शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

वीरभद्र स्वामी मंदिर लेपाक्षी का झूलता हुआ स्तंभ : दक्षिण यात्रा 20

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नंतपुर बैंगलोर हाईवे पर लगभग 110 किमी की दूरी पर कोडीकोन्डा नामक गाँव है, यहीं से 17 किमी पश्चिम में लेपाक्षी मंदिर स्थित है। सांझ ढलने लगी थी और हम सपाटे से लेपाक्षी ओर बढ रहे थे। लेपाक्षी जाने का कार्यक्रम पाबला जी के राडार पर पहले से ही फ़िक्स था। उन्हें यहाँ झूलता स्तंभ देखना था। आज बहुत सारी बाधाओं को पार करते हुए हम छ: बजे लेपाक्षी पहुंच ही गए। आधे घंटे से भी कम समय में अंधेरा होने वाला था।
लेपाक्षी में एकाश्म शिला से निर्मित भव्य नंदी
लेपाक्षी गाँव में प्रवेश करते ही दांए तरफ़ विशाल नंदी दिखाई देता है। भगवान रुद्र को अर्पित यह नंदी एकाश्म शिला पर बना हुआ है। इसको देखने से यह पता चलता है कि नंदी निर्माण के लिए शिला कहीं अन्य स्थान से लाई नहीं गई है, यहीं मौजूद शिला खंड को शिल्पकारों ने अपनी मेहनत एवं छेनी हथौड़ी से शिव वाहन नंदी में बदल दिया और यहाँ शिला से नंदी प्रकट हो गए। हमने तत्काल गाड़ी रोकी और इसके चित्र लेने लगे। यहां पर्यटकों की खासी संख्या थी जो नंदी के साथ स्मृति चित्र ले रहे थे।  
वीरभद्र स्वामी मंदिर लेपाक्षी का गोपुरम
एकाश्म शिला से निर्मित यह नंदी प्रतिमा लगभग 15 फ़ुट ऊंची एवं 25 फ़ुट से अधिक लम्बी है। आभुषणों से अलंकृत यह प्रतिमा सजग है, कान खड़े हुए और आँखे शिवादेश की प्रतीक्षा करती प्रतीत होती हैं कि जैसे ही भगवान का आदेश मिले, वह उसे पूर्ण करने में तत्पर हो। यह स्मारक भारतीय पुरात्व सर्वेक्षण के अधीन है। हमने फ़टाफ़ट चित्र लिए, क्योंकि लेपाक्षी मंदिर भी देखना था। फ़ोटो लेने के बाद हम यहां से लगभग 200 मीटर की दूरी पर स्थित लेपाक्षी मंदिर की ओर बढे। ज्यों ज्यों दिन ढल रहा था, व्यग्रता के कारण नाड़ी ठंडी होती जा रही थी। कहीं विलंब से दिन न डूब जाए और आज लगभग 300 किमी की यात्रा के बाद भी हम झूलते स्तंभ देखने से वंचित न रह जाएं।
वीरभद्र स्वामी मंदिर समूह लेपाक्षी में अन्य मंदिर
आखिर हम लेपाक्षी मंदिर पहुंच गए। यह मंदिर कुर्म शिला पर निर्मित है, कुर्म शिला अर्थात कछुए के खोल की तरह चट्टान। यह मंदिर परिसर 25 फ़ुट ऊंचे स्थान पर निर्मित है। यहां हमें सर्वे के चौकीदार नारायण अन्ना मिले। इसके बाद उनके मार्गदर्शन में हमने मंदिर का भ्रमण किया। सबसे पहले हम बैलेंसिग पिलर की और ही दौड़े। मंदिर की संरचना में द्वार मंडप, महामंडप एवं गर्भगृह है। महामंडप में 84 स्तंभ बताए जाते हैं। इनमें से ही एक स्तंभ झूलता है, जो भूमि पर नहीं टिका है। नारायण अन्ना एवं उनके सहयोगी ने इस स्तंभ के नीचे से हमें तौलिया निकाल कर दिखाया। यह वास्तुकला का चमत्कार ही है, जो चार सौ वर्षों से चला आ रहा है और अभी तक भूमि पर नहीं टिका है।
लेपाक्षी का प्रसिद्ध बैलेंसिंग पिलर (झूलता स्तंभ) के नीचे से कपड़ा निकालते हुए नारायण अन्ना एवं साथी
मान्यता है कि कि बैलेंसिग पिलर के नीचे से अपना कपड़ा निकालने पर सुख समृद्धि की प्राप्ति होती है। प्रत्येक प्राचीन मंदिर या स्थान के इतिहास के साथ मिथक, किंवदन्तियां एवं जन श्रुतियां जुड़ी रहती है। सोलहवीं शताब्दी में निर्मित लेपाक्षी मंदिर भी इससे अछूता नहीं है। वैसे तो यह मंदिर भगवान शिव के एक रुप वीरभद्र को समर्पित है। प्राचीन अभिलेख के अनुसार इसका निर्माण 1583 ईस्वीं में विजयनगर साम्राज्य के राजा कृष्ण देव राय के शैव सामंत विरुपन्ना एवं वीरन्ना नामक भाईयों ने करवाया था। जबकि पौराणिक मान्यता के अनुसार इस मंदिर का निर्माण ॠषि अगस्त के द्वारा कराया माना जाता है।
अन्य मंदिरों के भग्नावशेष
मंदिर के गर्भगृह की छत में सुंदर चित्रकारी है। जो समय के साथ धुंधली हो गई है। मंदिरों में दीप एवं धूपदान के कारण हमेशा धुंआ रहता है, इससे भित्ति चित्र खराब हो जाते हैं। इनके संरक्षण की आवश्यकता है। गर्भगृह में कृष्ण कणाश्म पाषाण से निर्मित  स्वामी वीरभद्र की स्थानक चतुर्भुजी प्रतिमा स्थापित है। जिससे स्वर्ण पत्र से मढा गया है। गर्भगृह का द्वारपट पुष्प एवं लता वल्लरियों द्वारा अलंकृत है। इसके सभी स्तंभों में पृथक पृथक अलंकरण है। इसी परिसर में अन्नपूर्णा देवी विराजित हैं। हमारे पास इतना समय नहीं था कि मंदिर के स्थापत्य का विस्तार से निरीक्षण कर सकें। 
मंदिर की छत पर प्राकृति रंगों से निर्मित चित्रकारी
मंदिर परिसर में बहुत सारे बरामदे हैं, जिनका उपयोग उत्सव के अवसर पर किया जाता है। इस इलाके लोग यहाँ विवाह करने आते हैं। लेपाक्षी मंदिर के पाश्व में एकाश्म पत्थर से निर्मित नागलिंग भी है, जिसे भू-भाग पर मानव निर्मित सबसे बड़े नागलिंग की मान्यता मिली हुई है। नागलिंग पर सप्तफ़णी सर्प की छाया बनी हुई है तथा यह लगभग 4 फ़ुट ऊंचे अधिष्ठान पर स्थापित है।  शिवलिंग पर नाग की तीन लपेट दिखाई देती हैं।

मंदिर परिसर में अन्य भी स्थान देखने योग्य हैं। नागलिंग के पास ही सीता झूला लगा हुआ बताया जाता है, जिसमें झूलते हुए कूद जाने के कारण पत्थर पर सीता जी के पंजे का निशान बन गया। कुछ लोग इसे राम पंजा कहते हैं। इसके समीप ही एक बड़े मंदिर का भग्न मंडप दिखाई देता है। जिसके स्तंभ सलामत हैं परन्तु छत नहीं है, हो सकता है कि निर्माण कार्य अधूरा रह गया है। 
रामपद या सीता पंजा
इसके समीप ही प्रस्तर पर बड़ी बड़ी थालियां बनी हुई हैं। नारायण अन्ना ने बताया कि मंदिर का निर्माण करने वाले कारीगर इन थालियों में भोजन करते थे। नारायण अन्ना ने तो मान्यता की बात की परन्तु मुझे ये कलर प्लेट दिखाई दी। मंदिर में चित्रकारी का काम काफ़ी हुआ है, इन प्लेटों का निर्माण चित्रकारों ने रंग सयोजन के लिए किया होगा, ऐसा प्रतीत होता है। किन्तु कभी कभी सत्य पर मान्यताएं भारी पड़ जाती है, इसलिए मैने भी इन्हें कारीगरों के भोजन करने की थाली ही मान लिया। विशाल मंदिर परिसर में भगवान शिव, भगवान विष्‍णु और भगवान वीरभद्र को समर्पित तीन मंदिर हैं। जिनमें मुझे वीरभद्र मंदिर ही सतत पूजित दिखाई दिया।
कलर प्लेट या कारीगरों के भोजन की थाली
इस स्थान का नाम लेपाक्षी होने के पीछे मान्यता है कि इस क्षेत्र में वनवास के दौरान भगवान श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता यहां आए थे। जब सीता का अपहरण कर रावण अपने साथ लंका लेकर जा रहा था, तब पक्षीराज जटायु ने रावण से युद्ध किया, जिसे रावण ने अपनी खड्ग से उसके पंख काट दिए और वह घायल हो गए। जटायू घायल हो कर इसी स्थान पर गिरे थे। जब श्रीराम सीता की तलाश में यहां पहुंचे तो उन्हें इस स्थान पर जटायू मिले, उनसे सीता हरण की कथा सुनने के बाद भगवान राम ने 'ले पाक्षी' कहते हुए जटायु को अपने गले लगा लिया। ले पाक्षी एक तेलुगु शब्द है जिसका मतलब है 'उठो पक्षी'।
मंडप एवं गर्भ में दिखाई देता वीरभद्र स्वामी विग्रह
लेपाक्षी से दर्शन करके हम अपने रास्ते पर बैगलोर की ओर दिए।  दिन ढल गया था, सूर्य देव अस्ताचल की ओर जा चुके थे और हमें भी अपनी अस्थाई मंजिल बैंगलोर पहुंचना था। हम लगभग सात बजे लेपाक्षी से बैंगलोर की ओर निकले। हाईवे पर सफ़र जल्दी कटता है, एक घंटे की ड्राईव के बाद हम बैंगलोर की सीमा में प्रवेश कर गए। बैंगलोर शहर ही चालिस किमी पहले शुरु हो जाता है। हमारा होटल इलेक्ट्रानिक सिटी फ़ेज 2 में था। यहां पहुंचने के लिए एक लम्बे ओव्हर ब्रिज को पार करना पड़ता है। पहले दिन तो मुझे लगा कि हम हवा में उड़े जा रहे है, ओव्हर ब्रिज खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। पता नहीं कहाँ ले जाकर पटकेगा। यह ओव्हर ब्रिज साढे नौ किमी लम्बा है। साढे दस बजे के लगभग हम होटल पहुंच गए। जारी है… आगे पढें।

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