियाँ कुतुबशाही शैली की विशेषता हैं। अनेक खूबसूरत धार्मिक इमारतें भी कुतुबशाही शासनकाल में बनी थीं, जो वास्तुशिल्प के दिलचस्प पहलुओं को अंकित करती हैं। इनमें बहमनी बुर्ज के निकट बनी एक विशाल मसजिद है। इसमें एक खुला प्रांगण और एक प्रार्थना–कक्ष हैं।

किले में जाने के लिए बनाई गई पैड़ियों के निर्माण में मेहराब का प्रयोग
इसका क्षेत्रफल उत्तर से पश्चिम की ओर 42 मीटर एवं पूर्व से पश्चिम की तरफ 45 मीटर है। आंगन के बीचों बीच तीन कब्रे हैं। कब्रों के गुंबज पर उकेरी गयी इबारतों के अनुसार यह इब्राहिम कुतुबशाह के मंत्री मुस्तफाखान के बेटों की है। आयताकार प्रार्थना कक्ष में एक मेहराबनुमा छत है। खूबसूरती से तराशे गये इस मुहराबनुमा छत में पवित्र कुरान की आयतें बेमिसाल सुलेख में खुदी हुई हैं। प्रार्थना–कक्ष की दीवारें गचकारी कला को दर्शाती हैं। इस प्रार्थना कक्ष के उत्तरी और दक्षिणी दीवारों 7X4 मीटर के दो छोटे–छोटे कक्ष भी हैं। यह सीधे आँगन में खुलती है। सीढ़ियाँ दोनों कमरों से मसजिद के छत तक जाती है। इसके दक्षिणी दीवार के बीचोंबीच एक अंदर जाने का रास्ता है जिसमें एक दीवार पर एक पर्शियन शिलालेख है।
पर्सियन शिलालेख :)
किले का भ्रमण कर मैं नीचे उतर रहा था और आँखे पाबला जी को ढूंढ रही थी। मैं उन्हें द्वार के समीप छोड़ कर गया था पर वे दिखाई नहीं दे रहे थे। कुछ जोड़े एकांत सेवन करते हुए दिखाई दे रहे थे। इस तरह के प्राचीन स्मारक नवयुगलों के प्रेमालाप के आदर्श स्थान बन गए हैं। भारत में किसी भी प्राचीन स्मारक में चले जाईए, ये दिखाई देते हैं क्योंकि दस रुपए की टिकिट में इससे सुरक्षित स्थान कहीं दूसरी जगह नहीं मिल सकता। तभी पाबला जी नीचे जाते हुए दिखाई दिए। यहाँ एक सैलानियों की टोली गाईड के साथ जमी हुई थी। नीचे पहुंचने पर गला सूखकर चिपका जा रहा था। सबसे पहले एक छोटी कोल्ड्रिंक से प्यास बुझाई।
कुतुबशाही शव स्नानागार
बालाहिसार द्वार के समीप ही एक छोटी तोप रखी है। इन छोटी छोटी तोपों ने अपने कार्यकाल में युद्ध में बहुत कहर ढ़ाया है। कई युद्धों में इनका इस्तेमाल हुआ है। आज समय निकल जाने पर इनकी उपयोगिता खत्म हो गई और कभी लोग इन्हें माथे पर धरते थे, आज ये उपक्षित पड़ी हुई हैं। मुख्यद्वार के थोड़ी ही दूरी पर एक ईमारत है, जिसे शवस्नान गृह बताया गया है। कुएं के आकार के इस खंड का निर्माण पारसी या तुर्की शैली में किया गया है। इसका उपयोग शाही परिवार के शवों को नहलाने के लिए किया जाता था। शवों के नहलाने के लिए इस स्थान पर चबूतरा भी बना हुआ है, जिस पर रखकर शवों को सुपुर्देखाक से पहले स्नान कराया जाता था।
संग्रह में रखा हुआ बड़ा ताला
लौटते समय द्वार के बांई ओर लकड़ी की कांच लगी पेटियों में किले से प्राप्त वस्तुएं रखी हुई हैं, जिसमें चीनी के बर्तनों के साथ,  सील, मुहरें, कुछ सिक्के, कुछ कागज की कतरनों के साथ एक बड़ा ताला भी रखा हुआ है, जिसकी लम्बाई डेढ फ़ुट होगी। इस्का इस्तेमाल किसी बड़ दरवाजे पर किया जाता होगा। यहाँ ताले का कुंड़े वाला भाग ही रखा है। हम द्वार से बाहर निकल आए और गोलकुंडा के किले का भ्रमण एक छोटी सी अवधि में सम्पन्न हुआ क्योंकि हमारे पास अधिक समय नहीं था वरना इसे देखने में ही तीन दिन लग सकते हैं। यहाँ से हमने जीपीएस वाली बाई को इलेक्ट्रानिक सिटी बंगलोर का पता दिया और हमारी स्मार्ट कार अगले पड़ाव की ओर चल पड़ी। जारी है, आगे पढें …

शुक्रवार, 18 मार्च 2016

प्राचीन विरासत गोलकुंडा का किला : दक्षिण यात्रा-3

सुबह हमने होटल छोड़ दिया और रात्रि कालीन सभा में गोलकुंडा भ्रमण के प्रस्ताव के अनुमोदन के पश्चात हमें गोलकुंडा किले के दर्शनार्थ जाना था। सुबह के साढे सात बज रहे थे। हैदराबाद में ट्रैफ़िक सुबह ही शुरु हो जाता है। हमारे होटल से गोलकुंडा तक हमें लगभग 20 किमी शहर के भीतर होकर पहुंचना था। रास्ते में एक स्थान पर नाश्ते का जुगाड़ दिख गया। एक व्यक्ति मोपेड पर बर्तन रखकर इडली उत्तपम बेच रहा था। बस इसी से लेकर हमने नाश्ता किया। गर्मागर्म इडली और उत्तपम खा कर लगा कि दिन बन गया। अब आगे का सफ़र आराम से हो सकता है। कुछ देर के सफ़र के बाद हम पुरानी बसाहट से होते हुए गोलकुंडा के किले के मुहाने तक पहुंच गए।
स्ट्रीट फ़ूड का आनंद, सुबह का नाशता
किले में सुबह की चहल-पहल प्रारंभ हो चुकी थी। टिकिट खिड़की भी खुल चुकी थी। किले के पास ही पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर हमने टिकिट खिड़की से 10-10 रुपए की टिकेटें खरीदी। टिकिट घर के सामने उद्यान बना हुआ है, कारपेट घास की तराई करते हुए लोग मिले। मैने सोचा कि गाईड ले लिया जाए। एक से चर्चा करने पर उसने 600 रुपए पारिश्रमिक बताया और उससे एक पैसा कम करने को तैयार नहीं था। इसके बदले मैने वहीं बिक रही गोलकुंडा दर्शन का हिन्दी ट्रैक्ट 20 रुपए में खरीद लिया। यह भी गाईड का ही काम करेगा। शुद्ध 580 रुपए की बचत हो गई। बाकी तो देखने दिखाने के लिए अपनी आँखे ही काफ़ी हैं। 30 वर्षों की घुमक्कड़ी के अनुभव से इतना तो समझ आ जाता है कि कहाँ क्या होगा?
गोलकुंडा का प्रवेश द्वार
गोलकुंडा का जिक्र हो तो सबसे पहले कोहिनूर हीरा ही याद आता है, जो आज ब्रिटेन की महारानी के ताज में जड़ा हुआ है और जिस पर भारत के अलावा पाकिस्तान भी अपना दावा ठोक रहा है। इस विश्वविख्यात हीरे का वास्तविक घर गोलकुंडा है, यह हीरा गोलकुंडा की खदान से ही निकला था। इसका प्राचीन नाम सामंती मणि था, जिसे भगवान सूर्य ने अपने पुत्र कर्ण को उपहार स्वरूप दिया था। गोलकुंडा में एक गरीब मजदूर को यह हीरा खुदाई के समय मिला था। मीरजुमला ने बतौर नजराना इसे शाहजहाँ को पेश किया।  जिन्होंने इसे तख्त–ए–ताउस में जड़वा दिया। इसके बाद यह हीरा महाराजा रणजीत सिंह से होते हुए ब्रिटेन के ताज तक पहुंच गया।
बाला हिसार द्वार की ओर जाता मार्ग
किले के मुहाने पर कड़प्पा पत्थर की स्लेट पर गोलकुंडा का नक्शा बना हुआ है, जिसे एकबारगी देख कर किले राह रस्ते समझ आ जाते हैं। टिकिट घर से मुख्य द्वार बाला हिसार दिखाई नहीं देता। उसके सामने दीवार एक पर्दा बनी हुई है। दांई तरफ़ एक पांच फ़ुट की गली से किले के मुख्यद्वार तक पहुंचा जाता है, इस द्वार को बाला हिसार द्वार कहा जाता है। पाषाण की चौखट पर लकड़ी के किवाड़ चढे हुए हैं। सिरदल पर दोनो ओर सिंह एवं मध्य में पद्मांकन है। द्वार की बनावट देख कर ही लगता है कि यह किसी हिन्दू राजा द्वारा बनाया गया है। सिरदल के उपर दोनो ओर सुंदर मयूराकृतियाँ बनी हुई हैं तथा द्वार बंद होने पर सुरक्षा की दृष्टि से झांकने के लिए एक झरोखा भी बना हुआ है। द्वार को मजबूती प्रदान करने के लिए उस पर लोहे का पतरा मढा होने के साथ हाथियों की टक्कर से बचाने के लिए मोटे कीले भी लगे हुए हैं।

बाला हिसार द्वार, हिन्दू शैली पर इस्लामिक शैली का निर्माण
द्वार से भीतर प्रवेश करते ही उजड़ा हुआ नगर दिखाई देने लगता है। चारों तरफ़ ईमारतें ही ईमारते दिखाई देती हैं। गोलकुंडा का किला 400 फ़ुट ऊंची (कणाश्म-कड़प्पा) ग्रेनाईट की पहाड़ी पर बना हुआ है। इसके तीन परकोटे हैं और यह 7 मील में फ़ैला हुआ है, इसके चारों तरफ़ 87 बुर्ज बने हुए हैं। बुर्ज युद्ध के समय तोप रखकर चलाने के काम आते थे। साथ ही वाच टावर भी बने हुए हैं। वैसे भी किले पहाड़ी के शीर्ष में बनाए जाते थे, इसके कारण दूर तक दिखाई देता है। यह भग्न नगर हैदराबाद शहर से पाँच मील की दूरी पर है। इस किले की सुरक्षा के लिये उसके चारो तरफ पांच मील पत्थर की चारदिवारी है। चारदीवारी के बाहर खाई है, इसमें 9 दरवाजे, 43 खिड़कियां तथा 58 भूमिगत रास्ते हैं।
किले के शीर्ष से विहंगम दृश्य
बाला हिसार किले का मुख्याकर्षण यहाँ की दूरसंचार व्यवस्था है। वास्तुकार ने इसे विशेषता से निर्मित किया है और ध्वनि विज्ञान का विशेष ध्यान रखा है। द्वार के समीप षटकोणिय आकृति की परिधि में ही करतल ध्वनि करने पर उसकी आवाज किले के शीर्ष तक पहुंचती है। इस स्थान पर गाईड पर्यटकों को ताली बजवा कर इसका चमत्कार दिखाते हैं। यह व्यवस्था किले की सुरक्षा को ध्यान में रख कर की गई है। ध्वनि की विविधता के आधार पर उपर रहने वालों को पता चल जाता था कि द्वार पर मित्र है, शत्रु है या फ़िर फ़रियादी है । यह ध्वनि मुखबीरों के भी काम आती थी, थोड़ी सी भी आवाज तरंगों में बदल कर दूर तक सुनाई देती थी। वर्तमान जिसे ईको सिस्टम कहा जाता है।
तोप एवं दूर संचार का केन्द्र
मैं और पाबला जी किले में बने हुए पथ पर आगे बढ़े जा रहे थे। सुबह का सूर्य यौवन की प्राप्ति की ओर बढ रहा था और धूप चमकने लगी थी। कुछ विदेशी यात्री भी किले को परख रहे थे, जिनमें दो युवतियाँ बिंदास अपने कैमरे लेकर बिना किसी गाईड के ही घूम रही थी। मुख्य द्वार पर आगे बढ़ने पर तारामती महल दिखाई देता है। समय की मार के बावजूद भी यह बचा हुआ है खंडहर होने से। किंवदंती है कि तारामती, जो क़ुतुबशाही सुल्तानों की प्रेयसी तथा प्रसिद्ध नर्तकी थी, क़िले तथा छतरी के बीच बंधी हुई एक रस्सी पर चाँदनी में नृत्य करती थी। सड़क के दूसरी ओर प्रेमावती की छतरी है। यह भी क़ुतुबशाही नरेशों की प्रेमपात्री थी।

रानी तारामती का महल
इस स्थान से सीढियों द्वारा उपर जाने पर एक द्वार और बना हुआ है, इसके बाद मैदान है, जहाँ से पहाड़ी के शीर्ष तक जाने के लिए दांए-बांए दो रास्ते हैं। पाबला जी नीचे ही रह गए और मैं बारहदरी तक उपर चढ गया। धूप बहुत तेज थी और अब उपर चढने में स्वास्थ्यगत समस्याएं सामने आती हैं। भले ही 30-30 पैड़ी चढ़ा, पर उपर पहुंच गया। गला सूखने लगा था। एक घूंट जल कि चाहिए थी। बारहदरी के समीप ही एक कैंटीन है, जहाँ से पानी लेकर पीया और फ़िर बारहदरी का निरीक्षण किया। यह ऊंचे अधिष्ठान पर निर्मित है।
प्रतिक्षारत पाबला जी
यहाँ पहुंचने के लिए दोनो तरफ़ पैड़ियाँ बनी हुई हैं। यहां से उपर आने पर एक बड़ा हॉल है, जिसके दोनो तरफ़ कमरे बने हुए हैं, यहाँ से दो जीने और बने हैं उपर जाने के लिए। यह जीने दो पार्ट में हैं। इसके बगल से एक जीना सीधे ही उपर दरबार तक पहुंचाता है। इस किले का शीर्ष यही दरबार है। नीचे के मंडप को दीवाने आम कहा  जाता है, जहाँ दरबारी बैठकर राजकाज में सम्मिलित होते थे और उपरी मंडप दीवाने खास है, जहाँ बैठ कर सुल्तान खास मंत्रणा करते थे और विशिष्ट जनों से मिलते थे। नीचे बाला हिसार द्वार से की गई हल्की सी आवाज की गूंज यहाँ तक सुनाई देती है। यही वास्तु का चमत्कार है।

बारहदरी का दीवान-ए-आम
बारहदरी भवन का नक्शा इस तरह बनाया गया है ताकि यह पहाड़ी के शिखर का विस्तार लगे। शिखर पर होने की वजह से यह दूर से ही नज़र आता है और भव्य दिखता है। दो तल की इस ईमारत में एक खुली छत है, जिसमें एक दर्शक दीर्घा है। जहाँ महत्वपूर्ण अवसरों पर शामियाने लगाये जाते थे। बारहदरी भवन के रास्ते में एक गहरा कुआँ है जो वर्तमान में सूखा है, किंतु उस समय सेना को पानी की आपूर्ति इसी कुएँ से की जाती थी। थोड़ी ही दूरी पर जीर्ण–शीर्ण अवस्था में एक भवन है, जिसके कोने में एक गोलाकार सुरंगनुमा रास्ता है। इसकी गहराई लगभग आठ किलोमीटर है। कुतुबशाही शासक आपातकाल में इसका उपयोग करते थे।
दीवान-ए-आम की छत पर मुख्य दरबार दीवान-ए-खास
किले के निर्माण के समय सबसे महत्वपूर्ण जलापूर्ति के साधन होते हैं। इतिहास गवाह है कि कई बार किलों की जलापूर्ति एवं रसद रोक कर भी राज्यों को हस्तगत किया गया है। किले के दक्षिण में मूसी नदी प्रवाहित होती है और इसी से किले में जलापूर्ति की व्यवस्था की गई थी।  यहाँ मोरियों के रुप में जलापूर्ति के चिन्ह दिखाई देने लगते हैं, इस ईमारत में एक फ़व्वारा भी बना हुआ है। किले में सुनियोजित ढंग से जलापूर्ति की व्यवस्था की गई है। प्रत्येक तलों में जलसंचय की व्यवस्था थी। जो टेरीकोटा पाइपों द्वारा विभिन्न तलों के महलों, बगीचों और झरनों में पहुँचाई जाती थी। पाइपों के भग्नावशेष अब भी दीवारों पर देखे जा सकते हैं।  जारी है, आगे पढ़ें…

गुरुवार, 17 मार्च 2016

वो सत्रह घंटे : दक्षिण यात्रा-2

आरम्भ से पढ़ें 
त श्री अकाल का संदेश सुबह 4 बजे मेरे चलभाष पर आ गया। मतलब पाबला जी भिलाई से अभनपुर की ओर प्रस्थान कर चुके थे। भिलाई से अभनपुर 60 किमी की दूरी पर है। मैने भी उनके पहुंचते तक तैयारी कर ली। मालकिन ने भी रास्ते के लिए खाना बना दिया। सुबह सवा पाँच बजे हमने अभनपुर से बंगलोर के लिए माता जी का आशीर्वाद लेकर यात्रा का श्री गणेश कर दिया। अभी अंधेरा ही था, रायपुर और भिलाई के बीच उजाला होने लगा, दिन निकलने वाला था। भिलाई से निकलते हुए पाबला जी मन एक बार फ़िर घर की तरफ़ जाने का हुआ, फ़िर उन्होने इरादा बदल कर गाड़ी हाईवे पर डाल दी। ठीक दो घंटे के बाद हमने सुबह सवा सात बजे राजनांदगाँव के बाद तुमड़ी बोड़ के गुरुनानक ढाबे में चाय पी। तुमड़ी बोड़ से डोंगरगढ़ के लिए रास्ता जाता है। 
सफ़र का प्रारंभ अभनपुर
मुकेश के पुराने गानों एवं जीपीएस वाली बाई के निर्देशों के तहत सपाटे से गाड़ी आगे बढ़ती गई। रायपुर नागपुर हाईवे फ़ोर लाईन होने के बाद से मैने कार द्वारा इस सड़क पर सफ़र नहीं किया था, तो अंदाजा था कि 12 से एक बजे के बीच नागपुर पहुंच जाएगें। पर हाईवे पर सपाटे के साथ गाड़ी एक सौ बीस की स्पीड से चल रही थी रास्ता जल्दी तय हो रहा था। हम सवा आठ बजे महाराष्ट्र की सीमा में प्रवेश कर गए। हमें नागपुर से संध्या जी के यहाँ का बना खाना लेना था। इसलिए उन्हें समय 12 से एक बजे के बीच का बताया गया था। हमारी गाड़ी लगभग साढ़े नौ बजे भंडारा के पास पहुंच चुकी थी। इससे लगा कि साढे दस बजे तक किसी भी हालत में नागपुर पहुंच जाएगें। 
तुमड़ी बोड़ ढाबा छत्तीसगढ़
हमने वहीं नाश्ता करने का निर्णय लिया। होटल वाले से दही होने की जानकारी ली, मिलने पर मटर के पराठे निकाल कर वहीं पर बैठ कर खाए। इस प्रक्रिया में आधा घंटा लग गया। इसके बाद नागपुर बायपास से हम शहर के बाहर ही बाहर निकल लिए। यह बायपास बुटीबोरी वाले रोड़ में जामठा के पास मिल जाता है। यहीं पर हमें खाना मिल गया। यहां से हम बारह बजे आगे बढे। हिंगणघाट होते हुए हमें आज रात हैदराबाद पहुंचना था। एक बजे के बाद भूख लगने लगी। हम भोजन करने के लिए हाईवे के किनारे नीम, बरगद, पीपल, महुआ आदि किसी छायादार वृक्ष की तलाश करने लगे। परन्तु एक घंटे तक तलाश करने पर भी हमें कहीं पर मनवांछित वृक्ष नहीं मिला। हर तरफ़ कीकर की ही झाड़ियाँ नजर आ रही थी। जिसके नीचे बैठने की सोच कर बचपन में लगाई डॉक्टर की सारी सुईयाँ याद कर तशरीफ़ सिहर जाती है।
सपाटे की सड़क
आखिर दो बजे एक ढाबे के पास नीम का एक वृक्ष दिखाई दिया, जिसके नीचे छाया में एक गाड़ी वाला सोया हुआ था। हमें यही स्थान उपयुक्त लगा भोजन के लिए। गाड़ी वृक्ष के नीचे लगा कर, छाया में चादर बिछाकर हमने आराम से भोजन किया। जब मनचाहा हो जाए तो उससे अच्छी तृप्ति और कोई नहीं हो सकती। भोजन के बाद हमने तीन बजे फ़िर सफ़र शुरु किया। यहाँ से हैदराबाद लगभग 400 किमी था। बीच में लगभग 50 किमी की सड़क का निर्माण अधूरा होने के कारण गति धीमी हो गई। इसके बाद आगे चलकर पांडुरकवड़ा होते हुए आदिलाबाद के बायपास से गुजरे। देखा जाए तो विदर्भ के इस इलाके में वर्षा आधारित फ़सल ही हो सकती है। सिंचाई के कोई साधन दिखाई नहीं दे रहे थे और न ही हरियाली। चारों तरफ़ झाड़ झंखाड़ एवं सूखा दिखाई दे रहा था।
दोपहर का भोजन कुड़ूए नीम की छांव में
हम एशियन हाईवे 43 पर चल रहे थे। एशियन हाईवे बनने के बाद यह पता चलना कठिन हो गया है कि हम किस गाँव से गुजर रहे हैं। क्योंकि इसकी गति इतनी अधिक है कि गांवों की तरफ़ ध्यान ही नहीं जाता। कामारेड्डी पहुंचने पर दिन ढल गया। चौड़ी सड़क गाड़ी सपाटे से चलती है और एक टोल से दूसरे टोल के बीच का सफ़र तेजी से कट जाता है। 45 रुपए के टोल से शुरु हुई यात्रा 103 रुपए तक पहुंच गई। ये टोल रोड़ भी नोट को कागज बनाने की मशीन हो गए हैं, आप उन्हें नोट दो और ये आपको उसके बदले में एक छोटी सी पर्ची थमा देते हैं। हमने टोल रोड़ की सारी पर्चियाँ जमा करना शुरु कर दिया था। टोल देते ही पर्ची गाड़ी के टूल बाक्स में पहुंच जाती थी। यह पर्चियों का गुल्लक बन गया था।
अब जबेलियाँ दिखने लगी।
पाबला जी ने हैदराबाद बंगलोर रोड़ पर शहर से बाहर होटल बुक करवा रखा था। आज हमने लगभग 872 किमी और 17 घंटे लगातार कार ड्राईव की। हम रात को 10 बजे होटल में पहुंच गए।  होटल पहुंच कर खाना खाया। इस यात्रा के दौरान सभी होटलों में नेपाली या असमी स्टाफ़ ही दिखाई दिया। नेपाल में भूकंप से हुए नुकसान के बाद बड़ी संख्या में नेपाली बाहर काम करने निकल गए। भाषा की समस्या होने के बाद भी ये नौकरी कर कुछ धन अर्जित करने के लिए जद्दो जहद कर रहे हैं। रात को सुबह जल्दी बंगलोर निकलने के लिए प्लान बनने लगा। पर गोलकुंडा का किला देखने का मुड बन गया तो तय किया गया कि किला नौ बजे खुलता है इसलिए होटल से आठ बजे चला जाए और रास्ते में ही नाश्ता किया जाए। किला देखकर बंगलोर के लिए प्रस्थान किया जाए। जारी है, आगे पढ़ें 

बुधवार, 16 मार्च 2016

स्मार्ट कार से दक्षिण भारत की ओर

भारत के दक्षिण प्रदेशों का रहन-सहन, खान-पान, पहनावा, भाषा एवं विभिन्न विषयों पर दर्शन भी उत्तर भारत भिन्न हैं, इस विभिन्नता के बाद भी उत्तर-दक्षिण दोनो जुड़े हुए हैं, इन्हें हमारी संस्कृति जोड़ती है। अगर हम उत्तर की निगाह से देखें तो अत्यधिक भिन्नता पाएगें। उत्तर भारतीयों के लिए दक्षिण में भाषाई समस्या बड़ा रोड़ा बनती है। पूर्व में भी दक्षिण भारत की यात्राएं कर चुका हूँ। परन्तु यात्राएं रेल एवं वायू मार्ग से होने के कारण के क्षेत्र को समीप से देखने एवं समझने में कठिनाई होती रही। जब तक धरातल (सड़क मार्ग) पर न उतरा जाए तब तक किसी भी संस्कृति को समझना बहुत ही कठिन है। इसे समझने के लिए यायावर जैसे दृष्टि एवं संकल्प की आवश्यकता होती है। 
नेपाल की सीमा पर स्मार्ट कार
यायावरी के लिए समय भरपूर चाहिए, जिससे निकट से किसी भी चीज की परख की जा सके। वर्तमान की भागम-भाग भरी जिन्दगी में सभी घरेलू जिम्मेदारियों की कथरी उतार कर कुछ समय यायावरी के लिए चुराना बहुत ही दुष्कर है। खासकर एक गृहस्थी व्यक्ति के लिए। जिसके आगे नाथ, न पीछे पगहा हो, वह कुछ भी कर सकता है। यायावर मन कभी चैन नहीं लेने देता। हमेशा कदम चलने को तैयार रहते हैं, थोड़ी बहुत तकलीफ़ झेलकर भी यायावरी करने को तत्पर रहते हैं, बस जरा सी हवा चली और ये व्याकुल हो जाते हैं कि अब चलना चाहिए। बहुत दिन हो गए एक स्थान पर ही ठहरे हुए। अवसर मिलते ही मन यायावरी साधने निकल पड़ता है।
नेपाल की सीमा
अब की यायावरी में पुन: साथी बने बी एस पाबला जी। पिछली नेपाल यात्रा हमने कार से संग-संग ही की थी और यह यात्रा काफ़ी सफ़ल और सकुशल रही। पाबला जी के पास मारुति ईको कार है, जिसे उन्होंने विभिन्न गजट लगाकर "स्मार्ट कार" बना रखा है। इसकी खासियत यह है कि एक बार स्टेयरिंग पर बैठने के बाद किसी से रास्ता पूछने की आवश्यकता नहीं पड़ती। रास्ता बताने वाली बाई (जीपीएस) को निर्धारित स्थान बताने पर वह स्वयं ही रास्ता बताते हुए मंजिल तक पहुंचा देती है। चौक चाराहों, मोड़ों की जानकारी 100 मीटर पहले से ही मिलने के कारण गति बनी रहती है और चालक पूर्व से ही कार्यवाही के लिए सावधान हो जाता है। 
बी एस पाबला जी स्मार्ट कार के साथ
दूसरी खासियत यह है कि इसमें 4 कैमरे लगे हैं, जो बाहर के रास्ते और भीतर के लोगों की बातचीत एवं गतिविधियों की फ़िल्म भी बनाता है। जिससे सड़क की समस्त घटनाएं रिकार्ड होती जाती हैं और यात्रा करने वालों का आत्मविश्वास बना रहता है। अगर कोई चूक भी हो जाए तो वह भी रिकार्ड हो जाती है। जिससे उसे रिप्ले करके देखा जा सकता है। तीसरी खासियत है कि पाबला जी वाहन के सुचालक है। जिसके कारण मुझे कार चलाने का मौका ही नहीं मिल पाता और लम्बी से लम्बी यात्रा सकुशल सम्पन्न हो जाती है। चौथी खासियत है कि हमारी आपस में पटरी बैठ जाती है। खान-पान और भाषा के साथ समझदारी आड़े नहीं आती। दोनों एक सी भाषा बोलते हैं और समझते हैं साथ ही खान-पान भी एक सा ही है। जिसके कारण कभी असहजता महसूस नहीं होती।
स्मार्ट कार के स्मार्ट कैमरे
मैने देखा है कि कई महीने पहले से यात्रा बनाने पर मेरी यात्रा योजना हमेशा फ़ेल हो जाती है। समय समीप आने पर कोई न कोई अड़ंगा आ जाता है और जब भी तत्काल यात्रा बनाई गई, वह सफ़लता से सम्पन्न हो जाती है। फ़ेसबुक पाबला जी ने कार से बैंगलोर यात्रा की मंशा जताई थी, पर वे असमंजस में थे। मैने देखा और कहा चलो। बस इतने में ही बात बन गई, उनका फ़ोन आने पर मैने कहा कि जरा "मालकिन" से स्वीकृति ले लेता हूँ। उनसे भी स्वीकृति लेने में पाँच मिनट ही लगे और अगले दिन यात्रा की तैयारी के लिए था। मैने अपनी तैयारियाँ कर ली, कम से कम सामान और सुविधा की सारी वस्तुएं जुटा ली गई। पाबला जी ने भी गाड़ी की सर्विंसिंग करवा कर टायर इत्यादि बदलवा लिए। अब गाड़ी जाने के लिए टनाटन होकर तैयार थी। 
हम और हमार मालकिन
इस बार की यात्रा में हमारे दर्शनीय स्थल क्या होगें, इसके लिए हमने पूर्व से कोई तय नहीं किया था। रास्ते में जो दिख जाए, उसे देख लेगें। यही योजना बनी थी। हमें अभनपुर से नागपुर, हैदराबाद होते हुए बंगलोर तक जाना था। वहां दो तीन दिन रुक कर वापस लौटना था। इस बीच रास्ते में पुरातात्विक महत्व के स्मारकों की जानकारी लेकर भी उन्हें देखना था। दक्षिण भारत के समुद्री किनारों की यात्रा तो हो गई थी, परन्तु यह बीच वाला भाग हमेशा छूट जाता था। इस यात्रा में वह भी पूर्ण होने वाला था। सड़क यात्रा का रोमांच भी अलग ही होता है, हर पर जान हथेली पे लेकर चलने वाला काम है। कई तरह की शंका कुशंकाएं मन में आती है, यात्रा के रोमांच से मन दृढ़ हो जाता है, कि बस अब चलना चाहिए। आगे पढें……